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________________ १०, ३७, कि उसके द्वारा मैं यों समझता है कि वह अन्दर में और बाहर गुरुपरिपाट्या ज्ञातः में रज से अत्यन्त अस्पष्टपने को व्यक्त करता हुआ। सिद्धांत: कोण्ड कुन्तपुरे ॥ "हल्ली नं० २१ ग्राम हेग्गरे में एक मन्दिर के श्री पप्रनंदिमुनिना सोबपि पाषाण पर लेख-स्वस्ति श्री बद्धमानस्य शासने । श्री द्वादशसहस्रपरिमाण। ग्रंथपरिकर्मकर्ता कुन्दकुन्दनामाभूत् चतुरंगुलचारणे।" श्री बर्द्धमान स्वामी के शासन में प्रसिद्ध श्री कुन्दकुन्दाचार्य भूमि से चार अंगुल षट्खडाद्यत्रिखडस्य ॥ ऊपर चलते थे। इस प्रकार द्रव्य व भाव दोनों प्रकार के श्रुतज्ञान प० प्रा० । मो० प्रशस्ति । पू० ३७६ "नामपंचक को प्राप्त करके गुरू परिपाटी से आये हुए सिद्धांत को जानकर श्री पननंदि मुनि ने कोण्डकुण्डपुर ग्राम में विराजितेन चतुरंगुलाकाशगम द्धता नाम पंचक विरा १२००० श्लोक प्रमाण परिकर्मनाम षट्खंडागम के प्रथम जित। श्री कुन्दकु-दाचार्य। ने चतुरंगुल आकाश गमन तीन खंडो की व्याख्या की। इनकी प्रधान रचनायें ऋद्धि द्वारा विदेह क्षेत्र की पुडरीकिणी नगर में स्थित श्री निम्न है। सीमंधर प्रभु की बंबना की थी।" ट्खंडागम के प्रथम तीन खडों पर परिकर्म नाम की भद्रबाहु चरित में राजा चन्द्रगुप्त के सोलह स्वप्नो टीका-समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, अष्टपाहड़, पंचाका फल कहते हुए आचार्य ने कहा है कि "पंचमकाल में स्तिकाय, रयणसार, इत्यादि ८४ पाहुड़, मूलाचार, देश न चारण आदि शक्तियां प्राप्त नही होती अत. यहा ह' भक्ति, कुरलकाव्य । शका होना स्वाभाविक है किन्तु वह ऋद्धि निषेध कथन इन ग्रथों मे रयणसार श्रावक व मुनिधर्म दोनों का सामान्य समझना च.हिये। इसका अभिप्राय यही है कि का प्रतिपादान करता है । मूलाचार मुनि धर्म का वर्णन पंचम काल में ऋद्धि प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है, तथा पचम करता है। अष्टपाहुड के चारित्रपाहड़ में संक्षेप से श्रावक काल के आरम्भ मे नही है आगे अभाव है ऐसा भी अर्थ धर्म वणित है। कुरलकाव्य नीति का अनूठा ग्रन्थ है। समझा जा सकता है। यही बात पं० जिनराज फडकुले ने और परिकर्म टीका में सिद्धांत कथन होगा। दश भक्तियों, भूलाचार की प्र० मे कही है। में सिद्ध, श्रुत, आचार्य आदि की उत्कृष्ट भक्ति का ज्वलंत ये तो हुई इनके मुनि जीवन की विशेषताये, अब आप उदाहरण है। शेष सभी ग्रन्थ मुनियों के सरागचरित्र इनके प्रयों को देखिये और निर्विकल्पक समाधिरूप बीतरागचारित्र के प्रति५. अथ रचनायें-कुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार पादक हैं। आदि ८४ पाहुड़ रचे, जिनमे १२ पाहुड़ ही उपलब्ध है। ६. गुरू-गुरूके विषय मे कुछ मतभेद हैं। फिर भी इस सम्बन्ध में सर्व विद्वान एकमत है। परन्तु इन्होंने ऐसा प्रतीत होता है कि श्री भद्रबाह श्रुतकेवली इनके षटखंडागम ग्रंथ के प्रथम तीन खंडों पर भी १२००० परम्परा गुरू थे। कुमारनंदि आचार्य शिक्षागुरू हो श्लोक प्रमाण "परिकर्म" नाम की टीका लिखी था, ऐसा सकते हैं। किन्तु प्रशस्तियों से यह स्पष्ट है कि इनके दीक्षा पहले। श्रुतावतार में इन्द्रनंदि आचार्य ने स्पष्ट उल्लेख किया है। ॥ है गुरु "श्री जिनचन्द्र आचार्य थे। इस ग्रंय का निर्णय करना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि । ७. जन्म स्थान-इसमे भी मदभेद है-जेनेन्द्र सि० इसके आधार पर ही आगे उनके काल सम्बन्धी निर्णय कोश में कहा हैकरने में सहायता मिलती है। "करनकाय । प्र०२१ . गोविन्दराय शास्त्री" एवं विविधो द्रव्य "दक्षिणोदेशे मलये हेमग्रामे मुनिमहात्म सीत । एलाचार्यों भावपुस्तकगतः समागच्छत् । नाम्नो द्रविड़ गणाधीश्वरो धीमान् ।" यह श्लोक हस्त
SR No.538037
Book TitleAnekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1984
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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