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भगवान श्री कुन्कुन्द देव
ठीक हो गई थी।" इत्यादि ।
२. श्वेताम्बरों के साथ वाद गुर्वावली में स्पष्ट हैपद्मनदी गुरुजनो वलात्कारगणाग्रणीः,
पाषाणघटिता येन वादिता श्री सरस्वती । उज्जयतगिरी तेन गच्छ. सारस्वतोऽभवत् । अतस्तस्मै मुनीन्द्राय नमः श्री पद्मनदिने । " बलात्कार गणाग्रणी श्री पद्मनंदी गुरू हुये जिन्होंने ऊर्जयत गिरि पर पाषाणनिर्मित सरस्वती की मूर्ति की बुलवा दिया था। उससे सारस्वत गच्छ हुआ, अतः उन पद्मनी मुनीन्द्र को नमस्कार हो । पाडवपुराण मे भी कहा है।
कुन्दकुन्दगणी येनोर्ज्जतगिरिमस्तके,
सो अदात् वादिता ब्राह्मी पाषाणघटिका कलौ ॥ जिन्होंने कलिकाल में ऊर्जयत गिरि के मस्तक पर पाषाणनिर्मित ब्राह्मी की मूर्ति को बुलवा लिया | कवि वृन्दावन ने भी कहा है
संघ सहित श्री कुन्दकुन्द, गुरु बबन हेतु गये गिरनार । बाद पर्यो तह सशयमति सो,
साक्षी बदी अविकाकार | "सत्यपंथनिर्ग्रथ दिगम्बर",
कही सुरी तहं प्रकट पुकार । सो गुरुदेव वसौ उर मेरे,
विधन हरण मंगल करतार | अर्थात् श्वेताम्बर सघ ने वहां पर पहले बदना करने का हठ किया तब निर्णय यह हुआ कि जो प्राचीन सत्यपथ के हों वे ही पहले बन्दना करें। तब श्री कुन्दकुन्द देव ने ब्राह्मी की मूर्ति से कहलवा दिया कि सत्यपंथनिर्ग्रथ दिगम्बर" ऐसी प्रसिद्धि है ।
जानते । पंचास्तिकाय टीका के प्रारम्भ में श्री जयसे राचार्य ने भी कहा है प्रसिद्ध कथान्यायेन पूर्वविदेह गत्वावीतरागसर्वशसीमंधर स्वामितीर्थकर परमदेवं दृष्: वा च तन्मुखकमलविनिगं दिव्यवर्णं .... पुरण्यागतः श्री कुन्द कुन्दाचार्यदेवं ।" श्री श्रुसाग सूरि ने भी षटप्र भू की प्रत्येक अध्याय की समाप्ति में "पूर्वविदेह पुडी केणी नगरवंदित सीमंधरापर-नामक स्ववनगजिनेन तच्छ्रुतबोधित भारतवर्ष भव्यजनेन ।" इत्यादि रूप से विदेहगमन की बात स्पष्ट कही है।
४. ऋद्धिप्राप्ति श्री ननिन्द्र योतिषाचार्य ने "तीर्थकर महावीर और उनकी आवार्य परम्परा नामक पुस्तक ४ भाग के अन्त मे बहुत सी प्रशस्तियां दी हैं । उनमे देखिये ।
जर पउमणदिणाहो सीमंधरसामिदिग्वणाणेन ।
ण विवोह तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति । ४३ । यदि श्री पद्मनंदिनाथ सीमंधर स्वामी द्वारा प्राप्त दिव्य ज्ञान से बोध न देते तो श्रमण सच्चे मार्ग को कैसे
श्री पद्मनदीत्यनवद्यनामा |
हयाचार्य शब्दोत्तर कौण्ड कुन्दः । " द्वितीयमासीदभिधानमुद्यच्चरित्र संजातसुचारणद्धिः । "यो विभुर्भुवि न करिह कौण्डकुन्दः, कुन्दप्रभा-प्रणयि कीर्तिविभूषिताशः । भश्चारुचारणकराम्बुजचंचरीकश्चक्रे - श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम् । " श्रीकोण्ड कुन्दादिमुनीश्च राख्यस्सत्वं य--. मादुद्गतचा रणद्धि: । ....... चारित्र संजातसुचारणद्धि. ' । "तद्वशाकाशदिनमणिसीमधर वचनामृतपानसतुष्टचित्त श्री कुन्दकुन्दाचार्यणाम्' ।
इन पांचों प्रशस्तियों में श्री कुन्दकुन्द के चारण सिद्धि का कथन है । तथा जैनेद्रसिद्धांत कोश में-२ शिलालेख नं० ६२.६४, ६६, ६७, २५४, २६१, पृ० २६३-२६६ कुन्दकुन्दाचार्य वायु द्वारा गमन कर सकते थे। उपरोक्त
३. विदेह गमन – देवसेनकृत दर्शन सार ग्रन्थ सभी सभी लेखों से यही घोषित होता है । को प्रमाणिक है। उसमें लिखा है
४ - जैन शिलालेख संग्रह। पृ० १६७-१९८ " रजो मिरस्पष्टतमत्वमन्तर्वाह्मापि संव्यंजयितुं यतीशः । रज पदं भूमितलं विहाय, चचार मन्ये चतु रंगुल सः ।
यतीश्वर श्री कुन्दकुन्ददेव रजः स्थान को और भूमितल को छोड़कर चार अंगुल ऊंचे आकाश में चलते थे।