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________________ भगवान श्री कुन्दकुन्ददेव श्री प्रायिका ज्ञानमती माताजी दिगम्बर जैन पाम्नाय में श्री कुन्दकुन्दचार्य का नाम का साथ साथ कथन किया है। जहां वे व्यवहार को हेय श्री गणधर देव के पश्चात् लिया जाता है । अर्थात् गणधर बताते हैं वहां उसकी कथचित् उपादेयता बताये बिना नहीं देव के समान ही इनका आदर किया जाता है और इन्हें रहते । क्या ही अच्छा हो कि अज्ञानी जन उनके शास्त्रों अत्यन्त प्रामाणिक माना जाता है । यथा को पढकर संकुचित एकांतदृष्टि अपनाने के बजाय व्यापक मंगलं भगवान वीरो, मगलं गोतमो गणी। अनेकांत दृष्टि अपनायें।" मंगलं कुन्दकुन्दायों, जैनधर्मोऽस्तु मगलम् ।। यहां पर उनके नाम, उनका श्वेताम्बरों के साथ यह मंगल श्लोक शास्त्र स्वाध्याय के प्रारम्भ मे तथा वाद, विदेहगमन, ऋद्धि प्राप्ति, उनकी रचनाये, उनके गुरु, दीपावली के वही पूजन व विवाह आदि क मगल प्रसग उनका जन्म स्थान और उनका समय इन आठ विषयों पर भी लिखा जाता है। ऐसे आचार्य के विषय मे जैनेन्द्र- का किंचित् दिग्दर्शन कराया जाता है। सिद्धांत कोश के लेखक लिखते हैं १. नाम-मूलनदि संघ की पट्टावली में पांच नामों आप अत्यन्त बीतरागी तथा अध्यात्मवृत्ति के साधु का उल्लेख हैथे। आप अध्यात्म विषय मे इतने गहरे उतर चुके थे कि आचार्यः कुन्दकुन्दाख्यो वक्रग्रीवो महामतिः । आपके एक-एक शब्द की गहनता को स्पर्श करना आज के एलाचार्यों गृद्धपिच्छः पद्मनदीति तन्नुतिः ॥ तुच्छ बुद्धि व्यक्तियों की शक्ति के बाहर है। आपके कुन्दकुन्द, वक्रग्रीव एलाचार्य गृच्छपिच्छ और पद्मनंदि। अनेको नाम प्रसिद्ध है। तथा आपके जीवन मे कुछ मोक्ष पाहड़ की टीका समाप्ति मे भी ये पांच नाम दिये ऋद्धियों व चमत्कारिक घटनाओं का भी उल्लेख मिलता गये हैं तथा देवसेनाचार्य, जयसेनाचार्य आदि ने भी इन्हे है। अध्यात्मप्रधानी होने पर भी आप सर्व विषयो के पचनदी नाम से कहा है। इनके नामो की सार्थकता के पारगामी थे और इसीलिए आपने सर्व विषयो पर ग्रन्थ विषय मे १० जिनदास फडकुते ने मूलाचार की प्रस्तावना रचे हैं। आज के कुछ विद्वान इनके सम्बन्ध में कल्पना मे कहा है-इनका कुन्दकुन्द यह नाम कौण्डकुण्ड नगर करते हैं कि इन्हें करणानुयोग व गणित आदि विषयों का के निवासी होने से प्रसिद्ध है। इनका दीक्षा नाम पमनदी ज्ञान न था, पर ऐसा मानना उनका भ्रम है क्योकि है। विदेह क्षेत्र में मनुष्यों की ऊंचाई ५०० धनुष और करणानुयोग के मूलभुत व सर्व प्रथम,अन्य षट्खंडागम इनको वहाँ पर साढ़े तीन हाथ होने से इन्हें सम शरण पर आपने एक परिकर्म नाम की टीका लिखी थी, यह बात मे चक्रवर्ती ने अपनी हथेली में रखकर पूछा प्रभो-नराकृति सिद्ध हो चुकी है। यह टीका आज उपलब्ध नहीं है। का यह प्राणी कोन है। भगवान ने कहा भरतक्षेत्र के यह इनके आध्यात्मिक ग्रन्थों को पढ़कर अज्ञानी जन चारण ऋद्धिधारक महातपस्वी पचनदी नामक मुनि है उनके अभिप्राय की गहनता को स्पर्श न करने के कारण इत्यादि । इसलिए उन्होने उनका एलाचार्य नाम रख अपने को एक दम शुख बुद्ध व जीवन्मुक्त मानकर दिया। विदेह क्षेत्र से लौटते समग उनकी पिच्छी गिर स्वच्छन्दाचारी बन जाते हैं, परन्तु वे स्वयं महान चारित्र- जाने से गृपिच्छ लेना पड़ा, अतः "गुपिच्छ" कहाये । बान् थे। भले ही अज्ञानी जगत उन्हें न देख सक, पर और अकाल में स्वाध्याय करन स इनकी ग्रीवा टेढ़ी होई उन्होंने अपने शास्त्रों में सर्वत्र व्यवहारलयब निश्चयनयो तब ये वक्रग्रीव कहलाये । पुन. सुकाल में स्वाध्याय से ग्रीवा
SR No.538037
Book TitleAnekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1984
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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