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________________ १८ वर्ष ३७, कि०२ अनेकान्त क्रियाओं को बदलाव देना पड़ेगा। इसी प्रकार वर्तमान पुस्तक में सिद्धान्त की जो बाते हैं वे दिगम्बरत्व को लोक में दिगम्बर वेष को अव्यवहार्य के परिप्रेक्ष्य मे देखा लोप करने वाली है और उन्हे अभी से 'शास्त्र' के नाम से जाने लगा है । यदि समय के अनुसार दिगम्बरत्व को भी प्रचारित कर कहा जा रहा है-"अनुत्तर-योगी" का तिरस्कृत कर दिया जाय तो साम्बरत्व शेष रहने से दिग- प्रकाशन सुचिन्तित है, दूरदर्शितापूर्ण है, इसमे ऐसा कुछ म्बरत्व का अस्तित्व ही नि शेप हो जायगा। नही है जो आपत्तिजनक हो।' एक कहते हैं-'यह धर्म___आश्चर्य है कि अब दिगम्बर जैनो मे भी ऐसे लोग होम ग्रन्थ नहीं है' तो दूसरे इसे शास्त्र की गहनता से शास्त्र की पैदा हो रहे हैं जो त्याग, इन्द्रिय-सयम आदि की उपेक्षा आसन्दी पर पढ़ा गया बतला कर मुनियो द्वारा देखा हा कर समय की माग और एकता के नाम पर विपरीत भी बतलाते हैं अर्थात्-जिस अनर्थ के कालान्तर मे उत्पन्न प्रचार करने पर तुले हैं। जब हमारे साथी ने एक से पूछा होने की आशका हमने प्रकट की थी वह अनर्थ आज ही कि आपने किसी श्रावक को रात्रि-भोजी प्रचारित कर अप अकुरित होने लगा है। विज्ञापन मे इसे धुरधर जैन विद्वानो अपमानित किया है। तब बोले-आज समय की माग है द्वारा प्रशसित भी बतलाया जा रहा है-चाहे वे विद्वान सिद्धान्त के विषय में इसके पोषण से साफ मुकर रहे हो । और ऐसा चलन चल पड़ा है-प्राय: सभी रात्रि-भाजन करने के अभ्यासी बन रहे है। ऐसे ही एक सज्जन का विज्ञापन में जिन विद्वानो के अभिमत दिए जा रहे है कहना है कि यह अर्थ युग है, इसमें सफद को स्याह और उनमें से एक का स्पष्टीकरण हमे दिनांक ८-५-८४ में स्याह को सफेद किए बिना काम नही चलता। फलतः मिला है लिखते हैं-"अनार-योगी में भले अकिंचन को चक्रवर्ती और चक्रवर्ती को अकिंचन बना कर ज उन्हें उसी समय ठीक किया जा सकता था, जब दो मो समय ठीक किया जा जैसे भी हो कार्य साधना चाहिए-'आपत्काले मर्यादा सास्कृतिक विद्वानों के साथ बैठकर पूरे प्रन्य का एक बार नास्ति।' उक्त प्रसग सुनकर हमने सिर धुना-'अर्थी दोषं वाचन किया होता। वस्तुतः यह उसके प्रकाशन की कमी न पश्यति ।' है। अब भी परिमार्जन (शुद्धि-पत्र) लगा देना उचित 'अनुत्तर-योगी तीर्थकर महावीर पुस्तक' ऐसे ही लागो होगा। मैंने अपना मत कई वर्ष पूर्व लिखा था--आपातत । की घसपैठ का परिणाम है। इसमें समय की माग की गहराई से नहीं था।" के बहाने दो सप्रदायो मे एकता कराने के नाम पर कल्पनाओ की ललित उड़ानो में दिगम्बर सिद्धान्तो को दूषित ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ लोग अज्ञानता वश धर्म किया गया है। उक्त पुस्तक की विसगतियो को हमने में अप-टू-डट नवीनता लाने के बहाने या किन्ही अन्य पाठको के समक्ष भली भाँति रखा था और प्रबुद्ध वर्ग ने (नमालम) कारणो से दिगम्बर-मुनि-प्रतिष्ठा और पूर्वा हमे समर्थन भी दिया। फिर भी कई पत्रकार विज्ञापन चार्यों की धरोहर जिनवाणी के क्षीण करने मे कारण बन चार्ज के लोभ मे इस हलाहल के प्रचार में सहयोगी हो रहे है । और श्री पाटौदी जी की सरलता का भी दुरुपयोग रहे है और इसका प्रचार ऐसे किया जा रहा है-'उपन्यास कर रहे हैं। में शास्त्र और शास्त्र मे उपन्यास ।' यह भी कहा जा गत दिनो हमने एक लेख ऐसा भी पड़ा जिसमें बाहरहा है कि इसे दिगम्बर मुनियो ने देखा है इसे उनका बली-कुम्भोज मे धर्म-रक्षार्थ किए गए मुनि श्री के अनशन समर्थन प्राप्त है। जब कि आज तक ऐसे कोई एक दिग- को राजनीति-प्रेरित आदि कुरूपो मे प्रचारित किया गया। म्बर मुनि भी दिगम्बर वेष और चर्या को साम्बरत्व रूप मे जैसे-"राजनैतिक भूख हड़ताल ? समाज के वरिष्ठ लोगों परिवर्तित करने का साहस न जुटा सके है-सभी जहाँ के को बीच में डालकर प्रधानमत्री से अनशन पूर्ति करवाने तहां हैं। क्या प्रशंसक चाहते हैं कि इस पुस्तक के अनुसार का दिखावा। अपने आप को विज्ञापित करने का सस्ता महावीर के परिप्रेक्ष्य में दि० मुनि नवधाभक्ति को तिर- तरीका? राजनैतिक लोगो की खुशामद !' आदि । इसी में सकत कर घर-घर याचना करते फिरें? आदि । 'एलाचार्य' पद का उपहास भी किया गया था और इस
SR No.538037
Book TitleAnekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1984
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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