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विचारणीय प्रसंग
विष-मिश्रित लड्डू (अनुतर-योगी तीर्थकर महावीर-कृति)
पपचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली
-"अनुत्तर-योगी में भूले रही हैं उन्हें उसी समय ठीक किया जा सकता था, जब दो सांस्कृतिक विद्वानों के साथ बैठकर पूरे अन्य का एक बार बाचन किया होता। वस्तुत: यह उसके प्रकाशन को कमी है। अब भी परिमार्जन (शुद्धि-पत्र) लगा देना उचित होगा। मैंने अपना मत कई वर्ष पूर्व लिखा था-आपाततः । इतनी गहराई से नहीं देखा था।" (एक सम्मति)
जिन धर्म उन पवित्र उच्च आत्माओं की परम्परा से फलित कोई नवीन (एक) अन्य रूप ही होता। प्रवाहित धर्म है, जिन्हें तीर्थंकर नाम से जाना जाता है। इतिहास इसका माक्षी है कि अपनी कमजोरियों के जैसे सभी तीर्थकर क्षत्रिय कुल में हुए वैसे ही उनके द्वारा कारण जब कभी भी किसी ने धर्म के रूप को समय के प्रवाहित धर्म भी क्षत्रिय गुणधारकों द्वारा ही पालन किए प्रवाह के अनुरूप बदलना चाहा और बदला तभी एक नए जाने योग्य रहा। जो क्षत्रिय अर्थात् धर्म पर दृढ़ रहने पंय का जन्म हो गया। दिगम्बर मान्यतानुसार-जो सबसे वाला हो वही इस धर्म के धारण का अधिकारी हो सकता पहिले एक-दिगम्बर थे १२ वर्ष के दुष्काल के प्रभाव से है-चाहे वह किसी भी वर्ण का क्यो न हो ? समय या (कुछ के समयानुकूल बदल जाने के कारण) वे दो बन गए परिस्थितियों से समझौता करने वाला कोई भी व्यक्ति इस और धीरे धीरे अनेको भेदों में भी फूट पड़े। जैसेधर्म का अधिकारी नही हो सकता। क्योकि समझौते मे दिगम्बरों में तेरहपथ, बोसपथ तारनपंथ जैसे पंथ और श्वेकुछ लिया, कुछ दिया जाता है, कुछ झुकना और कुछ ताम्बरो मे मूर्तिपूजक, स्थानकवासी तेरह और बीस पंथ झुकाना होता है और इससे मूल में बदलाव आता है। आदि । जबकि धर्म, सिवान्त और वस्तु के स्वभाव में कभी भी इन प्रसगों से हमें यही सीखना चाहिए कि समय के बदलाव नही आता। धर्म धारण मे किसी अन्य विभाव अनमार से की अपेक्षा भी नही की जाती। वहां तो "जो घर फर्क भेटों में बांट देती है और . मापनो, पल हमारे सा" वाली नीति होती है। इसी वर्तन लाने की प्रक्रिया अभेद को बल देती है। पर, आज मीति पर चलने के कारण आज तक धर्म का पुरातन
लोगों का एक नारा बन गया है कि 'धर्म को समय के अनादि वियम्बर स्वरूप स्थिर रह सका है। आज वे ही
अनुसार बदल लेना चाहिए।' यह नारा धर्म के स्वरूप व्रत हैं, वे ही दशधर्म और वे ही गुप्ति, समितियां आदि
का घातक ही है। उदाहरणार्थ-अण्डा आमिष है और भावक के बारह ब्रत और ग्यारह प्रतिमाएं भी वे ही आज के समय में इसे बेजीटेरियन में शुमार करने का ..जो पहिले रहे। दिगम्बर-मुद्रा, चर्या और मोक्ष के प्रचलन-सा चल पड़ा है। यदि समय के अनुसार इसे बेजीसपाय भी ही है, यदि कभी इनके स्वरूपों का दूसरे टेरियन मान लिया जाय तो प्रसग मे मास त्याग नामक स्वरूपों से समझौता हुआ होता तो दिगम्बर, श्वेताम्बर व्रत में अण्डा प्राह्म हो जाएगा और खान-पान के जैन से दो भेद भी न हुए होते अपितु धर्म का समझौते से नियमों में अव्यवस्था हो जायगी। फलतः धावक की
१. पूण्य १.५ बार्यिकारल श्री ज्ञानमती माता जी।