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२० वर्ष ३७, ०२
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उक्त भूलें ऐसे लोगों से हुई प्रतीत होती हैं जो भावावेश वश सुधार में अपना दृष्टिकोण लादने या अन्य ( न मालूम ) किन्हीं सिद्धियों में मुनिश्री की आड़ लेकर, चाहते हुए भी उन्हें बदनाम करने के साधन जुटा रहे हैं। श्री ऐलाचार्यजी या अन्य कोई दि० मुनि ऐसा सिद्धांत घातक आदेश न दे सकेंगे। और न ही अनुत्तरयोगी को शास्त्र बतलायेंगे जैसा कि दुःसाहस किया जा रहा है। हम समझते हैं कि मुनि श्री ने न तो पूरी मूल पाण्डुलिपि पढ़ी है, न प्रूफ पढ़ा है और ना ही उन्होंने प्रेस को छापने का फायनल आदेश दिया होगा ।
दिगम्बरत्व के प्रति समर्पित रहने के मुनिश्री के पर्याप्त प्रसंग है । पाठकों ने इस लेख में भी कुछ प्रसग पढ़ें । हम बता दें कि मुनि श्री विश्व धर्म के प्रेरणा स्रोत हैं, उनके द्वारा धर्म का प्रचार हो रहा है। वे सद्भावनावश अनेक रचनाओं के प्रेरक रहे हैं उनका उपन्यास लिखाने में प्रयोजन यही रहा होगा कि भ० महावीर एव दिगम्बर सिद्धान्तों से लोग परिचित हो। पर, उनकी सदभावनाओं
अनुसर-योगी में कुछ विसंगतियां
बेणियों पर नारकी और
१. "सर्वार्थसिद्धि जैसी आत्मोन्नति की ऊ आरूढ़ होकर भी कभी-कभी आत्माएं तिर्यंच योनियों तक में आ पड़ती है ।"
(भाग २ पृ० ५१) २. "उस हवेली के द्वार पर कोई द्वारापेक्षण करता नहीं खड़ा है। आतिथ्य भाव से शून्य है वह भवन । ठीक उसी के सम्मुख बड़े होकर श्रमण ने पाणिपात्र पसार दिया। गवाक्ष पर बैठे नवीन श्रेष्ठ ने लक्षमी के मद से उद्दण्ड ग्रीवा उठाकर अपनी दासी को आदेश दिया :
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का दुरुपयोग किया गया और अब उनकी दुहाई भी देने का दुःसाहस किया जाने लगा है कि वे कहें तो संशोधन कर सकते है-आदि। यह हमें इष्ट नहीं है। हम चाहते हैं-पू० मुनिश्री को इस प्रसंग में लाने की कोशिश न की जाय ग्रंथ के सम्बन्ध में मुनि श्री की मोहर होने का भ्रम ही आज तक प्रतिष्ठित व नेतागण को मौन के लिए प्रेरित कर रहा है। कोई तो वायदा करके भी इस पुस्तक रूपी विष के विरोध मे मोटी सूचनाएँ तक छापने से भी भयभीत है। कुछ का तो प्रस्ताव है कि पुस्तक के विरोध करने में हम पर्याप्त धन देने को तैयार है पर हमारा नाम न लिया जाय; आदि। ये सब भय भावी पतन के ही आसार हैं जो हमे मजूर नही । अतः स्पष्टीकरण होना चाहिए।
हम विश्वास दिला दें कि इम पुस्तक संयोजकों के अपने हैं 'वीर सेवा मन्दिर' और 'अनेकान्त दि० सिद्धा न्तों और दि० गुरुओ की मर्यादा की सुरक्षा हर कीमत पर चाहते हैं- इसे अन्यथा न लें। और बाहुबली कुम्भोज प्रसग से शिक्षा लें ।
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किंचना, इस मिथुक को भिक्षा देकर तुरन्त विवा कर दें। दासी भीतर जाकर काष्ठ के भाजन मे कुलमाष धान्य ले आई और श्रमण ( महावीर ) के फैले करपात्र में उसे अवज्ञा के भाव से डाल दिया । "
(भाग २ पृष्ठ १५२) ३. "ना कुछ समय में ही ग्वाला कही से काँस की एक सलाई तोड़ लाया। उसके दो टुकड़े किये। फिर
निपट निर्दय भाव से उसने श्रमण के दोनों कानों मे वे साइयां बेहिचक खोंस दीं। तदुपरान्त पत्थर उठाकर उन्हें दोनों ओर से ठोंकने लगा ।"
४.
(भाग २ पृ० २१८ ) " चम्पा पहुंच कर अपने पांचों शिष्यों (साल, महासाल, गागली, पिटर और स्त्री यशोमती) सहित श्री गौतम समवशरण में यों बाते दिखाई पड़े जैसे वे पांच सूर्यों के बीच खिले एक सहस्रार कमल की तरह चल रहे हैं। पांचो शिष्यों ने गुरू को प्रणाम कर, देश चाहा । गौतम उन्हें श्री मण्डप में प्रभु के समक्ष लिवा ले गये फिर आवेश दिया कि अयुष्यमान मुमुक्षुओ, श्री भगवान का वन्दन करो। वे पांचों गुरु आशा पालन को उद्यत हुए कि हठात् शास्ता महावीर की वर्जना सुनाई पड़ी केवली की आमातना न करो, गौतम । ये पाचों केवलज्ञानी महंत हो गए हैं। अर्हन्त, अर्हन्त का वन्धन नहीं करते ।" (भाग ४० २०४-२०५)