________________
पं० शिरोमणिदास की "धर्मसार सतसई "
प० शिरोमणिदास (सिरोमनदास गुटका में लिखित है) का जन्म लगभग स० १७०० के लगभग होना चाहिए । क्योंकि उन्होने अपनी प्रस्तुत कृति की रचना सं० १७१२* में सहरोनि नगर के शातिनाथ मंदिर मे की थी। यहां महाराज देवीसिंह का राज्य था और भारतवर्ष पर वादशाह औरंगजेब राज्य कर रहा था। पं० शिरोमणिदास भ० सकल कीर्ति के शिष्यों मे से थे । अतः उन्होंने अपनी कृति की प्रत्येक सन्धि समाप्ति पर अपने गुरु सकल कीर्ति का बड़े आदर और भक्ति भाव से उल्लेख किया है। ग्रंथ के अन्त में लम्बी प्रशस्ति देते हुए पण्डित जी ने जो कुछ लिखा है वह निम्न प्रकार हैजसकोरति भट्टारक संत, धर्म उपदेश दियो गुनवंत । सूरज विन दीपक जैसे, गणधर विनु भुवि जानी तैसे ॥८० ललितकीति भविजन सुखदाई, जिनवर नामजपे चितु लाई । धर्मकीति भए धर्मं निधानी, पद्मकीर्ति पुनि कहै बखानि ॥८१ faai ananta aft राजे, जप तप सजम सील विराजे । ललितकीर्ति मुनि पूरब कहै, तिन्हें के ब्रह्मसुमति पुनि भए । तप आचार धर्म सुभ रीति, जिनवर सौ राखी बहु प्रीति । तिनके शिष्य भए परवीन मिथ्यामत तिन कीन्हों दीन || पंडित कहै जु गंगादास, व्रत संजम शील निवास । पर उपकार हेतु बहु कियो, ज्ञानदान पुनि बहु तिनि दियो । तिनके शिष्य सिरोमनि जानि, धर्मसार तिन कहो बखानि ॥ कर्मक्षय कारन मति भई, तब यह धर्म भेद विधि ठई ॥ जो यह पढे सुनं चित लाइ, समकित प्रकट ताको आइ । व्रत आचार जाने सुभ रूप, पुनि जाने संसार स्वरूप ॥
"
ले० कुन्दन लाल प्रेम त्रिसिपल
जिन महिमा जान सुखदाइ, पुनि सो होइ मुकतिपति राइ । अक्षर मात हीन तुक होइ, फेरि सुधारे सज्जन लोइ ८७ जैसी विधि मैं ग्रंथनि जानि, तंसी पुति में कही बखानि । जे नर विषयी धर्म न जाने धर्म सार विधि ते नहीं माने || जे नर धर्म सील मनु लावे धर्मसार सुनिके सुख पावै । सिहरौनि नगर उत्तम सुभथान शांतिनाथ जिन सोहे धाम || प्रतिभा अनेक जिनवर की भासे दरसन देखत पाप नसावे । श्रावक वसे धर्म की रीति अपने मारग चले पुनीत || कुटुमसहित तिनि हेतु जु दियो, तहां ग्रंथ यह पूरन कियो । छत्रपति सोहे सुलतान, औरंगजेब पाति साहि नाम ॥ ६१ ॥ देवीसिंह नृपति बलि चंड, बैरिन सों लीन्हों बहु दण्ड । प्रजा पुत्र सम पालै धीर, राजनि में सोहे वर वीर ॥८२॥ तिनके राज यह ग्रंथ बनायो, कहे सिरोमन बहु सुख पायो । संवतु सत्रह से बत्तीस, बैसाख मास उज्ज्वल पुनि दीस ॥ तृतीया अक्षय सनो समेत, भवि जन को मगल सुख देत । सात से सठि सब जानि, दोहरा चौपाइ कहे बवानि ॥ जिन वर भक्ति जु हेतु अति, सकलकीर्ति मुनि थान । पंडित सिरोमनिदास को, भव भव होहु निदान ॥
इतिश्री धर्मसार ग्रन्ये भट्टारक सकलकीर्ति उपदेशात् पं० सिरोमनि विरचिते श्री तीर्थङ्करमोक्ष गमन श्रेणिक प्रश्न करण वर्णनो नाम सप्तमो संधि समाप्ता । इति धर्मसार ग्रंथ सम्पूर्ण ।
लिपि प्रशस्ति-संवत् १८६९ वर्षे कार्तिक सुदी द्वितीयायां शुक्रवासरे शुभ भवतु मंगल । लिखितं करहरा वारे सिंघई परम सुखजी को बेटा नौनितराइ पोथी आपने वास्ते उतारी ।
अपनी प्रमुख कृति "तीबंकर महावीर और उनकी आचार्य
* पता नहीं स्व० पं० नेमीचन्द्र जी ज्योतिषाचार्य ने परम्परा" नामक ग्रंथ में भाग ४ पृष्ठ ३०३ पर कृति का रचना काल सं० १६६२ किस आधार पर लिखा है जबकि अन्य उपलब्ध सभी कृतियों में रचना काल सम्वत् १७३२ ही है। आचार्य जी की यह उद्भावना अन्वेपणीय है ।