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________________ मात दृष्टि और मनेकान्त मततका अविनाभावी है-द्वैत के बिना अद्वैत अनिर्वचनीय अविद्या के द्वारा स्व पर आदि के भेर की नहीं हो सकता है, जैसे कि हेतु के बिना अहेतु नहीं होता प्रतीति होती है। यथार्थ में तो अद्वैत तत्व ब्रह्म का ही है कहीं भी प्रतिषेध्य के बिना संशी का निषेध नहीं देखा सद्भाव पाया जाता है। गया है।" वेदान्तवादियों के उक्त कथन मे कुछ भी सार नहीं जो लोग केवल अद्वैत का सदभाव मानते हैं उनको है। सर्वथा अनिर्वचनीय तथा प्रभाणगोचर अविद्या को द्वैत का सद्भाव मानना भी आवश्यक है। क्योंकि अद्वैत मान कर उसके द्वारा द्वैत की कल्पना करना उचित द्वत का अविनाभावी है। अद्वैत शब्द भी द्वैत शब्दपूर्वक प्रतीत नहीं होता है। ऐसी बात नही है कि प्रमाण अविद्या बना है। 'न द्वतं इति अद्वैत' जो द्वैत नही है वह अद्वैत है। को विषय न कर सकता हो । विद्या की तरह अविद्या भी जब तक यह ज्ञात न हो कि दंत क्या है तब तक अद्वैत का वस्तु है तथा प्रमाण का विषय है। अविद्या प्रमाणगोचर ज्ञान होना असम्भव है अतः अद्वैत को जानने के पहले द्वैत और अनिर्वचनीय नही हो सकती है। अतः अविद्या के का ज्ञान होना आवश्यक है। द्वैत के बिना अद्वैत हो ही द्वारा द्वैत की कल्पना मानना ठीक नही है उनके द्वारा तो नही सकता है जेसे अहेतु के बिना हेतु नही होता है । साध्य वैत की सिद्धि ही होती है। का जो साधक होता है वह हेतु कहलाता है किसी साध्य मे इस प्रकार अद्वतकान्त पक्ष की सिद्धि किसी प्रमाण एक पदार्थ हेतु होता है और दूसरा अहेतु । वह्नि के सिद्ध से नही होती है प्रत्युत युक्ति से यही सिद्ध होता है कि करने में धूम हेतु होता है और जल को सिद्ध करने में धूम अद्वैत द्वेत का अविनाभावी है और बिना देत का सद्भाव अहेतु होता है । कहने का तात्पर्य केवल इतना है कि अहेतु किमी भी प्रकार नही हो सकता है।" का सद्भाव हेतु का अविनाभावी है। बिना हेतु के अहेतु कार्य की भ्रान्ति से कारण की प्रान्ति का प्रसंगनही हो सकता । अत: अद्वैत द्वैत का उसी प्रकार अविना आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है कि कार्य के प्रान्त होने से भावी है जिस प्रकार की अहेतु हेतु का अविनाभावी है। कारण भी भ्रान्त होंगे। क्योकि कार्य के द्वारा कारण का जो लोग द्वैत का निषेध करते हैं उन्हें यह ध्यान शान किया जाता है तथा कार्य और कारण दोनो के अभाव रखना चाहिए कि किसी सज्ञी (नाम वाले) का निषेध में उनमें रहने वाले गुण जाति आदि का भी अभाव हो निषेध्य वस्तु के अभाव मे सम्भव नहीं है। गगन कुसुम या जायेगा। खरविषाण का जो निषेध किया जाता है वह भी कुसुम ऐसा सम्भव नहीं है कि कार्य मिथ्या हो और कारण और विषाण का सद्भाव न होता तो गगन कुसुम और सत्य हो। यदि कार्य मिथ्या है तो कारण भी मिथ्या अवश्य खरविषाण का निषेध नही किया जा सकता था। इसलिए होगा। जो लोग ऐसा मानते हैं तो उनके मत में पृथ्वी जो लोग द्वैत का निषेध करते हैं उन्हें द्वैत का सद्भाव आदि मूलों के कारण परमाणु भी मिथ्या ही होंगे। मानना ही पड़ेगा। परमाणु प्रत्यक्ष सिद्ध तो है नही। किन्तु कार्य के द्वारा पुरुषाद्वैतवादी कहते हैं कि परप्रसिद्ध द्वैत का प्रतिषेध कारण का अनुमान करके परमाणुओं की सिद्धि की जाती करके अदंत की सिद्धि करने में कोई दूषण नही है। स्व है। 'परमाणु रहित घटाद्यन्नथानुपपत्तेः।' परमाणु है और पर के विभाग से भी द्वैत की सिद्धि का प्रसग नही अन्यथा घटादि की उत्पत्ति नहीं हो सकती। इस अनुमान आ सकता है क्योंकि स्व और पर की कल्पना अविद्याकृत से परमाणुओं की सिद्धि की जाती है। प्रत्यक्ष के द्वारा तो है। अविद्या भी कोई बास्तविक पदार्थ नही है किन्तु स्थूलाकार स्कन्ध की ही प्रतीति होती है और परमाणुओं अवस्तुभूत है उसमें किसी प्रमाण का व्यापार नहीं होता वह को प्रतीति कभी भी नही होती है। परमाणुओं का ज्ञान प्रमाणगोचर है। अविद्यावान मनुष्य भी अविद्या का दो प्रकार से ही सम्भव है-प्रत्यक्ष द्वारा या अनुमान निरूपण नही कर सकता है जैसे कि जन्म से तैमिरिक द्वारा। प्रत्यक्ष में तो उनका ज्ञान होता नही है कार्य के मनुष्य चन्द्रद्वय की प्रान्ति को नही बतला सकता है । इस भ्रान्त होने से कार्य के द्वारा उनका अनुमान भी नहीं
SR No.538037
Book TitleAnekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1984
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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