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२६, वर्ष ३७, कि
अनेकान केवल प्राणपीड़न से हिंसा कदाचित् भी नही होती । रागा- अनुमोदना तथा क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौचादि पूर्ण धर्मों से दिक भावों के वश में प्रवृत्ति रूप--अयत्नाचाररूप प्रमाद संपुष्ट होना अवश्यम्भावी है। वर्तमान में जिसे अहिंसा अवस्था में जीव मरो अथवा न मरो, हिंसा अवश्य है। मानने का प्रचलन चल पडा है उसमें यद्यपि दया-करुणा प्रमाद के योग में निरन्तर प्राण घात का सद्भाव है, आदि रूपों की प्रेरणा तो परिलक्षित होती है पर अन्य आत्मा कषायभावो सहित होने से पहिले अपने ही द्वारा धर्मों की संपुष्टि मे खामियां रह जाती हैं, फिर चाहे वह आपकों घातता है।' आदि ।
श्रावक सम्बन्धी अहिंसा हो या मुनि सम्बन्धी हो। इसमे ___ जैसे हिंसा में प्रमाद मूल कारण है वैसे अन्य सभी मुख्य कारण परिग्रह (प्रमाद) का सद्भाव ही है। कहा पापों में भी प्रमाद ही मूल है
भी है'प्रमत्तयोगादिति हेतु निर्देशः।-त. रा. वा. ७.१३१५
अहिंसा भूतानां जगति विदित ब्रह्म परम, 'तन्मूलासर्वदोषानुषला..."ममेदमिति, हि सति
न सा तत्राऽरम्भोऽस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ । संकल्पे रक्षणादय संजायन्ते । तत्र च हिसाऽवश्य भाविनी
ततस्तत्सिद्धयर्थे परम-करुणो ग्रन्थमुभय, तदर्थमन्तं जल्पति, चौर्य चाचरति, मैथुन च कर्मणि प्रति
भवानेवाऽत्याक्षीन्न च विकृत-वेषौपधि-रतः ।।' पतते।'-वही ७।१७६
स्वयंभूस्तोत्र २११४ सर्व दोष परिग्रहमूलक है। यह मेरा है, ऐसे सकल्प
प्राणियो की अहिंसा जगत मे परमब्रह्म-अत्युच्चमें रक्षण आदि होते हैं उनमे हिंसा अवश्य होती है, उसी कोटि की आत्मचर्या जानी गई है और वह अहिंसा उस के लिए प्राणी झूठ बोलता है, चोरी करता है और मैथुन- आश्रम विधि मे नही बनती जिस आश्रम विधि में अणुकर्म में प्रवृत्त होता है। फलत:
मात्र-थोड़ा मा भी आरम्भ होता है । अतः उस अहिंसायदि ममत्व आदि रूप अंतरग व धन-धान्यादि बहि- परमब्रह्म की सिद्धि के लिए परम करुणाभाव से सपन्न रंग दोनों परिग्रह न हों तो हिंसा आदि का :श्न ही नही आपने ही बाह्याभ्यन्तररूप से उभय प्रकार के परिग्रह को उठता। क्योकि कारण के बिना कार्य नही होता-'जेण छोड़ा है-बाह्य में वस्त्रालकारादिक उपाधियों का और विणा जंण होदि चेव त तस्स कारणम।'
अतरंग में रागादि भावो का त्याग किया है.......|| -धव. १४१५,६,६३।१०।२ सूक्ष्म हिंसा भी पर-वस्तु के कारण से (ही) होती है, परिग्रह को सर्वपापों की जन्मभूमि भी वहा है- अतः हिंसा में कारण परिग्रह का त्याग करना चाहिए। "क्रोधादिकषायाणामातंरौद्रयोहिसादिपचपापाना भयस्य च कहा भी हैजन्मभूमिः परिग्रहः।-चा. सा. पृ. १६
'सूक्ष्मापि न खलु हिंसा परवस्तुनिबंधना भवति पुंसः । 'मिथ्याज्ञानाम्वितान्मोहान्ममाहकारसभत्र. । हिंसाऽऽयतननिवृत्ति. परिणामविशुद्धये तदपि कार्या ।' इमकाभ्यां तु जीवस्य रागो द्वेषस्तु जायते ॥
पुरु० अमृतचन्द्राचार्य ४६ ताभ्यां पुनः कषायाः स्युनौकषायाश्च तन्मयाः।
कहा जा सकता है कि यदि जेन-संस्कृति में 'अहिंसा तेभ्यो योगः प्रवर्तन्ते ततः प्राणिबधादयः ।।' परमोधर्मः' की प्रधानता नही तो आचार्य ने 'हिंसाऽनृत
-तत्त्वानु० १६, १७ स्तेयाऽब्रह्मपरिग्रहेम्यो विरतिब्रतम्' इस सूत्र में हिंसा के 'मिथ्याज्ञानयुक्त मीह से ममकार और अहंकार होते वर्जन का प्रथम रूप में उपदेश क्यो दिया ? परन्तु स्मरण हैं और ममकार व अहंकार से जीव के राग-द्वेष होते है रखना चाहिए कि जैसे नीची सीढ़ियों से चढ़कर ऊपर उनसे कषाय-नोकषाय होते है उनसे योग प्रवर्तित होते हैं, पहुंचा जा सकता है वैसे ही अणुव्रतों का अभ्यास कर, पूर्ण उनसे प्राणि-वध आदि होते हैं।
अपरिग्रही दशा को प्राप्त करने के लिए अहिंसा आदि व्यवहार में भी अहिंसा धर्म को दया, करुणा, अनु- आचारों (महावतों) की श्रेणियों से गुजरना होता है । कम्पादि द्वारा प्रेरित और मन-वचन-काय, कुत-कारित- महाव्रत आदि की श्रेणियों में अपरिग्रह की श्रेणी अन्तिम