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मूल-न-संस्कृति अपरिह
और उत्कृष्ट है अहिंसादि पहिली श्रेणियां अन्तिम सीढ़ी अपरिग्रह को प्रमुखता दिए रहकर उसकी पुष्टि में प्रयत्न आने पर छूट जाती है। जो जीव अहिंसादि आचारों के शील रहते तो निःसन्देह जैन का इतना ह्रास न होता। पूर्ण अभ्यासी होते हैं उन्हें पूर्व के चार महाव्रतों की पूर्णता कई मनीषी ऐसा विचार करते हैं कि आत्म-परिणामों के बाद भी परिग्रह से मुक्ति के लिए लम्बा गैर कठिन के हिंसक होने से असत्य, चौर्य, मैथुन आदि सभी हिंसा संघर्ष करना पड़ता है, तब कही बारहवे गुण स्थान मे रूप ही है और परिग्रह भी हिंसा में कारण होने से उन्हें वीतरागता की प्राप्ति होती है जब कि अहिंसा आदि हिंसा ही है अथवा प्रमाद भी हिंसा में कारण होने महाव्रतों की पूर्णता इम गुणस्थान से पहिले सातवें से हिंसा ही है। ऐसे मनीषियों से हमारा (अप्रमत्त) गुणस्थान में अथवा 'अप्रादुर्भाव खलु रागादीना निवेदन है कि - 'सूक्ष्म जिनोदित तत्वं'-जिनेन्द्र का भवत्याहिंसेति' के पक्ष में दशवें गुणस्थान में ही हो लेती बतलाया तत्व बडा सूक्ष्म है-और उसे सूक्ष्मता से है। इससे मालूम होता है कि परिग्रह की जड़ें बड़ी मज- ही देखना चाहिए। मूलरूप में कारण और कार्य का बूत हैं और जो महाव्रतो की पूर्णता में भी नही कटती व्यवहार जैसे पृथक है वैसे ही सत्ता की दृष्टि से उनका बाद को भी बहुत कुछ करना पडता हैं। यही कारण है अस्तित्व भी पृथक है और इसी कारण उन्हें कार्य और कि-'अपरिग्रहत्व' को बाद में गिनाया, जिसकी पूर्णता कारण जैसी दो श्रेणियों में रखा गया है। प्रस्तुत प्रसंग में का सकल्प दीक्षा के समय किया गया था।
जो प्रमाद को हिंसा कहा गया है, वह कारण मे कार्य का ऐसा मालूम होता है कि गत समय मे भ. महावीर उपचार मात्र है। ऐसा प्रयोजन यह इंगित करने के लिए के पश्चात् जैनियों ने शिथिलाचार प्रवृत्तिवश कष्टसाध्य ही किया गया है कि हिंसादि में प्रमाद की सर्वथा मुख्यतः संयम से बचने के लिए 'अपरिग्रह' जैसी कठोर-मूल- है। यह व्यवहार 'अन्न व प्राणः' की श्रेणी का ही है, जहाँ मस्कृति को भुलाकर अहिंसा आदि आचारो को मूल जीवन में अन्न की प्रमुखता दर्शाई गई है 'कारणे कार्योप मस्कृति से बद्ध कर दिया। यही कारण है कि जहा प्रथमा- चारोऽन्न-प्राणवत्'-त.रा. ६१२०१९ । अन्यथा यदि प्रमाद नुयोग के शास्त्रो मे पूर्वकाल मे परिग्रह-त्यागी लाख-लाख और हिंमा मे भेद न होता तो आचार्य प्रमाद की गणना और करोड दि० मुनियो के बिहार और मोक्ष होने के हिंसा से पृथक-परिग्रह में न कराते । मिश्यात्व, कषाय, उल्लेख मिलते है, वहां भगवान महावीर के बाद उस नोकषाय विकया, इन्द्रिय, निद्रा आदि सभी परिग्रह के मंख्या मे ह्राम होता चला गया। आज स्थिति है कि परि अन्तर्गत है जिनसे आत्म-अहित रूप हिंसादि पापो की ग्रह त्यागी दि० मुनियों की संख्या अगुलियो पर गिनने उत्पत्ति होती है। परिग्रह नाम मूर्जा' का है और बाह्म लायक ही शेष रह गई है। कारण कि आज लोग मूल नथा आभ्यन्तर उपाधियों के सरक्षण, अर्जन संस्कार आदि जैन सस्कृति-अपरिग्रहवाद की उपेक्षा कर परिग्रह जन्य व्यापार को मूर्छा कहा है-' . . उपाधीनां संस्काराअहिंसादि जैसे आचार को जैन-संस्कृति, मान, दया-करुणा दिलक्षणव्यापृतिमूर्छा इति ।-त. रा. वा. ११ दान आदि द्वारा उन्हें पोषण देने के अभ्यासी बनने की फलतः सभी पाप मुजिन्य होते हैं। चेष्टा करने लगे है । इसका फल आज यहा तक पहुच अत. जैन संस्कृति मे प्रथमतःमूर्छा-परिग्रह के त्याग गया है कि वे न्याय-अन्याय-जिस किसी भी भाति हो, को प्रमुखता दी गई है। परिग्रह की बढ़वारी में जुट पडे है और उनका ध्यान मूलत. तो परिग्रह की शृखला बड़ी विस्तृत है और लाखो कमाकर हजारो मात्र दान देने की ओर केन्द्रिन प्रकारान्तर से हिंसादि सभी पाप परिग्रह के अन्तर्भूत ही होता जा रहा है। इससे उनका विषयाभिलाषा पूरक हैं फलतः परिग्रह से छुटकारा पाने में ही श्रेय है। सभी परिग्रह भी बढ़ता है और उन्हे इन्द्रिय-दमन के कष्ट-सहन तीर्थंकरों और महापुरुषों ने परिग्रह से निवृत्ति पाने का से मुक्ति भी मिली रहती है साथ ही वे यण और प्रतिष्ठा मार्ग अपनाया- उन्होंने प्रथमतः परिग्रह-परिवारभी पाते रहते हैं जो उन्हें इष्ट है । यदि ऐसा न कर वे मिथ्यात्व, कषाय, नोकषाय तथा विकथा, इन्द्रियविषय.
मार्ग अपना महापुरुषों ने परिणी श्रेय है।