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________________ २९, ३७,कि.१ निद्रा मादि सभी अन्तरंग परिग्रहों और बाह्य परिग्रह धन जीवाजीवादि पदार्थ नहीं हैं, वे नित्यानित्य नही हैं, धान्यादि से निवृत्ति पाने का यत्न किया और इसीलिए वे संसार व मोक्ष नहीं हैं ऐसी धारणा रखना, पदार्थों अन्य पापों से बच सके। के वास्तविक स्वरूप का श्रद्धान न करना, अज्ञान परिपह-परिवार मिथ्यात्व हैं। १. मिथ्यात्व-तत्वार्थों के अश्रद्धान को मिथ्यात्व २. कवाय--जो भाव आत्मा को कर्म-बन्धन मे कसे कहते हैं। जब तक तत्वरूप से निर्णीत पदार्थों पर श्रद्धान वे कषाय कहलाते हैं । जीव अपदे भावों के अनुरूप ही न होगा तब तक परिग्रह लगा ही रहेगा । और जब पदार्थों अपने को तीव्र-मन्द कर्म-बन्धन मे बाँधता है। ये कषाय के स्वरूप का ठीक २ श्रद्धान होगा तब उन्हें जानकर स्व- मूलतः सोलह श्रेणियों में विभक्त है और विस्तार से उनके प्रवृति और पर से निवृत्ति का भाव होगा और तभी २५ व संख्यात-असंख्यात तक भेद है। परिग्रह से छुटकारे का प्रयत्न कर सकेगा । स्थूलरीति (अ) अनंतानुवंधी-अनन्त संसार की स्थिति को बधाने से मिथ्यात्व पाँच प्रकार के है-विपरीत मिथ्यात्व, वाले क्रोध', मान", माया", लोभ' । शास्त्रो मे एकान्त मिथ्यात्व, वैनयिक मिथ्यात्व, सांशयिक मिथ्यात्व, इनको क्रमशः पत्थर की रेखा के समान, पत्थर के और अज्ञान मिथ्यात्व । समान, बांस की जड़ के समान और कृमि राग के (अ) विपरीत-ऐसा श्रद्धान करना कि हिंसा, झूठ,चोरी, समान (उदाहरणपूर्वक) बतलाया है। कशील, परिग्रह, राग, द्वेष, मोह अज्ञानादिक से ही (मा) अप्रत्याख्यानावरण-जिनके उदय मे व्रत का अभाव मुक्ति होती है।' हो । ऐसे क्रोध, मान, माया, लोभ । शास्त्रो मे इनको (मा) एकान्त-ऐसा श्रद्धान करना कि पदार्थ एक रूप ही क्रमश. पृथ्वी की रेखा, हड्डी, मेढा के सीग और चक्रहै। जैसे किसी पदार्थ को ऐसा मानना कि यह मल (ओंगन) समान बतलाया है। सर्वथा है ही अथवा ऐसा मानना कि सर्वथा नहीं ही (क) प्रत्याख्यानावरण-जिनके उदय मे सकलचारित्र न TRATATATE-जिनके जाने है। पदार्थ एक रूप ही है अथवा ऐसा मानना कि हो सके ऐसे क्रोध, मान, माया, लोभ । शास्त्रों में अनेक रूप ही है। इसी प्रकार उसको सावयव-निर- इनको क्रमश धूलिरेखा, काठ की लकीर, गोमूत्र और वयव, नित्य-अनित्य इत्यादिक रूपों में से किसी एक शरीरमल के समान कहा है। रूप मे सर्वथा मान लेना विपरीत मिथ्यात्व है। जब (ब) संज्वलन-परीषहादि उपस्थित होने पर भी जो कि जैनदर्शन के अनुसार पदार्थ को अनेकान्तरूप (एक चारित्र को नष्ट नही करते ऐसे क्रोध, मान, माया, ही समय में-सदाकाल अनेक धर्मों वाला) सिद्ध लोभ । शास्त्रो मे इनको क्रमश जल रेखा, बेंत, खुरपा किया गया है। और हल्दी के रग के समान बतलाया है। इनके सिवाय (क) बनमिक-सच्चे-झूठे सभी प्रकार के देवो, सभी हास्य, रति (विषयादिक मे उत्सुकता) अरति, शोक, प्रकार के शास्त्रों और सभी प्रकार के साधुलो मे, भय, जुगुप्सा (धर्म और धर्मात्माओ के प्रति ग्लानि) उनके खरे-खोटे की पहचान न करके उनकी समानरूप स्त्रीवेद, पुवेद और नपुंसकवेद भी पापो की अड है । में विनय-सेवा आदि करना वनयिक मिथ्यात्व है। विकथायें (संयम के विरुद्ध वाक्य) जो स्थूलरीति से (ब) सशयिक-सर्वज्ञ-वीतरागदेव ने तत्त्वो का जिस स्प स्त्रीकथा, भोजनकथा, राष्ट्रकथा और अवनिपालकथा में वर्णन किया है या जो तथ्य बतलाए है वे सही हैं रूप में वर्णित हैं वे सब परिग्रह मे गभित हैं । स्पर्शन, या नहीं ? ऐसा विकल्प बनाए रहना और उनके रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण के विषयों में उत्सुकता कथन की सत्यता पर निर्भर न रहकर दुलमुल श्रद्धान रखना अथवा प्रतिकूल विषयो मे द्वेष करना भी परिरखना। ग्रह है। और धन-धान्यादि बाह्य सामग्री का संग्रह (ग) मान-विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि बाह्य परिग्रह है।
SR No.538037
Book TitleAnekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1984
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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