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२०३७, कि०४
श्री कान जी स्वामी जब जीवित थे, तब श्री चम्पाबेन को हम चाहते हैं कि सफलता मिले । पर, पिछले कई रिकार्ड सायिक सम्यग्दृष्टी के खिताब से प्रसिद्धि मिली थी ऐसे हैं जिनमें समाज को मुंह की खानी पड़ी है और ऐसे और उन दिनों यह बात बहुत लम्बे समय तक बहुत से प्रसंगों में समाज विभाजित होता रहा है। प्रमाणरूप में उन मनीषियों को भी पता थी जो आज श्री चंपाबेन के सर्व साधारण मुनियों की मूर्तियों का स्थापित होना हमारे कार्य का विरोध कर रहे हैं। उन्हे तभी सोचना चाहिए समक्ष है, आज मुनियों की मूर्तियां जोरों से बनने लगी हैं, था कि इस युग मे क्षायिक सम्यग्दृष्टी कहां और उस जो आगम के सर्वथा विरुद्ध है-कोई उसे रोक नहीं पा सम्यग्दृष्टी को पहिचान करने वाला कौन? पर तब न रहा है। ऐसे ही समाज में कितना ही दूषित साहित्य सोचा और सब मौन रहे। हमने समझा 'मोन सम्मति प्रकाशित हो रहा है और विद्वानो के प्रभूत विरोध के लक्षणम्'। जब ऐसा ही था तब वह क्षायिक सम्यग्दर्शन बाद भी उसमे कोई सुधार नही हो रहा? इसका अर्थ छूट कैसे गया जो श्री चपाबेन से सूर्यकोति जैसे कल्पित क्या हम ऐसा लें कि जो हमारा है वह ठीक है और जो तीर्थकरे की मूर्ति का निर्माण करा रहा है। और पूरी दूसरे का है वह मिथ्या है?' समाज मे क्षोभ का वातावरण बन रहा है। अथवा क्या पिछले समय मे हम धर्म-चक्रप्रवर्तन, मंगल कलशयह समझ लिया जाय कि श्री चम्पाबेन पर 'मिध्यादर्शन भ्रमण और ज्ञान-ज्योति के भारत-भ्रमण को देख चुके हैं। बन्ध का कारण नहीं' इस मान्यता का प्रभाव पड़ गया है
हम नही समझते कि इनसे जैन तत्त्वज्ञान और जैनाचार जो वे कलित भावी तीर्थकर सूर्यकीर्ति की मूर्ति स्थापन
का मूर्तरूप कहीं उभर कर आया हो- सब जहां के तहां जैसे मिथ्याकार्य में लग गई हैं-उन्हें कर्मबन्ध का भय
हैं या अधिक गिरावट की ओर जा रहे हैं। हां, इनसे अर्थ नही रहा है। स्मरण रहे कभी यह चर्चा जोर पकड़ गई का दुरुपयोग और अर्थ सग्रह अवश्य उभर कर सामने आये थी कि 'मिथ्यादर्शन बन्ध का कारण नही।'
हैं-शायद कुछ वर्ग अपने लिए सपत्ति भी जुटा सका हो। कल्पित भावी तीर्थकर सूर्यकीति की मूर्ति के स्थापन यही अवस्था बड़ी-बड़ी कान्फ्रेंसों, सेमिनारों आदि की है। का प्रसंग आगम के सर्वथा विरुद्ध है और अब हमारे बड़े. लोगों को तो ये सब ऐसे हैं जैसे कोई तमाशा दिखाने वाला बड़े विद्वान भी ऐसा लिख रहे हैं। इस नाम के किसी जादूगर आए, मजमा इकट्ठा करे और जादू के करिश्मे भी तीर्थकर का किसी भी शास्त्र में उल्लेख भी नही है दिखा कर चला जाए और लोगो को जादू विद्या का कुछ और श्री चम्पावेन आगे-पीछे के भवो को जानती है यह ज्ञान पल्ले न पड़े वे मात्र मन बहलाव-थोड़ी-सी देर की बात भी सर्वथा मिथ्या है। अतः सूर्यकोति की मूर्ति और मन-तुष्टि कर लें, कि बहुत अच्छा हुआ। अन्ततः खाली श्री चंपावेन दोनों का घोर विरोध होना चाहिए-समाज के खाली। विविध लोग आए और गए। सब पैसे का ने उचित कदम उठाया है। कल को साधारण लोग भी खेल है । साधारण को इनसे लाभ नहीं। ऐसा कह सकते हैं कि हम मी स्वयं तीर्थकर है, हमें स्वप्न
हम अभिनन्दनों और जयन्तियों के भी पक्ष में नहीं बाया है और आगे-पीछे के भव ज्ञात हुए हैं। क्योंकि
हैं। इन्हें भी लोग प्रसिद्धि और मान-बड़ाई के लिए करते अब उन्हें अपने को भूत-भावी का ज्ञाता सिद्ध करने के
या करवाते हैं। नतीजा जो होता है वह श्री चम्पावेन के लिए, श्री चंपावेन की माफिक किन्हीं प्रमाणान्तरों की
मूर्ति स्थापन कार्यक्रम के रूप में सामने है। यतः अभिआवश्यकता नहीं रह गई-वे भी स्वयं ज्ञाता है-जैसे
नन्दित व्यक्ति प्रशंसा में फूल जाते हैं और अपने को श्री चम्पाबेन । अतः विरोध और भी जरूरी है, जिससे
भगवान जैसा मान कर मनमानी पर उतर आते हैं ऐसा भावी मार्ग दूषित न हो।
भी देखा गया है। अतः अभिनन्दनों के अतिरेक बन्द होने हम यह सोचने को भी मजबूर हैं कि उक्त मूति के चाहिए। विरोध में समाज को कहां तक सफलता मिल सकेगी? हमें हर्ष है कि अब इन्दौर ने श्रावकाचार वर्ष मनाने