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________________ १६ बर्ष ३७, कि.१ एक अलग ही आकर्षण है, प्रतिभावान् कवि अपनी भंगि- स्तुति, दुर्जनों की निन्दा, धर्म, नीति, स्त्री.विषयक सूक्तियों भणिति और सूक्ति रस के निबन्ध में एकाग्र होकर काव्य से शान्तिनाथ पुराण को अलंकृत किया है। रस के औचित्य-अनौचित्य की चिन्ता नही करते हैं। ऐसे शान्तिनाथ पुराण में सुभाषित संचय इस प्रकार हैकवियों पर खीझ कर "आनन्दवर्धन' ने लिखा है "श्रेयसे हि सदा योगः कस्य न स्यात्महात्मनाम्"-. "अलंकार कहां रसाभिव्यक्ति का कारण बनता है, शा. पु. ११८८ उसका एक नियम है, उसे भङ्ग कर अलकार की जो अर्थात् महात्माओं का सदा योग प्राप्त होना किसके योजना की जाती है वह नियमत: रसभंग का कारण लिए कल्याणकारी नही होता? अर्थात् सभी के लिए बनती है, इस प्रकार के उदाहरण महाकवियों के प्रबन्धों ___ कल्याण युक्त होता है। में बढ़त दिखाई पड़ते हैं, लेकिन रसभंग के ऐसे निदर्शन "धीरा हि नयमार्गवित्"-२४२ मैंने अलग अलग करके नही दिखाये, वह इसलिए कि अर्धात् धीर वीर मनुष्य नीति के मार्ग का ज्ञाता होता है। अपनी हजार सूक्तियों से चमकने वाले उन महान् कवियो "संसर्गण हि जायन्ते गुणा दोषाश्च देहिनाम्"-४१५४ का दोष निकालना अपना ही दूषण हो जाता है । लना अपना हा दूषण हा जाता है ।" अर्थात् प्राणियो मे गुण और दोष संसर्ग से ही होते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ध्वनि और रस की "कन्यका हि दुराचारा पित्रोः खेदाय जायते"-४१५६ भांति कभी सक्ति भी काव्य की कसौटी थी। अर्थात् कन्या का दुराचारी होना माता-पिता के लिए आचार्य 'कून्टक' भी मुक्ति के चमत्कार के से प्रभा- खेद का विषय होता है। वित रहे हैं। "उन्होंने सरस्वतीकवि के मुख चन्द्ररूपी "स्त्रीजनोऽपि कुलोदमतः सहते न पराभवम्"-७1८ रंगमन्दिर मे सूक्ति विलासो का अभिनय करने वाली अर्थात् कुलीन स्त्रियां भी पराभव को सहन नही करती हैं। नर्तकी कहा है।" "आचारो हि समाचष्टे सदसच्च नृणां कुलम्"-८/४२ कवि और काव्य की प्रशंसा में अनेक कवियो ने अर्थात् आचार ही मनुष्य के अच्छे और बुरे कुल को सूक्ति प्रशंसा का अभिधान किया है, ऐसे अनेक उदाहरण कह देता हैं। सुभाषित संग्रहों से परिपूर्ण है। "भवितव्यता हि बलीयसी"-१०८७ "शान्तिनाथ पुराण" में महाकवि असग ने गम्भीर अर्थात् होनहार बलवती होती है। विषयों को व्यक्त करने वाली सूक्तियो को प्रस्तुत किया "सर्व दुख पराधीनमात्माधीन परं सुखम् ।"-१२।१०६ है। सूक्तियो को सरल, सुकोमल पदों में गुम्फित करके उन्हें सजीव और प्रभावशाली बना दिया है। नीतिविषयक । अर्थात् पराधीन सभी कार्य दुख है और स्वाधीन वचन कवि के विशिष्ट ज्ञान तथा पांडित्य के परिचायक हैं। सभी कार्य परम सुख है। विभिन्न प्रसंगों में यथास्थान महाकवि ने सज्जनों की मौ० कुंवरलाल गोबिन्द, बिजनौर सन्दर्भ-सूची १. या दुग्धाऽपि न दुग्धेव कविदोग्धमिरन्वहम् । ३. 'कर्णामृतं सूक्तिरसम्'-विक्रमांकदेव चरित २६ हदि नः सन्निधत्ता सा सूक्ति धेनु: सरस्वती ॥ ४. ध्वन्यालोक-२०१६ -काव्यमीमासा अध्याय ३ ५. वन्दे कवीन्द्रवक्वेन्दु लास्यमन्दिरनर्तकीम् । २. सूक्तमार्गः कवि-मति-विभवोप्सारणं चापि काव्यम् । देवी सूक्ति परिस्पन्दसुन्दराभिनयोज्वलाम् ।। को नु स्माद्योऽस्य न स्यद्गुणमति -वक्रोक्ति जीवित र ६. निर्गतासुन वा कस्य कालिदासस्य सूक्तिषु । । । विदुषां ध्यानपात्र य एकः ॥८ प्रीतिर्मधुर सान्द्रासु मञ्जरीष्विव जायते ॥ -हिस्टारिकल एण्ड लिटरेरी इन्सिक्रप्सन पृ० ७३ --'बाणभट्ट
SR No.538037
Book TitleAnekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1984
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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