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अनेकान्त
अपना हो गया वहां वह प्रेम राग का अंश नही परन्तु पर का ग्रहण है। सवाल पर को ग्रहण नहीं करने का नहीं अहिंसा का वाचक हो गया क्योंकि वहां वह प्रेममयी है परन्तु पर में प्रयोजन दिखाई न देने का है। बाहर में हो गया। वह प्रेम को सीधे लिए नहीं है परन्तु वह ब्रह्म- अगर कोई चीज नहीं ली यही व्रत है तो उस व्रत की भी रूप है इसलिए स्व के लिए हो गया ।
उतनी ही कीमत है जितनी उस वस्तु की । परन्तु धर्म की अहिंसा शब्द राग का नेगेटिव है। राग का निषेधक कोई कीमत नहीं होती इसलिए उसका आधार याहर में, है परन्तु उसका पोजिटिव प्रेम है। जब अन्तरंग प्रेममयी पर में नहीं है। उसका सम भाव पर से नहीं स्व से है। हुमा तब हिंसा विसर्जित हो गई। हिंसा को छोड़ दो।
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भातर म
भीतर में स्व में कमी होने लगी तो बाहर में स्त्री
में कमी नहीं रही। रमण करने को जब भीतर नहीं था इसी प्रकार जब वस्तु स्वरूप, सत्य स्वरूप से जीव
तो बाहर में रमण करने को स्त्री को खोजता था परन्तु बचाने मात्र से हिंसा नहीं जायेगो। जीव को बचाया तो सही परन्तु क्या उसके प्रति आपके हृदय में जैसा अपने
जब रमण करने को अपना मित्र स्वभाव उपलब्ध हो बच्चे के प्रति प्रेम हो जाता है वैसा प्रेम भरा हुआ है,
गया तो बाहर किसमें रमण करें। आत्मा की सुन्दरता में अगर नहीं तो अहिंसा कैसे होगी। सवाल बाहर की
जो लुब्ध हो गया उसको बाहर में स्त्री में सुन्दरता कैसे तरफ का नहीं है कि जीव मरा कि बचा, सवाल है
दिखाई दे। अगर अभी भी वह सुन्दर दिखाई दे रही है आपके हमारे हृदय में प्रेम का अथाह समुद्र बह रहा है तो अंतरंग की सुन्दरता पकड में नहीं आई है। कि नहीं। अगर प्रेम का समुद्र बह रहा है तो जीव के जब आत्मा में मित्रता हुई तो पर की मित्रता नहीं मरने पर भी अहिंसा है परन्तु वह प्रेम का समुद्र नहीं बह रही, सवाल परिग्रह छोड़ने का नहीं है, सवाल तो मित्रता रहा है तो जीव के बचने पर भी हिंसा है। जहां ऐसा छोड़ने का है वह मित्रता स्व की मित्रता आये बिना नही प्रेम वह रहा हो वहां बाहर मे हिंसा विजित हो जाती जा सकती। परिग्रह में आनन्द दिखाई दे रहा है। परिहै। वह जीव पर पैर नही रखता है यह सवाल नही है ग्रह में रस आ रहा है तो समझना चाहिए अभी अपने में परन्तु वह अपने पर पैर रखकर नही चल सकता क्योंकि रस नहीं आया अपने में आनन्द नहीं आया है। इसलिए अब कोई पराया रहा ही नहीं।
पर में आनन्द खोज रहा है अपने में मिल जाता तो पर इसी प्रकार जब भीतर में सत्य पकड़ में आता है या में क्यों खोजता। जब पर में आनन्द नहीं है तो न तो सत्य स्वभाव पकड़ में आता है तो बाहर का असत्य विस- उसके ग्रहण से मिल सकता है न उसके त्याग से, परन्तु जित हो जाता है। यहां सत्य बोलने से सत्यव्रत का पालन
वह तो स्व के ग्रहण से मिलता है। और जहाँ स्व का
ग्रहण है वहाँ पर का त्याग तो है ही। होता है ऐसा नहीं है। यहां सवाल है कि भीतर में असत्य
कुछ लोग कहते हैं ऐसा अर्थ करने से लोग बाहरी रहा ही नहीं। व्रत का मतलब है कि असत्य का व्यक्तित्व
त्याग नहीं करेंगे। स्वच्छन्दता तो हो जायेगी। यहां पर अब नहीं रहा जो रहा वह सत्य है और उस सत्य व्यक्तित्व
बात यह है कि जो स्व और पर के सूक्ष्म भेद को करने से असत्य कैसे निकल सकता है। जो वस्तु जैसी की तैसी
की बात कह रहा है वहां मोटा भेद, स्वधन परधन का दिख रही है तो असत्य को जगह कहां रही वह तो तभी
भेद तो मोटा भेद है बहुत मोटा भेद है जो इतना मोटा तक था जब विपरीत दिखाई दे रहा था।
भेद ही नहीं कर सकता वह स्व और पर के अत्यन्त सूक्ष्म निज स्वभाव पकड़ में आगया, अपनी चीज अपने को
भेद को कैसे देख सकेगा। उसके लिए तो और भी सूक्ष्म मिल गई तो पर का ग्रहण रहा ही नहीं। परका ग्रहण
दृष्टि की आवश्यकता है। जहाँ स्वधन स्वस्त्री को भी तभी तक था, जब तक अपने घर की खबर नहीं थी।
पर रूप देखना है। वहाँ पर स्त्री और पर धन अपना अब अपना घर मिल गया आर अपने घर में रहन लगा, कैसे हो सकता है। इसलिए जहाँ एक चेतना को छोड़कर तब पर घर का ग्रहण विसजित हो गया। पर में अगर सभी पर है स्वस्त्री-धन भी पर है वहाँ परधन-परस्त्री को प्रयोजन दिखाई दे रहा है, पर की महिमा आ रही है तब अपने रूप देखने का सवाल ही नहीं रहता।