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________________ पंच महाव्रत श्री बाबूलाल वक्ता जो भी व्रत होता है वह पर से, बाहर से निवृत्तिरूप अन्तरंग में जो मिला उसकी महिमा आती है, अज्ञानी को होता है और स्व में प्रवृत्ति रूप होता है। एक बाहर मे जो छोड़ता है उसकी महिमा आती है। सिक्के की दो साइड है, एक परसे निवृत्ति है दूसरी स्व पंच महाव्रत मे भी अन्तरंग की उपलब्धि पूर्वक बाहर में प्रवृत्ति है । त्याग का अर्थ है स्व का ग्रहण और स्व का मे हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रह का त्याग है । ग्रहण का अर्थ है पर का त्याग । जब सिक्के की दो साइड सम्भावना यह है भीतर मे उपलब्धि क्या हुई। हैं तो दोनों साथ रहती हैं। कहने को हम किसी साइड जब तक समझता है कि यह मेरा है तब तक उसका को जार कर लेते हैं किसी को नीचे । अडिसा माने अपने प्रेम उसी तक सीमित रहता है। परन्तु जैसे उसको कोई रूप हो जाना-सबको चेतना रूप देखना । सत्य का अर्थ अपना नही रहता तो सभी उसके हो जाते हैं तब वह सत्य बोलने से नही परन्तु जैसा वस्तु का स्वरूप है उसको दिवाल जो मेरा और तेरे का भेद कर रही है हट जाती है उस रूप में देखना है जैसे शरीर आत्मा का संयोग है तब यह कहना चाहिए मेरा कोई नही रहा अथवा कहना एक रूप देखना झूठ है । बाहरी पदार्थ तो दुखी नहीं कर चाहिए सभी मेरा हो जाता है। इसलिए उसका प्रेम सकता उसे दुख देने बाला देखना झूठ है। जो चीज असीम हो जाता है । जो एक धर को छोड़ना है सभी घर जैसी है वह वैसी ही दिखाई देना सत्य है। उसके हो जाते हैं । यह तमी सम्भव है जब पर से मेरा अचौर्य:-पर का ग्रहण यही चोरी है और स्व का मन हटे तभी अहंकार का विसर्जन होगा। ग्रहण वह अचौर्य है। अहं नगर में पर को नीचा देखना ओर नीचा दिखाने ब्रह्मचर्यः-याने ब्रह्म का आचरण ब्रह्म का आचरण की भावना रहती है यही तो हिंसा का भाव है। माने ज्ञाता दृष्टा रूप रहना । __ जीवों की रक्षा करना मात्र अहिंसा नहीं है जीवों की अपरिग्रहः-पर की निष्ठा परिग्रह है, स्व की रक्षा तो वह व्यक्ति भी करता है जो कोड़ी को बचा रहा निष्ठा अपरिग्रह है। है जिमको उसके मरने पर अपना नरक और बचने में स्वर्ग भीतर में जब स्व का ग्रहण होता है तब बाहर जो दिखाई दे रहा है। उसको कीडी के प्रति प्रेम नही। कुडा-करकट होता है वह छूट जाता है। बाहर में क्या छूटा उसका कीड़ी से कोई मतलब नहीं । उमका सम्बन्ध अपने इसकी महिमा नही है परन्तु भीतर में क्या मिला इसकी स्वर्ग और नरक से है । जिसके हृदय में प्रेम नहीं वहां है। जब अमृत मिलता है तो बाहर से फालतू छूट जाता अहिंसा कैसी । आप कह सकते हैं कि प्रेम तो गग का है। बाहर से देखने वाला बाहर मे छूटा उसको देखता है नाम है । ऐसा नहीं है। एक प्रेम जो किसी खास व्यक्ति क्योंकि उसके जीवन में पर की महिमा है उसके लिए वह के प्रति है। जैसे अपना कुटुम्ब, परिवार अथवा जिसको छुटना बहुत मुश्किल है जो दूसरे ने छोड़ा है । इसलिए अपना मान रखा है उसके प्रति चाहे वह कोई जाति हो वह समझता है कि इसने बड़ा काम किया है । परन्तु जब सम्प्रदाय हो, साधु-सन्यासी हो परन्तु पहले उसमें अपना तक अंतरंग में वह अमूल्य वस्तु नहीं मिले तब तक बाहर माना है फिर राग बना है वह प्रेम तो राग का ही भेद का छोड़ना आत्मकल्याण में कीमत नहीं रखता । कीमत है परन्तु एक प्रेम वह है जहां कोई अपना नहीं रहा जहां तो जो भीतर में उपलब्ध हुआ उसकी है । जानी को अपने मन की दीवान नही रही। जहां समूचा संसार ही
SR No.538037
Book TitleAnekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1984
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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