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________________ pv, ut tu, fiso V अनेका प्रमाण नं० ६-७-८ में जो इस प्रसंग में क्षणिक को बौद्ध लिखा है कि चेलनी ने गर्भस्थ शिशु को गिराना चाहा पर धर्मी लिखा है वह संगत नहीं है। वह गिरा नहीं । यहां भी शंका होती है कि जैन धर्म की दृढ़ श्रद्धानी महारानी चेलना कैसे मांस भक्षण और भ्रूण हत्या का प्रयत्न कर सकती है ? और क्षायिक सम्यक्त्वो प्रमाण नं० ५-६ में श्रेणिक की मृत्यु पर कुणिक द्वारा ब्राह्मणों को दान देना भी उसके वंश से वैष्णव धर्म के स्थान को सूचित करता है बौद्ध धर्म को नहीं । (२) इसी पुण्याश्रव कथा कोश पृ० ५८ मे लिखा है किणिक के क्षायिक सम्यक्त्व की परीक्षा के लिए दो देव गए थे वे राजा श्रेणिक के शिकार खेलने के जाने के मार्ग में नदी किनारे बैठ गए।" - यहां सहज शंका होती है कि शायिक सम्यक्त्व हो जाने पर भी राजा श्रेणिक शिकार खेलने जैसे दुर्व्यसन में कैसे लिप्त रह सकता है ? हरिषेण कथा कोश कथा न०.१ इस प्रसंग में लिखा है कि राजा श्रेणिक तब सरोवर की शोमा देखने के लिए गया था ( शिकार खेलने के लिए नही) इससे पुष्पाधव कथा कोश का कथन गलत सिद्ध होता है। (३) पुण्याश्रव कथा कोश पृष्ठ ५६ में लिखा है कि रानी चेतनी के गर्भ मे जब कुणिक था तब उसे दोहल हुआ श्रेणिक के वक्षस्थल को चीरकर उसका रक्तपान करूं । राजा ने चित्रमय स्वरूप मे उसकी इच्छा पूरी की। प्रमाण नं० १० मे भी ऐसा ही लिखा है तथा यह भी १. 'दश वर्ष सहस्राणि प्रथमायां' सूत्रानुसार प्रथम नरक की जघन्यायु दश हजार वर्ष है। सम्यक्त्वीकेतो वही होनी चाहिए। तब अभी तो अवसर्पिणी के ही पंचम षष्ठ कालके २१+२१ विमालीस हजार वर्ष है फिर उत्सर्पिणी के प्रथम द्वितीयकाल के २१÷२१४२ हजार मिलाकर कुल ८४ हजार वर्ष व्यतीत होने पर उत्सर्पिणी के तृतीयकाल में कर्मभूमि आने पर श्रेणिक महापद्म तीर्थकर होंगे ऐसी हालत में क्या गणना में कोई गड़बड़ है। समाधान-गणना ठीक है किन्तु ऐसा सैद्धान्तिक नियम हैं कि-संशी मनुष्य मरकर नरक जाता है तो उसकी वहां आयु ८४ हजार वर्ष से कम नहीं होती । असंशियों की कम हो सकती है । २. सम्यक्त्वी के सात भय (इहलोक भय, परलोक भय, - णिक उसमें कैसे सहकारी हो सकते हैं कदापि नहीं। यह भी कथाकारों को अविचारित रम्यतायें ही हैं निर्दोष चरित्र-चित्रण नहीं। प्राचीन कथाकारों ने यह कथांश दिया ही नहीं है। वेदना भय, मरण भय, अरक्षा भय, अगुप्त भय, अकस्मात् भय) नहीं होते तब श्रेणिक तो क्षायिक सम्य (४) पुण्याश्रव कथा कोश पृ० ५६ में श्रेणिक के क्षायिक सम्यक्त्व की देवों द्वारा परीक्षा लेने की जो कथा दी है वह भी बड़ी विचित्र है, वह सिद्धांत-सम्मत प्रतीत नहीं होती' समय मिलने पर उस पर भी अलग से निबंध लिखने का विचार है। ऐसी बेतुकी कथा गुणभद्रादि प्राचीन मान्य आचार्यों ने कतई नही दी है। सन्दर्भ-सूची । (५) इसी तरह भरत चक्री का बाहुबली पर चक्र चलाना संकल्पी हिंसा नही है तथा बाहुबली को जिस शल्य से केवल ज्ञान रुक गया था वह माया मिथ्या निदान नाम की शल्य नहीं थी किन्तु साधारण खटक थी। शास्त्रों के कथनों को संगति बिठाने से ही सिद्धांत अबा धित रहते हैं। 1 दृष्टि थे तब एकमात्र भय से उत्पन्न होने वाली आत्महत्या उनके कैसे बन सकती है ? अर्थात् कदापि नही । जैसे समाधिमरण आत्महत्या नहीं है वैसे ही यह समझना चाहिए। आत्म धर्म मासिक पत्र नवंबर ८० और अप्रैल ८१ के अकों में पू० स्वामी जी ने श्रेणिक की मृत्यु को आत्महत्या नहीं बताया है प्रत्युत लिखा है कि अणिक क्षायिक सम्यग्दृष्टि थे । अन्तिम समय में हीरा चूसकर या कारागार में सिर फोड़कर मरे थे, तथापि उस काल में भी उनकी दृष्टि ध्रुवत्व पर ही थी । ध्रुव स्वभाव - आत्मस्वभाव से नहीं छूटी थी द्रव्य दृष्टि की महिमा अपार है । धर्मी की दृष्टि सदा चैतन्य तल पर ही रहती है । ३. राजवार्तिक, अमितगति बावकाचार आदि में क्षायिक सम्यक्त्व को वीतराग सम्यक्त्व बताया है । ४. उसमें भ्रष्टाचार अत्याचार का समर्थन किया गया है।
SR No.538037
Book TitleAnekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1984
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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