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________________ १४ वर्ष ३७, कि. उनके अनुप्रास तथा यमक अलंकार नाद सौन्दर्य मे था तथा कुल का श्रेष्ठ दीपक होकर भी प्रवड उत्तम बत्ती वृद्धि करते हैं और प्रस्तुत भावों के उत्कर्ष में सहायक है। से युक्त पा अर्थात् श्रेष्ठ वृद्धजनों को उत्तम अवस्था 'यमक का उदाहरण प्रस्तुत है-- सहित था। अस्ति लक्ष्मीवतां धाम पुरी यत्र प्रभाकरी । श्लेष के अतिरिक्त 'दृष्टान्त अलंकार' भी यथास्थान प्रभाकरी प्रभा यस्यां पताकाभिनिरुध्यते ॥ १।२१।। सन्निविष्ट किया गया है। चतुर्थ सर्ग में चक्रवर्ती दमितारि अर्थात् जिस बत्सकावती देश में धनाढ्य पुरुषो के काल कहता हैस्थान स्वरूप 'प्रभाकरी नाम की वह नगरी' विद्यमान है द्विषतोऽपि पर साधुहितायव प्रवर्तते । जिसमें 'सूर्य की vभा' पताकाओं से रुकती रहती है। कि राहुममृतेश्चन्द्रो ग्रसमानं न तर्पयेत् ॥ ४१६६ अर्थात् सज्जन शत्रु को भी हित के लिए अत्यधिक शान्तिनाथ पुराण उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, विभावना, अर्थान्तरन्यास अलंकारों का मानों भण्डार है। राजा दमि प्रवृत्त करता है सो ठीक ही है क्योंकि क्या चन्द्रमा, ग्रसने तारि के वर्णन मे 'उत्प्रेक्षा' का आलम्बन लिया गया है- वाले राहु को अमृत से संतप्त नहीं करता। श्लेषगभित आर्थी परिसंख्या के भी स्थान-स्थान पर कर्णाभरणमुक्ताशुच्छुरिताननशोभया । दर्शन होते हैक्षयवृद्धियुत चन्द्रं हसन्तमिव सन्ततम् ॥ ३॥७८ यत्रासीत्कोकिलेब्वेब सहकार परिभ्रमः । अर्थात् जो (दमितारि) कर्णाभरण सम्बन्धी मोतियों अत्यन्तकमलास: प्रत्यहं भ्रमरेषु च ॥ १३॥१६ की किरणों से व्याप्त मुख की शोभा से ऐसा जान पड़ता था अर्थात् जहां (हस्तिनापुर में) सुगन्धित आमों पर मानो भय और वृद्धिसे युक्त चन्द्रमा की हंसी कर रहा हो। परिभ्रमण करना कोयलों मे ही था, वहां के मनुष्यों में सप्तम सर्ग मे 'उपमा अलकार' की छटा दर्शनीय है- सहायक विषयक सन्देह नही था। कमलपुष्पों की प्राप्ति तस्यामजीजनत्सूनुमकीति परतपम् । के लिए खेद भ्रमणो में ही प्रतिदिन देखा जाता था, वहाँ प्रभात इव स प्राच्याम पकवल्लभम् ॥ ७११७ के मनुष्यो में लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए अत्यधिक खेद नहीं अर्थात् ज्वलनजटी ने वायुवेगा नाम की स्त्री से देखा जाता था। शत्रुओं को सतप्त करने वाला अर्ककीति नाम का पुत्र उसी चतुर्थ सर्ग में दमितारि की सेना अपराजित के परातरह उत्पन्न किया, जिस तरह प्रात:काल पूर्व दिशा में क्रम को सुनकर भ्राति में पड़ जाती है। जिससे "भ्रांति कमलो को अत्यन्त प्रिय सूर्य को उत्पन्न करती है। मान अलकार" दृष्टिगोचर होता है - राजा मगन्तवीर्य तथा दमितारि के युद्ध वर्णन मे कि नामासौ रिपुः को वा कियत्तस्य बल महत् । 'असग' न सुन्दर रूपक" प्रस्तुत किया है चक्रवर्त्यपि स भ्रान्तः किं सत्यमपराजितः ॥ ४६१ स्वस्वामिनिधनावरुद्धतरात्मविक्रमात् । अर्थात् शत्रु किस नाम वाला है अथवा उसका महान तव चक्रधाराग्नो सुभटः शलभायितम् ।। ५३११५ बल कितना है? इस विषय मे चक्रवर्ती दमितारि भी अर्थात् अपने स्वामी प्री मृत्यु से क्रुद्ध उद्दण्ड सुभटो ने भ्रान्त है, क्या सचमुच ही वह अपराजित (अजेय) है ? यद्यपि अपना पराक्रम दिखाया, परन्तु वे उस चक्ररल की शांतिनाथ पराण में 'अर्थानाम अMada धारा रूपी अग्नि मे पतगे के समान जल मरे। सुभाषित वचन प्रस्तुत किये गये हैं। यथाशान्तिनाथ पुराण के एकादश सर्ग मे राजा मेवरथ दूतिका कान्तमानेतु विसापि समुत्सुका । का एलेषमय' वणन किया गया है प्रतस्थे स्वयमप्येका दुःसहोः हि मनोभवः॥ १४॥१४ पानिवासपयोऽपि न जातु जलसगतः । ___ अर्थात् (चन्द्रोदय के समय कोई एक उत्कठिता स्त्री योऽभूतकुलप्रदीपोऽपि प्रवृद्धसुदशान्वितः ॥ ११११. पति को लाने के लिये दूती को भेजकर स्वयं भी चल पड़ी, अर्थात् जो लक्ष्मी का निवासभूत कनल होकर भी सो ठीक ही है क्योंकि काम दुख से सहन करने योग्य कभी जल की संगत नही पा अर्थात् मूखों का संगत नही होता है।
SR No.538037
Book TitleAnekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1984
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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