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शान्तिनाव पुराण का काव्यात्मक वैभव ब.मेघरथ उपदेश देते हैं- .
विद्यास्त्र को देखकर अशनिघोष यद्यपि दूसरों को जीतने अनेक रामसकीर्ण धन लग्नमपि क्षणात् ।
वाला था, तब भी भयभीत हो गया। मानुष्य यौवन वित्त नश्यतीन्दुधनुषर्यथा ।।
शान्तिनाथ पुराण में विभिन्न प्रसङ्गों मे आश्चर्य वनिमर्गबीभत्स पूतिगन्धि विनश्वरम् ।
उत्पन्न करने वाली घटनाए उपस्थित हुई हैं जिससे "अदमलस्थन्दिनवद्वार किं रम्य कृमि सकुलम् ॥
भुत रस" भी यथास्थान प्रयुक्त हुआ है
शा. पु. १२६०-१०० वीक्षमाणा पराभूति तस्य प्रविशत' पुरम् । अर्थात् जो स्वभाव से ग्लानि युक्त, दुर्गन्धमय, विनश्वर ।
इतिसौधस्थिता प्राहु विस्मयान्पुरयोषित.।। है, जिसके नवद्वार मल को हराते रहते हैं तथा जो कीडो ।
निरुच्छ्वासमिद व्याप्त नगर सर्वत: सुरैः । से भरा हुआ है ऐसा यह शरीर क्या रमणीय है ? अर्थात् अन्तर्बहिश्च कस्येय लक्ष्मीर्लोकातिशायिनी ॥ नही।
शा. पु. १३॥१८२-१८३ शान्तिनाथ पुराण मे "वीर रस" का भी उत्कृष्ट अर्थात नगर में प्रवेश करते हुए उनकी उत्कृष्ट विभति वर्णन हुआ है । पचम सर्ग युद्ध की गर्वोक्तियो से सयुक्त है-- को देखकर महलो पर चढी नगर की स्त्रिया आश्चर्य से स वामकर शाखाभि रेजे खड्ग परामृशन् ।
ऐसा कह रही थी। देखो, यह नगर भीतर और बाहर, तत्रैव निश्चलां कुर्वन्प्रचलन्ती जयश्रियम् ॥ ५॥७६ सब ओर देवो से ऐसा व्याप्त हो गया है कि सांस लेने के __अर्थात राजा अपराजित बायें हाथ की अगुलियो स लिा भी स्थान नही है, यह लोकोत्तर लक्ष्मी किसकी है ? तलवार का स्पर्श करता हुआ ऐसा सुशोभित हुआ, मानो "शृङ्गार रस" के प्रसङ्ग अत्यन्त सीमित है । तथापि चञ्चल विजय लक्ष्मी को उसी पर निश्चल कर रहा हो। विजयाद्ध पर्वत पर विद्यारियों की शोभा पार रस
वीर रस की धारा कही-कही रौद्र रूप में परिणत को प्रकट करती है-- हो जाती है तब 'रौद्र रस' के दर्शन होते हैं
उत्तरीय देशन पिधाय स्तनमण्डलम् । ततः कश्चित्कषायाक्षः क्रुद्धो दष्टाधरस्तदा ।
द्योतमाना स्फुरतकान्तिशोणदन्तच्छदत्विपा ।। आहतोच्चः स्वमेवास वाम दक्षिण पाणिना ॥शा पु. ४.१८ निर्गच्छन्ती लतागेहाच्चनास्ति सस्तमूर्धजा ।
अर्थात् जिसके नेत्र लाल हो रहे थे, अत्यन्त कुपित इय काचिद्रतान्तेऽस्मात् म्वेदबिन्दचितानना ।। था और ओठ को डस रहा था, ऐसा कोई वीर दाहिने
शा. पु. ३।२५-२६ हाथ से बांये कन्धे को जोर-जोर से ताड़ित कर रहा था। अर्थात् जो उत्तरीय वस्त्र के अञ्चल मे स्तन मण्डल
। बीभत्स रस' भी को आच्छादित कर रही है, ओठो की लाल-लाल कान्ति
से शोभायमान है, जिसके केश विखरे हुए है तथा जिसका उत्पन्न होता है। यथाउच्चैः रेसुः शिवा मत्ताः प्रपीय रुधिरासवम् ।
मुख पसीन की बूदो से व्याप्त है। ऐमी यह कोई स्त्री
संभोग के बाद लतागृह से बाहर निकलती हुई सुशोभित शीर्णसनहनच्छेद नीलाम्भोरुह वासितम् ।। शा. पु. ५॥३६ अर्थात् जीर्ण शीर्ण हड्डी के खण्ड रूपी नील कमलो से
अलङ्कार योजना-अलङ्कार रस के उपकारक युक्त रुधिर रूपी मदिरा को पीकर पागल हुए शृगाल
होते है ।अलकारो के अस्वाभाविक तथा अस्थान प्रयोग से उच्च स्वर से शब्द कर रहे थे।
कविता कामिनी की दशा भारी एव बेडोल कुण्डलो के 'राजा श्री विजय तथा अशनिघोष के मध्य युद्ध वर्णन
समान हो जाती है। काव्य को प्रभावशाली बनाने मे में भयानक रस' साकार हो जाता है
अलंकार महत्त्वपूर्ण हैं। अवध्यमानमन्येषां विद्यास्त्र वीक्ष्य विव्यथे।
शान्तिनाथ पुराण के बाह्य एवं आन्तरिक दोनों पक्षों आसुरेयो जितान्योऽपि स शूरः शूरभीकरः ॥ शा. पु.७९४ को सौन्दर्ययुक्त करने हुतु 'असग' ने शब्दालंकार तथा अर्थात राजा श्री विजय के द्वारा छोड़े गये अवध्य अर्यालकार की योजना की है।