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१२, वर्ष ३७, कि०१
अनेकान्त ध्यानाच्छिथिलगात्रेभ्यः पतद्भिर्मणिभूषणः । इष्ट हो सकता है ? कहो ! आओ, सर्वहितकारी धर्म को रागभावरिवान्तःस्थैर्मुच्यमान समन्ततः ॥
जानने की इच्छा रखती हुई हम तपोवन को चलें, व्रतशील अतरङ्गमिवाम्भोधिमकाननमिवाचलम् ।
आदि में प्रयत्न करें तथा आत्महितकारी तप करे । माप ददृशतुर्देव्यो तं विमुक्तपरिच्छदम् ॥१२.८०-८१ इनके काव्य मे नैतिकता और धार्मिकता के प्रति ___ अर्थात् ध्यान से शिथिल गिरते हुए मणिमय आभू- झुकाव है। इस प्रथ मे अनेक कथाओं को जोड़कर रोचक पणों से जो ऐसे जान पड़ते थे, मानो भीतर स्थित राग- बनाया गया है, जिनमे स्थान-स्थान पर सुन्दर विचारो भाव ही उन्हें सब ओर से छोड़ रहा हो, जो लहरो से का समन्वय किया गया है। स्वार्थपरक इच्छाओ का त्याग, रहित समुद्र के समान वन से रहित पर्वत के समान थे, सार्वभौमिक क्रियाशील परोपकार की भावना, व्याख्यान, जिन्होंने सब वस्त्रादि छोड़ दिये थे, ऐसे राजा मेघरथ को नैतिकता तथा उपदेश इसका प्रधान उद्देश्य है। कहीं-कही वाङ्गनाओं ने देखा।
सशक्तता के साथ ओज तथा प्रसाद गुण युक्त शैली के शैली-शैली के स्वरूप का उल्लेख करते हए बाण भी दर्शन होते हैं यथा- . ने कहा है
प्रज्ञोत्साहबलोद्योग धैर्य शोर्यक्षमान्वितः । नवोऽर्थो जातिरग्राम्या श्लेषोऽक्लिष्टः स्फुरो रस. । जयत्येकोऽप्यरीन्कृत्स्नान्कि पुनद्वी सुसंगतों ॥ ॥५६ विकटाक्षर बन्धश्च कृत्स्नमेकत्र दुष्करम् ॥ ___अर्थात् प्रज्ञा, उत्साह, बल, उद्योग, धैर्य, शौर्य, क्षमा
हर्षचरित-प्रस्तावना सहित एक ही पुरुष बहुत से शत्रुओं को जीत लेता है अर्थात् नूतन एवं चमत्कार पूर्ण अर्थ, सुरुचिपूर्ण स्व- फिर हम दो भाई मिलकर क्या नहीं जीत सकेंगे। भावोक्ति सरल, श्लेष, स्पष्ट रूप से प्रतीत होने वाला रस इनके उद्देश्य अभिव्यक्ति की यथार्थता तथा अर्थ की तया अक्षरों की दृढ़बन्धतायें सभी शैली की विशेषतायें है, स्पष्टता को प्रकट करते है। जो किसी काव्य में एक साथ प्राप्त होनी कठिन है। रस योजना-रस काव्य की आत्मा है उसके बिना ___ शातिनाथ पुराण की शैली सरल, प्रभावशाली एव काव्य की वही दशा होती है जो आत्मा के बिना देह की शान्त है। इनकी शैली को साधारण काव्य की उत्तम शैली होती है। 'असग' रससिद्ध कवि है। उनकी कृतियो मे कहा जा सकता है। अपने स्वाभाविक सौन्दर्य से युक्त प्रायः सभी रस उपलब्ध हैं किन्तु जैनधर्मी होने के कारण 'असग' की भाषा, वर्गों का शिथिलता रहित प्रयोग एव उन्होने विषयासक्त जनों को मोक्ष मार्ग दिखाने के लिए लालित्य, कठोर वर्णों का अभाव तथा अर्याभिव्यक्ति मे 'शान्त रस' से पूर्ण काव्य रचा है शांतरस अङ्गी है शेष पूर्णतः शब्दों की योजना-यह सब उनको महाकवि सिद्ध सभी रस अङ्ग है। शांतिनाथ पुराण के नायक अन मे करती हैं।
विरक्त होकर शांति की दशा प्राप्त करते हैं। षष्ठ सर्ग शान्तिनाथ पुराण मे यथास्थान धार्मिक उपदेशो का मे कनकधी की मन स्थिति 'शांत रस' की उत्पन्न करती भी समावेश किया गया है। अपराजित की पुत्री दीक्षा- हैग्रहग करने की इच्छुक होकर अपनी सखियों से कहती है- तस्मात्प्रव्रजन थेयो न यो मे गृहस्थता। व व विषयासङ्गात् क्लिशित्वा केवल गृहे ।
कलङ्कक्षालनोपायो नान्योऽस्ति तपसोविना ।।ा. पु. ६।१५ प्राणिति प्राकृतो लोकस्तत्कि व्रत सतां मतम् ॥
अर्थात् दीक्षा लेना ही मेरे लिए कल्याणकारी है, धर्म बुभुत्सवः सार्वमेतयामस्तपोवनम् ।
गृहस्थपन कल्याणकारो नही है क्योकि तप के विना यतध्वं व्रतशीलादौ कृषीध्वं स्वहितं तपः ॥
कलङ्क धोने का दूसरा उपाय नही है।
शा. पु. ६।१०६-१०७ काव्य मे शांतरस के अनेक प्रसङ्ग आये हैं जिन्हें अर्थात् साधारण प्राणी विषयासक्ति के कारण घर कवि ने पूर्ण मनोयोग से पल्लवित किया है यथा रूप ह्रास मे कनेश उठाकर व्यर्थ ही जीता है, वह क्या सत्पुरुषो को की बात सुनकर रानी प्रियमित्रा वैराग्य चिन्तन करती है