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५, वर्ष ३७, कि.१
अनेकान्त
चतो स्तभिः सपरिमयते द्विजिह्व
माः भवंति मकरध्वजतुल्यल्पाः ॥४१ त्वन्नाम नागवमनी हदि यस्य सः ॥३७ ये चानवद्य पदवी प्रतिपद्य पये प्राचीनकर्म जनता चरणं जगत्सू
त्वच्छिष्यता वपुषिवास रतिं लभते । मोठय मदाढयदनु मुद्रित मान्द्रनन्द्र। नोतुग्रहातव शिवास्पदमाप्यते यत् दीपाशुपष्टि पिसह्य सुदेवि पुसा ।
सबः स्वयं विगतबंधमया भवंति ॥४२ त्वत्कीर्तनात्तम इवाशभिवामपंति ॥३८ इदो कलेव विमलापि कलक मुक्ता साहित्य शाब्दिक रसामृत पूरिताया
गगेव पावन करी न जलाशयापि । सत्तर्क ककस महोभि मनोरमाया। स्यात्तस्य भारति सहथमुखीमनीषा पारंनिरमशेष कलिदिकाया
यस्तावकस्तवमिमं मतिमानधीते ॥४३ १.त्पावपंकजवनाधयिणो लभते ॥३६ योहज्जयो कृत जयो गुरु खेमकर्ण सस्थरुपयुपरिलोकमिलोक सोज्ञा
पादप्रसाद मुदितो मुदितो गुरुधर्मसिंहः । व्योम्नोगुरुज कविनि.सह सख्य मुच्च ।
है वाग्देवि भूमिनभवतीभिरभिज्ञ सधै अन्योन्यमान्यमिति ते यदवमि मातः
तं मानतुंगभवशा समुपैति लक्ष्मी ॥४४ त्रासं विहायभवतस्स्मरणाद्वति ॥४० इति भक्तामरस्यातिमपदांकित ब्राह्मी स्तोत्र समाप्त। देवाइय त्यजनिमव तव प्रशादात
लेखितमिर पुस्तक ऋषि प्रेमचदेन स्वार्थमिति । प्राप्नोत्यहो प्रकृति म मिन मानवीया।
श्रुत कुटीर, ६८ कुन्ती मार्ग, व्यक्त त्वचित्यमहिमा प्रतिभाति तीर्यग्
विश्वास नगर, शाहदरा दिल्ली-३२
(१०४का शेषांश) सेन पुन्नाट के हरिवशपुराण (७८३ ई०) का कोई उल्लेख समाप्ति एलडर मे हुई। शेष ग्रथ भी राष्ट्रकूटो के आश्रय नही किया और न जिनसेन-गुणभद्र के महापुराण में ही रखे गये । कवि के मूल निवास के विषय मे मतभेद (लगभग ८५० ई०) का ही, अत: वह ७८३ के पूर्व है-कुछ उमे कन्नौज, कुछ वाराणसी, साकेत विदर्भ ही हुए होने चाहिए, कुछ लचर प्रतीत होता है। (वरार), महाराष्ट्र या कर्णाटक अनुमान करते है । राष्ट्रइन तीनो आचार्यों ने भी तो स्वयम या उसके ग्रथों कूटो के मान्यखेटपूर्व राजधानी एलाउर (एलोरा) महाका कोई उल्लेख नही किया है। हमे तो ऐसा लगता है राष्ट्र एव विदर्भ के सन्धिस्थल के निकट ही है। स्वयम कि स्वयभू और हरिवशकार जिनसेन प्राय ममसामयिक के जीवन के अतिम वर्षों का भी कोई ज्ञान नही हैथे। स्वयभू द्वारा उल्लेखित उसका आश्रयदाता ध्र वराय ऐसा लगता है कि वह एकाएक गृहास्थाश्रम से उदासीन धवल एव राष्ट्रकूट नरेश ध्र वराज धारावर्ण निरुपम होकर संभवतया वाटग्राम के स्वामि वीरसेन के सस्थान (७७९-१९३ उ०) से अभिन्न प्रतीत होता है। धवल या मे रहकर आत्मकल्याणरत हो गया था। एक अनुमान धवल इय उसका भी एक विरुद रहा प्रतीत होता है। यह भी है कि स्वामि जिनसेन के जयघवलाटीका विषयक ध्रव का पुत्र एवं उत्तराधिकारी गोविन्द तृ. -जगतुग- 'श्रीपाल सपालितः' पद से अभिप्राय स्वयम से ही हो त्रिभुवन-धवल (७६३-८१४ ई०) त्रिभ वनस्वयभू का जिन्होने गृहत्याग करके श्रीपाल नाम धारण कर लिया बढइयगोबिन्द नामक आश्रयदाता रहा हो सकता है। था। उनके अधूरे अपभ्रंश महाकाव्यो का संरक्षण सपादन अतएव स्वयंभू का साहित्य-सृजन लगभग ७७० ई० से एवं पूर्ति उनके सुयोग्य कविपुत्र त्रिभ वन स्वयंभू ने की। ७६५ ई० रहा प्रतीत होता है। ऐसा लगता है कि अपने अस्तु, कविराज स्वयंभ देव विषयक अभी भी अनेक उत्तर भारतीय अभियान मे राष्ट्रकूट ध्रुवराज कन्नोज से तथ्य अन्वेषणीय एवं गवेषणीय हैं। अनेक सूत्र अभी भी राज्यश्रेष्ठि रयडा धनञ्जय और उसके आश्रित कवि ढीले विवादास्पद, अनिश्चित या अस्पष्ट है। सम्यक विशेस्वयंभ को सपरिवार अपनी राजधानी एलउर मे लिवा बाध्ययन से ही वे खुलेंगे और सुस्पष्ट होंगे। लाया था-पउमचरिउ का प्रारम्भ कन्नौज मे हुआ,
-ज्योति निकुज, चारबाग, लखनऊ-१६