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________________ 'बारसमणुवेक्खा'-एक अध्ययन D श्री कुन्दनलाल जैन, प्रिसिपल "भावना भवनासिनी" शास्त्रों की यह उक्ति यथार्थ डी. वसन्त राजन ने प्राचीन कन्नड भाषा की ताडपत्रीय में विशुद्ध मन से भाई गई भावना इस भव और पर भव पांडुलिपि के आधार पर सम्पादित कर आचार्य कुन्दकुन्द से मुक्त करा देती है तथा मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करती की रचनाओं की शृंखला में एक कड़ी और जोड़ दी है। है। संसार का हर प्राणी सांसारिक दुखों से छुट कर परम जिसकी विस्तृत समीक्षा निम्न प्रकार है। कुन्दकुन्द के सुख की चाह में भटक रहा है-अर्थात् संसार मे मुषित पचास-साठ वर्ष वाद ही उमास्वामी ने भी सूत्र रूप में प्राप्त कर अनन्त सुख के लिए लालायित है अतः प्रतिक्षण "अनित्याशरणसंसारकत्वान्यत्वाशुच्याश्रवसंवरनिर्जरा लोकनिरन्तर विशुद्ध परिणामो का होना नितान्त अनिवार्य है। बोधिदुभधर्मस्वाख्यातत्त्वानुचिन्तनमनप्रेक्षा" इत्य दिलिख जहां यह बात अन्य धर्मों में भी कही गई है वहा जैन धर्म कर द्वितीय बारह भावना प्रस्तुत की थी। उमास्वामी के में सोलह कारण भावना तथा बारह भावना के रूप में बाद तो बारह भावनाओं की बाढ़ सी आ गई है, संस्कत प्रत्येक गृहस्थ और मुनि को इनका निरन्तर चिन्तवन में, अपभ्र श मे और हिन्दी में अनेकों कवियों ने बारह अनिवार्य बताया गया है। इसीलिए ही तो सोलह कारण भावनाओं की रचनाएं की है। भावनाओं के निरन्तर विशुद्ध मन से चिन्तवन के कारण संस्कृत मे शुभचन्द्राचार्य ने ज्ञानार्णव मे हेमचन्द्राचार्य तीर्थकर प्रकृति का बंध होता है। और मोक्ष की प्राप्सि में त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित में वादीभसिंह सूरि ने होती है, उसी तरह बारह भावनाएं भी मोक्ष प्राप्ति का क्षत्रचूड़ामणि मे, पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि (गद्य) में, विशुद्ध साधन है। भावना को संस्कृत में अनुप्रेक्षा और अपभ्रश में वीर कवि ने 'जवस्वामिचरिऊ' में हिन्दी में प्राकृत में 'अणुवेक्ख' शब्दों का प्रयोग होता है। भूधरदास जी ने दौलतराम जी ने छहढाला में, मंगतराय उमास्वामी ने अनुप्रेक्षा की परिभाषा "तत्त्वानु की बारह भावना जगमोहन ने 'धर्मरत्नोद्योत' मे, तथा चिन्तनमनुप्रेक्षा.."अर्थात् बारम्बार सम्यक् तत्व का सकलकीर्ति आदि अनेकों विचारको, कवियो एवं विद्वानों तिरन्तर चिन्तवन ही अनुप्रेक्षा है । ये अनुप्रेक्षाएं ने बारह अनुप्रेक्षाओ की रचनाए मौलिक रूप से छायानुवाद बारह होती हैं इनका आध्यात्मिक दृष्टि से जैन धर्म मे में प्रायः पद्यो में ही रची हैं। इनके अतिरिक्त और भी इतना अधिक महत्व है कि अनेको आचार्यों एवं कवियों अन्य ग्रंथो मे प्रसगानुसार बारह भावनाओं का वर्णन मिलता ने अनित्य अशरण, संसारादि बारह नामों से बारह है भक्तगण इन बारह भावनाओं का प्रतिदिन भक्तिभाव भावनाओं की रचनाएं की हैं तथा उनका विस्तृत निरूपण से चिन्तवन मनन एव पाठ करते हैं। पं० पन्नालाल जी भी किया है ! समीक्षात्मक रूप से सबसे प्राचीन बारह सा० चा० ने भी लिखी है जो अभी अप्रकाशित है। भावना आचार्य कुन्दकुन्द की "बारस अणुवेक्ख" के नाम से साहित्यिक दृष्टि से श्री वसन्तराजन ने जो 'बारस प्राकृत भाषा में उपलब्ध होती है। अणुवेक्ख' का सम्पादन किया है वह सम्पूर्ण जैन वांगमय प्रस्तुत लेखक का लक्ष्य इसी "बारस अणुवेक्ख" के साथ-साथ प्राकृत और कन्नड भाषा को एक अनूठी नामक ग्रन्थ की समीक्षात्मक प्रस्तुति मात्र ही है। यह निधि प्रदान की है जिसके लिए वे विशेष बधाई के पात्र अन्य मैसूर विश्वविद्यालय (मानस गगोत्रो) के जैनॉलजिकल हैं। एवं प्राकृत विभाग के रीडर एवं विभागाध्यक्ष श्री एम. उपयुक्त ग्रन्थ में मूल गाथा प्राकृत देवनागरी में है
SR No.538037
Book TitleAnekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1984
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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