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पारस मला : एक मध्य
तथा टीका प्राचीन कन्नड भाषा एवं उसी लिपि में मुद्रित बाचार्य कुन्दकुन्द की गाथानों पर तथा प्राचीन कन्नड है। चूंकि मैं कन्नड भाषा नहीं जानता अतः टीका के टीका पर कुछ टीका-टिप्पणी करना सूरज को दीपक विषय में कुछ भी लिखना अनधिकार चे'टा होगी। वैसे दिखाना जैसा लज्जास्पद होगा पर एक बात इस ग्रंथ में टीका भी सम्पादक महोदय ने नहीं की है उन्होने तो पूरी मुझे जो विशेष रूप से बटकी वह भावनाओं के क्रम ताडपत्रीय प्रति का सम्पादन संशोधन मात्र ही किया है विपर्यय के बारे में है। यद्यपि बारह भावनाओं का क्रम क्योंकि वे कन्नड के ज्ञाता हैं।
जो आजकल प्रचलित है वही उमास्वामी के भी समय में सम्पूर्ण प्रन्थ में ३२ पृष्ठ तो प्रस्तावना के और प्रचलित था पर उनसे ५०-६० वर्ष पहले इतना क्रम४२ पृष्ठ मूल प्राकृत गाथा और प्राचीन कन्नड टीका के विपर्यय कैसे हो गया इसमें या तो लिपिकार की भूल हो हैं तथा अनुक्रमणिका के २ पृष्ठ हैं इस तरह सम्पूर्ण ग्रन्थ सकती है या फिर आचार्य कुन्दकुन्द को ही यही क्रम ७६ पृष्ठों का है। इस ग्रन्थ मे कुल प्राकृत गाथाएं ९० अभीष्ट रहा होगा। पर आश्चर्य की बात यह है कि तथा दो गाथाए अमुचि और निर्जरा भावना में अतिरिक्त कुन्दकुन्द के ५०-६० वर्ष बाद ही उमास्वामी का क्रम कैसे दी है अतः कुल ६२ गाथाए हो जाती है सम्पादक महोदय बदल गया यह एक बडी गम्भीर समस्या है जिस पर ने ग्रंथ का सम्पादन करते हुए भूमिका प्रस्तावना एवं विद्वज्जन गम्भीरतापूर्वक मनन-चिन्तन करें और समस्या कृतज्ञता ज्ञापन आदि मूल रूप से कन्नड में लिखा है पर का समाधान ढूढ़े। उसका हिन्दी अनुवाद भी दे दिया है जिससे कन्नड न
प्राचीन क्रम जानने वालों को बड़ा लाभ हो जाता है। इसी हिन्दी
प्रचलित कम अनुवाद के आधार पर ही मैं यह समीक्षा लिखने की
१ अध्धुव
१ अनित्य धृष्टता कर रहा हू विज्ञ पाठक जन अशुद्धियो को क्षमा
२ अशरण
२ अशरण करेंगे।
३ एकत्व
३ संसार सम्पादक महोदय को मूल पाडुलिपि श्री इन्द्रकुमार
४अन्यत्व
४ एकत्व जी से प्राप्त हुई थी। जो श्री संक्करे मंडिब्रह्मप्पा के सुपुत्र
५ संसार
५अन्यत्व हैं। प्रस्तुत कृति ताडपत्र पर अंकित है। जिसके प्रत्येक
६ लोक
६ अशुचि पत्र की लम्बाई चौड़ाई ३३"x२" इंच है प्रत्येक पत्र
७ असुचि ५+१-६
७ आश्रव पर ८-८ पंक्तिया है और प्रत्येक पक्ति में १४-१५ अक्षर
८ आथव १४
८ संवर हैं। चूकि प्रति खडित है अतः खडित स्थानों की पूर्ति
निर्जरा जीवराज ग्रंथमाला से प्रकाशित "कुन्दकुन्द प्राभूत सग्रह"
मा १० निर्जरा १+१=२
१. लोक नामक ग्रंथ से की गई है। प्रस्तुत कृति की गाथाएं यद्यपि ११
११ बोधि दुर्लभ
१२ बोधिदुर्लभ ४ आचार्य कुन्दकुन्द की है पर इनकी कन्नड टीका किसने की
१२ धर्म यह सर्वथा अज्ञान है। और इसका उल्लेख कहीं भी नहीं उपसंहार इससे अलग है जो सभी ने प्रायः लिखा है। मिलता है। इस प्रति के बीच के पत्र भी गायब हैं पर
इस तरह विज्ञ पाठक कुन्दकुन्द और उमास्वामी की अन्तिम पत्र संख्या ५३ है शायद एक दो पत्र और होंगे
बारह भावनाओं का क्रम विपर्यय और उनका आगे-पीछे इस तरह मूल कन्नड पांडुलिपि ५५ पृष्ठा का हा मानना होने की समस्या पर गम्भीरतापूर्वक विचार कर प्रकाश जा सारी प्रति प्राचीन कन्नड भाषा में अंकित है डालें साथ ही सम्पादक महोदय भी अपना स्पष्टीकरण जिसे श्री शुभचन्द्र जी ने आधुनिक कन्नड में परिवर्तित कर प्रकाशित गरे। शुद्ध परिष्कृत रूप प्रदान किया और वर्तमान रूप में इस व प्रकाशित है।
का पूर्ण आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ है जिसे उन्होंने अपने
संबर