SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्ष १७,कि०२ अनेकान्त प्रिय श्री लालचंद जी भंडारी की पुण्य स्मृति में प्रदान है। यदि यह ग्रन्थ सजिल्द होता तो अच्छा रहता और किया है। श्री लालचन्द जी मूल निवासी राजस्थान के थे टिकाऊ भी हो जाता। इसकी कीमत १२/-रु. रखी है जो पर आजीविका हेतु बैंगलर में आ बसे थे १४-४-७४ को कुछ अधिक लगती है। उनका आकस्मिक निधन हो गया था। अत: उन्हीं की इन शब्दों के साथ श्री वसन्त राजन जी का आभारी पुण्य स्मृति में यह बहुमूल्य उपयोगी ग्रंथ प्रकाशित हुआ हूं जो उन्होंने मुझे अपने ग्रंथ के बारे मे लिखने का शुभ है। इसके लिए श्री मांगीलाल जी धन्यवाद के पात्र हैं। अवसर प्रदान किया। धन्यवाद ! ग्रंथ में श्री लालचंद्र जी का चित्र भी संलग्न है। प्रति की श्रुत कुटीर, ६५ कुन्ती मार्ग, विश्वासनगर, छपाई शुद्ध, साफ और सुन्दर है। कागज भी उत्तम लगाया शाहदरा, दिल्ली-११००३२ (पृष्ठ ३ का शेषांश ) दृष्ट्वाजिनालयं दिव्यं भक्त्या तुष्टाव संयमी। सम्पादित-अनुदित तथा १९७२ ई० में श्री शान्तिवीर मनोभवान्तकं देवं सभव भवनाशनम् । नगर, श्री महावीर जी, से प्रकाशित धन्यकुमारचरित, -इस प्रकार चतुर्विध धर्म्यध्यान का चिन्तवन करते प्रस्तावना, तथाशोधांक-८ एब शोधांक १७ में और हए तथा दूसरों को धर्म्यध्यान का मार्ग दिखाते हुए, ग्राम, जैनाएरिक्वेरी, भा० अ० मे प्रकाशित हमारे लेख । खेट, पूर, आकर आदि में वह मुनिसंघ के प्रधान धोर-वीर तीर्थों का उपरोक्त वर्णन कथानक के पात्रों द्वारा मुनिराज तीर्थकर जिनेन्द्रों के तीर्थों की वन्दना करते हुए उनकी यात्रा एव बन्दना करने के मिस कराया गया है। विहार कर रहे थे विहार करते-करते वे भवविनाशक , ग्रंथकार गुणभद्र माथुरसंघी भट्टारक थे और उत्तर भारत भगवान संभवनाथ की बंदना हेतु देवो द्वारा पूजित श्रावस्ती में ही विचरते थे? अतएव सभावना यही है कि उन्होंने नगरी पहुंचे। वहां उन्होंने दिव्य जिमालय में कामविजेता स्वय अकेले अथवा श्रावकों सहित उक्त छ: तीर्थों की एवं भवविनाशक संभवनाथ भगवान की भावभीनी स्तुति यात्रा एवं वन्दना की थी। यह भी स्पष्ट है कि १२वीं की। आगे के पतिका छंद के पद्यों में वह भक्तिपूर्ण शती ई० के उत्तरार्द्ध में ये तीर्थ क्षेत्र अच्छी अवस्था में थे, संभवाष्टक दिया है। कुछ ही समय उपरान्त इसी वहाँ भव्य जिनालय भी विद्यमान थे, और मूनि, त्यागी श्रावस्ती के वन मे समाधिपूर्वक देहत्याग करके मुनिराज एव गृहस्थ श्रावक उनकी वन्दनार्थ यात्रा करते थे। धन्यकुमार सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुए। सन्दर्भ के लिए देखें-५० पन्नालाल साहित्याचार्य ज्योतिनिकुञ्ज, चारबाग, लखनऊ-१६ - (पृष्ठ ७ का शेषांश ) अपने कारण से दुखी है अगर परकारण से दुखी होता, कर्म रमण करना यह तेरा कुपुरुषार्थ है जो तू कर रहा है। संसार के कारण से दुखी होता तब तो उनके सुखी करने पर ही में कोई चीज बन्ध का कारण नहीं है, कोई चीज दुःखका सुखी हो सकता था परन्तु तू अपने कारण से दुखी है और कारण नहीं है मात्र तेरी अज्ञानता-वह जो अपने को तू अपने पुरुषार्थ से सुखी हो सकता है। अपने रूप न जान कर पर रूप जानना है यही कमें बन्ध तेरा पुरुषार्थ कर्म के फल मे नहीं है वह तो प्रेम से का कारण है यही-दुख का कारण है यही संसार का माना हुआ है तेरा पुरुषार्थ तो अपने को पहचान कर अपने बीज है यह तेरे छोड़ने से ही मिटेगी यह अपने को नहीं को अपने रूप देखना है अपने को अपने रूप जानना और जानने से हुई है और यह अन्य किसी उपाय से, किसी को अपने में ही रमण करना है। शानमात्र इतना ही तेरा पूजने से, किसी का जाप करने से नहीं मिट सकती यह तो पुरुषार्थ है। यही तू कर सकता है इसके विपरीत पर को अपने को जानने से ही मिटेगी। अपने रूप देखना, परं को अपने रूप जानना और पर में सन्मति विहार, नई दिल्ली
SR No.538037
Book TitleAnekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1984
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy