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________________ दुख का बीज 0 श्री बाबूलाल बता-लकत्ता वाले कर्म अपना कार्य करता है ज्ञान अपना कार्य करता आपमे अपनापना मान अपने को अपने रूप में देखें। तब है। कर्म के फलरूप शरीर की प्राप्ति होती है चाहे स्वरूप जितना कर्म इकट्ठा है वह तो अपना फल देकर चला हो चाहे अस्वरूप चाहे सुन्दर हो चाहे कुरूप । उसी कर्म जता है और इनमे अपनापना न मानने से नये कों का के फलस्वरूप बाहरी वातावरण प्राप्त होता है कोई मान बन्ध होता नही अत एक रोज यह आत्मा कर्मरहित हो करता है कोई अपमान करता है बाहर गरीबी-अमीरी जाता है जब कर्म नही रहता तो उसके फलस्वरूप मिलती है शरीर के अलावा अन्य चीजों का सयोग होता शरीरादि का भी अभाव हो जाता है मात्र रह ज्ञात है। उसी कर्म के फलस्वरूप किसी वस्तु को हितकारी मान आत्मा पूर्ण विकास को प्राप्त हो जाता है। कर राग करता है। किसी से द्वेष करता है किसी से काध इसलिए न तो शरीर बध का कारण है न मन बचन करता है कही मान करता है आदि । कर्म के उदय से यह काय की क्रिया बध का कारण है न स्त्री पत्रादि धन सब कार्य होते हैं। रागद्वेष जीव करता है उससे कर्म का परिगृह बध का कारण है बध का कारण तो अपने आपको ही बन्ध होता है और कर्म उदय मे आता है उससे रागद्वेष भूल कर इनमे, पर मे अपनापना मानना ही वध का कारण होता है । सवाल होता है कि इससे छुटकारा कैसे हो।। है अपने को पर रूप देखना कर्म के फल रूप देखना ही यह सब कर्म के फलरूप होता है परन्तु इनमे अपना-बन्ध का कारण है । यही दुख का कारण है। पना कौन मानता है इसका कारण भी वह जीव है जो पर को अपने रूप देखना या अपने को अपने रूप अपने आपको अपने स्वरूप को न जान कर इनमे अपना- देखना इनमे एक तेरी गलनी है और एक तेरी शानता है। पना मानता है यह कर्म के फल मे अपनापना मानना ही कोई दु.खी करने वाला नहीं-- न भगवान कुछ कर सकता वास्तव मे रागद्वेप का कारण है यही चोर की मा है। है न कर्म कुछ कर सकता है तू अपनी अज्ञानता से इनको शरीर भी नये कर्म निर्माण का कारण नही परन्तु अपने रूप देख कर आप हो अपने ससार का अपने दुख का शरीर मे अपनापना मानना ही कर्म निर्माण मा नये शरीर निर्माण करने वाला है तू ही अपने को जान कर अपने को को प्राप्त करने का कारण होता है। शरीर चाहे अच्छा अपने रूप देखे पर को पर रूप देखे तो अपने आपको सुखी हो चाहे बुरा वह तो यह कहता नही कि तू मरे को अपना मान । यह अज्ञानी आप ही अपने को न जान कर इसमें तू अपने को जानना चाहे तो जान सकता है इतनी अपनापना मानता है और ससार का बीज उत्पन्न करता है। योग्यता तेरे में है पर को जानने के लिए इन्द्रियों की पुण्य-पाप का उदय तो यह कहता नही तू मुझे अपना मान प्रकाशादि भी बरकार है परन्तु अपने आपको जानने के यह अज्ञानी आप ही अपने को न जान कर इनके फल में लिए तो मात्र अपनी ही दरकार है। यह मौका मिला है अपनापना मान कर दुखी-सुखी होता है और नये कर्म का तू चाहे तो अपने आपको जान कर परम पद को प्राप्त निर्माण करता है। ये रागद्वेष, क्रोधादि जो कर्म के फल. हो सकता है तू पर में अपनापना मान कर ५४ लाख योनी स्यरूप हो रहे हैं ये ती कहते नहीं कि तू हमारे में अपनापन में भ्रमण कर सकता है कोई बचाने वाला नहीं है अगर मान परन्तु यह अज्ञानी अपने को न पहचान कर अपने को पर में अपनापना मानेगा तो उसमें आसक्ति भी होगी न देखता है और नये संस्कार पैदा करता है। यह सब अहमभाव भी होगा कर्म का निर्माण भी होगा। यदि तेरे कार्यकर्म के फलरूप हो रहे हैं परन्तु अगर यह इन रूपो हाथ में है । समूचा कार्य तो कर्म के हाथ में हैं परन्तु उस अपनपना न माने तो दुखी भी न हो और नये कर्म का कार्य में अपनापना नहीं मानना यह तेरे हाथ में है। त निर्माण भी न हो। और यह तभी सम्भव है जब यह अपने (शेव पृष्ठ पर) . ... . ..... बनानवाला
SR No.538037
Book TitleAnekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1984
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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