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________________ प्रद्वैतदृष्टि और अनेकान्त प्रशोककुमार जैन एम. ए. पूर्वपक्ष-वेदान्त आत्मा को एक और अद्वैत ही मानता है, यही ब्रह्म समस्त विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय अद्वत का अर्थ है संसार में दूसरी कुछ वस्तु नही। भार• में उसी तरह कारण होता है जिस प्रकार मकड़ी अपने तीय दर्शनों में वेदान्त का प्रमुख स्थान है और जैनदर्शन जाल के लिए, चन्द्रकान्तमणि जल के लिए और वट वक्ष के अतिरिक्त यही एक दर्शन ऐसा है जिसने एकमात्र आत्मा अपने प्ररोहों के लिए कारण होता है। जितना भी भेद है और परमात्मा के सम्बन्ध मे खोज की है। अन्य दर्शनो ने वही सव अतात्विक और झूठा है। केवल भौतिक जगत की छानबीन की है और आत्मा को यद्यपि आत्मश्रवण मनन, और ध्यानादि भी भेद रूप अन्य द्रव्यों की तरह एक चेतन द्रव्य मानकर छोड़ दिया है होने के कारण अविद्यात्मक है फिर भी उनसे विद्या की उसके सम्बन्ध मे आगे उन्होंने कुछ नहीं कहा । जहाँ तक प्राप्ति संभव हैं जैसे धूलि से गदले पानी में कतकफल या परमात्मा का सम्बन्ध है उसका सम्पूर्ण विश्लेषण उसके फिटकरी या चूर्ण जो कि स्वय भी धलिरूप हो है, डालने जगन्निर्माण को आधार बनाकर ही किया है। वह स्वय पर एक धूलि दूसरी धूलि को शान्त कर देती है और स्वय अपने आप मे क्या है और उसका क्या रूप है इस विषय भी शान्त होकर जल को स्वच्छ अवस्था में पहुंचा देती मे अन्य दर्शन मौन है। वेदान्ती जगत मे केवज एक ब्रह्म है । अथवा जैसे एक विष दूसरे विष को नाशकर निरोग को ही सत् मानते है। वह कुटस्थ नित्य और अपरिवर्तन अवस्था को प्राप्त करा देता है उसी तरह आत्मश्रवण शील है । वह सत् रूप है। यह अस्तित्व ही उस महासत्ता मनन आदि रूप अविद्या भी रागद्वेष मोह आदि मूलअविद्या का सबसे प्रबल साधक प्रमाण है। चेतन और अचेतन को नष्टकर स्वगत भेद के शान्त होने पर निर्विकल्प जितने भी भेद हैं, वे सब इस ब्रह्म के प्रतिभासमान हैं। स्वरूपावस्था प्राप्त हो जाती है। अतात्विक अनादिउनकी सत्ता प्रातिभासिक या व्यावहारिक है. पारमार्थिक कालीन अविद्या के उच्छेद के लिए ही मुमुक्षुओं का प्रयत्न नहीं । जैसे एक अगाध समुद्र वायु के वेग से अनेक प्रकार होता है । यही अविद्या तत्वज्ञान का प्रागभाव है अतः की बीची, तरग, फेन, बुबुद् आदि रूपो में प्रतिभासित अनादि होने पर भी उसकी निवृत्ति उसी तरह हो जाती है होता है। यह तो दृष्टि सृष्टि है। अविद्या के कारण अपनी जिस प्रकार कि घटादि कार्यों की उत्पत्ति होने पर उनके प्रागभावो की। पृथक सत्ता अनुभव करने वाला प्राणी अविद्या में ही बैठकर अपने सस्कार और वासनाओ के अनुसार जगत् को ___इस ब्रह्म का ग्राहक सन्मात्रग्राही निर्विकल्प प्रत्यक्ष है। वह मूक बच्चो के ज्ञान की तरह शुद्ध वस्तुजन्य और अनेक प्रकार के भेद और प्रपंच के रूप मे देखता है। एक MEप में निर्विकल्प होता है। ही पदार्थ अनेक प्राणियों को अपनी-अपनी दूषित वासना 'अविद्या ब्रह्म से भिन्न है या अभिन्न' इत्यादि विचार के अनुसार विभिन्न रूपो मे दिखाई देता है। अविद्या के भी अप्रस्तुत है क्यों कि ये विचार वस्तुस्पर्शी होते हैं और हट जाने पर सत, चित्त और आनंद रूप ब्रह्म में लय हो अविद्या है अवस्त । किसी भी विचार को सहन नहीं करना जाने पर समस्त प्रपचों से रहित निर्विकल्प ब्रह्म स्थिति ही अविद्यात्व है। प्राप्त होती है। जिस प्रकार विशुद्ध आकाश को तिमिर- उत्तरपक्ष:-फर्मत, फलत तथा विद्यावय का रोगी अनेक प्रकार की चित्र-विचित्र रेखाओ से खचित महंत दृष्टि में न होना-अद्वैत एकान्त मे शुभ और अशुभ और चिवित देखता है उसी तरह अविद्या या माया के कर्म, पुण्य और पाप इहलोक और परलोक, ज्ञान और कारण एक ही ब्रह्म अनेक प्रकार के देश, काल और अज्ञान, बन्ध और मोक्ष इनमे से एक भी द्वैत सिद्ध नही आकार के भेदो से भिन्न की तरह चित्र-विचित्र प्रति- होता है। भासित होता है। जो भी जगत में था और होगा वह सब लोक में दो प्रकार के कर्म देखे जाते हैं-शुभ कर्म और अशुभकर्म । हिंसा करना, झूठ बोलना, चोरी करना आदि
SR No.538037
Book TitleAnekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1984
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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