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________________ २४, वर्ष ३७, कि०३ अनेकाल में दीक्षा लेने जाय तो गुरु का कर्तव्य है कि वे उसे -हिंसा, अनुत, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रह से विरति 'निवृत्ति' रुप व्रत का उपदेश दें-आस्रव व बंधकारक सर्वनिवृत्ति-परिणाम, समस्त शुभ-अशुभ रागादि विकल्पों क्रियाओं से 'विरत' करें। उसे कुछ प्रहण करने कोन से निवृत्ति, देश-विरति सर्व-विरति, पापों से विरमण, कहें। पर परिपाटी ऐसी बन गई है कि 'आप व्रत ग्रहण कृत्स्न (पूर्ण) निवृत्ति एकदेशविरति, रागादि का अप्राकर लें, कहकर उसे व्रत दिए जाते हैं। जबकि आगमा- दुर्भाव, प्राणवधादि से विराम, हिंसादि परिवर्जन अथवा नुसार व्रत का लक्षण 'विरत' होना है, आरिग्रही होना उनसे विमुक्ति, आदि । उक्त सभी स्थलों में विरति की है । रत होना नहीं। ये जो कहा जा रहा है कि-'अमुक प्रधानता है। कही भी अहिंसादि में प्रवृत्ति का विधान ने महावत या अणुव्रत ग्रहण किए' सो यह सब व्यवहार नहीं है जैसा कि कहा जाता है-'मैंने या उसने अहिंसादि भाषा है, इसका तात्पर्य है कि वह उन उन पापों से व्रतों को ग्रहण किया है या कर रहे हैं। ये सब जीवों के विरक्त हमा-उसकी उन पापों से रति छूटी। न वह कि अनादि रक्त-रागी-परिणामों का ही प्रभाव है जो हम पुण्य में रत हुआ। छोड़ने की जगह ग्रहण करने के अभ्यासी बन रहे हैं--जब ये बात हम नही कह रहे । आखिर, आचार्य देव ने कि जिन या 'जन' का धर्म विरक्ति (शुद्धता की ओर निवत्ति को स्वयं ही व्रत का लक्षण बताया है । तथाहि : बढ़) का धर्म है। 'जिन' स्वय भी सब छोड़े हुए है। 'हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहभ्यो विरतिवंतम् ।' देखें 'नियमसार' -तत्त्वार्थ ७१ कुल जोणिजीवमग्गण-ढाणाइस जाणऊणजीवाण । 'सर्वनिवृतिपरिणामः।' पर. प्र. टी. २०५२।१७३१५ तस्सारंमणियत्त-परिणामो हाई पठम बद । ५६ ॥ 'समस्त शुभाशुभ रागादिविकल्प निवृत्तिर्वतम् ।' रागेण व दोसेण व मोहेण व मोसभासपरिणाम। -द्र. सं० टी. ६५६१००।१३ जा पजहदि साहु सया विदिवयं होई तस्सेव ॥५७।। 'देशसर्वतोऽणुमहती। गामे वा णयरे वा रणे वा पछिऊण परमत्थ । देशश्च सर्वश्च ताभ्यां देशसर्वतः। विरतिरित्यनु- जो मुचादिग्रहण भाव तिदियवदं होदि तस्सेव ॥५॥ वर्तते। दद्ण इच्छिरुव' वांछाभाव णिवत्तदे तासु । हिंसादेर्देशतो विरतिरणुवत, सर्वयोविरति महाव्रतम् । मेहुणसण्णविवज्जिय परिणामो अहब तुरीयवदं ॥५६॥ न हिनस्मि नानृतं वदामि नादत्तमाददे नागनां स्पृशामि सव्वेसि गयाणं चागो हिरवेक्खभावणा पुव्व । न परिग्रहम्पाद दे' इति। -त. रा. वा. ७/२/२ पंचमवदमिदि भणिदं चारित्तभर वहतस्स ॥६॥ जात्या श्रद्धाय पापेभ्यो विरमणं व्रतम् ।'-म. आ. -नियमसार -वि. ४२१/६१४/११/पृष्ठ-६३३ कोष -कुल, योनि, जीव समास, मार्गणा आदि जीवो के निरतःकार्तस्त्यनिवृतीभवतियति: समयसारभूतोऽयं । ठिकानों को जानकर उनमें आरम्भ करने से हटना या त्वेक देशविरतिनिरतस्तस्यामुपासको भवति ॥' अहिंसावत है। -पुरुषार्थ १ जो सज्जन पुरुष राग द्वेष व मोह से मूठ के परिणामों 'अप्रादुर्भावः खलुरागाहीनां भवत्यहिंसा। को जब छोड़ता है तव उसके सत्यव्रत होता है। 'पाणवधमुसावादावत्तादाणपरदारगमणेहि । दूसरे के द्वारा छोड़ी या दूसरे की वस्तु को (चाहे वह अपरिमिदिच्छादोविय अणुब्बयाई विरमणाई॥ प्राम नगर, वन आदि मे कहीं भी पड़ी हो) उठाने के परि णाम को जो छोड़ता है उसके अचौर्य व्रत होता है। म. आ. मूला. २०८०/१८१८ पेज ६३५ 'हिंसाविरदी सच्च अदत्त परिवज्जणं च बंभ च । जो स्त्री के रूप को देखकर ही उसके भीतर अपनी संग विमुत्तीय सहा महब्बया पंचपण्णता ।। इच्छा होने रूप परिणामों को हटाता है। उसके ब्रह्मचर्य म.मा.४ इत होता है।
SR No.538037
Book TitleAnekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1984
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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