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विचारणीय-प्रसंग:
मूल-जैन-संस्कृति : अपरिग्रह
0 श्री पप्रचन्द्र शास्त्र', नई दिल्ली 'आज लोगों में चिता व्याप्त है कि-यदि हम 'अपरिग्रहवाब' को मूल-जैन-संस्कृति मान बैठे तो हम कहां के रहेंगे? आज तो हम अहिंसा को मूल संस्कृति बता कर बया, जीव रक्षा और परोपकार के नाम पर थोड़ा बहुत दान देकर दानी धर्मात्मा और अहिंसक जैनी बने हुए हैं और संग्रह के आयामों में भी हमें किसी प्रकार की अड़चनें नहीं आती -बाहे जैसे और जितना कमाते और सुख भोग करते हैं और हमें समाज में प्रतिष्ठा भी मिली रहती है, आदि। यह सारी चिता परिपह को कृशता में संतोष धारण से सहज ही दूर हो जायगी और जैनत्व को बल मिलेगा।' पाठक विचार करें।
-सम्पादक 'सस्कृति' शब्द बड़े गहरे भाव में है और इसका आ रही है ? तीर्थकर ऋपभदेव की यह देन है यह कथन सम्बन्ध वस्तु की स्व-आत्मा से है। सस्कार किया हुआ भी व्यवहार है। वास्तव मे तो तीर्थंकर ऋषभदेव भी रूप 'सस्कृत' कहलाता है और सस्कृत हुए शुद्धरूप की तीर्थंकरो की अनादि परम्परा में इस युग की प्रथम कडी धारा सस्कृति होती है । विकसित स्व-गुणो की धारा होने थे; जिन्होंने इस सस्कृति को पुन: उजागर किया। कोई. से सस्कृति' स्थायी होती है । कोष में सस्कार का अर्थ 'शुद्ध कोई लोग तो जैन-सस्कृति को भगवान महावीर की देन किया जाना' लिखा है और संस्कृति सस्कार किए गए- मानने के भ्रम में है। पर, स्मरण रखना चाहिए कि 'जैनसंस्कृत रूप से प्राप्त है अतः 'संस्कृति' का स्थायित्व सस्कृति' वह है जो मूल अनुसरणी है-भूल के विपरीत म्वसिद्ध है। इसके विपरीत-'असस्कृति'-पर अर्थात् नही है। ये सस्कृति जिनसे प्रकाश मे आई वे जिन' अन्यों से प्रभावित बहुरूपियापन से लदी--अस्थायीरूप होती अपरिग्रही-शुद्ध आत्मा का अनादि मून रूप ही है । हाँ, है क्योकि बहरूपियापन उधार लिया हुआ नाशबान रूप जैन-सस्कृति की भाति सस्कृति शब्द का व्यवहार मानव हाता है-वह स्थायी नही हाता । उदाहरणाथ-स्वर्ण का आदि अनादिवर्ती अस्तित्वो के साथ भी हो सकता है। रूप निखरना उसका सस्कृत होना होता है और निखरे बोल हुए इस सस्कृत रूप से पनपने वाली संस्कृति स्वर्ण संस्कृति
यदि हम जैन-सस्कृति, मानव-सस्कृति, आत्म-सस्कृति हाती है और खोट मिल सोने की सस्कृति (?) असस्कृति
आदि कहे तो ठीक बैठ जाता है, क्योकि ये सदा से है होती है। ऐसे हो अन्यत्र समझना चाहिए। लोगो ने
और सदाकाल रहेगे और इनके अपने रूपो से अपनो में सस्कृति शब्द को व्यवहार परक रीति-रिवाज, वेश-भूषा
भेद न होगा, जब कि हिन्दू का हिन्दू से, मुसलमान का आदि अन्य अनेक अर्थो मे भी लिया है -सो वह व्यवहार
मुसलमान से भेद हो जायगा। ध्यान रहे पथ-सप्रदाय के ही है-वास्तविक नही।
आधार से पनपने वाली कथित संस्कृति (?) उसके अनुजिन' शब्द पारिभाषिक और व्यवहार-परक है और यायियों से अनेको भेदो मे बँट जायगी। जैसे दि. जैन, यह (कर्मों को) जीतने वाले शुद्ध आत्माओ को इगित श्वेताम्बर जैन, तेरहपथी जैन, बीसपंथी जैन तथा शियाकरता है। 'जिन' का धर्म जैन कहलाता है। इस धारा मुसलमान-सुन्नी-मुसलमान आदि। पर, आत्मा, मानव का ऐसा प्रवाह जो स्वयं शुद्ध हो या शुद्धि मे निमित्त हो या 'जिन' मे ऐसा नहीं होता-सभी अपने लक्षणों, गुणों सके जैन सस्कृति' है।
से अपने में एक जैसे अखण्ड हैं इनके लक्षणों-गुणों में कभी यह कोई नहीं जानता कि जैन सस्कृति कब से चली अन्तर न आयगा। यदि कभी कहीं किसी प्रकार का