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________________ अनेकान्त अज्ञान से भी नुखपतित सितखंड का भी खंड है, विख्यात जग में बात यह माधुर्य देत अखण्ड है ।। १६ ।। जो पाद पङ्कज में तिहारे नम्र करता माथ है, वह ऋद्धि-सिद्धि समूह से सर्वत्र होत सनाथ 1 फिर तीर्थंकर बनकर जगत् का तिलक होता है वही, पश्चात् अब्याबाध सुखमय धाम में जाता सहो ॥ १७॥ ज्यों काल का दिनरात आदि विभाग रविविषु निमित है, दो पंख से ही गगन में खेचर गमन जम विदित है । त्यों आपने भी जगत जन को यह जताया नाथ ! है, ज्ञान क्रिया के ऐक्य से मुक्ति देती हाथ है ||१८|| हे नाथ ! जीवन में अनोखे सार का कारण महा, पीया गया पीयूष पर वह देह का रक्षक कहा । स्याद्वाद से भूषित तिहारी देव ! निर्मल भारती, निज सेवकों को मुक्ति देती हरण कर सब आरती ॥ १६ ॥ षट् खंड- मंडित भुवन मंडल को विभो ! चक्री यथा, करके विजित निज चक्र से शासित उसे करता, तथा । मुनिनाथ ! तुमने भी जगत में जैन शासनरत किया, भविवृन्द को मिथ्यात्व हर नयचक्र से वश कर लिया ॥२०॥ मिथ्यात्व रूपी दोष यह चिरकाल से पीछे पड़ा, यह है विषमतर भव भ्रमण का हेतु जहरीला बड़ा । यह नाथ ! हरभव में निरन्तर ताप देता उग रहा, २८, बर्ष ३७, कि० २ में नित लोन हैं । मतिलीन हैं, आमूल इसका नाश करता तेज जो तुम में भरा ॥२१॥ जो जन प्रमादी विषम मोह अधीन कृत्य विहीन हैं, विषयाभिलाषी दुर्जनों के संग हैं जो विवेक विहीन विषया संग से लाता सुपथ पर उन्हें तेरा ज्ञानादि मुण तेरे अनंते कल्पवृक्ष हैं रत्न चिन्तामणि सदृश देते चन्द्रसम उज्ज्वल करें वे जगत जन तेज जो गमगीन है ॥२२॥ समान हैं, किमिच्छिक दान हैं। मन को विभो ! है कौन ऐसा भव्यजन जो याद कर पुलकित न हो ॥२३॥ हे नाथ ! चिन्तामणि सुरद्रुम और नवनिधियां महा, उनसे मिले जो सौख्य जनको वह क्षणिक नश्वर कहा । जो आपके सेवक मनुज ध्रुव मित्य सुख भुगते यहां, इन सब सुखों से भी अनंता सौख्य भुगतो तुम वहां ॥२४॥
SR No.538037
Book TitleAnekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1984
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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