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देवदास नामक दो कवियों के भिन्न-भिन्न हनुमानचरित
पं० परमानन्द जी को संभवतया मडवैया जी द्वारा गुरु मानते थे और अनन्तकीति के उत्तराधिकारी, संभवप्रकाशित रचना की कोई जानकारी नहीं थी और मडवैया वया भ. प्रतापकीति (ज्ञाततिथि १६१६ ई०) थे। ऐसा जी ने दोनों ग्रंथों और उनके कर्ताओं के नामों में कथंचित लगता है कि सूरत पट्ट के अभयचन्द्र या अभयनन्दि द्वारा साम्य देखकर अभिन्न समझ लेने की भूल की है। किन्तु मालवा का शाखा पट्ट स्थापित किया गया था, और उक्त दोनों कथाओं की विषय वस्तु प्रायः एक (हनूमान कथा अभिनव रत्नकीति, कुमुदचन्द्र, ब्रह्मरायमल, मुनि अनन्तया चरित) होते हुए भी और दोनो के कर्ताओं के नामो कीर्ति, ब्रह्मदेवदास और भ० प्रतापकीर्ति उसी शाखा पट्ट में अद्भुत साम्य सा रहते भी, इसमें सदेह नहीं है कि ये से सम्बद्ध थे। एक दूसरे से भिन्न दो स्वतन्त्र रनचनाये है, और दो भिन्न दूसरे हनुमानचरित (रासा) के कर्ता आर्य ब्रह्म कवि कवियों द्वारा रचित हैं। न केवल दोनों के रचना काल मे देउदास (देवदास) के गुरु भट्टारक ललितकीर्ति ग्वालियर६५ वर्ष का अन्तराल है, उनके परिमाण, आकार प्रकार, कंडल पुर ( मोह) पट्ट के भ० यशकीति के शिष्य भ. भाष और शैली में भी पर्याप्त अन्तर है । सन् १५५६ ई० ललितकीनि प्रतीत होते है जो पपपुर.ण एवं हरिवंशपुराण वाली हनूकथा अपेक्षाकृत सक्षिप्त है। उसमे सीता के माथ के कर्ता भ० धर्मकीति (१६१२-१४ ई०) के गुरु थे। इन मन्दोदरी आदि के सवादों के प्रमग हैं ही नही। अन्य भी ललिनीति के शिष्य उक्त आर्य ब्रह्मदेव ने अपना प्रथ अनेक ऐसे प्रसंग जो सन् १६२४ ई० वाले हनुमानचरित १६२४ ई० में रचा और उनकी सूचनानुसार उस समय में प्राप्त है, शायद उसमे न हो।
उनके गुरु भ० ललितकीति दिवगत हो चुके थे। इन तथ्यों
मे कोई भी विसगति प्रतीत नहीं होती। इसके अतिरिक्त १५५६ ई० वाली हनूकथा के कर्ता
अस्तु यद्यपि उक्त दोनों रचनाओ और उनके कर्ताओं ब्रह्मदेवदास के गुरु मुनि अनन्तकोनि थे जो स्वयं मूल सघ
मे नाम माम्य है, दोनों एक ही परम्परा मूल संघ-सरस्वतीशारदागच्छ के मुनि रत्नकीर्ति के शिष्य एवं पट्टधर थे।
गच्छ से सम्बद्ध थे तथा सम्गवतया प्रायः एक ही क्षेत्र, यह रत्नकीति सूरतपट्ट के भ० अभयचन्द्र के प्रशिष्य और
मालवा-बुन्दुलखंड, के निवासी भी थे, वे दोनों ग्रंथ और भ० अभयनन्दि के शिष्य प्रतीत होते हैं। मालवा भट्ट के । इन अभिनव रत्नकीर्ति के एक शिष्य भा० कुमुदचन्द्र थे
उनके कर्ता एक दूसरे से सर्वथा भिन्न एवं स्वतंग हैं। उक्त जिनके शिष्य ब्रह्म रायमल्ल (१५५८-१६१० ई ) थे।
आर्य ब्रह्मदेवदास कृत हनुमानचरित या रासा(१६२४ ई०)
का उद्धार करके उसे प्रकाशित करने की आवश्यकता है। स्वय कुमुदचन्द्र की एक ज्ञात तिथि १५१५ ई० है। अत
जैन साहित्य के इतिहास में नाम-साम्य बहुधा भ्रांतियों एव रत्नकीर्ति के दूसरे शिष्य और कुमुदचन्द्र के गुरु भाई
का कारण हुआ है। मुनि अनन्तकीति का समय भी इसी के प्रायः लगभग है। उनके शिष्य ब्रह्मदेवदास द्वारा १५५६ ई० मे हनूकथा का
---ज्योति निकुंज रचा जाना सुसगत है। ब्र० रायमल्ल भी अनन्तकीति को
चार बाग, लखनऊ-18
असुर सुरमणुयक्षिण्णररविससिकिरिसमाहियवरचरणी । दिसउ मम बोहिलाहं जिरणवरवीरो तिहवरिपन्यो। खमदमरिणयमघराणं धुदरयसुहदुक्खविप्पजुत्तारणं । पाणज्जोदिय सल्लेहाम्म सुगमो जिवराणं ॥