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इन्द्र फणीन्द्र नरेन्द्र बंच पद निर्मलधारी, शोमनीकं संसार ४-इसमें 'बिनाने परिपुष्पांजलि क्षिपेत-इति जिन
सार गुण हैं अविकारी। पूजन प्रतिज्ञा "ऐसा जो लिखा है इसका तात्पर्य तिमा क्षीरोदधि समनीर सों पूजों तृषा निवार, (सीमंधर जिन क्रिया को अभिव्यक्त करने के लिए पुष्पोपण बताया है। बादि देबीस विदेह मंझार ॥१॥ बीस बिहरमान पूजा अनेक जगह पूजापाठ आदि में जो पुष्पक्षेपण का उल्लेख
इसी प्रकार से बाठों द्रव्यों के श्लोक हैं जिन्हें यहां आता है वह इसलिए कि वह इसी तरह किसी क्रिया की संस्कृत अर्थ न माता हो वे इन हिन्दी पूजाओं से सरलता अभिव्यक्ति के लिए हैं पुष्पक्षेपण व्यर्थ में नहीं समझना के साथ उसे लगा सकते हैं।
चाहिये। ३-इस संस्कृत पूजा में आह्वानन, स्थापन, सन्निधि- ५-इस संस्कृत पूजा में-जल द्रव्य की बजाय करण ये ३ उपचार मंत्र नही दिये हैं जबकि वे आजकल "जल-धारा" शब्द का प्रयोग किया है। अनेक पूजामों में बड़ा लिए गए हैं लेकिन ये कविकृत नहीं हैं। इन उपचारों भी ऐसे पाठ पाये जाते हैं। नन्दीश्वर पूजा में ही देखो का प्रयोग प्राचीन अनेक पूजाओं में नहीं पाया जाता। ये "तिहुं धार दई निरबार जामन मरन जरा" इसमें जन्म उपचार पहिले मांत्रिक लोग सिद्धि में देव-देवियों के लिए जरा, मरण के निवारण रूप में तीन जलधारा देना प्रयुक्त करते थे। अरहंतादि की पूजा में इनका प्रयोग बताया है (यह जल द्रव्य का पक्ष है) इससे एक प्राचीन नहीं था इसी से यशस्तिलक चम्मू और पपनंदि पंचविंश- विधि का समीकरण होता है जैसा कि तिलोय पण्णत्ती तिका पूजा पाठों में भी इनका प्रयोग नहीं है। इस ।
गाथा १०४ अधिकार ५ तथा जंबू दीप पण्णजी गापा ११५ विषय में नरेन्द्र सेन कृत प्रतिष्ठा दीपक में लिखा है
उद्देश ५ में जलद्रव्य को स्पष्ट अभिषेक रूप में ही बताया साकारादि निराकारा स्थापना द्विविधा मता।
है, अलग जलाभिषेक नही बताया है। अक्षतादि निराकारा, साकारा प्रतिमादिषु ॥
६-इसमें अक्षत द्रव्य को पुष्प के पहिले न देकर श्रद्धाधन प्रतिष्ठानं, सन्निधिकरणं तपा।
पुष्प द्रव्य के बाद में दिया है। इस गुटके में नन्दीश्वर पूजा
श्रत पूजा, सिद्ध पूजा भी दी हैं जिनमें भी इसी क्रम को पूजा विसर्जनं चेति, निराकारे भवेदिति ॥६१।।
अपनाया है ऐसा क्यों किया है ? विद्वान विचार करें। साकारे जिनविम्बे स्यादेक एवोपचारकः ।
कवि लोग लीक पर नहीं चलते युक्तिबल से अनेक नई स चाष्ट विध एवोक्तं जलगंधाक्षतादिभिः ॥६॥
ईजाद करते रहते हैं जैसे यशस्तिलक चंपू में सोमदेव सूरि साकार, निराकार दो प्रकार की स्थापना है, प्रतिमा
ने पंच पापों मे झूठ को चोरी के बाद दिया है कथा भी मे साकार होती है अक्षतादि में निराकार । श्रद्धान, स्थापन
इसी क्रम से दी है। सन्निधिकरण, पूजन, विसर्जन ये पांचोपचार निराकार मे
७-इस पूजा में आठ द्रव्यों को चढ़ाने का कोई मंत्र होते हैं साकार में एक अष्टद्रव्य पूजन उपचार ही
या फल निरुपित नही किया है जैसा कि आज कल प्रचलित होता है।
है :"ओं ह्री देवशास्त्र गुरुभ्यः क्षुधा रोग विनाशनाय पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में तिलकदान मुख्य विधि है
यामीति स्वाहा" आदि इस विधि में जाह्वाननादिमन्त्रों (उपचारों) का प्रयोग कर
-इस पूजा में आजकल जो कही कही कुछ अशुद्ध भगवान की मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा की जाती है । सूरिमत्र पाठ प्रचलित हैं और जिनसे संगत अर्थ नहीं बैठता उनकी (सूर्य-गायत्रीमंत्र) बाद के हैं । आजकल की हमारी समस्त
स्त जगह शुद्ध पाठ बिए हैं । यथापूजा विधि पंचकल्याणक प्रतिष्ठा का ही सक्षिप्त रूप है
श्लोक नं. प्रचलित अशुद्ध इस पूजा का पाठ शायद इसी के बाद में इसमें ये उपचार भी सम्मिलित हो गए हों। शास्त्रों में इस हुंडावसर्पिणीकाल में असद्भाव १ करालीढ़कण्ठ करालीढ कण्ठः (निराकार) स्थापना का निषेध भी पाया जाता है।
श्री सत्कांति श्री सत्कांत
पाठ