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________________ संस्कृत त्रिसंधान (अवशाल गुर) पूजा गिरिकंदर दुर्गेषु ये वसंति दिगेबुराः। यतीन् यजेह" इसी को व्यक्त करता है। इन्हीं के वाधार पाणिपात्र पुराहारा स्त: याति परमा गतिम् ॥१०॥ पर सुगमता की दृष्टि से लोगों ने इस पूजा का नाम "देव ॐ राकाकारं ज्ञानरस प्रारभार सुनिर्भर विश्वं विश्वाकारो शास्त्र गुरु पूजा" रख लिया है किन्तु कविकृत नाम तो ल्सास लब्धवैश्य मगाधगभीरं अहंदेवं देवतदेवानामधि- 'त्रिसंधान पूजा' ही है। प्रमाण के लिए इस पुवा का देवय मेकं सम्यग्भक्तया सम्यग्संप्रति सर्वारंभभरेण नवमां श्लोक देखिए उसमें स्पष्ट लिखा है-"त्रिसंधान यजेहूं। विचित्र काव्य रचना मुच्चार यंतो नराः"। किसी को स्वास्ति भगवते, सहज ज्योतिष स्वस्ति, स्वास्ति या त्रिसंधान का अर्थ समझ में न आने से इसकी जगह सहजानंदाय, अहंद्देवाय स्वास्ति ॥ 'संध्यं, पाठ कर दिया है किन्तु इस छंद के प्रत्येक परण मरगय पवाल जडियं, हीरामणि विविह रयण बन्नढं । में १९ अक्षर होते हैं जबकि ऐसा करने से १८ ही रह गये अवहरउ सयल दुरियं, जिणस्स आरत्तियं जयउ ॥१॥ तो विचित्र की जगह सुविचित्र कर दिया लेकिन सुपद नित्यं श्री शांतिनाथस्य सौधर्मेन्द्रो जिनालये । यहां बेकार और स्वयं में विचित्र है। इसके सिवा संस्कृत कुत्वा मणिमये पात्रे, कुर्वन्ते मंगला तिकम् ॥२॥ व्याकरण से त्रसंध्यं रूप कभी नहीं बनता। तिसृणां संध्यानां दिप्पन्ति कणयपत्ती, मणहर दिप्पंति रमणपज्जलियं । समाहारः-त्रिसंध्यं ही बनता है। उदाहरण के लिए रत्न आरत्तियं पयासइ, अमरिन्दो जिणवरिन्दस्स ॥३॥ करंड श्रावकाचार का श्लोक नं. १३४ देखिये-त्रियोग आरत्तिउ पिक्खउ भवियणउ, सुरवइ करपज्जलउ, शुद्ध स्त्रिसंध्यमभिबंदी॥ रिसह जिणिदउ उत्तरइ, भुवणुज्जोउ करंतु ॥४॥ अन्त में भी इति त्रिसंधान-पूजा नाम दिया है। त्रि. भुवणज्जोउ करतु अमरमाणिणि णच्चन्तहं । संधान का अर्थ होता है तीन का मेल । इस पूजा में जो फणवइ इन्द नरिद चंद खयरिन्द णमन्तहं ॥५॥ आठ द्रव्यों के ८ श्लोक दिये हैं वे प्रत्येक, देव शास्त्र गुरु सुरवईकर पज्जलउ मिलिउ जहि मुणिगण भत्तउ । तीनों पर सार्थक होते हैं यहां एक तीर से तीन निशाने कुमइतिमिर णिद्दलणु, भविय पिरवहु भारजिउ ॥६॥ साधे गए हैं । ऐसी शैली धनंजयकृत विसंधान महाकाव्य में दीवावलि पज्जलिय लुढिय सुरबइकय हन्थिह। देखी जा सकती है जहां प्रत्येक श्लोक में रामायण और मणिमइ भायानिरिय फुरिय दोहर सुपमन्थिहं ॥७॥ महाभारत दोनों एक साथ चलते हैं। इसी प्रकार की रचसहसणयगु विहसन्त वयण जिणवरि उत्तारइ। नाएं 'सप्तसंघान' महाकाव्य और 'चतुर्विशति-संधान' निय भव भवकय रयतमोहु दूर उस्मारइ ।।८।। आदि हैं। इह आरत्तिउ तिहुवणगुरहू सव्वदिट्ठि समभायणु । २--इस पूजा के अष्ट द्रव्य श्लोकों को हिन्दी अर्थ परिभमइ भरमइ सिद्ध कम्मइ णमेरुहितारायणु ॥६॥ रूप मे पं० थानत राय जी ने देव शास्त्र गुरु पूजा और भवणालइ चालीसा विन्तर देवाण होति बत्तीसा । बीस बिहरमान पूजा में इसी संधान शैली से अपनाया है कप्पामर चउवीसा चंदो सूरो णरो तिरियउ॥१०॥ उदाहरण के तौर पर देखिये-'जलद्रव्य' ॥इति त्रिसंधान पूजा समाप्ता॥ देवेन्द्र नागेन्द्रनगेन्द्र बंदयान् शुभत्पदान शोभित सारवान् । इस पूजा में मुझे क्या क्या विशेषताए देखने में आई दुग्धाब्धि संस्पद्धि गणलो जिनेन्द्र सिद्धांत यतीन्यजेऽहं हैं वे नीचे व्यक्त की जाती है : १॥ त्रिसंधान पूजा १-इस पूजा का नाम रचनाकार ने 'देव शास्त्रगुरु सुरपति उरग नर नाथ तिनकर वंदनीक सुपदप्रमा, पूजा' म देकर 'त्रिसंधान पूजा ही दिया है। वैसे त्रिसंधान अति शोभनीक सुवर्ण उज्जवल देख छवि मोहित सभा। का आशय यहां देवशास्त्र गुरु से ही है। प्रारम्भ में पूजन वरनीरक्षीर ममुद्र घटभरि, अग्रतसु बहुविधि नचू । प्रतिज्ञा के श्लोकों में भी देवशास्त्र गुरु का ही उल्लेख है, अरिहंतश्रुत सिद्धांत गुरु निर्ग्रन्थ नित पूजा रचू ॥१॥ देव, अष्ट द्रव्य के श्लोको मे भी चौथा चरण "जिनेन्द्र सिद्धांत शास्त्र गुरु पूजा (हिन्दी)
SR No.538037
Book TitleAnekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1984
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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