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________________ २२, बर्ष ३७,कि०२ अनेकान्त आज मैंने आपके मुख से सुना और अनेकान्त पत्रिका में सिद्धान्त रक्षण की बात है। विचारणीय बात है कि इस आपका लेख पढ़ा कि इसमें ऐसे अनेक अंश हैं जो दिगम्बर प्रकार भ्रम फैलाने वाले तथ्य किस उद्देश्य से दिए जा रहे जैन सम्प्रदाय के विरुव स्त्री-मुक्ति आदि को कह रहे हैं। हैं? दिगम्बर जैन समिति तथा प्रकाशकों के साथ-साथ अंतरंग में दुःख हुआ। आप बहुश्रुत विद्वान हैं साथ ही एक विद्वानों एवं समाज के कर्णधारो से इन मान्यताओं के बारे अच्छे निर्भीक वक्ता और साहसी लेखक हैं। दिगम्बर- मे विरुद्ध-अशों को परिष्कार करवा कर छपवाना चाहिए । आम्नाय के सरक्षण की भावना आपके अन्दर भरी हुई है। आप जैन-सिद्धान्तो के प्रति जितनी जागरूकता का परिचय आप जैसे विद्वान् आज विरले ही हैं। प्रत्युत जैन-साहित्य दे रहे है वह प्रशसनीय है। मे अन्य सिद्धान्तों का मिश्रण कर उसे विषमिश्रित-लर बना रहे हैं । ऐसे समय में आप जैसे विद्वान् चिरायु होकर si० भागचन्द भागेन्दु, दमोह : चिरकाल तक जैन-शासन के मूल सिद्धान्त की रक्षा करने अनुत्तर-योगी के सम्बन्ध में आपने गहन-गम्भीर में सभी धर्म प्रेमियों को जागरूक करते रहे आपके लिए अध्ययन अनुशीलन परक तथ्य उजागर किए हैं। यही मेरा शुभाशीर्वाद है। श्री ताराचन्द्र प्रेमी (महामंत्री भा.दि. श्री पं० शिखरचन्द्र जैन प्रतिष्ठाचार्ग, भिण्ड : जैन संघ): 'अनुत्तर-योगी तीर्थंकर महावीर' नाम की पुस्तक मे अनुत्तर-योगी का प्रकाशन दिगम्बर समाज के लिए दिगम्बर जैन आगम के विपरीत जो लिखा गया है वह कोई अच्छा बात नहीं है। आने वाली दिगम्बर पीढ़ी के लिए महान् सकट पैदा करने श्री. मुन्नालाल जन 'प्रभाकर': वाले विषय हैं। इन्हीं विषयो का आपने बहुत बड़े साहस ___'स्व० मुख्तार साहब ने वीर सेवा मन्दिर की स्थापना के साथ खंडन कर दिगम्बर परम्पराओ का सरक्षण किया कर जैन साहित्य का प्रचार व प्रसार किया उसी सस्था से है। दिगम्बरत्व में आस्था रखने वाले सभी दिगम्बर आज जैन साहित्य की रक्षा का प्रयत्न किया जाना संस्था विद्वान् एवं त्यागीवर्ग को इन आर्षमार्ग से विपरीत लेखो की सफलता का शुभचिह्न है। 'अनुत्तर-योगी' पुस्तकका बहिष्कार करके दिगम्बरत्व का सरक्षण करना चाहिए। 'विषकुम्भ पयोमुखं वत्' है-हेय है। इसका प्रचार रोकने में पं० श्री पपचन्द्र शास्त्री जी के लेखो की हृदय से सरा मे ही हित है। हना करता हूँ और पंडित जी जैसे निर्भीक विद्वान का साधुवाद करता हूँ। डा. राजाराम जैन पारा: श्रीमल्लिनाथ जैन शास्त्री (संपावक जैन गजट) 'अनुत्तरयोगी' भले ही साहित्यिक शैली एव नवीन मद्रास विधाओं की दृष्टि से प्रशंसनीय हो किन्तु जब उसे आर्ष अनुत्तर-योगी के विषय में आपके विचार बिल्कुल परम्परा एवं दि. जैन सिद्धान्त की मूल परम्परा की सही है। आपने दिगम्बर जैन धर्म की रक्षा के लिए जो कसौटी पर कसते हैं तो वह दिगम्वरत्व के भयानक भविष्य कदम उठाया है, वह हर तरह से प्रशंसनीय है। यह अफ- की भूमिका ही प्रतीत होता है । शाब्दिक कलाबाजियों से सोस की बात है कि दिगम्बरी लोग ही दिगम्बर जैन धर्म मंत्रमुग्ध पाठकों को सही दिशा दान और दिगम्बरत्व को सर्वनाश की ओर ले जा रहे हैं। जो रक्षणीय हैं वे ही की सुरक्षा नितान्त आवश्यक है। दि० जैन समाज के भक्षणीय हो जाय तो धर्म कैसे टिक सकता है? द्रव्य से दिगम्बर जैन सिद्धान्त पर ही कुठाराघात हो इससे बढ़कर दुर्भाग्य और क्या हो सकता है। दि. समाजको श्री ईश्वररन्द्र (रिटायर्य .A.S.), इन्दौर इससे सचेत होना चाहिए। मनुत्तर-योगी पर आपके विचारों में सहमति की नही, , कसौटी पर दिगम्बरी लोग सनीय है। यह
SR No.538037
Book TitleAnekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1984
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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