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धन्यकुमारचरित में तीर्थवन्दना
विद्यावारिधि डा० ज्योतिप्रसाद जैन वर्तमान मे जिन तीर्थक्षेत्रो से समाज परिचित है, शताब्दियो मे अनेक श्वेताम्बर साधुओं ने स्वय तीर्थयात्रा जिनकी समाज मे मान्यता है, और जिनकी वन्दनार्थ करके अपनी-अपनी तीर्थयात्राएं लिखीं। विविध-तीर्थ-कल्प देश के विभिन्न भागों से तीर्थयात्री जब-तब आते- और उक्त तीर्थ मालाओं के कई सकलन प्रकाशित हो गए जाते रहते हैं, उनमें से अधिकतर ऐसे हैं कि जिनका हैं। यह प्रश्न उठा था कि क्या दिगम्बर परम्परा में भी विकास प्रायः गत दो सौ वर्षों के भीतर ही हुआ इस प्रकार का तीर्थ विषयक साहित्य है ? अस्तु।१८६५ ई० है। कई अतिशय क्षेत्र तो इसी अवधि में उदय मे आये मेजैन मस्कृति-सरक्षक-सघ सोलापुर जीवराज-ग्रन्थमाला और पुराने क्षेत्रो के विद्यमान निर्माणो, मन्दिरो, धर्माय- के ग्रन्थांक १७ के रूप मे डा० विद्याधर जोहरापुरकर तनो, स्मारको, धर्मशालाओ आदि मे से अधिकाश इसी द्वारा सुसम्पादित 'तीर्थ-वन्दन-सग्रह' नामक पुस्तक प्रकाशित बीच बने हैं। कई ऐसे भी स्थल हैं जहां प्राचीन मन्दिरो, हुई, जिसने उक्त आक्षेप का सफलतापूर्वक निरसन कर मूर्तियों, अन्य धार्मिक कलाकृतियो के जीर्ण-शीर्ण भग्नावशेष दिया। इस पुस्तक मे ४० दिगम्बर लेखको की कालप्रचुरमात्रा में प्राप्त हुए हैं, उनमे से जिनकी ओर समाज क्रमानुसार सूची तथा उनके साहित्य मे प्राप्त तीर्थविषयक की दृष्टि आ सकी, अनेको का जो विकास हुआ या हो रहा उल्लेखो के उद्धरण और उनकी व्याख्या दी है। इस सूची है वह वर्तमान शताब्दी की ही बात है।
मे १०वी शती के अन्त पर्यन्त के केवल ८ साहित्यकार तीर्थविशेपो में प्राप्त एव सरक्षित पुरातात्विक सामग्री सम्मिलित किए गए हैं, शेष ३२ लेखक १२वी शती से से, विशेषकर उक्त पुरावशेषों में उपलब्ध प्रतिमा लेखो, १९वी शती पर्यन्त के हैं। डा. जोहरापूरकर जी ने यन्त्रलेखों, शिलालेखो आदि से उक्त स्थलो के महत्व तथा पर्याप्त परिश्रम एव शोध-खोज पूर्वक यह सकलन तैयार तीर्थक्षेत्र के रूप में उनकी मान्यता की प्राचीनता का बहुत किया है, तथापि इसमे कतिपय त्रुटियां रह गई प्रतीत कुछ अनुमान हो जाता है। जहाँ ऐसी सामग्री का अभाव होती हैं, यथा स्वामि समन्तभद्र और आचार्य यतिवृषभ है, अथवा वह अति विरल है वहा बडी कठिनाई होती है। को पांचवी शती ई० मे हुआ सूचित करना, जब कि वे ऐसी सूरत में किसी स्थान की तीर्थरूप में मान्यता की दोनो आचार्य दूसरी शती ई० मे हुए हैं। इसके अतिरिक्त, ऐतिहासिक प्राचीनता कितनी है, यह जानने के लिए यह सूची तथा उद्धरण भी सर्वथा पूर्ण नही प्रतीत होतेसाहित्यगत उल्लेख हमारे सहायक होते हैं।
१०वीं शती तक के ८ उल्लेखित साहित्यकारो के अलावा श्वेताम्बर परम्परा के कल्पसूत्र प्रभृति कतिपय विमलार्य का प्राकृत पउमचरिउ, स्वयंभू की अपभ्रश आगमो मे विशेपकर कालान्तर मे रचित आगमसूत्रों की रामायण एव अरिट्टनेमिचरिउ, विद्यानद का श्रीपुरपार्श्वनाथटीकाओं आदि में तथा कथा एवं प्रबन्धग्रन्थों में तीर्थो के स्तोत्र, उग्रादित्य का कल्याणकारक, असग के महावीरचरित अनेक फुटकर उल्लेख मिलते हैं। जिनप्रभसूरि का कल्पदीप एव शान्तिनाथचरित, आदिपप की कन्नड रामायण, अपरनाम विविध-तीर्थ-कल्प (१८३३-३४ ई०) ही ऐसा पुष्पदन्त का अपभ्र श महापुराण, चामुण्डराय का कन्नड प्रन्थ है जिसमें ततः मान्यता प्राप्त अधिकांश तीर्थों के महापुराण, सोमदेव का यशस्तिलकचम्पू, नेमिचन्द्र सि० विस्तृत वर्णन हैं, जो विद्वान. लेखक ने जैसा देखा या च० के गोम्मटसारादि प्रभूति कितने ही ग्रन्थ ऐसे हैं जिनमें सुना उसके आधार पर लिखे गए प्रतीत हैं। परवर्ती विभिन्न कल्याणक-क्षेत्रों, तपोभूमियों व अतिशय क्षेत्रों