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________________ हमारा व्यवहारिक माचार १५ को चोरी करने का उपाय भी नही बताता । उनको इस (४) परिग्रह परिमाण-पहले धन वैभव की मर्यादा प्रकार की सलाह भी नहीं देता कि तुम इस प्रकार कर नही थी। अभी समस्त परिग्रह को नहीं छोड सकता परंतु लो। चोरी के माल को कम दाम में बिकता हो, कोई कम अमर्यादा में अब मर्यादा करता है कि चार लाख ही दाम में देने को आया हम जानते हैं कि इसका दाम यह रखूगा। देखने में यह मालूम देता है कि इतने कितना कम बता रहा है फिर भी उसको नही खरीदता। (३) रखा है परन्तु तृष्णा पर दृष्टि डाली जाये तो मालूम राज के कानून के खिलाफ कोई काम नहीं करता-जैसे होगा कोई भी व्यक्ति ऐसा नही जिसको तीन लोक की सेलटैक्स की चोरी, इनकमटैक्स की चोरी, ब्लैक मारकेट विभूति से कम की इच्छा हो अभिव्यक्त नहीं है परन्तु वगैरह । देने लेने के बाद कम कंश रखना । (५) मिला- जैसे जैसे प्राप्ति होती जाती है तृष्णा उससे आगे बढती वट करना। जाती है इतनी तृष्णा को घटाकर अगर किसी ने चार ब्रह्मचर्य-पर स्त्री के ग्रहण का तो सवाल ही नही अपनी लाख की मर्यादा की तो उमे रखा बहुत कम है थोड़ास्त्री में भी राग परणति को कम करता जा रहा है जितना बहुत ज्यादा है। अब पेटी भरने की अभिलाषा नही रही स्वस्त्री के प्रति झुकाव है उमे अपनी गलती मममता है मात्र पेट भरने तक ही सीमिन है। दूसरे की जरूरत को सा व्यक्ति-स्त्री के रागपूर्ण कथाओ को नही सुनता गेले अपने से ज्यादा समझता है इसलिए अनावश्यक सग्रह नहीं वाइसकोप वगैरह देखने से बचता है जिसमे स्त्री की नग्नता करता। देश को एक परिवार समझता है और समझता का प्रदर्शन किया जाता है। (२) अन्य स्त्री जो बनाव है कि परिवार में जैसे दस सदस्य है तो सबको बांटकर गार ज्यादा करती है उनकी संगति में न जाय! (३) खाना चाहिए। अपने हिस्से मे जितना आवे उतने से ही पहले जो भोग भोगे हो उनको याद न करे। (४) अपने काम चलावे। यहां देश को परिवार समझ कर अपने आपका भी सिंगार करने से यह भावना पैदा होती है कि हिम्से में ज्यादा की चेष्टा नहीं करता। जितना परिग्रह कोई मेरे का देखे। इसलिए अपने आपका भी सिंगार न का परिमाण किया है उसमे भी कमी करता जाता है करें। स्वच्छ रखना अलग बात है शृगार करना अलग और कम से कम मे आने की चेष्टा करता है। जितना बात है। (५) और ज्यादा गरम भोजन करने से भूख से परायापन-पर की अपेक्षा घट जाती है उतना ममता ज्यादा खाने से भी बचे क्योकि ऐमी वाते काम वासना है कि मैं स्वाधीनता की तरफ जा रहा हूं जितनी पर की को उत्तेजित करती है। परिग्रह की अपेक्षा रह जाती है उसे पराधीनता मानता यहां तक कि अपने बच्चो के शादी विवाह के अलावा है और पूर्ण पगधीनता दूर करने की चेष्टा करता है। अन्य के बच्चो का शादी विवाह कराने में अगुआ नही नादि को बाधक नही मानता परन्तु पर की अपेक्षा की होता । जो दूषित आचरण की स्त्रिया है चाहे विवाहित पराधीन और पर की अपेक्षा के अभाव को स्वाधीनता हो अथवा वेश्यादिक हो उनसे सम्पर्क भी नही रखता। मानना है । जितना-जितना आत्मनिष्ट होता जाता है पर काम विकार के अगो को छोडकर अन्य रास्तो से काम में की फिक्र दूर होती जाती है। प्रवृति नही करता । और अपनी स्त्री मे भी मर्यादा करता आगे बढ़ता है रोज तीन टाइम बिना नागा के दो है कि महीने में चार टफे, दो दफे-एक बार इन्यादिरूप घडी हर बार आत्मचिंतन करता है। आत्मा को स्पर्ण से अपनी स्वेच्छा वृति को कम करता है । करने की चेष्टा करता है, इसी को अपनी कमाई मानता ऐसी प्रवृति को प्राप्त है कि समार शरीर भागो म है। कहने में चार बार उपवाम करके अपनी शक्ति को विरक्त हो रहा है। जितना ग्रहण है उसे अपनी कमजारी तोलता है कि पर मे निष्ठा अभी कितनी है। उपवास के कमी समझता है उसे ग्रहण की महिमा नहीं है परन्तु रोज का टाइम आत्मचितन में बिताता है। हप्ते में कारपश्चाताप है भोगादिक से विरक्त हो रहा है । पहले स्वेच्छा बार की एक रोज छुट्टी होती है तब व्यक्ति उस रोज वृति थी अन्यायपूर्ण थी वहां से न्यायपूर्ण में आता है फिर सब अपना कार्य करते हैं। यहां पर वह एक रोज शरीर उसमें भी कमी करता जाता है। से परिवार मे छुट्टी लेकर अपने चेतन आत्मा के कार्य में
SR No.538037
Book TitleAnekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1984
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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