________________
लोक-प्रतिष्ठा और प्रात्म-प्रशंसा
संस्कृत में एक सुभाषित है-'बुभुक्षितः किन करोति पापम् ।'-भूखा कौन-सा पाप नहीं करता? अर्थात् उसे किसी भी पाप से परहेज नहीं होता । वह किसी भी कीमत पर अपनी भूख मिटाने की खरीद-फरोख्त करता है। पेट की भूख मिटाना कदाचित् सरल है अपेक्षाकृत प्रतिष्ठा और प्रशंसा की भूख से । आज यह रोग महामारी की भांति फैल रहा है और इससे पीड़ित व्यक्ति चाहे वह गुणों से दूर ही क्यों न हो, हर छोटे-बड़े, अच्छेबुरे की अपेक्षा किए बिना, चाहे जो भी कीमत चुकाकर, चाहे जिस किसी अधिकारी या अनधिकारी से प्रतिष्ठा की भूख मिटाने में सन्नड हैं । आज जो पदवियों, मानपत्रों और ऐसे ही प्रन्यों के आदान-प्रदान की परिपाटी चल पड़ी है उसमें अधिकांश इसी रोग के चिह्न हैं। ये ऐसे लेन-बैन के प्रसंग आत्म-अहित के साथ 'तीयंकरों की वाणी और धर्म' के प्रति वगावत को ही इंगित करते हैं -वास्तविकता के माप को नहीं। ध्यान रहे-लोकप्रतिष्ठा और आत्म-प्रशंसा दोनों ही आत्म-हित में नहीं । पाठकों से अपेक्षा है कि वे उक्त सन्दर्भ में स्व० पूज्य बरे वर्णी जी के सुभाषितों से लाभ लेंगे। लोक-प्रतिष्ठा
आत्म-प्रशंसा
१. संसार मे प्रति ठा कोई वस्तु नही, इसकी इच्छा १. जबतक हमारी यह भावना है कि लोग हमें उत्तम ही मिथ्या है । जो मनुष्य संसार बन्धन को छेदना चाहते कहे और हमें अपनी प्रशसा मुहावे तबतक हमसे मोक्षमार्ग हैं वे लोकप्रतिष्ठा को कोई वस्तु ही नहीं समझते। अति दूर है। २. केवल लोकप्रतिष्ठा के लिए जो कार्य किया जाता
२. जो आत्म-प्रशंसा को सुनकर सुखी और निन्दा है वह अपयश का कारण और परिणाम मे भयङ्कर
को सुनकर दुखी होता है उसको ससार सागर बहुत दुस्तर होता है।
है। जो आत्म-प्रशसा को सुनकर सुखी और निन्दा को सुन ३. संसार मे जो मनुष्य प्रतिष्ठा का लिप्सु होता है
कर दुखी नही होता वह आत्मगुण के सन्मुख है । जो वह कदापि प्रात्मकार्य में सफल नही होता, क्योकि जो
आत्म-प्रशसा सुनकर प्रतिवाद कर देता है वह आत्मगुण आत्मा पर-पदार्थों से सम्बन्ध रखता है वह नियम मे
का पात्र है। आत्मीय उद्देश्य से च्युत हो जाता है।
३. जो अपनी प्रशस्ति चाहता है वह मोक्षमार्ग में ४. लोक-प्रतिष्ठा की लिप्सा ने इम आत्मा को इतना
कण्टक बिछाता है। मलिन कर रखा है कि वह आत्मगौरब पाने की चेष्टा ही नहीं कर पाता।
४. आत्म-प्रशंसा आत्मा को मान कषाय की उत्पत्ति५. लोक-प्रतिष्ठा का लोभी आत्मप्रतिष्ठा का अधि- भूमि बनाती है। कारी नही। लोक में प्रतिष्ठा उसी की होती है जिमने ५. आत्मश्लाघा में प्रसन्न होना समारी जीवो की अपनेपन को भुला दिया।
चेष्टा है। जो मुमुक्ष हैं वे इन विजातीय भावो से अपनी ६. लोक-प्रतिष्ठा की इच्छा करना अवनति के पथ पर आत्मा की रक्षा करते हैं। जाने की चेष्टा है।
६. आत्म-प्रशसा मुनकर जो प्रसन्नता होती है, मत ७. संसार में बही मनुष्य बड़े बन सके जिन्होंने समझो कि तम उससे उन्नत हो सकोगे । उन्नत होने के लोक-प्रतिष्ठा की इच्छा न कर जन हित के बडे-से-बडे लिए आत्म-प्रशसा की आवश्यकता नही, आवश्यकता सद्कार्यों को अपना कर्तव्य समझ कर किया।
गुणो के विकास की है। -'वर्णी वाणी से साभार'