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ताकि सनद रहे और काम आए
अनुसर-योगी तीर्थकर महावीर (उपन्यास) की विसगतियो को लक्ष्य कर 'अनेकान्त' के गतांक में 'विचारणीयप्रसंग' दिया गया था। प्रबुद्ध पाठकों ने उसका सदुपयोग कर जो अमूल्य-विचार भेजे हैं उनमे से कुछ के कुछ अंश 'सनद' रूप मे अंकित किये जा रहे है। यद्यपि देश और समाज के वर्तमान वातावरण को देखते हुए आभास होता है कि प्रायः आज युक्ति, आगम और तर्क की अपेक्षा "जिसकी लाठी उसकी भैस' की बलवत्ता है--फिर भी हम आशावादी हैं । डा० नेमीचन्द्र जी इन्दौर के शब्दों में-'अपनी तरह लिखो रहिए । स्वाधीनवृत्ति के शेर को भला पिंजरे में आज तक कोई डाल पाया है।'
-सम्पादक १. श्री भंवरलाल न्यायतीर्थ (सम्पादक वीरवाणी) का भी लोगो में साहस नही रहा है। अपने पैरो आप
-लेख सुन्दर व समयानुरूप है। वीरवाणी मे कुल्हाडी मारने का उद्यम तो हमने न जाने किन अविवेक छापना क्रमशः शुरु कर दिया है। अन्त में साथ मे के क्षणो मे कर लिया है। आपने फिर भी समय पर ठीक सम्पादकीय भी लिखूगा।
कदम उठाकर चेताया है तदर्थ धन्यवाद । इसमें सफलता २. प्रो. डा० रमेश चन्द्र डी. लिट्-विजनौर
मिले तभी मजा है।
२४-१-८४ -आपने जिस निर्भीकता से अनुत्तरयोगी मे लिखित
६. डा. ज्योति प्रसाद जैन, लखनऊ दिगम्बर सिद्धान्तों से विपरीत मान्यताओ की ओर ध्यान
-विचारणीय प्रमग के अन्तर्गत अनुतर योगी की आकर्षित किया है वह स्तुत्य है।"
आपकी समीक्षा ध्यान से पढी। आपका 'जरा सोचिए' आपकी पैनी दृष्टि के प्रति समाज को अवश्य ही
शीर्षक सामयिक स्तभ भी अच्छा और आवश्यक लगा। आभारी होना चाहिए।
११-१-८४
अनेकान्त के लिए जो श्रम आप करते है और जिस ३. श्री प्रो० गोरावाला खुशालचन्द्र, वाराणसी
योग्यता से पत्रिका निकाल रहे हैं, श्लाघनीय है। -मैंने अनुत्तर योगी के दर्शन भी नहीं किए हैं।
२१-१-८४ आप मेरे लिए विश्वास भाजन हैं । फलतः और लोगों से ७. सेठ राजेन्द्र कुमार जैन, विविज्ञा सनी स्फट विसंगतियों की पुष्टि हुई। आर आपके विचारणीय प्रसंग पर आपका अनुत्तरयोगी संबंधी विचारणीय प्रसग के विचारो को उपयुक्त मानता हू। सवर्यलर प्राप्त हुआ। मैंने अनेक वयोवद्ध अन्य विद्वानों तथा उनका समर्थन करता हूँ। पुण्यश्लोक मुख्तार सा० ।
और त्यागियो से इस विषय पर विचार सुने किन्तु आपने तो अनेकान्त के संस्थापक थे।-१३-१-८४
कलम चलाकर साहस और गौरव का कार्य किया है। ४. श्री पं० मूलचन जी शास्त्री, श्री महावीर जी
आपके विचारों में सहमति की नहीं, सिद्धान्त के रक्षण की -यह पत्र आपको अनेकानेक धन्यवाद देने के लिए।
बात है इसमें सहमति नही, इस पर कुर्बानी आवश्यक है। लिख रहा है। मैंने भी कुछ स्थल इसमें बहुत पहले देखे
२४-१-८४ थे--मझे देखकर दुख हुआ था। मुझमे इतनी क्षमता नहीं . बी.डी. जैन, नई दिल्ली थी जो इन पर कुछ लिखता । आपने जो विचारणीय प्रसग -अनुत्तरयोगी तीर्थकर महावीर उपन्यास को आपने लिखकर एक बहुत बड़े साहस का कार्य किया है और बहुत ही पैनी दृष्टि से पढ़ा है। उठाए गए प्रसंग वास्तव दिगम्बर मान्यता का रक्षण किया है-इस विषय में आप- मे बहुत ही विचारणीय है । निःसदेह आप समाज को नई का धन्यवाद किये बिना नही रह सकता। १६-१-८४ दिशा प्रदान कर रहे हैं और सिद्धांतो की रक्षा कर रहे हैं। ५. श्री पं० रतनलाल कटारिया, केकड़ी
२८-१-८४ ___'अनुत्तर योगी' पुस्तक के विरोध में जो आपने ९. हेमचन्द नेमचन्द काला, इन्दौर आवाज उठाई है वह सही कदम है । आजकल सत्य कहने -आपकी लेखनी की स्पष्टवादिता को साधुवदा