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महाकवि स्वयंभू विषयक शोध-खोज
मूलपाठ का अत्युत्तम संपादन करके उसे तीन भागों में भाग १९७० में प्रकाशित हुआ, जिसके प्रारम्भ में सिंधी जैन सीरीज (न. ३४-३६) के अन्तर्गत प्रकाशित प्रथमाला के प्रधान सम्पादक द्वय डा. हीरालाल जैन एव कराया। भा. १ व ३ की विद्वत्तापूर्ण विस्तृत प्रस्ताव- डा. ए. एन. उपाध्ये के अंग्रेजी एवं हिन्दी प्रधान नाओं में उन्होने उक्त महाकाव्य का सर्वांग समीक्षात्मक सम्पादकीय मे पुनः इस महाकाव्य तथा उसके रचयिता के अध्ययन प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया-उसके विषय में विचार किया गया है। स्तोत्रों, भाषा, शैली, व्याकरण, छद प्रयोग, विषय वस्तु उपरोक्त विवेचनो के अतिरिक्त पार्श्वनाथ विद्याआदि पर प्रकाश डाला और स्वयं महाकवि के व्यक्तित्व, श्रम शोधसंस्थान वाराणसी से प्रकाशित "जैन साहित्य कृतित्व, उपलब्धियो, तिथि युग, आदि का भी विवेचन का वृहद इतिहास" (खड ६), डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री किया । डा. ज्योति प्रसाद जैन ने १९५५-५६ में अपने कृत 'अपभ्रश भाषा और साहित्य', डा. नेमिचन्द्र शोध प्रबध 'जैना सोर्सेज आफ दी हिस्टरी आफ एन्सेंट ज्योतिषाचार्य कृत 'भगवान महावीर की आचार्य परम्परा' इण्डिया' मे भी महाकवि स्वयभू का परिचय दिया-इस प्रथ (भाग ४), प० परमानन्द शास्त्री एवं पं. बलभद्र जैन का पुस्तकाकार प्रकाशन १९८४ मे सै० मुन्शीराम मनोहर कत जैन धर्म का प्राचीन टी
कृत 'जैन धर्म का प्राचीन इतिहास' (माग २) तथा अन्य लाल नई दिल्ली द्वारा हुआ। १६५६ मे ही प० नाथूराम अन्य विद्वानो के फुटकर लेखो आदि मे भी महाकवि प्रेमी के जैन साहित्य और इतिहाम के द्वितीय सस्करण के स्वयंभू की चर्चा या उल्लेख हुए है । इस प्रकार गत ६०. (पृ. १९६-२१६ पर) 'स्वयभू और त्रिभुवन स्वयभू' लेख ६५ वर्षों मे अपभ्रश भाषा एव माहित्य के महाकवि एवं मे उनके पूर्वोक्त लेख का सशोधित रूप प्रकट हुभा और आचार्य स्वयभूदेव के सम्बन्ध मे बहुत कुछ अध्ययन-विवेउसी वर्ष प्रकाशित अपने शोध प्रबध 'अपभ्र श साहित्य' चन एव चर्चा हुई है, तथापि अभी और बहुत कुछ किया पृ.५१ आदि मे डा० एच कोछड़ ने स्वयभू तथा उनके जाना शेष है-उपरोक्त अध्ययन अभी भी पूर्ण, सर्वांग काव्यों की संक्षिप्त विवेचना की।
नथा सर्वथा सनोपजनक नही है । १९५७ मे भारत्तीय ज्ञानपीठ द्वारा स्वयभू के पउम- महाकवि की अधनाज्ञान सात कृतियों मे से तीन हीचरिउ का प्रथम भाग प्रकाशित हुआ। इसमे डा० भायाणी पउमचरिउ, अरिठ्ठणमिचरिउ और स्वयभूछद ही उपद्वारा सुसंपादित मूल पाठ अपनाया गया और प्रो० देवेन्द्र लब्ध है। इनमे से भी अभी तक टा. वेलणकार द्वारा कुमार जैन साहित्याचार्य द्वारा उसका हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत स्वयम छद का और डा० भायाणी द्वारा पउमचरिउ किया गया । इस भाग के प्रारम्भ मे प्रधान सम्पादक के (रामायण) का ही भाषाशास्त्रीय एव काव्यशास्त्रीय रूप में डा. हीरालाल जैन एवं डा. ए. एन. उपाध्ये के समीक्षात्मक अध्ययन हुआ है- उनसे आगे बढकर और सक्षिप्त प्राथमिक वक्तव्य के अनन्तर विद्वान हिन्दी
विशेष अध्ययन किये जाने की आवश्यकता है। पउमअनुवादक ने 'दो शब्द' तथा महाकवि स्वयभू' शीर्षकों मे चरिउ की भाति अरिठ्ठणेमिचरिउ (हरिवश पुराण) का महाकवि के व्यकतित्व एव कृतित्व पर प्रकाश डाला है। भी विशाध्ययनयक सुसपादित सस्करण प्रकाशित होना वीर सेवा मन्दिर दिल्ली से १९६३ मे प्रकाशित जैन ग्रंथ शेष है। पचमी चरिउ (नागकुमार चरित), सुब्बयचरिउ प्रशस्ति सग्रह भा० २ की भूमिका मे प. परमानन्द (?). स्वयम व्याकरण आदि अन्य ज्ञात रचनाओ की शास्त्री ने भी कबि और उसकी कृतियो का परिचय तथा शारत्र भण्डारो मे खोज की जाने तथा उद्धार किये जाने अपनी तद्विषयक धाराणाएं दी हैं-पउमचरिउ की जिस का कार्य शेष है। खोज करने से सम्भव है कि उनकी प्रति का उन्होने उपयोग किया वह १९५७ ई. की अर्थात कोई अन्य रचना या रचनाये भी प्राप्त हो जायें। स्वयभू बैसाख शुक्ल १५ सामवार वि. स. १५१४ की थी। इस की प्रतिमा के जिन आयामो-काव्यकौशल, भाषा ने पुण्य, बीच भारतीय ज्ञानपीठ से डा. देवेन्द्रकुमार जैन द्वारा वैदुष्य, धर्मज्ञता, शास्त्रज्ञता, छदशास्त्रज्ञता व्याकरण अनुदित भाग क्रमशः निकलते रहे। पांचवा (तिम) पांडित्य आदि का इंगित मिलता है उन सबकी सम्यक