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________________ वर्धमान भक्तामर रचयिता-बो मूलचन्द्र जैन शास्त्री, जो भक्त सुरवर मुकूट मणिगणमय सरोवर में खिले. उन मणिगणों की ज्योतिरूपी सलिल से हैं जो रले जो भव्यजन चितमधुपकर्षी कंज जैसे हैं बनें, ' श्री वर्धमान जिनेश के वे चरण चित में नित सनें ॥१॥ आनन्द के नन्दन निराले सुख जनक तेरे विभो । ये शिव विधायक चरणयुग सद्भाव कारक हैं विभो ! हैं पोत सम भबसिन्धु में गुणपुंज युत यो ऋषि कहें, हे नाथ ! तेरे ये चरंण मुझ को शरण नित ही रहें ।।२।। (मुझ पतित को पावन करें) जो सिख औषध सम सकल ही सिद्धियों के धाम हैं, औ पूर्ण विकसित आत्मगुण से जो महा अभिराम हैं। जो ज्ञानमय शिवमय सतत संपन्न उत्तम धाम हैं, वे वीर हैं, हैं ध्येय वे ही क्योंकि वे निष्काम हैं ॥३॥ बालक विवेक विहोन भी निज लड़कपन से चाहता, में नाप लं आकाश को ऐसा मनोरथ बांधता। में भी दयासागर! तुम्हारे निकट वैसा हं खरा, ज्ञानादि संख्यातीत गुण गण गान में आग्रह भरा ४ जड़लोह यदि पारस परसकर कनक बनता पलक में, है कोन सी अचरज भरी यह बात स्वामिन् ! खलक में। आश्चर्य है तो एक यह जो दूर से भी ध्यान से, ध्याता तुम्हें वह नाथ ! बन जाता तुम्ही सां शान से ॥३॥ कुन्देन्दुहार समान अति रमणीय गुणगण की कथा, हैमाथ! कौन समर्थ जग में कह सके जो सर्वथा। है कौन ऐसा जन बमत को जीवराशि गिन सके, छपस्थ की तो क्या कथा भगवान भी नहीं कह सके। मुनिनाय ! हूं असमर्थ फिर भी तब गुणों के गान में, जैसे बनेगा मैं करूंगा यत्न अपनी जान में । मज्जा नहीं इसमें मुझे यह बात जग विख्यात है, खगराजगत क्या मार्ग से नहिं जात पक्षी जात है ॥७॥
SR No.538037
Book TitleAnekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1984
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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