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जरा-सोचिए !
१. मूल का संरक्षण कैसे हो?
रहा है कि हमारी वर्तमान और आगामी पीढ़ी प्राकृत-आपने पढ़ा होगा नाम-कर्म की १३ प्रकृतियों को।
संस्कृत भाषाओं की ओर आकृष्ट हो। अब तो लोगों को उनमें एक प्रकृति है 'स्वघात-नामकर्भ।' इस प्रकृतिके उदय
उनकी सहूलियतों के अनुसार धर्म के लेन-देन के प्रयत्न में शरीर की ऐसी रचना होती है, जिसमे स्व-शरीर के
रह गये हैं। जो इन भाषाओं को नहीं जानते वे जन्मनः अंग ही स्व-प्राणघात मे निमित्त हो जाते है। जैसे बारह
जैन हो या अर्जन सभी को भाषान्तर (चाहे वे गलत ही सिंगे के सीग। यदि कदाचित बारहसिंगा जब कभी
क्यो न हो) दिये जा रहे हैं । अर्थातशिकारी के घात से भाग जाने के लिए बन मैदौडता है,
"जह णवि मक्कमणज्जो अणज्जभास विणा उ तब उसके सीग घनी कंटीली टेढ़ी-मेढी झाडियो मे फस
गाहेउ।'जाते हैं और वे सीग ही बारहसिंगा के स्वय के प्रयत्न से
पाठक जानते है समयसार की १५ वी गाथा के उस उसके स्वयं के पकड़े जाने या वध मे निमित्त हो जाते है।
अर्थ-प्रसग को जिसके 'अपदेम' और 'सन्त' शब्द आज भी
सु-संगत अर्थ को तरस रहे हैं। कही 'संत' के स्थान पर किए प्रयलो पर लागू होता है।
'मृत्त' मानकर द्रव्य-श्रुत और भावभुत अर्थ स्पष्ट है तो सब जानते हैं कि जैनियों ने बहत समय से आगमो
___ कही 'अपदेस' और 'सत' के अर्थ क्रमश 'प्रदेश-रहित' की प्राचीन भाषा प्राकृत-सम्ा को उपेक्षित कर केवल आरशान्त (रस) किए जा रह ह आर कहा 'सत' के अथ आधुनिक सुललित अन्य विभिन्न भाषाओ के रचना
को 'सत्' शब्द से घोषित कर उसे आचार्य-समत व प्रामामाध्यमों से धर्म के लेन-देन की प्रथा चालू कर रखी है।
णिक बतलाया गया है। इसी तरह 'अनादिरक्तस्य तवाये प्रसंग मात्र जैनेतरों और विदेशियो हेतु उपस्थित हुए
यमासीत य एव सकीर्णरसः स्वभाव । मार्गावतारे हठहोते तो कदाचित इतनी चिन्ता न होती, पर आज तो जैन
माजित थी स्त्वयाकृत. शान्तरस. स एव ॥'-कारिका में कुलोत्पन्नों को भी आगमो की मूल भाषाओ से लगाव
'शान्तरस' का अर्थ कही 'शान्त (नामा) रस' और कही नहीं रह गया है और न इसका कोई प्रयत्न ही किया जा
'रसों से शान्त-रहित' अर्थ किया जा रहा है, आदि ।
ढुंढने पर ऐसे ही अन्य बहुत से प्रसंग और भी मिल (पृ० २५ का शेषांश)
जाएगे जिनकी व्याख्याओ में विवाद हो। ऐसा यदि है तो वह कर्म ही परिग्रह है । तथाहि
ऐसे विवादास्पद स्थलों का कालान्तर में भी निर्णय परि (समन्तात्) गृह्यते यः सः परिग्रहः-द्रव्य-कर्म।
कब और कैसे हो सकेगा? जबकि आगम की मूल प्राकृत परि (समन्तात् गृह्यते येन सः परिग्रहः-भाव-कर्म ।
। और संस्कृत भाषाओ को ही भुला दिया जायगा या हमारे
सामने उनके मनमाने ढंग के परिवर्तित मूलरूप रख दिए उक्त भाव में अपरिग्रह और व्रत के अर्थ भी विचारिए और नियन्य पर भी ध्यान दीजिए।
जायेंगे? हमारी दृष्टि से विषय-स्पष्टता और उसकी प्रमा
णिकता के लिए आगमकी मूल-भाषा प्राकृत-संस्कृत व यथा -बीर सेवा मन्दिर
सम्भव-पूर्वाचार्योकृत उपलब्ध उनकी व्याख्याओ का और २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ मूल भाषा के जानकारों का कालान्तर में सदाकाल रहना
परमावश्यक है। जबकि आज के बेताबों (7) की वृष्टि