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३२, वर्ष ३७, कि० १
अनेकान्त यदि लोग अपरिग्रही बनने का प्रयत्न करते रहे तो लाए है जैसे-वीतरागदेव की भक्ति, उपासना, दर्शन व पूजा उनमे अहिंसा आदि धर्म स्वय फलित होते रहे औ करना, आगम ग्रन्थो का स्वाध्याय करना, इन्द्रिय-विषयों जैनत्व भी सुरक्षित होता रहे ।।
पर अकुश लगाना, छह काय के जीवो की रक्षा करना, जरा सोचिए? मूल जैन-सस्कृति अपरिग्रह है या जमे- तपो और सामयिक का अभ्यास करना और सुपात्रों को तसे धनादि संग्रह कर उसमे से किचित् दान-पुण्य कर उनकी आवश्यकता के अनुसार चारो प्रकार का दान देना अपने को 'अहिमक' घोपित करना? जैसा कि आज हो आदि । थावक को सप्तव्यसनो का त्यागी तो होना ही रहा है?
चाहिए। माथ ही उसे व्यसनसवियो की सगति व उनके
मान-सम्मान करने का त्यागी भी अवश्य होना चाहिए। उक्त २. श्रावक की भूमिका ?
सभी प्रसग ऐसे है जिनसे हम अपने श्रावक होने की जाच 'श्रावक' शब्द मे श्रद्धा विवेक और क्रिया की ध्वनि भी कर सकते है । हम प्रति दिन देखे कि हमने आज अन्तर्हित है । फलत. -जब किसी को 'श्रावक' नाम से अपने कर्तव्यों का किन अशो मे पालन किया है और हमे पुकारा जाता है तो बरवम उसके प्रति श्रद्धा से मन-मस्तक किस रूप मे आगे बढना है? नत हो जाते है कि अवश्य ही यह देव-शास्त्र-गुरु और
बडा दुःख होता है जब हम कही पढते या सुनते है तत्त्वो का श्रद्धालु सम्यग्दृष्टि, गौतम गणधर के प्रवचन क कि अमुक धर्मात्मा ने कहा--कि क्या करू? बच्चे आदि
जानी और नैष्ठिक या पाक्षिक थावक की क्रियाओं नहीं माने, वे जिद पर अड गए इसलिए शादी और खानहपालन में मावधान होगा। इसमे मम्यग्दर्शन-ज्ञान- पान की व्यवस्था अमुक होटल मे करनी पड़ी या जब कोई चरित्र के चिह्न परिलक्षित होते हैं।
मुखिया स्वय रात्रि-भोजी होकर बयान देता है कि रात्रि सरावगी, सरावग और क ग च ज त द प यवा म भोजन उनकी कमजोरी है। अमुक धर्मात्मा ने अमक प्रायोजक' की परिधि में 'सराक पराग' आदि शब्द श्रावक सज्जन के सम्मान मे अमुक प्रसिद्ध होटल में पार्टी दी. शब्द के बिगड़े रूप मालुम होते है, जो मध्यकाल में आदि जैसे समाचार भी दुखदायी होते है। ये सब बाते सामने आए। लोग कालदोप में और सद्गुरुओं के ममा- थावक की गरिमा के सर्वथा प्रतिकल है। शर्मको गम न मिलने से आचार-विचार मे शिथिल होते चले गए अधिक आती है जब अपने को जैन घोपित करने वाले लोग औराज स्थिति इतनी बद से बदतर हो गई कि सच्चे शादियो अथवा अन्य अवसरों पर सामहिक रात्रिभोजन श्रावक या जैनी शायद ही अगलियो पर गिनने योग्य या होटल भोजन तक करते करते और ऐसे अवसर मिल सके।
सम्मिलित होते है। आगमानुसार श्रानक को मधु, मांस, मद्य और पच विचारने की बात है कि---हम कहा जा रहे है सरका त्यागी व निरतिचार पच अणुव्रतो का धारी और हमारी भावी पीढी हमारी इन विपरीत प्रवत्तियों का दोना आवश्यक है। उक्त प्रसंग मे यह अनछने जल का अनुकरण कर धर्म-मार्ग से क्यों न हटेगी? वह तो सर्वथा त्याग करता है और रात्रि-भोजन या होटल आदि के स्पष्ट कहेगी कि हमारे बुजुर्गों ने जो चलन अपनाया उस खान-पान को भी मांस-तुल्य ज: नकर मन-वचन-काय, कृत- चलन से हमे क्यों रोका जाता है ? इतना ही क्यो साधाकारित-अनुमोदना पूर्वक त्यागता है। यदि इन नियमो के रण लोग तो आज भी ताना मार रहे है-'समरथ को साथ वह प्रतिमा धारी व निर्मोही-वृत्ति हो तो स्वामी नहिं दोष गुसाई। समन्तभद्र के शब्दो में उसे 'गहस्थो मोक्षमार्गस्थो' की श्रेणी
जरा सोचिए ! स्थिति क्या है और उसमे हम कैसे मे ही लिया जायगा। ऐसे श्रावक को हम नतमस्तक है। सूधार ला सकते हैं? शास्त्रों में श्रावकों के कुछ और भी दैनिक कर्तव्य बत
-सम्पादक