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साहित्य-समीक्षा
१. हरिवंश पुराण का सांस्कृतिक अध्ययन :
लेखक : डा० पी० सी० जैन
प्रकाशक : देवनगर प्रकाशन, जयपुर ।
साइज : १८x२२ x १६ पृष्ठ १६+२०६ = २२२ । मूल्य : ६० रुपये |
जैन पुराण, पुण्य पुरुषो के एसे चरित्र हैं जो मोक्ष का मार्ग सरलता से बताते हैं पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन करना उन सभी स्रोतों का उजागर करना है, जिनसे महापुरुष मोक्ष तक पहुंचते हैं। हरिवंश पुराण में तीर्थंकर नेमिनाथ और तत्कालीन पुरुषो और परिस्थितियों का सर्वांगीण सामूहिक वर्णन है । लेखक ने ने बड़े श्रम से इसे विलोकर मक्खन और तक की भांति इसके विभिन्न जातीय मिश्रित तथ्यों को पृथक्-पृथक् पुंजों में रख दिया है। जिस से पाठक सहज ही अथाह समुद्र मे गोता लगाते ही विभिन्न जातीय विभिन्न रत्नों को एक स्थल पर प्राप्त कर सकें । विद्वान् लेखक ने समस्त पुराण को मूलतस्व धार्मिक, सामाजिक व आर्थिक स्थिति और चरित्र-चित्रण आदि जैसे ग्यारह अध्यायों में संजोकर कर रखा है। परिशिष्ट में २२ चित्र व्रतों सम्बन्धी भी दिए हैं। इससे लेखक की आन्तरिक भावना पाठकों को सयम-मार्ग पर दृढ़ करने की स्पष्ट लक देती है । आशा है इससे पाठक पुराण सन्दर्भों को जीवन में उतारने में सहज ही सफल हो सकेंगे और लेखक का श्रम सार्थक होगा। विद्वान् लेखक उत्तम कृति के लिए प्रशंसा हैं । ग्रंथ साज-सज्जा उत्तम और आकर्षक है।
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२. जैन कला में प्रतीक : लेखक : श्री पवनकुमार जैन
प्रकाशक : जैनेन्द्र साहित्य सदन, ललितपुर ।
साइज : १८x२२ × १६ पृष्ठ ५१ मूल्य : १५ रुपये प्रतीक का क्षेत्र अति व्यापक है और इसका प्रयोग लोक के सभी पदार्थों के स्वरूप परिज्ञान के चिह्नों के लिए किया जा सकता है । फलतः - प्रतीक सम्बन्धी लम्बी खोज
में हाथ डालना बड़े साहस का कार्य है। किसी उस चिह्न को, जो किसी आकार-प्रकार, भाव आदि का संकेत देता हो 'प्रतीक' नाम दिया जा सकता है। कुछ प्रतीक स्वाभाविकबिना इच्छा और प्रयत्न के बन जाते हैं और कुछ मानव-बुद्धि द्वारा निर्मित होते हैं। जैसे मानव के चलते समय अज्ञान अवस्था में उसके पंजी से बना निशान पंजों का स्वाभाविक प्रतीक और स्वस्तिक आदि बुद्धिजन्य प्रतीक हैं । 'जैन-कला-प्रतीक' विषयक प्रस्तुत कृति 'गागर में सागर' तुल्य है। इसमें लेखक ने मूर्तिकला, स्थापत्यकला, लोक रचना, समवसरण, मानस्तम्भ, अष्टापद, नन्वीश्वरद्वीप, अष्टमगमद्रव्य और विचार, शब्द, स्वप्न जैसे भावात्मक, तदाकार-अतदाकार प्रतीकों को उद्घाटित किया है। निःसन्देह प्रतीक शोध में लेखक ने जैन आगमों में पहरी डुबकी लगाई है। वे तक कहीं प्रतीक रत्नों के रहस्य पाठकों को भेंट कर पाए हैं। जैन-कला के प्रति उनकी मास्था, और उनके प्रतीकों के खोजने की लगनसबंधा स्पृहणीय है। हमारा विश्वास है कि इस कृति से पाठक लाभान्वित होंगे और शोधकर्ताओं को नवीन प्रेरणा मिलेगी।
-सम्पादक
' तृष्णा लोभ बढ़े न हमारा, तोव-सुधा नित पिया करें । श्री जिनधर्म हमारा प्यारा, उसकी सेवा किया करें ॥'