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में संकोच करता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि ऐति- उपन्यास भी प्रकाशित हो चुके हैं, किन्तु उनके हिन्दी अनुहासिक गवेषणा एवं शोध-खोज ही न की जाय, और वाद न होने से उनका कोई परिचय प्राप्त नहीं हुआ। उसके आलोक में अधुनाहान ज्ञातव्य में कोई संशोधन एवं कन्नड़ भाषा एवं साहित्य के एक महारथी, श्री सी. के. परिष्कार न किया जाय, किन्तु जितना जो भात है उसे नागराजराव ने साधिक आठ वर्ष के परिश्रम से, १९७६ तो स्वीकारना चाहिए।
में अपना जो लगभग २२५० पृष्ठों का वृहत्काय उपन्यास जहां तक महारानी शान्तला देवी का प्रश्न है, उन्हें 'पद्रमहादेवी शान्तला' कन्नड़ भाषा में लिखकर पूर्ण किया ए पूरे नौ सौ वर्ष भी नही बीते हैं । तत्कालीन तथा किया था और प्रकाशित भी करा दिया, उसके हिन्दी निकटवर्ती अनेक स्मारकों, शिलालेखों तात्कालिक उल्लेखों अनुवाद का प्रथम भाग (पृष्ठ सख्या ४००), १९८३ में एवं लोकप्रचलित अनुश्रुतियों आदि के अतिरिक्त ऐतिहा- भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ था। इस भाग मे सिक शोष-खोज पर आधारित आधुनिक युगीन इतिहास- चरित्रनायिका के वाल्यकाल एव किशोर वय के पन्द्रह वर्ष ग्रंथों में महिलारत्न के विषय में प्रभूत ज्ञातव्य प्राप्त है। की आयु पर्यन्त, लगभग ६ पृष्ठो का ही घटनाक्रम आइतिहास का विद्यार्थी होने के नाते प्रारम्भ से ही हमारा पाया है। प्रयास सामान्य भारतीय इतिहास की पृष्ठभूमि में विभिन्न शेष तीन भाग भी एक-एक करके शीघ्र ही प्रकाशित यगीन एवं विभिन्न क्षेत्रीय तथा विभिन्न वगीय जैन होगे, ऐसी आशा है हिन्दी रूपान्तर कार पण्डित पी. पुरुषों एव महिलाओ के व्यक्तित्व, कृतित्व एवं योगदान बैंकटाचल शर्मा लगभग ७५ वर्ष की आयु के अनुभवबद्ध का मूल्यांकन करता रहा है । कर्णाटक के श्रवणबेलगोल उभयभाषाविज्ञ कन्नडी विद्वान हैं, अतएव अनुवाद की आदि स्थानों से प्राप्त शिलालेखों तथा रामास्वामी अयं- भाषा अति सरल, महावरेदार एवं प्रभावपूर्ण है । उसमें गार, शेषागि रराव, राईस, नरसिंहाचार्य, मडारकर, मूल कन्नड़ कृति के भाव एव शैली का उत्तमरीत्या निहि पाठक, अल्तेकर, सालतोर, नीलकण्ठ शास्त्री प्रभूति हा-हां प्रफ संशोधन की असावधानीवश छापे की विद्वानों की कृतियों के अध्ययन से इस प्रवृत्ति को प्रेरणा अशुद्धियां यत्र-तत्र रह गई हैं। स्वय कथाकार श्री एवं बल मिला था। फरवरी १९४७ के 'अनेकान्त' में नागराजरावजी भी लगभग ७० वर्ष की आयु के ख्याति हमारा लेख 'दक्षिण भारत के राज्यवंशों में जैन धर्म का प्राप्त प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं । वह मानवीय मूल्यों के प्रभाव' प्रकाशित हुआ था। १९६१ में भारतीय शान- प्रबल समर्थक, संवेदनशील एवं कुशल कथाशिल्पी मात्र पीठ से प्रकाशित अपने ग्रंथ 'भारतीय इतिहास : एक ही नही हैं, इस ऐतिहासिक उपन्यास की रचना करने के दृष्टि' मे हमने विभिन्न युगों एवं विभिन्न क्षेत्रों में जैनों लिए उन्होने वर्षों तक तत्सम्बन्धित ऐतिहासिक साधन के ऐतिहासिक योगदान की ओर पाठको का ध्यान आक- -स्रोतों का भी गहन अध्ययन एव मन्थन किया है। पित करने का प्रयल किया था-मध्यकालीन दक्षिण गत शती के सुप्रसिद्ध फ्रान्सीसी उपन्यासकार एलेक्जेण्डर भारतीय इतिहास के प्रसंग में द्वारसमुद्र के होयसल वंश उयूमाकी एक उक्ति है कि 'इतिहास ऐसा लिखा जाना का तथा उनके अन्तर्गत महाराज विष्णुबद्धन एवं उनकी चाहिए कि पाठक समझे कि वह एक रोचक उपन्यास पढ़ पट्टमहादेवी शान्तला का भी उस ग्रंथ में परिचय दिया रहा है, और उपन्यास ऐसे लिखा जाय कि पाठक को लगे था। उसी प्रकार भारतीय ज्ञानपीठ से ही १९७५ में कि वह जीवंत इतिहास पढ़ रहा है। श्री नागराजरावजी प्रकाशित अपने ग्रंथ 'प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और के इस उपन्यास पर यह उक्ति भली प्रकार चरितार्थ है। महिलाएं' में भी उक्त महादेवी अपेक्षाकृत कुछ विस्तृत उपन्यास की कल्पनाप्रवण रोचकता के साथ इतिहास की विवरण दिया था। ज्ञात हुआ है कि पिछले कुछ वर्षों में प्रमाणिकता का उसमें अद्भुत सामन्जस्य है। घटनाक्रम कन्नड भाषा में महारानी शान्तला के विषय में तीन-चार हृदयग्राही, कपनोपकथन सहज स्वाभाविक, और छोटे-बड़े