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________________ गुरु-गण के अभिमत पज्य १०८ आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज: सेठ श्री उम्मेवमा पाडया व पंपचन्द्र जी शास्त्री किशागद पंच कल्याणक डा महोत्सव पर महाराज श्री के साथ इस दिन तक है। अनुत्तमोगी; तीकर महावोर' जो इन्दौर से प्रकाशित हुमा है, के बारे में प्राचार्य श्री धर्म सागर जी महाराव.प्राचार्ग कल्प श्री श्रुतसागर जी महाराज से पाचन शास्त्री द्वारा लिखित लेख पर चर्चा हुई। प्राचार्य महाराज ने इस सम्बन्ध में कहा कि-"तोष करों का जीवन चरित्र एक यथार्थ है और जो यथार्थ है उस पर कभो उपन्यास नहीं लिखा जा सकता, उपन्यास में कोरी कल्पना हो होती है। प्रो पमचन्द्र जी शास्त्री ने इस विषय को उठा कर दिमम्बर जन सिद्धान्त को रक्षा की है। और मुझे सबसे बड़ा प्राश्चर्ग तो यह है कि यह उपन्यास की किताबें हमारी ही दिगम्बर जैन संस्था ने छपवाई हैं। इस तरह को किताबों से हमारी परम्पराएं विकृत होती हैं। इस तरह की किताबें छापना उचित नहीं है।" पूज्य १०८ प्राचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज : ___ अनुत्तर-योगी में जो विसंगरिया दिगम्बर धर्म के प्रतिकूल हैं उन्हें छांटकर प्रकाशन करने पाली संस्थानों को भेजकर उनसे अनुरोध किया जाय कि माप इन विसंगतियों का समाधान करें तथा अनुत्तर योगी के प्रारम्भ में अतिरिक्त पत्रक लगवा कर स्पष्ट कर किये मान्यताएं श्वेताम्बर साहित्य से ली गई हैं। दिगम्बर साहित्य में कोई उल्लेख नहीं है।" मध्यन, अखिल भारतवर्षीय वि० जैन विद्वत्परिषद् : _ 'मापके द्वारा प्रेषित पत्र और 'मनुत्तर-यागो के दिगम्बराम्नाय के विरुद्ध प्रसंगों का निरूपण प्राप्त प्रमा। वस्तुतः यह प्रकाशन समिति की भावकता काही परिणाम है। दिगम्बर समिति के द्वारा दिगम्बर-विक्त पुस्तकों का प्रकाशन हानिकारक होगा। भारतवर्षीय वि०जैन विद्वत्परिषद इस प्रकाशन को हानिकारक मानती है । मच्छा हो पुस्तक के प्रारम्भ में अलग स्पष्टीकरण करने वाला पत्रक लगा दिया जाय किसमक-मूक प्रसंग श्वेताम्बर साहित्य से लिए गये हैं-दिगम्बर साहिय में इन प्रसंगों का उल्लेख नहीं है। प्रापका पत्र यहां कैलाशचन्न जो तथा फूलचन्द्र की प्रादि को पढ़वा दिया है।' संरक्षक-मारतवर्षीया दि० जैन शास्त्रि-परिषद् : पापके पत्र पर विचार किया गया। 'अनुत्तर-योगी' अन्य दिगम्बर जैन समाज में नया विकार ही पैदा नहीं करेगा, दिगम्बरत्व का ही लोप कर देगा। शास्त्रि-परिषद् का प्रत्येक विद्वान् 'अनुरार-योगी' अन्य को दिगम्बर मान्यता के विरोध में मानता हुमा उसके पठन-पाठन का विरोध करता है और पापके इस संघर्ष में शास्त्रि-परिषद्का पूरा-पूरा सहयोग रहेगा।" एक पत्र के ग्रंश: अनेकान्त' बराबर देख रहा हूं। सन्तुष्ट हूं। पाप अपनी जगह बिल्कुल ठीक है। कशान होतोपोड़ा ठीक से कसे पल पायेगा? मापसे दो-चार स्वतंत्र चिन्तक हों तो हो समान की गाड़ी छोक-ठीक चल सकती है। मुझे पापमें जो चीज बिजली/चुम्बक की तरह माकर पकड़ती है, वह है
SR No.538037
Book TitleAnekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1984
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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