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________________ १०पर्व ३७, कि.४ सिंध ते कुरंग होई व्याल स्याल अंग होइ त्रस की दया जान जल गाल यह आचार करह व्रत पाल । विष ते बिहुष होइ माल अहि फन तें। दीरव हस्त सवा के जान पनहा एक हस्त के मान । विषम तें सम होइ संकट न व्याप कोइ ऐसे नूतन वस्त्र दूनी पुरि कहै इहि विधि गालि धर्म न्यौपरै ॥ गुन होइं सत्यवादी के दरस ते॥ दोइ दंड जलु गाली रहे पुनि सो अनंत राशि अति लहै । ब्रह्मचर्य व्रत का बड़ा सुन्दर वर्णन इस छन्द में जब जब जल लीजे निजू काम पहिए : तब तब जल छानो निज धाम ।। परदारा जब त्यागें ग्रही चौथो अणु व्रत पावे तब ही। जो जल छानि छानि घट धरो माइ(य)बहिनी पुत्री सम चित्त परदारा तुम जानेह मित्र ।। पुनि सो जलु जल में ले करी। अथवा सांपनि मी मन धरु दुख की खानि दूर परि हरे। एक बूंद जो धरनी पर अनंत राशि जीव छिन में भरै। पानी बिनु मोती है जैसो सील बिना नर लागे तसो॥ ढीमर पारिधि जानि जुग, जुग पाप जो अपजस की डंक बजावत लावत कुल कलंक परधान । जोर्जे जिन (जे) किए। जो चारित्र को देत जलांजलि गुनवन को दावानल दान। इह उह एक प्रमान अन गाल्यो बुंदक पिए ॥ जो सिव पंथ को वारि बनावत, इस तरह कवि शिरोमणि पं. शिरोमणिदास जी ने आवत विपति मिलन के थान। अपनी कृति "धर्मसार सतसई" में तत्वज्ञान, धर्म, आचार चितामणि समान जग जो नर, एवं दर्शन की दृष्टि से "गागर में सागर भर दिया है। सील खान निज करत मिलान | पाठकों से आशा है कि ऐसी श्रेष्ठतम रचनाओं का अध्यज्ञान ध्यान व्रत संयम धरना, यन कर अपने ज्ञान की वृद्धि करें और कर्म कलंक को यज्ञ विधान शुभ तीरथ करना। मिटा डालने के पुण्य भागी बनें। पूजा दान बहु कोटिक कर सील बिना नहीं फल को धरै। मेरी एक छोटी सी अपील पाठकों एवं श्रद्धालु सद्रावन आदि जु क्षय भये पर नारि के काज । गृहस्थों से है कि वे दश लक्षण व्रत रत्नत्रय व्रत, षोडशसेठ सुदर्शन सील तें पायो सिव पुर राज॥ कारण व्रत, अष्टान्हिका आदि व्रत किया करते हैं और निज नारि पुन छोडो जानि आठ पाचें चौदसी मानि । फिर उसके उद्यापन में बहुत-सा दान सोने-चांदी के रूप दिवस पुनि छोड़े निज हेत चौथो अणु व्रत धरहु सुचेत ॥ में करते हैं. अच्छा होवे इस सोने-चांदी की जगह अप्रका दान के गुण दोष (भूषण दूषण) को कवि ने इन मालिकोपकाशित कराने में जमी हा छन्दो में लिखा है : उपयोग करें तो मैं समझता हूं कि व्रतोद्यापन का कई पांच दृषण: गुना फल प्राप्त होगा और सरस्वती की सेवा होगी और विलव विमुख अप्रिय वचन आदर चित्त न होइ। जैन साहित्य का भण्डार भरेगा । अतः प्रस्तुत कृति "धर्म दै करि पश्चाताप कर दूषण पांचहु सोइ ॥ सतसई" का प्रकाशन किसी व्रतोद्यापन के हेतु किया जा पांच भूषण : सकता है। जो श्रद्धालु श्रावक ऐसी अभिलाषा रखता हो आनद आदरि प्रिय वचन जनम सफल निज मानि। निम्न पते पर मुमसे सम्पर्क साधे । मैं सेवा के लिए सदैव निर्मल भाव जु अति कर भूषण पंचहु जानि ॥ तत्पर रहूंगा। जिन वाणी का प्रकाशन देव शास्त्र गुरु की दान के गुण :-- पूजा से कम नहीं होगा। आज के इस वैज्ञानिक तकनीकी श्रद्धा ज्ञान अलोभता दया क्षमा निज शक्ति । युग में अप्रकाशित साहित्य को अधिक से अधिक प्रकाश दाता गुण ये सत्य कहि करै भाव सों भक्ति । में लाना ही सच्ची जिन पूजा और धर्म संरक्षण होगा। पानी छान कर पीने पर कवि ने जल गालन की श्रुत कुटीर, ६८ कुन्ती मार्ग, क्रिया का सुन्दर वर्णन किया है : विश्वास नगर-शाहदरा, सात लाख जल जोइनि भए, अरु अनंत असतामें भए। नई दिल्ली-११००३२
SR No.538037
Book TitleAnekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1984
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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