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________________ भनेका बन रहा है। इस प्रकार सभी तीर्थकरों की अवहेलना हो कि-"मुनिराज का पद ही गरिमापूर्ण है। क्या हम रही है । अस्तु: यह भी भूल पायें कि-"भुक्तिमात्र प्रदानेन का परीक्षा तपस्विना" वाक्य हमारे लिए ही है और सम्यग्दृष्टि अपने विषय में हम यह भी जानते हैं कि परिग्रह श्रावक सदा उपगूहन अंग का पालन करते हैं, आदि । पहले ही हमसे बहुत कुछ रुष्ट है-हम अकिंचन जैसे हैं; अब हमारी परिग्रहकृषता-त्याग जैसी बात से कतिपय उस दिन हमने एक हितचिंतक की बातें सुनी, जो परिग्रही दीर्घ संसारी बह परिग्रही भी कुछ रुष्ट हो सकते बड़े दुखी और चिन्तित ह य की पुकार जैसी लगी। हों-जिसकी हमें आशा नहीं) फिर भी हमें इसकी इनमें मुनि-संस्था के निर्मल और अक्षुण्ण रखने जैसी चिंता से कहीं अधिक चिता आगम मार्ग रक्षा और समाज में 'मूल-जैन संस्कृति अपरिग्रह' को अक्षुण्ण रखने की है; जिसकी उपेक्षा कर आज कुछ लोग अधिकाधिक संग्रही बातें समय-संगत थीं और विचार कर सुधार करने बनने की होड़ में अहिंसा के नाम पर मौज उड़ाने के में सभी की भलाई है। हमारी दृष्टि में तो पहिले हम अभ्यासी हो रहे हैं-भोगोपभोग में मग्न रहकर भी धर्म- श्रावक ही अपने में सुधार करें। संभवतः हम श्रावक ही ध्यानी बनना चाहते हैं। मोक्ष चाहते हैं। ऐसी सभी मुनिमार्ग को दूषित कराने में प्रधान सहयोगी हैं। हम क्रियाएंउन्हें पर-भव में मंहगी पड़ सकती है। इस भव में श्रावक जहाँ इक्के-दुक्के मुनिराज को अपनी दृष्टि सेतो धर्म का ह्रास देखा ही जा रहा है। कहीन्हिीं अंशों मे कुछ प्रभावक पाते हैं, उनकी अन्य शिथिलताओं को नजरन्दाज कर जाते हैं और साधु को काश हमने अपरिग्रह को अपनी मूल-संस्कृति मानते इतना बढ़ावा देने लग जाते हैं कि साधु को स्वयं में एक रहने का अभ्यास किया होता और परिग्रह (तृष्णा) के संस्था बनने को मजबूर हो जाना पड़ता है। साधु के यश क्षीण करने को प्राथमिकता दी होती तो परिग्रह संचय के अम्बार लगे रहें और वह भीड से घिरा चारों ओर करने से हमारे मन और दोनों हाथों को ब्रेक भी लगा , लगा अपने जय-घोष सुनता रहे, तो इस युग मे तो यश-लिप्सा होता और अहिंसादि (त्याग रूप) व्रतो का निवाह भी हुआ से बचे रहना उसे बड़ा दुष्कर कार्य है। फलत: साधु स्वयं होता, हम नी पहले की भांति लोक-प्रतिष्ठित भी रहते संस्था और आचार्य बन जाता है और भक्तगण उसके और हमारा कल्याण भी निकट होता--व्यवहार में आज्ञाकारी शिष्य । नतीजा यह होता है कि साधु की शायद हम निकट-भव्यों की श्रेणी में भी होते। जरा अपनी दृष्टि बैराग्य से हटकर प्रतिष्ठा और यश पर सोधिए ! तथ्य क्या है ? केन्द्रित होने लगती है। उसकी दृष्टि में परम्परागत आचार्य भी फीके पड़ने लगते है। बस, साधु की यही ४. क्या हम श्रावक निर्दोष हैं ? प्रवृत्ति उच्छृङ्खल और उद्दण्ड होने की शुरुआत होती है। मुनि-पद की अपनी विशेष गरिमा है और इसी गरिमा के कारण इस पद को पंच परमेष्ठियों में स्थान मिल सका जनता दूसरो का माप अपने से करती है। हमे है-'णमो लोए सब्यसाहूण।'-जब कोई व्यक्ति किसी बोलने की कला नही और अमुक साधु बहुत बढ़ियामुनिराज की ओर अंगुली उठाता है तो हमें आश्चर्य और जन-मन-मोहक प्रवचन करते हैं या हम अपना भ्रमणदुख दोनों होते हैं। हम सोचते हैं कि यदि हमें अधिकार प्रोग्राम घोषित कर चलते हैं तो अमुक साधु बिना कुछ मिला होता तो हम ऐसे निन्दक व्यक्ति को अवश्य ही कहे ही एकासी, मौन विहार कर देते है तो हम आकर्षित 'तनखैया' घोषित कर देते जो हमारे पूज्य और इष्ट की होकर उन्हे हर समय घेरने लगते हैं-उनकी जय-जयनिन्दा करता हो। आखिर, हमें सिखाया भी तो गया है कार के अम्बार लगा देते हैं। पत्रकार प्रकाशन-सामग्री किया होताना मूल-संभ भोग करने
SR No.538037
Book TitleAnekant 1984 Book 37 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1984
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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