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न्यायाचार्य-न्यायविशारद-महा महोपाध्यायजी श्रीमद्
यशोविजयजी विरचित १२५-१५०-३५० गाथायोनां
स्तवनो.
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संशोधक महामहोपाध्यायजी श्रीमद् वीरविजयजीना शिष्यरन पंन्यासजी महाराज श्रीमद् दानविजयजी गणी.
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न्यायांभोनिधि श्रीमद् विजयानंदसूरीश्वर आत्मारामजी पष्ट प्रभावक श्रीमद् विजयामलहरिजीना उपदेशथी
छपावी प्रसिद्ध कर्ता खंभात अमरचंद प्रेमचदं जैनशालाना प्रमुख
शेठ पोपटभाइ अमरचंद.
1399999999999993593329819839933333333395933392993333333998939799999995303933
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विक्रम संवत् १९७५
श्री वीर संवत् २४४५ •
आवृत्ति पहेली.
प्रत ५००).
अमदावाद. रीचीरोडना पुल नीचे श्री " जैन विद्याविजय " मि० प्रेसमां
शा. पोपटलाल अमथाशाए छाप्यु.
कीमत ३.१-०-०. KATARREARS
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न्यायां भोनिधि श्रीमद् विजयानंद सुरीश्वरजी के पट्टधर
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साक्षर शिरोमणि आचार्य श्रीमद् विजयकमळसुरीश्वरजी.
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प्रसिद्धकर्ता श्री महावीर जैन सभा, खंभात.
लक्ष्मी आर्ट, भायखळा, सुम्बई
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* साक्षरवर्य महोपाध्याय श्रीमद् वीरविजयजी महाराज.
।
सं १९७५ उपाध्याय पद, सं. १९५७. स्वर्गवास,
दीक्षा, विक्रम सं १९३५० जन्म, विक्रम स १९०८.
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११.
प्रसिद्धकर्ता श्री महावीर जैन सभा, खंभात.
लक्ष्मी मार्ट, मायखळा, मुम्बई.
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खंभातमा महोपाध्याय श्रीमद् वारावजयजाना मादगामा
गुरुसेवार्थे पधारेला मुनी महाराजो पैकी.
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......................: ~ ..... अनुयोगाचार्य पंन्यास श्रीमद् दानविजयजी आदि ठाणा.
प्रसिद्धकर्ता श्री महावीर जैन सभा, खंभात. लक्ष्मी आर्ट, भायखळा, मुम्बई
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प्रस्तावना.
आ संसाररूप गाढ अरण्यमां परिभ्रमण करता आत्माओंए पोताना स्वभाविक स्थान संप्राप्त करवानी खातर पण वीतराग परमात्माए अर्थरूप प्रकाशित अने सर्वज्ञकल्प गणधर महाराजा मूत्रद्वारा निरूपित सन्मार्गनो आश्रय लेवानी अनिवार्य आवश्यकता छे, कारण के तेज सन्मार्गना अवलंवनथी अनेक भव्यात्माओए आ आधि व्याधि अने उपाधिथी परिपूर्ण संसार रूप अरण्यनुं शांतिपूर्वक उल्लंघन करी पोताना स्वाभाविक स्थानने संपात करेल छे. वर्तमान समये करे छे. अने आगामि समये करशे. ए बात निर्विवाद सिद्ध है.
ते सन्मार्गने गुज्ञात करवा मांटे परोपकार परायण पुरातन महर्षिओए तेज सूत्रोने अनुसरी अनेक ग्रंथरत्नोनी रचना करी तेना स्वरूपनी साथे तेने संमाप्त करवानां साधन आदि विषयाने पष्ट रीते सुवोधित करेल छे. ते महात्माओनी परंपरामां प्रसिजिने पामेलाज महात्मा आ प्रस्तुत त्रण ग्रंथरत्नोना प्रणेता छे. जेमनुं शुभ नाम महामहोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी हतुं.
यद्यपि आ ग्रंथग्नांना प्रणेताना अनुकरणीय जीवन चरित्रने अत्रे आलेखवानी जरुर छे, परंतु दुर्भाग्यना प्रभावे तेओश्रीना जीवनचरित्रनी संपूर्ण बातमी मेळवावा अमे भाग्यशाली या नथी अने ते संबंधी भिन्न भिन्न स्थळेथी संप्राप्त थयेली हकीकतोने संकलित करी भावनगर जैनधर्म प्रसारक सभाद्वारा प्रसिद्ध थयेल यशोविजयजी ग्रंथमाला नामना ग्रन्थरत्ननी प्रस्तावनाद्वारा ते सभाना कार्य वाहकोए प्रकाशित करी छे तेथी अत्रे तेनुंज पिष्टपेषण करवानी अमने जरुर जणाती नथी, परंतु पंडित शिरोमणी ओना शिरोने पण इपत् कं पावनारी केडलीक चावतोनो उल्लेखतो जरूर करीं
जेभीए मात्र पोतानी सात वर्ष जेटली नानी वयमां पोतानी मातुश्री साथे गुरु महाराज पासे एक वखत श्रवण गोवर करेल भक्तामर स्तोत्र " ते स्तोत्रना श्रवण कर्या वाढज अन्न पाणी अंगीकार करकुं" एवा नियमवती पोतानी मातुश्रीने श्रवण करावीने पोतानी अप्रतिम प्रतिभा अने असाधारण स्मरणशक्तिनो सारो चितार आप्यो हतो, तेथीज शासन रसिक महात्मा श्रीमान् नयविजयजी महाराजाए श्री संघनी पासे याचना करावी चारित्र अर्पि अध्ययनने अर्थे जोडती दरेक दरेक सामग्रीभो मेळवी आपना पाछी पानी करी न हती एव प्रघोष छे.
यद्यपि आ शासन रसिक महात्मा शासननी उन्नति माटे जेटलुं करे तेलुं ओलं छे. तेओए जे कइ कई छे ते पोतानुं कर्त्तव्यज छे एथी कंइ अधिकता नथी. परंतु काशी निवासी जैनांना प्रतिस्पर्धि पंडितोए पण ते महात्मानी अप्रतिम प्रतिभा अपूर्व ग्रन्थ ग्रथनशक्ति अने प्रतिवादीओने पराजित करवानी स्फुर्ति देखी आश्चर्य थइ " न्यायविशारद " अने “न्यायाचा" एवा योग्य विरुदोने अपिं आ महात्माने अलंकृत कर्या हता, अर्थात्
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मस्तावना. ते समये आ महात्मानी अप्रतिम प्रतिभा असाधारण स्मरणशक्ति अद्वितीय विद्वता-अलौकिक-ग्रंथ प्रथनशक्ति प्रतिवादीओने पराजित करवानी चमत्कारिक स्फुर्ति-धैर्यता-गंभिर ता अने शासन रसिकता निरखी निखिल जनसमाज आश्चर्यमां गरकाव थयो हतो.
चमत्कारिक अवधान शक्ति संपन्न आ महात्मानी विद्वत्तानी ख्याती श्रवण गोचर करी गुजरावना अधिपति महमदखानने तेमने मलवानी हुंश थइ आववाथी तेओए नवावनी सभामां जइ अष्टादश (१८) अवधान करी खानने बहु खुश करी शासननी प्रभावना करी हती. वीस स्थानक तपना आराधक आ महात्माने श्रीमद् विजयपम मरिराजे १७१८ नी सालमां वाचक पदथी विभूपित कर्या हता तेमज आ महात्माए १९४३ नी सालमां अनशन करी समाधिनी साथे दर्भावती (डभोइ) नगरीमा स्वलॊकने अलंकृत कर्यो हतो. आ हकीकत मान्य मुनिवर श्रीकांतिविजयजीए वनावेली मुजसवेली भासनो नीचे मुकेली गाथाओथी स्पष्ट जणाइ आवे छे,
"कीरति पसरी दिसिं दिसि उजलीजी, विबुधतणी असमान । राजसभामां करतां वर्णनानी, निमुणे महवतखान ॥१॥ गुज्जरपति हुँस हुइ खरीजी, जोवा विद्यावान । तास कथनथी जस साधे वलीनी, अष्टादश अवधान ॥२॥ पेखि ग्यानी खान खुसी ययाजी, बुद्धि वखाणे निवाप । आईवरस्युं वानींत्र वाजतेजी, आवे थानिक आप ॥३॥ भोली तप आराध्य विधियकी, तस फल करतलि कीप । वाचक पदवी सत्तर अहारमांजी, विजयप्रभ दीप ॥४॥ सत्तर प्रयाली चोमास, रह्या पाठक नगर डभ्योई रे । तिहां सुरपदवी अणुसरी, अणसण करी पातक घोई रे ॥५॥" ___ आ माहात्माए संस्कृत भाषामा अनेक विषयो उपर अनेक ग्रंथोनी रचना करी छे, भने तेनी साथे गुर्जरभाषामां आ त्रण ग्रंथोनी साथे द्रव्यगुण पर्यायनो रास, आठ दृष्टिनी सझाय, उपशम श्रेणिनी सझाय आदि अनेक ग्रंथोनी रचना करी प्राकृत जनवगे उपर पण असीम उपकार करेल छे. __आत्रण ग्रंथरत्नोमांना प्रथम श्री सीमधरस्वामीनी विनति रूप सवासो गाथाना स्तवनमा गुरुओर्नु त्रासदायक स्वरूप अने तेओने हितशिक्षा, शुद्धधर्म अने अधर्मेनुं वरूप, स्वस्वरूपथी अनभिज्ञने गुणस्थानकनो असद्भाव, आत्माण सामायिक, ज्ञान अने चारित्रनुं स्वरूप, आत्मा अने पुद्गलनी भिन्नता, निश्चयदया अने व्यवहारदयालु स्वरूप, श्री जिनधर्मना लोपकनुं खरूप, शुद्ध व्यवहार अने अशुद्ध व्यवहार, मोक्षना त्रण मार्ग अने संसारना त्रण मार्गनुं रूरूप, अहिंसाना निमित्तथी श्री जिनपूनाना निषेधकोने रादुपदेश, श्री जिनेश्वर देवनी पूजा उपर ज्ञातासूत्र आदिमां कथन करेल द्रौपदी आदिनां दृष्टांतो, द्रव्यस्तपने योग्य श्रावकोने द्रव्यस्तव संबंधी सदुपदेश आदि विषयोने सारी रीते चर्यों छे.
पोताना समान कालमा उत्पन्न थयेला ढुंढकमतिओना मतनुं निराकरण करवा माटे यद्यपि सटीक प्रतिमाशतक आदि ग्रंथो संस्कृत भाषामा लखेल छे, तोपण माकृतजनो पर पण उपकार करवानी शुभ अभिलाषाथी आ प्रण ग्रंथ रत्नोमांना बीजा चरम तीर्थ
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प्रस्तावना.
(३) कर भगवान महावीरखामीनी स्तुतिद्वारा लुम्पकमत निराकरण रूप दोढसो गाथाना स्तवनमा स्थापना नि पानी-आवश्यकमूत्रनी-स्थापना ज्ञान अथवा द्रव्यज्ञान वंभीलिपीनी प्रमाणता, साधुओए चित्रामणस्थ स्वीनी मूर्ति- अवलोकन न करवू, जंघाचारण अने विद्याचारण मुनिओए करेल जिनमतिमाने वंदननो अधिकार, चैत्यशन्दनो अर्थ ज्ञान नथी, श्री जिनमतिमा उपर मूर्याभादि देवोनो अधिकार, पूर्वपच्छा शब्दनो अर्थ, श्रीजिनदाहाओनी पूजा, सम्यग्दृष्टि देवताओनी आशातनानो त्याग, मनुष्योनो अपेक्षाए देयोमा विवेकनी अधिकता, अंबड आणंद आदि सुश्रावकोए करेल श्री जिनप्रतिमाने वंदननो अधिकार, चैत्यगन्दनो अर्थ प्रतिमा, सभेद सत्यनुवरुप दशविध वैधावत्य खरूप. श्रीसिद्धार्थराजा श्रेणीकमहाराजा महावल द्रौपदी आदि श्रावक श्राविकाभोए करेल श्रीजिनपतिमाने बंदननो अधिकार, श्री जिनेश्वर देवनी पूजामां हिंसा माननाराभोना स्मृतिपथमां मुनिदान मुनिविहार शंख पुष्कली श्रावकना पोपध-यावच्या पुत्रनी दीक्षा अवसर "जे दीक्षा ले तेना कुटुम्बनी पालना अमे करी" एवा प्रकारनी श्रीकृष्ण महाराजाए करेली द्वारिका नगरीमा उद्घोपणा-कोणीक-उदायन आदि महाराजाओए करेल भगवान महावीरस्वामीना सामेयां-तुगीया नगरीना श्रावकोए करेल वलीकर्मनो विधिमा श्री जिनपूजानो पण समकिन संवर करणीमां गणना, मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती जोवोने पण दान गील पूना आदिथी शुभ विपाकनी संमासि, भगवान ऋपभदेवस्वामीए प्रजाना हितार्थे दर्शावेल शिल्प अने गणित आदि कलाओ आदि विषयोनी उपस्थिति, हेतु हिंसा स्वरूप हिंसा अने अनुबंध हिंसाठे स्वरूप, शाश्वती जिनपतिमाओ४ वर्णन, तीर्थेवरोना कल्याणक दिवसोमा देवताओए नंदीश्वर द्वीपमा जइ करेला महोत्सवो, साधुओने पण योगोहनपूर्वक भूत्रनुं अध्ययन कर, गृहस्थोने मूत्र वांचवानो निषेध, अस्वाध्यायनुं वर्जन आदि विषयोने सारी रीते स्पष्ट करेल छे.
रोजा श्रीसीमधरस्वामिनी विनति रूप साडात्रणसो गाथाना स्तवनमा सूत्र विरुद्ध बोलनारा, मूत्र विरुद्ध वर्तन करनारा, सस्क्रियाओने न करवाना इरादाथीसंहननने पित करनारा, ओघमार्गनेज सन्मार्ग माननारा, लोचादिक कष्टमांज जैनमार्ग माननारा, मात्र द्रव्यलींगनेज प्रमाण माननारा, सद्गुणोनी मासि विना पण गुरुओनी सहाययी तरो शकी/ एम माननारा, निर्गुणोने पण साधु तरीके माननारा, प्रतिक्रमणकरी पापथी कुटीरों एम बोली निरर्थक पापाचारण करनारा, निष्कारण उत्तरगुणनो भंग करी पोतामां चारित्र माननारा,धर्मोपदेश न आपवो, नवीन ग्रंथोनी रचना न करवी इत्यादि वोलनारा दुष्टमतिमंडळने हितोपदेश, गुरुकुल वासना सेवनयी विनयादि सद्गुगोनो प्राप्ति, ज्ञानी महात्माओनी उपासना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भाव-पोग्य-अयोग्य-सचित्त-अचित्त-मिश्रकल्प-अकल्प आदिना अनभिज्ञ अगोतार्थाने अने आजकाल सिद्धांतना रहस्यथी मुज्ञात मुविहित गीतार्थ कोइपण न होवाथी एकाको विहार करवामां कोइपण जातनो वांघो नथी एवो प्रलाप करनाराओने पण सद्बोध, पंचमकाळमां गोतार्थोए पण समुदायनी
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( ४ )
प्रस्तावना.
साथै विचरतुं ए अति उत्तम के एवी सूचना, मात्र अहिंसामाज धर्म मानी पूजा प्रभावना आदिनो त्याग करनाराओने हेतु अहिंसा, स्वरूपअहिंसा अने अनुबंध अहिंसानुं स्वरूप दर्शा स्पाद्वाद शैलीथी सुबोध, पंचांगीनो त्याग करी मात्र सूत्रनेज प्रमाणभूत मानी प्रतिमा उपधान आदि क्रियाओने नहि माननाराओने हितोपदेश, द्रव्य श्रावकोना एकवीसगुणोतुं वर्णन, भावभावकोनां छ लक्षण अने सत्तरगुणोतुं वर्णन, भावसाधुपणं पामेला भावभावनां सात लक्षणोतुं वर्णन, पंचमकाळमां गीतार्थोए भूतव्यवहारमां करेल फेरफारनी प्रमाणता, सद्गुणी साधुओनी स्तुति, जीवनी निद्रादि चार दशा, जीव अने पुद्गaft भिन्नता, शुद्ध व्यवहारनी मुख्यता, तपगच्छनी स्तुति ज्ञाननी साथे क्रियानो आदर करवायी मोक्षनी संप्राप्ति आदि विषयोनो चितार स्पष्ट रीते आपेलो छे
था मूळ ग्रन्थो अति गहन होवाथी प्राकृत जनो उपर पण उपकारक नीवडे एवा शुभ आशयथी पंन्यासजी महाराज श्रीमत् पद्मविजयजी गणीए भात्रणे स्तवनोनो सविस्तर सरळ अने सरस अर्थ करेल छे ते महात्मा कथा गच्छना कया महात्माना शिष्य रत्न छे. इत्यादि आ स्तवनोने अंते आपेली प्रशस्तिनुं अवलोकन करवाथी मुज्ञात थड़ शके म होवाथी ते संबंधी अत्र कंपण उल्लेख करता नही. आ महात्माए साडामणसो गाथाना स्तवनना अर्थ करवामां ते स्तवन उपर ज्ञानविमळमूरिश्वरजी महाराजा ए करेल carनी पण सहाय लोधी छे ए बात " ए गाथानो अर्थ ज्ञानविमलसूरिना करेला टवा उपरथी लख्यो छे " आ ते महात्मानाम अक्षरोथी स्पष्ट रीते सुज्ञात थइ शके छे.
यद्यपि नीचे लखेली हकीकत अत्रे लखवानी आवश्यकता न हती. परतु भाषाज्ञानथी पण अनभिज्ञ छतां सर्वज्ञाभिमानी - कपोलकल्पीत कल्पनाओ करवामांज पोताना जीवननी सार्थकता माननार - सौराष्ट्र देशोत्पन्न- दंभमूर्ति रायचंद्र नामनी व्यक्तिनी निर्विचार शिरोमणिता, अधमता आदिनो किंचित् चितार आपना माटेज लखवानी जरुर पडी छे.
sahan निराकरणरूप भगवान महावीरस्वामीनो विनतिरुप दोढसो गाथाना स्तव - ननी बीजी ढाळनी अढारमी गाथा -
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शतक दशमे अंग पश्चिमे, उद्देशे छठे इंद; लाल रे ।
दाढातणी आशातना, टाळे ते विनय मंदः लाल रे ॥ तु० १८ ॥ er गायानो सामान्य अर्थ करी विवेचन करतां नीचे सुजय लखे छे.
"इहां ए स्तवनने विषे तो दशमा शतकना छठा उद्देशानी शाख लखी, अने श्रीभगवती सूत्रमां जोवां तो दशमा शतरुना पांचमा उद्देश। मां ए पाठ छे. ते माटे जाणीए छीए जे कोइ धुरथीन लखनारनो दोप छे. अन्यथा उपाध्यायनी एम आगे नहीं एहवी प्रतीति छे. अथवा रामसवृत्तिए - अनाभोगे उपाध्यायजोए एम आण्णुं छे. यतः - " नहि, नामानाभोगः छचमस्थस्येह कस्पचिन्नास्ति । ज्ञानावरणीयं हि ज्ञानावरण कृति कर्म्म ||१||" इत्यादि. आ विषयमा उपरोक्त निर्विचारक शिरोमणी व्यक्तिए श्रीमद् राजचंद्रनामना पुस्तकना पृष्ठ ५२० ना वीजा फकरामां नीचे मुजव लखेल छे.
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प्रस्तावना.
"यशोविजयजीए ग्रंथो रचतां एटलो खखंड उपयोग राख्यो हतो के, ते कोइ ठेकाणे चूक्या न होता. तोपण छमस्थ अवस्थाने लीधे दोढसो गाथाना स्तवन मध्ये सातमा ठाणांग सूत्रनी शाख आपी छे ते मलती नयी ते श्री भगवतीजीना पांचमा शतकना उद्देशे मालम पडे छे. आ ठेकाणे अर्थक ए "रासभवृत्ति" एटले पशुतुर गणेल छे पण नेनो अर्थ तेम नथी रासमति एटले के गधेडाने सारी केळवणो आपी होय तोपण जातिखभावने लीधे रख्या देखीने लोटो जवानुं मन थाय छे तेम वर्तमानकाले बोलतां भविष्यकाळमां कहेवानुं बोली जवाय छे."
___ आ लखाणथीज सर्वज्ञ तरीके प्रसिद्ध थवा माटे करेला दरेक प्रपंचो धुळमां मली जाय छे परंतु पुच्छग्राही-विवेकचाहीन केटलाक तेना अनुयायिओना दृष्टिपथमा आवी एक सामान्य व्यक्तिने पण सुज्ञात वावतनी उपस्थिति थती नयी एज तेओनी दुर्भव्यतानु मुख्य चिन्ह छे.
आ सर्वज्ञाभिमानी रायचंद्रने एपण खवर नथी के पांचनु अग भगवती के ठाणांग अर्थकाए उपाध्यायजीनी राभसवृत्ति एटले अनाभोग एवो स्पष्ट उल्लेख करेल छे छतां पण " रासभत्ति एटले पशुतुल्य गणेल छे" इत्यादि आज कालना दुर्भाग्य शिरोमणिओए मानेला सर्वजन लखाण कया बुद्धिमानने एनी सर्वज्ञता उपर तिरस्कार उत्पन्न न करावे. खरेखर आजकालना भवाभिनंदी प्राणोओने माटे तो आवाज सर्वज्ञनी जरुर छे कारणके तेना विना तेओ पोताना ते आनंदने मेळववा भाग्यशाली न वने
___ अधिक शुं लखवु एकाक्षी मनुप्य पण रामसने रामस अने भगवतीने भगवती तरीकेज वांचे,परंतु आ अधमात्माने तो छती चक्षुए कोइ एवुज पडल फरोवळ्यु के रामसने बदले रासम अने भगवतीने वदले ठाणांग वांचवामां आव्यु खरेखर एवा अधमात्माना चक्षु उपर एका प्रकार पडल आवे ए वात कंइ आश्चर्यजनक नथी, कारणके जे वच नो एक अधमाधमना मुखथी पण न नीकली शके एवां वचनोने आलेखी केवा प्रकारना कर्गनो निकाचित बंध को हशे अने ते बंधथी तेनो आत्मा क्यारे मुक्त थशे ते ज्ञानी महाराजा जाणे, जे वचनो श्रीमद् रायचंद्र नामनां पुस्तकना पत्र १४१ मां आ प्रमाणे लखेल छे " भगवान परिपूर्ण सर्वगुणसंपन्न-कहेवाय छे, तथापि एमांय अपलक्षण काइ ओछां नथी ?"
साथे साथे आ वात पण जणावधानी खास जरुरत जणायाधी जणावामां आवे छे के आज ग्रन्थकर्ता महात्माए वनावेल द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशिका नामना ग्रन्थमा प्रथमनी दानद्वात्रिंशीकामां हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज संविज्ञपाक्षिकछे एवात बोधक "नच वदानपोषार्यमुक्तमेतदपेशलम् । हरिभद्रो घदोभाणीयतः संविमपाक्षिकः ॥१९॥" आ श्लोकने देखी धर्म संग्रहणीनी प्रस्तावनाकार आ प्रमाणे लखे छे " तदिदं प्रमाणविरहितमसंभव- . पाय च नास्मबुद्धयादर्श प्रतिफलति ।" अर्थ'आ वात प्रमाण रहित अने असंभवमाय छे अने अमारा वुद्धिरूप आदर्शमां पतिविवित थती नथी.' त्यारवाद पोतानी वातने प्रमाण
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( ६ )
प्रस्तावना.
सिद्ध बनाववामाटे जरुरतो हती के श्रीहरिभद्रमूरि महाराज संविज्ञपाक्षिक नडता एवा आशय वाळा पाठनी परंतु पोतानी वात सिद्ध करवानी अभिलापाथी ' सम नामयी भ्रमित थयेला पेटलाक एम कहे छे के हरिभद्रसूरि चैत्यवासिओयी दीक्षित अने शिक्षित हता वात गीतार्थोंने मान्य नथी' आवा प्रकारना अर्थ बोधक जिनदत्तमूरिए गणधर सार्धगतकमां लखेली “ जंपड़ केई समनामभोलि भोलिभाई जंपति । चीया (य) वासिदिक्खिओ सिक्खओ य गीयाण तं न मयं ॥ ५७॥ " आ गाथा मुकी छे" ते आवी विद्वत्ता भरेली प्रस्तावनाना लेखकने अत्यंत लज्यास्पद छे कारण के आ बात महामामाणिक आ ग्रंथकार महात्माए आज श्रीहरिभद्रमरिकृत अष्टकना टीकाकार नवांगी वृत्तिकार श्रीम अभयदेवसूरि महाराजाए शोधेल तेमना गुरु श्रीमत् जिनेश्वरसूरीश्वरजी महाराजाए करेल सत्तावसमा अष्टकना विवरणमां लखेल “ संविग्नपाक्षिको हामौ " आ वाक्यने अनुसरीनेज लखेल छे माटे ए वातने प्रमाण विरहित अने असंभप्राय छे एम लख ए कोड़ पण रीते उचित गणी शकाय एम अमारुं मानवुं नथी.
महात्मा श्लोकी श्रीहरिभद्रमूरि महाराजानी अवज्ञा करी नयी पण एक रीते स्तुतिज करी छे. आ महात्माने श्रीहरिभद्रमूरि महाराज उपर संपूर्ण राग हतो ए बात आ ग्रन्थकारना ग्रंथो वांचवाथी स्पष्ट रीते जाणी शकाय छे अने तेना नमुना तरीके साडावणसो गाथाना स्तवननी पनरमी डालनी अगीआरमी गाधाज वस छे.
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'सुविहित गच्छ किरियानो धोरी, श्री हरिभद्र कहाय ।
एह भाव धरतो ते कारण, मुझमन तेह सुहाय ॥ ११ ॥”
यद्यपि आ त्रणे स्तवनो प्रकरणरत्नाकर आदि ग्रंथोमां भिन्न भिन्न छपाइ गयेल छे तेने जो एकत्र करवामां आवे तो तेना अभिलापिओने सानुकुल पढे एवी शुभ अभिलापाथी न्यायांभोनिधि श्रीमद् विजयानंद मूरीश्वरजी महाराज श्रीना पट्टमभावक श्रीमद् विजयकमलसूरीश्वरजीए प्रसंगोपात खंभातनगर निवासी धर्मचुस्त चोकशी अमरचंद मूलचंदने एक पुस्तकमां आ त्रणे स्तवनोनो संग्रह थाय तो सारं एम कहेवाथी ते सद्गृहस्थे आ पुस्तक छपावनामां जे खर्च लागे ते आपवानी उदारता दर्शावी आ समाने आभारी बनावी छे आ सभा पण तेमना आ सत्कार्यना अनुमोदवा साथे तेमने धन्यवाद आपेछे. अमारी नम्रप्रार्थनाथी महोपाध्यायजी श्रीमद् वीरविजयजी महाराजश्रीना शिष्यरन पंन्यासजी महाराज साहेवजी श्रीमद् दानविजयजो गणीए अमूल्य समयनो भोग आपी अमने आ ग्रंथ शुद्ध करी आपेल छे. माटे अमे तेभोश्रीनो अत्रे उपकार मानी अमारी फरज किंचित् अशे अदा करीए छीए.
लेखक
भादवा सुदी १२ ! श्री महावीर जैनसभा अने आत्मकमल जैन लायब्रेरीना सेक्रेटरी. संवत १९७५. ļ अंबालाल जेठालाल शाह.
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श्री सीमंधर स्वामीनी विनतिरूप सवासो गाथाना
स्तवननी स्थूल विषयानुक्रमणिका. ढाल.
विषय. १ कुगुरुने शीखामण गर्भित श्री सीमंधरस्वामीनी विनति करी छे । २ जीवस्वभाव ते धर्म अने वाधभाव ते मिथ्यात्व इत्यादि उपदेश कर्यो छे ३ आत्मद्रव्यना अनभिज्ञने गुणस्थान रुनो असद्भाव, आत्मा तेज सामायिक
ज्ञान-चारित्र आदिनु स्वरूप वर्णन करेल छे ४ आत्मा परमावनो अकर्ता, आत्मा अने पुद्गलनी मिन्नता, आत्मज्ञान ते
निश्चय दया अने परमाणीनी दया ते व्यवहार दया आदिनुं वर्णन . १० ५ क्रियानु उत्थापन करवाथी मात्र निश्चयनयन अवलंबन करवाथी अने
सद्व्यवहारनो लोप करवाथी श्री जिनधर्मनो लोप थाय छे .... .. ६ अशठ गीतार्थनी आचरणा ते शुद्ध व्यवहार, शिथिलाचारीओनो नियत
वासादिक जे आचार ते अशुद्ध व्यवहार, आदिनुं वर्णन ७ मु साधु-सुश्रावक अने संवेगपक्षी ए ऋण मोक्षना मार्ग वर्णन ८ दयानी खातर श्री जिनपूजाना निषेधकोने सदुपदेश ९ श्री जिनेश्वर देवनी द्रव्यपूना उपर ज्ञातासूत्र आदिमां कथन करेल द्रौ
पदी आदिनां दृष्टांतोनुं वर्णन १० द्रव्यस्तवने योग्य श्रावकोने द्रव्यस्तव संबंधी सदुपदेश ११ श्री सीमंघर जिननी स्तुति अने का नाम
श्रीमहावीरजिननी स्तुतिरूप (दोढसो 'गाथा प्रमाण)
हुंडीना स्तवननी स्थूल विषयानुक्रमणिका. ढाल
विषय १ स्थापना निक्षेपानी प्रमाणता, चार प्रकारना तथा दश मकारना सत्यतु स्वरूप,आवश्यकसूत्रनी प्रमाणता, स्थापनाज्ञान अथवा द्रव्यज्ञान वंभीलिपिनी प्रमाणता, चित्रामणस्थ स्त्रीनुं साधुओए अवलोकन न करवू, जंघाचारण विधाचारण मुनिओए करेल जिनमतिमाने वंदननो अधिकार,
चैत्यशब्दनो अर्थ ज्ञान नहीं इत्यादि वर्णन .... ... .... २ श्री जिनप्रतिमांनी पूजा उपर सूर्याभ देवादिनो अधिकार, पूर्वपच्छा - शब्दनो अर्थ, श्रीजिनदाढाओनी पूजा, सम्यग्दृष्टि देवताओनी आशावना
.... २४
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foreigक्रमणिका.
ओनो त्याग करवो, मनुष्योनी अपेक्षाए देवताओ मां विवेकनी अधिकता इत्यादि वर्णन
...
३ आनंद अंबड आदि श्रावकोए करेल जिनप्रतिमा वंदननो अधिकार, चैत्य शब्दनो अर्थ प्रतिमा, दशविध वैयावृत्यनुं स्वरूप, सिद्धार्थराजा श्रेणीक महाराजा तथा महावल तथा द्रौपदी आदि श्रावक श्राविकाओए करेली जिनपूजा आदि विषयोनुं वर्णन
४ पूजामां हिंसा माननाराओना स्मृतिपथमां मुनिदान, विहार, प्रतिक्रमण, शंख, पुष्कली श्रावकना पौपध, थावच्चा पुत्रनी दीक्षा अवसरे " जे दीक्षा शे तेना घरनो निर्वाह अमे करीभुं " एवा प्रकारनी द्वारिकानगरीमां कृष्णमहाराजाए करावेली उद्घोषणा, कोणीक तथा उदायन आदि महाराजाओ करेल भगवान महावीरस्वामीनां समैयां, तुंगीया नगरीना श्रावकोना घीकर्म आदि विधानोमां समकित संवरनी करणीनी जेम श्री जिनपूजानी पण समकित संवरकरणीमां गणना
४ मिथ्यात्व गुणस्थाने पण दान शील पूजादिकथी शुभ विपाकनी प्राप्ति, श्रीऋषभदेव भगवाने प्रजाना हितार्थे लिखन शिल्प अने गणित आदि कलाओनुं दर्शावेल दिगदर्शन आदि विपयोनी उपस्थिति हेतु हिंसा स्वरूपहिंसा अनुबंध हिंसा आदि विषयोतुं वर्णन
५ शाश्वती जिनप्रतिमाओनुं वर्णन तीर्थेश्वरोना कल्याणक दिवसोमां नंदीश्वर दीप प्रमुखना जिनविंवोनी देवताओए करेल पूजानुं वर्णन
9010
६ साधुओए पण योगोद्वहन पूर्वक सूत्राध्ययन कर, गृहस्थने सुत्राध्ययननो सर्वथा निषेध, मूळसूत्र टीका भाष्य चूर्णी अने निर्युक्ति रूप पंचांगीनी प्रमाणता, अस्वाध्यायनुं वर्जन अने सिद्धांतोमां नेतुं बोलना पाठांतर
ग्रन्थकारनी प्रशस्ति
श्री सीमंधर स्वामीनी विनति रूप साडान्त्रणसो गाथाना स्तवननी स्थूल विषयानुक्रमणिका. विषय
बाल
१ श्री सीमंधरस्वामीनी स्तुति, सूत्र विरुद्ध प्ररूपणा अने वर्तन करनारा, संघयण प्रमुखना दोष कहाडनारा, महाजन चाले तेनेज मार्ग माननारा, लोचा - दिक कष्टमांज जैनमार्ग माननारा, द्रव्यलिंगनेज प्रमाणभूत माननारा, मंडलने सिद्धांतानुसार सदुपदेश
0205
...
9.09
2008
2000
...
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१८
३७
५६
६५
७३
८२
१०९
पृष्ट
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ne Anat AAkhaARAMAnnnnnnne
.
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विषयानुक्रमणिका. २ निर्गुणी छतां गुरुयी तरी, एम माननारा, गच्छमा रहेला निर्गुणीने पण
साधु भनिनात निष्कारण मूलगुण सेवीने चारित्र माननारा, पाप कींधु होय' .ते.प्रतिक्रमणथो छुटे एम बोलनारा, मंडलने सदुपदेश , .... ३ साधुओने नियतवास चैत्यपूजा आर्याए लावेलो आहार कल्पे एम बोलना
'सओने विगयना प्रतिबंधकोने हितोपदेश ४ आत्मसानीए व्रत पालन कर, एम वोलनाराओने अने धर्मोपदेश देवानी . तथा नवीन ग्रंथो रचवानी मनाइ करवावानाओने हितर्शिक्षा ५ गुरु कुलवासमांज रहेवाथी विनयादि सद्गुणोनी प्राप्ति - ६ ज्ञानीओनी उपासना करवी एवी सुचना अने द्रव्य-क्षेत्र काल-भाष-पति
सेवा-योग्य-अयोग्य-सचित्त-अचित्त-मिश्र-कल्प-अकल्प आदियी अन. . भिन्न एवा अगीतार्थोने सदुपदेश ....... .. ....... Tri. ... ३५ ७ सिद्धांत रहस्यथी सुज्ञात एवा सुविहित गीतार्थ आजकाल कोइ नथी माटे "एकाफी विहार करवामां कोइ जातनो वांधो नथी एम बोलनारामान उप• देश अने तेनी साथे पंचमकालमां गीतार्थने पण गुरुकुलवास रुडों के वी सुचना
. ८ अहिंसामाज धर्म मानी पूजा प्रभावना आदि सक्रियाओनो त्याग करना
राओने हेतु अहिंसा स्वरूप अहिंसा अने अनुबंध अहिंसाना स्वरुपने दावी स्याद्वादशैलीथो सद्बोध. .. ... ... ... ... ... ५३ ९ सूत्रने प्रमाणमानीभंचांगीने प्रमाण. नहीं माननारा, प्रतिमाने लोपनारा,योग अने उपधान बहन नहि करनारा, अने पूर्वाशिव पासे माथा उपर बासक्षे
प नही लेनाराओने सुवोध ... १० ज्ञान विना मात्र क्रियारुचि जीवोने बहु दोषनी उत्पचि थाय छे इत्यादि वर्णन ७३ ११ द्रव्य श्रावकना एकवीस गुणोनुं वर्णन .... .... १२ भावश्रावकना छलक्षणर्नु सविस्तर वर्णन ... ... .. .... ८५ १३ भावभावकना सत्तर गुणोतुं वर्णन . . .... .... .... ९१ १४ भावसाधुपणुं पामेला भावभावकोना सात लक्षणोतुं वर्णन अने पंचमकालमां __गीतार्थोए भूत व्यवहारमा करेल फेरफारनी प्रमाणता आदिलु वर्णन .... ९६ १५ सद्गुणी साधुओना सद्गुणोनी स्तुति ... .... .... .... १०५ १६ जीवनी निद्रादि चार दशा, जीव अने पुद्गलनी भिन्नता, शुद्ध व्यवहारनी
मुख्यता, तपगच्छनी स्तुति ज्ञाननी साथै क्रियानी आदर करवायी मोक्षनी
माप्ति आदि विषयोनुं वर्णन .... ... .... ..... .... १११ १७ श्री जिनस्तुति तथा ग्रंथकारनी प्रशस्ति ..... .... ... ... १२२
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विषयानुक्रमणिका.
महावीर जैनसभा तरफथी प्रसिद्ध थयेला पुस्तकोनुं लीस्ट.
( १० )
१ बारव्रतनी टीप (गुजराती)
२- पुण्यप्रकाश स्तवन (गुजराती)
३ लघुशान्तिस्तव वृत्ति सहित
८. जिनशतक -
९ कार्टि द्वार संग्रह
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रु. ०१-०
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४ अंगुलसत्तरी -सुळ तथा भाषांतर
५ वारह व्रतकी टीप (हिन्दी)
६ पुण्यधनं नरेंद्र कथा पद्म संस्कृत पत्राकारे
७ यशोविजयजी कृत १२५ - १५०-३५० गाथाओनां स्तवनो. रु. १-०-०
रु. ०१२-०
रु.
३. ०१-०
६०
भेट.
२-०
६०-८-०
मळवा ठेका. श्री महावीर जैनसभा. खंभात (गुजरात)
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॥ श्रथ श्री सीमंधर स्वामिनी विनतिरूप सवासो गाथानुं स्तवन ॥ ॥ अर्थ सहित प्रारंभ ॥
॥ ढाल पहेली ॥
॥ एक दिन दासी दोडती - ए देशी ॥ स्वामी सीमंधर विनति, सांभलो माहरी देवरे । ताहरी आण हुं शिर धरूं, आदरुं ताहरी सेवरे ॥ स्वामी सीमंधर विनति ॥ १ ॥
व्याख्या - हे श्री सीमंधर स्वामी, तमे माहरी विनति सांभलो. देव के० हे देवाधिदेव हुं तहरी आज्ञा, शिर धरु के० मस्तके धरुं कुं. तथा ताहरी सेवाने आदरुं कुं. सेबकनी विनति स्वामी सांभवीज. ॥ १ ॥
कुगुरुनी वासना पासमा, हरिण परे जे पडया लोकरे । तेहने शरण तुजविण नहीं, टलवले बापडा फोकरे ॥ स्वा०॥२॥
व्याख्या -कुगुरुनी वासना के० जूठा उपदेशनी धारणा ते रूपी पास मांहे हरिणनी पेरे जे लोक पडचा छे, पोते मोह मूके नहीं एम दृष्टि मोहे मुंझाइ रह्या छे, तेहने के० ते ष्टरागी लोकने तुज विना शरण नथी. ताहरो सत्य उपदेश परिणमे तोज ते पास छुटे. ते वाडा दृष्टि रागना बाह्या टलवले छे, कांइ कष्ट क्रिया करे छे ते फोकट जाणवी. पास छुटे तेज लेखे समजवी. ॥ २ ॥
ज्ञान दर्शन चरण गुण विना, जे करावे कुलाचाररे ।
लूटे तेणे जन देखतां क़िहां करे लोक पोकाररे || स्वा० ॥३॥
व्याख्या - ज्ञान, दर्शन, चारित्र गुण विना एटले तेणे रहित कोइ जे कुगुरु, कुलाचार करावे छे. देश की सर्व थकी ज्ञानादिक गुण नयी अने एवी क्रिया करावे छे, शुद्ध अशुद्ध न विचारे, जेम चाल्युं आन्युं तेम करीए, एवी रीते भोलवे छे, तेणे कुगुरु प जन के० सुग्ध श्रद्धावंत लोक देखतां लूटे छे. खोढुं कहीने लेवुं लुट, एवो अन्याय तो लोको क्या पोकारे ? तमे स्वामी तो वेगला छो, अने प्रभुता अनेरानी अहियां के.
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(२)
महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. जेह नवि भव तस्या निरगुणी, तारशे केणी पेरे तेहरे । एम अजाण्या पड़े फंदमां, पाप बंधे रह्या जेहरे ।। स्वा० ॥४॥ व्याख्या-जेह कपटाचार निर्गुणी थका नवि के नहींज भव के० संसार तरया, तेह केणी पेरे के केवे प्रकारे बीजा लोकने वारशे ? कारण जहाल तारे पण शिला न तारे, एम अजाण्या थका दृष्टिरागी मूढ कुशुरुना फंदमां पढ़े छे. पाप वंधे के० पाप समुदायमां से रहा छे आत्मीर्य उल्लासी थया नथी. ॥ ४ ॥
काम कुंभादिक अधिकनु, धर्मर्नु को नवि मूलरे। दोकडे कुगुरु दाखवे, शुं थयुं एह जग सूलरे ॥ स्वा० ॥५॥ व्याख्या-कामकुंभ के० कामकलश आदि शब्दे चिंतामणि रत्न अने कल्पवृक्ष लेइए. ते थकी पण अधिको धर्म छे. जे धर्मनु कोइ मूल नथी. कारण अमूल्य वस्तु | मूल्य होय ?' ते धर्म गुरु दोकडे देखाडे छे, जे आटले द्रव्ये पाप जाय, आटले साहमी थाय. एह सर्व जगतनो शो मूल थयो जे सर्व आंघले आंधला चाले छे. ॥ ५ ॥
अर्थनी देशना जे दीए, ओलवे धर्मना ग्रंथरे ।
परम पदनो प्रगट चोरथी, तेहथी केम वहे पंथरे ॥ स्वा०||६ , व्याख्या-जे कुगुरु अर्थनी के द्रव्योत्पत्तिनीज देशना, कल्पित कथादिके करी दीए छे. धर्मना ग्रंथ जे श्रीदशवकालिंकादिक तेने ओलवे छे. शुद्ध मरूपताज नथी. एका प्रगट चोरयी परम पदनो मारग केम बहे ? अपितु न बहेज.जे माटे बेसणे वेसी शुद्धपरूपे नहीं, ते रखवाल नाम धरावी चोर थाय छे. ए अर्थ छे ॥ ६ ॥
विषयरसमां गृही माचिया, नाचिया कुयुरु मद पूररे।
धूम धामे धमाधम चली, ज्ञान मारग रह्यो दूररे ॥ स्वा० ॥७॥ व्याख्या-गृही के गृहस्थ ते विषय रसमांहेज राच्या. अनादि अभ्यास छे. अने मुगुरु काने न लाग्या ते बती अने कुगुरुने मदपूरे माच्या अन्न पान दावारना मान माटे निज उत्कर्षे हया, एम करतां बेहुने धर्मनी खटपट टली. ते माटें धूम धामे धमाधम चली, एटले उन्मार्गज चाल्यो इत्यर्थः । इहां धूमधाम के धकाधक तेणे करी धमाधम के० धींगामस्ती चाली. शुद्ध क्रिया वेगली रही अने अशुद्ध क्रियाना धणी डाक डमाला मोडे मोटाइमा माची आघा पडे केवल धींगाणुं भवत्यै.' वली पोते गृहस्थने प्रेरणा करे के, गाममा आवां विशेषे साहमा आव, विशेष सामैयुं करो, विशेष मभावना करो, मेम जिनशासननी उन्नति देखाय. ए धूम केमके कुमार्गजु वचन छे, जे कारणे पोतेज य
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सवासो गाथानुं स्तवन.
(३)
शना अर्थि थया त्यां धर्म गयो. केमके साधुनो मार्ग एवो छे जे कांइपण उन्नति चांडे नहीं; सहेज भावे थाय तो थाओ. ते माटे इहां धूम ते उन्मार्गि पासत्थादिकनुं पराक्रम. अने धाम ते एना रागी भोला गृहस्थ लोकतुं पराक्रम, तथा धमाधम ते ए वनेनी करणी जाणवी. वली शरीरनी शुश्रुषा राखे, शरीरनो मेल दूर करे, शरीर लुंछे सरस आहार करे, नव कल्पी बिहार न करे, श्रावक श्राविकानो घणो परिचय करे, श्रावकने घेर भणाववा जाय, श्रावक साथै घणी मीठासी करे, पोताना आत्मानो अर्थ तो सावेज नहीं, भला चंद्रआ बंधाय तिहां रहे, रेशमी वस्त्रो पहेरे, साबुए धोयां वस्त्र पढेरे, लुष्टपुष्ट शरीर राखे, वस्त्र पात्रना दूषण धरे, गीतार्थनी आज्ञा न माने, अणजाण्यो मार्ग चलावे, अणजो कहे, मार्गे हिंडतां बात करे, गृहस्थ साथे घणो आलाप संलाप करे: इत्यादिक एवी करणीए पोते साधुपणु पोता मांहे सईहे, अने गृहस्थने पण साधुपणु सर्दहरावे, दर्शननी निधा करे, पोतापणु वखाणे, पोतानो आडंबर चलाववो, गृहस्थ पासे पण पोतानी भ
क्ति प्रमुखनो पण आडंबर चलावराववो, इत्यादिक सर्व ठामे धूम १ धाम २ धमाधम ३ ए ण बोल जाणवा. ज्ञानादिक मार्ग पुस्तकादिके हतो ते करवा - जाणवा माटे वेगलो रह्यो. जूठा वोलाज घणा छे. ॥ ७ ॥
कलह कारी कदाग्रह भस्या, थापता आपणा बोलरे ।
जिन वचन अन्यथा दाखवे, आजतो वाजते ढोलरे || स्वा ॥८॥
व्याख्या -कलह के० कलेशना करणहार: कदाग्रहे करी भरचा छे, मांहोमांहे एकेकनो अवर्णवाद बोले जे जेम बोल्या ते तेम पोतांनोज बोल थापता थका श्री जिनवचन के० श्रीवीतराग देवनां वचन आज तो वाजते ढोले अन्यथा के० विपरीत देखाडे के ॥८॥
केइ निज दोषने गोपवा, रोपवा केइ मत कंदरे ।
धर्मनी देशना पालटे, सत्य भाषे नहीं मंदरे ॥ स्वा० ॥ ९ ॥
व्याख्या - केटला एक कपट क्रियाए पोताना दोषने गोपवाने माटे अपवाद पद दे खाता अने केटला एक प्रतिमा प्रमुखना अण माननार लूंपकादिक पोताना मत रूप कंद रोपवाने का धर्मनी देशना जे मूल छे ते पालटी नाखे छे, पण जेणे करी जीव धर्मे जोडाय ते धर्म देशना देवा नथी. एवा मंद के ० मूर्ख पण ते साचु भाषे नहीं. ॥ ९ ॥
बहु मुखे बोल एम सांभली, नवि घरे लोक विश्वासरे।
ढुंढता धर्मने ते थया, नमर जेम कमल निवासरे ॥ स्वा०॥१०॥
व्याख्या - एम बहु सुखे के० घणाने मोढे बोल जूदा जूदां सांभलीने लोको विश्वासने घरे नहीं, अने जेम भमरा कमलनी वासनानी इच्छाए भमता फरे पण केरडोय वे
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(s)
महामहोपाध्याय श्री यशोविंजयजी कृत.
न पामे, ते ते लोको धर्मने ढूंढता थया. जे कोण साधु पासे धर्म होशे ? एवा भने फरे. ॥ १० ॥ एहवी अरदास श्री प्रभुजी आगल कही.
॥ ढाळ वीजी ॥
90
॥ राग गोडी || भोलीडा हंसारे विषय न राचीए-ए देशी. एम ढूंढतां रे धर्म सोहामणो, मिलिओ सदगुरु एक । तेहने साचोरे मारग दाखवे, आणी हृदय विवेक || श्री सीमंधर साहेव सांभलो ॥११॥
व्याख्या- एम बाहेर धर्म ढुंढतां थकां हवे धर्म ते केवो के ? सोहामणो के० मनोहर छे. एक सद्गुरु ते ज्ञानी गुरु मल्या. ते ते ढुंढणहारने साचो अंतरंग मार्ग देखाडे ते हृदय मांहे एव विवेक आणीने के० ए वाद्यदृष्टिने ज्ञानमार्ग मांहे अवतारीए तो मूढता टले ए व्यतिकर हे श्री सीमंधर स्वामी, तमे सांभलो, अने सत्यवादीना वचनना साखी थाओ ॥ ११ ॥ हवे ते सद्गुरु जे उपदेश कहे छे, ते देखाढे छे. ॥
पर घरे जोतारे धर्म तुमे फरो, निज घर न लहोरे धर्म |
जेम नवि जाणेरे मृग कस्तुरिओ, मृगमद परिमल मर्म ॥ श्री ॥
व्याख्या - हे वाह्यदृष्टि लोको ! तमे परघरे धर्मने जोता फरो छो, पण निज घरे के० पोताना घर मांहे धर्म नथी पामता. ते उपर दृष्टांत - " जेम कस्तुरिय मृग पोतानी नाभि मांहे जे मृगमद के ० कस्तूरी उत्पन्न थइ छे, तेना परिमल के० सुगंधना मर्नने जाणे नहीं. तेम तमे पोतानाज घट मांहे धर्म छे तेने नथी पामता ॥ १२ ॥
जेमते भूलोरे मृग दिशि दिशि फरे, लेवा मृगमद गंध |
तेम जगे ढुंढेरे बाहिर धर्मने, मिथ्यादृष्टि रे अंध ॥ श्री० ॥ १३ ॥
व्याख्या - जेम कस्तूरीओ मृग मृगमद के ० कस्तूरीनी सुगंध लेवा माटे वनमांहे दिशा दिशाने विषे रझलतो फरे, तेम मिध्यादृष्टि अंध छे ते पण निज आत्मार्थी अन्य ठामेघमैंने ढूंढे छे के शोधेछे, पण विपर्यांसे करी आत्मज्ञान मांडे न रमे ॥ १३ ॥
जाति अंधनोरे दोष न आकरो, जे नवि देखेर अर्थ |
मिथ्या दृष्टिरे तेहथी आकरो, माने अर्थ अनर्थ ॥ श्री० ||१४||
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सवासो गायानुं स्तवनः । व्याख्या-जातिअंध के० जन्मनो जे अंघ छे तेनों दोप तो आकरो नथी, कारण ते ज्या अर्थ होय त्यां देखतो नथी पण मिथ्यादृष्टि तो छती आंखे जातिअंधना करता आकरा छे, कारण ते अर्थने अनर्थ करी माने, अने अनर्थने अर्थ करी माने छे. अहींयां दश मिथ्या छे.-"धम्मे अधम्मसन्ना १ अधम्मे धम्मसन्ना २ उमग्गे मग्गसन्ना ३ मग्गे उमग्गसभा ४ साहुमु असाहुसन्ना ५ असाहुस साहुसन्ना ६ जीवे अजीवसन्ना ७ अजीवे जीवसन्ना ८ मुत्ते अमुत्तसन्ना ९ अमुत्ते मुत्तसन्ना १०" ए दश प्रकारना मिथ्यात्व कयां ॥ १४ ॥ मिथ्यादृष्टिनां लक्षण कहे छे.
आप प्रशंसेरे परगुण ओलवे, न धरे गुणनोरे लेश । ते जिनवाणीरे श्रवणे नवि सुणे, दिए मिथ्या उपदेश ॥श्री०॥ व्याख्या-आप प्रशंसे के० पोताना आत्मानो उत्कर्ष करे अने काइक दोष काढीने पारका गुणने ओलवे के० छुपावे. पोते तो गुणनो लवलेश मान पण धरे नहीं. वली ते मिथ्यादृष्टि जिनवाणी के श्री वीतराग देवनां वचन ते श्रवणे के० काने नवि मुणे के. सांभले नहीं. जे उपदेश दे ते मिथ्या. के० स्वमति कल्पित दिए, थोडी जाणे तो घणो फूलीने कहे उछांछलो होय. ।। १५ ।।
ज्ञान प्रकाशेरे मोह तिमिर हरे, जेहने सदगुरु सूर ।
ते निज देखेरे सत्ता धर्मनी, चिदानंद भरपूर ।। श्री० ॥१५॥ व्याख्या-जीव ! तुज ताहरो मित्र छे, तो शा माटे बाहेर मित्रने वांछे छे ? एटले आत्मा समभावे छे तो सर्वत्र मीत्र छे. जेहने सद्गुरुरूप सूर्य ज्ञान प्रकाशे-"जे पुरिसा तुममंच तुम मित्तं कि बहिया मित्तमिच्छसि" इत्यादि आचारांग वृतिय अध्ययने. अर्थ व्याख्यान रूप किरणे करी मोहरूप तिमिर के मिथ्यात्व रूप जे अंधकार ते हरे, ते पोताना आत्मामांहे निज धर्मनी सत्ता देखे. ते केवी छ ? तो के चिदानंद के ज्ञान सुख तेणे भरपूर-प्रथम सम्यक्त्व पामे नेहने अतिषे आनंद उपजे. ॥ १६ ॥
जम निर्मलतारे रतन स्फटिकतणी, तेम जे जीव स्वभाव । ते जिन वीरेरे धर्म प्रकाशीओ, प्रवल कषाय अभाव ||श्री०॥१७॥ व्याख्या-जेम स्फटिक रवनी निर्मलता ते स्फटिकनो स्वभाव छे. ते उपाधी विरहे मंगटे, तेम जे जीवनो पण कपायादिकना अभावे प्रकटतो स्वभाव छे ते श्री जिन वीरे के. श्री वर्द्धमान स्वामीए धर्म प्रकाश्यो छे. ते केवो छे? तो के मवल जे कषाय तेनो अभाव एटले नोकपाय प्रवल पदे मंद कपायनो धर्म पण लाध्यो. ॥ १७ ॥
जेम ते रातेरे फूले रातड्डु, श्याम फूलथीरे श्याम । पाप पुण्यथीरे तेम जग जीवने, राग द्वेष परिणाम ॥श्री०॥१८॥
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महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. व्याख्या जेम ते स्फटिक रन, रातुं फूल पासे छे तेथी रातुं देखाय छे. श्याम फूल पार्थवी थकी श्याम देखाय, म जगतना जीवने पाप पुण्य रूप द्रव्य कर्म उपाधिए राग द्वेष परिणाम थाय छे. रागे रातां फूल अने देषे श्याम फूल थाय एम समजवु. अने सहज तो ते शुद्ध स्वभाव छे ॥१८॥
धर्म न कहिएरे निश्चे तेहने, जेह विभाव वड व्याधि । पहेले अंगेरे एणीपेरे नाषियु, करमे होए उपाधि ॥ श्री० ॥१९॥
व्याख्या ते राग द्वेष प्रशस्त परिणाम रूप होय तो कारणे कार्योपचारथी व्यवहारे धर्म कहिए, पण निश्चय नये धर्म न कहिए. जे राग द्वेष विभाव छे, ते महोटी न्याषिरूप के. ए प्रमाणे पहेले अंगे एटले श्री आचारांगे भाष्यु छे के, उपाधि सर्व कर्मे होय तो उपाधिने खभाव केम कहिए ? " अकमस्स ववहारो ण विजइ कमुणा ज्वाही जायई" इति सूत्र ।। अध्ययन बीजे. अकम्म के० ज्यां कर्म जनित विकार नथी त्या व्यवहार नथी. उपाधि ते कर्मे करी होय छे. ॥ १९
जे जे अंशेरे निरुपाधिकपणुं, ते ते जाणारे धर्म। सम्यकदृष्टिरे गुणठाणायकी, जाव लहे शिवशर्म ॥ श्री० ॥२०॥ व्याख्या-जेटले अंशे निरुपाधिकपणुं के० उपाधि रहितपणु ते ते अंशे धर्म जाणो. जेम सम्यक् दृष्टिने मिथ्यात्व उपाधि टली तेटलोज धर्म. विरतिने अविरति टले तेहण धर्म. अपायीने कषाय टल्यो ते धर्म. अयोगीने योग उल्यो वे धर्म. एम सम्यक् धर्म जाणो. जेम सम्यक्दृष्टि गुणठाणाथी मांडी ज्यां मधी शिवशर्म के० मोक्ष मुख पामीए, त्यां सुधी अंशे धर्मसद्धि पामता पूर्ण धर्म ते चौदमा गुणठाणाने छेल्ले समये होय. ॥ २० ॥
एम जाणीनेरे ज्ञान दशा भजी, रहीए आप स्वरूप । पर परिणतिथीरे धर्म न छाडिए, नवि पडिए भव कूप । श्री० ॥२१॥
व्याख्या-एम जाणीने मिथ्यात्व, अविरवि, प्रमाद, कषाय अने योग-ए पांच आअब, तेमनी निवृत्ति ते पांच संवर, एम अंतरंग ज्ञान दशा मनोने आप खरूपे रहीए अने शुद्ध परिणामे वीए. पर परिणतिथी पुद्गल परिणामथी कुग्रहे मिथ्यात्वादिक आदरी धर्म न छांडीए. भव कूप के० संसाररूपी पे न पडीए. ज्ञान दशा विना वाह्य क्रियाए जमालि प्रमुखने अर्थ न सरयो. ॥२१॥
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सवासो गाथानुं स्तवन.
॥ ढाल त्रीजी ॥
वाहार ढवं मूकी परदोष दृष्टि टाली आत्मानो खोज करे तो धर्म पामे एम बीजी ढाल मांहे कहूं. हवे ते आत्मज्ञाननो उपाय त्रीजी ढालमां कहे छे. ॥ ॥ हवे राणी पदमावती - ए देशी. ||
जिहां लगे आतमद्रव्यनुं, लक्षण नवि जाण्युं । तिहां लगे गुणठाएं भलुं, केम आवे ताण्युं ॥ आतमतत्व विचारी ॥ २२ ॥
(७)
व्याख्या - जिहां लगे आतम द्रव्यनुं लक्षण के० शुद्ध स्वरूप ते जाण्युं नहीं, तिहां लगे गुणठाणुं भलं के० प्रवर्द्धमान स्थानक ते गुणठाणुं ताण्युं केम ! आवे ? जे राज्ययोगे पाम्यानुं होय ते उपयोगे न आवे; ते माटे आत्म तत्व विचारीए. एहज निश्चय लक्षण छे. - " आत्मैव दर्शनज्ञानचारित्राण्यथवा यतेः । यचदात्मक एवैप शरीरमधितिष्ठति ॥ १ ॥ " अर्थ - अथवा यतिनो आत्माज सम्यक्त्व दर्शन निर्मल ज्ञान अने चारित्ररूप छे जेह कारण माटे सम्यक्त्वादिरूप ए आत्माज यतिना शरीरनो आश्रय करी रहे छे ॥१॥ 44 आत्मना तमात्मा वेत्ति, मोहत्यागाद्यदात्मनि । तदेव तस्य चारित्रं, तद् ज्ञानं तच्च दर्शनं || २ || " इति योगशास्त्रे ॥ २२ ॥
आतम अज्ञाने करी, जे भव दुःख लहीए ।
आतमज्ञाने ते टले, एम मन सद्दहीए ॥ आतम० ॥२३॥
"
व्याख्या - आत्माने अज्ञाने करी पुद्गलमांहे आत्म भ्रम धरतां “ मिच्छत्तेणं उदिण्णेण अनुकम्मपयडीओ वंधति" ए वचनथी, भव दुःख के० संसार भ्रमणनां दुःख लहीए के० पामीए. ते भवदुःख आत्मज्ञानेज टले. पण आत्मज्ञान रहित तप प्रमुखे न टले. जेम हिम विकार दु:ख अग्रिएटले तेम जाणवुं. ए तब मनमां सद्दहिए. " आत्माज्ञानं हि विदुषामात्मज्ञानेन हन्यते । तपसाप्यात्मविज्ञानहीनैस्तत्तु न शक्यते ॥ || " || 23 || उपर कहे छे.
एम जो आत्मज्ञानेज संवर होय तो चारित्रनुं भुं काम ? ते ज्ञानदशा जे आकरी, तेह चरण विचारो । निर्विकल्प उपयोगमां, नहीं कर्मनो चारो ॥ आतम० ||२४||
व्याख्या - ज्ञानदशा ने आकरी प्रत्याख्यान परिज्ञारूप छे तेहज चरण के० चारित्र विचारो. निर्विकल्प शुद्ध ज्ञाननो उपयोग ज्यां होय त्यां कर्मनो चारो नयी, एतावता वि
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(८)
महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. वारे कर्म न आवे ते मारे ज्ञान तेहज स्वभाव चरण छे माटे चारित्र कहिए. बाह्य त्याग वो तिर्यंचादिकने पण छे. ॥ २४ ॥
नगवई अंगे नाषिओ, सामायिक अर्थ ॥
सामायिक पण आतमा, धरो सूधो अर्थ |आतम०॥२५॥ व्याख्या-श्री भगवती सूत्रे पांचमे अंगे कालासवेसीय प्रश्ने स्थविरे कह्यो " आया सामाइए, आया सामाइयस्स आहे ॥" ए वचने आत्मभाव रूपज चारित्र का. द्रव्यथी त्याग मात्रे जे कयु, ते उपचारे कहीए. अने मुख्य अर्थ स्पर्श विना उपचार न संभवे ए सूधो सूत्रनो अर्थ चिच मांहे धरो. ॥ २५ ॥
'लोक्सार अध्ययनमां, समकित मुनि भावे।
मुनिभावज समकित कयु, निज शुद्ध स्वभावे॥आ०॥२६॥ व्याख्या-लोकसार नामे आचारांगनुं पांचसु अध्ययन-ते मांहे समकित मुनि भावे अने मुनिभावज समकित एबुं अन्योन्य अविना भावे कत्यु छे, ते निज शुद्ध स्वभावे करे, ते माटे शुद्ध स्वभाव उपयोग-तेहज आत्म चरण भणी चारित्र कहीए. ए ज्ञान मांहेज रति करीए. यदुक्तं-"जं सम्मति पासहा, ते मोणति पासहा । जे मोणति पासहा, तं सम्मति पासहा ॥ " इत्यादि आलायो छे. इति छच्चीशमी गाथार्थ ॥ २६ ॥
हवे ज्ञाननो महिमा स्तवे छे. कष्ट करो संजम धरो, गालो निज देह ।
ज्ञानदशा विण जीवने, नहीं दुःखनो छह ॥आ०॥२७॥ व्याख्या-कष्ट० लोचादि करो, संयम चारित्र क्रिया उग्र धरो, निज देह के० पोतार्नु शरीर-मासखमणादिके गालो पण ज्ञानदशा विना जीवने दुःखनो छेह के० छेडो नथी, -ते मारे अंतर्मुखे थइने ज्ञानदृष्टि दृढ राखवी ॥ २७ ॥
पाह्यदृष्टि जीवो अंतर्मुखे ज्ञान प्रवर्ती नथी करता ते देखाडे छे. बाहिर यतना वापडा, करतां दूहवाए। '
अंतर जतना ज्ञाननी, नवि तेणे थाए |आतम०॥२८॥ व्याख्या-पापडा ज्ञाननी शौच बाहेर उपविहार यना करतां दूहवाय छे. दुःख मात्र पामे छे, पण तेणे ज्ञान यतना अंतर्मुखे मुख करे छे ते पण नथी थाती. अज्ञान मांहेज -जे-तुच्छ, उपाय करे छे, ते हिताहित जाणता नथी. उक्तंच-" अज्ञान खलु कष्ट, क्रोधादिभ्यो पि सर्वपापेभ्यः । अर्थ हितमहितं वा न वेति येनाहतो जीवः ॥ २८ ॥
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सवासो गायानुं स्तवन.
राग द्वेष मल गालवा, उपशम जल झीलो ।
आतम परिणति आदरी, पर परिणति पीलो || आ० ||२९||
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व्याख्या– राग द्वेषरूप मल गालवाने माटे उपशमरूप जलने विषे झीलो. ते उपशम आतमज्ञाने आवे, ते माटे तत्व संवेदने आत्म परिणति आदरीने पर परिणति जे घुलतृष्णा तेहने पीलो || २९ || तेहनो उपाय भेदज्ञान छे ते कहे छे.
हुं एहनो ए माहरो, ए हुं एणि बुद्धि ।
चेतन जडता अनुभवे, न विमासे शुद्धि || आ० ॥ ३० ॥
(९)
व्याख्या - हु हनो पुत्रादिक, ए माहरा तातादिक, ए शरीर तेहज हुँ - इत्यादिक मकार अहंकार बुद्धि चेतन जडताने अनुभवे छे. शुद्धि विमासतो नथी शु?
बाहिर दृष्टि देखतां, बाहिर मन धावे ।
अंतर दृष्टि देखतां, अक्षय पद पावे ॥ आतम० ॥ ३१ ॥
वाहिरदृष्टि ते, कनक कामीनो संबंध प्रमुख उपादेय देखतां बाहेर मन धावे छे. अंतरदृष्टि ते सर्व पुद्गल संबंध हेय जाणी चित्त चमत्कार मात्र विश्रांत यातां सर्व नाशे अने अक्षयपद पामे छे. ॥ ३१ ॥
चरण होय लज्जादिके, नवि मनने भंगे ।
श्रीजे अध्ययने कयुं, एम पहेले अंगे || आतम० ॥ ३२ ॥
व्याख्या - ते माटे ज्ञानकृत मनःशुद्धि तेज चारित्र लक्षण अने तेज मोक्ष कारण छे, एम सह तेहज इष्ट छे. द्रव्यक्रिया करतां थकां पण मनने भंगे के० मनने असमाधाने चरण के० चारित्र न होय, एवं पहेले अंगे त्रीने अध्ययने कर्तुं छे. “ जमिणं अन्नमन्नवितिमिच्छाए पडिलेहणाए ण करेइ पावं कम्मं किं तत्थ सुणी कारणं सिया ? ॥ ३२ ॥
अध्यातम विष जे क्रिया, ते तनु मन तोले ।
ममकारादिक योगथी, एम ज्ञानी बोले ॥ आतम० ॥ ३३ ॥
व्याख्या - अध्यातमविण के० अपुनवैधकादि भावनी आत्मदृष्टि से विना जे क्रिया छे, ते तनु के० शरीरनो मल तेहने तुल्य छे. ममकारादिक के० ममलादिक दोषना योगयी एम ज्ञानी वोले छे. आशयभेदा एते, सर्वेपि हि तत्वतोऽवगंतव्याः । भावो यमनेन बिना, चेष्टा द्रव्यक्रिया च्छा ||१||" इति तृतीय पोडशके ॥ ३३ ॥
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(80)
महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत.
हुं करता परंभावनों, एम जेम जम जाणे
तेम तेम अज्ञानी पडे, निजं कर्मने घाणे ॥ आतम० ॥ ३४ ॥
व्याख्या–हुँ परंभावना के० पुगलभावनो कर्त्ता छु, एम जेम जेम जाणे छे, तेम तेम ते अज्ञानी जीव, निज के पोताना कर्मने घाणे पडे छे. एटले कर्तृत्वाभिमानजनित कर्मे बंषाय छे. ॥ ३४ ॥ ते अज्ञान नय विभागे टले ते देखाडे छे.
पुद्गल कर्मादिकतणी, करता व्यवहारे ।
करता चेतन करमनो, निश्चय सुविचारे ॥ आतम० ॥ ३५ ॥
व्याख्या - व्यवहार नयनी अपेक्षाए ज्ञानावरणीयादिक पुगल कर्मादिक भावनो कर्ता चेतन छे. तिहां अनुपचरितासभूत व्यवहारे कर्मनो कर्ता, अने उपचरितासद्द्भुत व्यवहारे गृहादिकनो कर्त्ता, ए विशेष. तथा स्वजात्युपचरितासद्भूत व्यवहारे पुत्रादिकनो कर्ता, अने विजात्युपचरिताद्भूत व्यवहारे धनादिकनो, स्वजाति विजात्युपचरितासभूत व्यवहारे नगर प्राकारादिकनो, इत्यादिक भेद जाणवो. निश्चय नयने सुविचारे चेतन कर्म जे राग द्वेष तेहनो कर्ता छे. जे माटे अशुद्ध निश्चय नय अशुद्ध स्वभाव कर्ता माने. द्रव्य कर्म ते ए नये अनुषंगे आवे छे. जेम तैलाभ्यंग कर्ता पुरुषने रज तैल्याभंगंने अनुषंगे आवे छे. उक्तंच - "तैलाभ्यगे शरीरस्येत्यादि " ॥ ३५ ॥
कर्ता शुद्ध स्वभावनो, नय शुद्धे कहीए ।
कर्ता पर परिणामनी, बेंड किरिया ग्रहीए ॥ अ० ॥३६॥
व्याख्या - शुद्ध निश्रयं नये शुद्ध स्वभावनोज कर्ता आत्मा कहीए. परपरिणामनो कर्ता मानतीं वे क्रिया ग्रहिए. वे क्रिया आवी जाय, एक जीव क्रिया अने वीजी अजीवक्रिया. एम मानता तो अपसिद्धांत यार्य, तें माटे शुद्ध स्वभावनोज कर्ता मानीए ॥ ३६ ॥
॥ ढाल चोथी ॥
॥ वीरमतो प्रीति कारणी - ए देशी. ॥
शिष्य कहे जो परभावनो, अकर्त्ता को प्राणी । दान हरणादिक केम घटे, कहे सदगुरु वाणी ॥ शुद्ध नय अर्थ मन धारी ॥ ए आँकणी ॥ ३७ ॥
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सवासो गाथा स्तवन.
. ( ११ )
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व्याख्या - शिष्य पुढे सुत्र, जो परभावनो अकर्ता प्राणी कबो तो अम्नुक दाता, अमुक हर्ता, इत्यादिक व्यवहार केम घटे ? तथा दान हरणादिकनुं फल पण केम घटे ? त्यां सद्गुरु वाणी वदे छे. जे शुद्ध निश्चय नयनो अर्थ अमे कह्यो, ते मनमांहे घरो. त्यां केवल व्यवहार वाध थातां दोष नथी. दान हरणादिक फल तो आत्मनिष्टितन ठेरशे पर तो . निमित्त मात्र छे. तेज विवरी देखाडे छे. ॥ ३७ ॥
धर्म नवि दिए न वा सुख दिए, पर जंतुने देतो ॥ आप सत्ता रहे आपमां, एम हृदयमां चेतो ॥ शु० ॥
३८ ॥
व्याख्या - पर जंतुने देतो थको प्राणी, आपणो धर्म वाके० तथा आपणुं सुख न दे शके. जे माटे आप सत्ता के० आपणो भाव आपमांज रहे, ते परने केम अपाय ? एम हृदय मांहे घेतो. व्यवहार दृष्टि जीव समजो || ३८ || हवे कोइ कहेशे जे आत्मभावनो परने केम दाता इर्ता न होय अने पुद्गलना भावनोज दाता हर्ता होय? ते उपर कड़े छे.
जोग वशे जे पुद्गल ग्रह्मा, नवि जीवनां तेह ॥
तेहथी जीव छे जूजूओ, वली जूजूओ देह || शु० ॥ ३९ ॥
व्याख्या - योग वशे के मन वचन काय वले जे पुद्गल ग्रह्या छे, ते पुद्गल जीवनाज नथी. तेह पुद्गलथी जीव जूजूओ छे, वली जीवथी देह पण जूजूओ छे. कोने कोण ग्रहे ? ॥३९॥
न पानादि पुद्गल प्रते, न दिए छति विना पोते ।
दान हरणादि परजंतुने, एम नवि घटे जोते ॥ शु० ॥ ४० ॥
व्याख्या - एम भक्तपानादिक पुद्गल मत्ये पोते छति विना परने पर न दिए. त्रिकाले जीवना असंसर्गि पुद्गल छे, ते केम देवाए ? एम सूक्ष्म रीते जोतां परने दान हरणादिक केम घटे ? नज घटे ॥ ४० ॥ तो कर्मवैध केम थाय छे ? ते कहे छे.'
दान हरणादिक अवसरे, शुभ अशुभ संकल्पे ।
दिए हरे तुं निज रूपने, मुखे अन्यथा जल्पे ॥ शु० ॥ ४९ ॥
व्याख्या - परने दान देवानो तथा परधन हरणनो अध्यवसाय जे वारे करे छे, ते अवसरे दानरूप शुभ संकल्पे निज हरणरूप अशुभ संकल्पे निज रूपने आत्म धर्मने आत्माने दीए छे, तथा हरे छे, अने मुखे अन्यथा जल्पे छे जे. हुं प्ररने देई हुँ, परतुं चोरुं लुं, परोपकार कर्ता छु. ए प्रमाणे मन निमित्त कर्म तुं वांधे के ॥ ४० ॥
अन्यथा वचन अभिमानथी फरी कर्म तुं बांधे ।
ज्ञायक भाव जे एकलो, ग्रहे ते सुख साधे ॥ शु० ॥ ४२ ॥
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( १ )
महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत.
व्याख्या - ए अन्यथा वचने अभिमाने फरी कर्तृत्वाभिमत्त कर्म तुं बांधे छे. जे कर्तृस्वाभिमान रहित एकलो ज्ञायक स्वभाव ग्रहे ते सुख साधे :- कर्मबंध निमित्त दुःखने न 'जोडा. उक्तंचान्यत्रापि “ - कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः । स बुद्धिमान् मनुष्येषु संयुक्त कृत्स्नकर्मकृत् ||१|| " ॥ ४२ ॥
=
:
शुभ अशुभ वस्तु संकल्पथी, धरे जे नट माया ।
तेटले सहज सुख अनुभवे, प्रभु आतमराया ॥ शु० ॥ ४३ ॥
व्याख्या - शुभ के० प्रशस्त अशुभ के० अप्रशस्त जे वस्तुनो संकल्प तेहथी नट माया
I
आत्मराजा हे
^ के० विभाव स्वरूप विचित्रता घरे छे. टंकोत्कीर्णन स्वभाव परिज्ञाने ते टले, ते वारे प्रभु सहज सुख अनुभवे छे. सुख ते आत्म स्वभाव छे. उपाधिजनित विभाव कल्पनाए सुख दुःखरूप विचित्र कर्म फल चेतना अनुभवे छे. राग द्वेष रूप कर्म चेतना १ सुख दुःख भोग कर्म फल चेतना २ ए वे विचित्र छे. ज्ञान चेतना ते एक स्वभाव छे. ते - नो अनुभव ते आत्मराजा छे. ॥ ४४ ॥
पर तणी आश विष वेलडी, फले कर्म बहु जांति । ज्ञान दहने करी ते दहे, होए एक जे जाति ॥ शु० ॥४४॥
व्याख्या - परतणी आशा छे ते विष वेलडी रूप छे, ते बहु भांति के० बहु प्रकारे कर्म फले छे. संक्लेश विशुद्धांगे शुभाशुभ अनेक कर्मरूप फल प्रसवे छे. ए पर आशा रूप विप वल्लिने ज्ञान रूप दहन के० अनि तेणे करी ते दहे, जे जाते एकज ज्ञान स्वभाव रहे. ॥ ४४ ॥
राग दोष रहित एक जे, दया शुद्ध ते पाले ।
प्रथम अंगे एम जाषियुं, निज शक्ति अजुआले ॥ २० ॥४५॥
व्याख्या - राग द्वेपादिक दोषे रहित जे एक थाए ते शुद्ध आत्मदया पाले, एम प्रथम
""
अंगे श्री. आचारांग सूत्रे भाप्युं के० कर्त्तुं छे, ते निज शक्ति के० आत्म शक्ति, तेहने अ• जुआले. पासइ एगे सव्विदिएहिं परिगिलायमाणे ओए दयं दयंति सूत्र ॥ ४५ ॥ एकता ज्ञान निश्चय दया, सुगुरु तेहने भाखे ।
जेह अविकल्प उपयोगमां, निज प्राणने राखे ॥ शु० ॥४६॥
व्याख्या-आत्माने जे एकता ज्ञान, तेह निश्रय दया जाणवी. ते सुगुरु ते पुरुषने भाषे. लेह अविकल्प उपयोगमां निर्विकल्प समाधिमा रह्या. इंद्रिय वलोत्था सायुः प्रकृतिभूत ज्ञान. वीर्य सदा वास नित्य स्थितिरूप निज माणने राखे. ॥ ४६ ॥
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सवासो गाथा स्तवनः
(१३) जेह राखे पर प्राणने, दया तास व्यवहारे । निजदया विण कहो परदया, होए कवण प्रकारे ।। शु० ॥१७॥
व्याख्या-जेह कीटीकादिक पर माणने राखे, तास के० तेने पर दया होए, ते व्यवहारे कहीए. ज्ञानरूप आत्म दया विना, कहो वाह्य माण रक्षणरूप दया केम होय ! न होय. उक्तंच-" जइयाऽणेण चत्तं, अप्पणयं नाणदंसणचरितं । तइआ तस्स परेसं, अणुकंपा नत्थि जीवेम ।। १ ॥” इति उपदेशमालायां ।। ४७ ॥
लोकविण जेम नगर मेदनी, जेम जीवविण काया । फोक तेम ज्ञानविण परदया, जिसी नटीतणी माया ।। ४८॥ व्याख्या-लोको विना जेम नगरनी मेदिनी के० पृथ्वी उजडरूप, अने जीव विना जेम काया फोक के० अकाजरूप दीसे, तेम ज्ञानरूप आत्म दया विना परदया ते जेहवी नाटकीयानी माया फोकट, तेम फोकट जाणवी ॥ १८ ॥
सर्व आचरमय प्रवचने, लण्यो अनुन्नव योग । तेहथी मुनि वमे मोहने, वली अरति रति शाग ।। शु० ॥१९॥ व्याख्या-श्री प्रवचने सिद्धांते अनुभव योग के० ज्ञान योग सर्व आचारमय भण्यो. यतः- सव्वेचवि तेण कयं " इति वचनात्. तेह अनुभव योगथी मुनि, मोहने के कपाय मोहनीयने वमे. वली अरति रति, अने शोक इत्यादिक नोकपाय मोहनीयने वमे. ते माटे ज्ञान योगनोज दृढ आदर करवो॥ ४९ ॥
सूत्र अक्षर परावर्तना, सरस शेलडी दाखी। तास रस अनुन्लव चाखीए, जिहां एक छे साखी । शु० ॥५०॥ व्याख्या-सूत्र अक्षरनी परावर्चना एटले कर्म योग, ते सरस शेलडी सरखो देखाड्यो. तास के तेहनो रस ते अनुभव ते चाखीए. जिहां एक आतम साखी छे. स्थान वर्ण २ कर्म योग अर्थ १ आलंबन २ निरालंवन ३ ए ज्ञान योग. ॥ ५० ॥
आतमराम अनुन्नव भजो, तजो परतणी माया । एह छे सार जिन वचननो, वली एह शिवछाया ॥ शु०॥५१॥ व्याख्या-आत्माने आराम के: रमावे एवो अनुभव तेने भजो के० सेवो. परतणी के० पुदगलतणी माया तजो-छांडो. एहज जिन वचननो सार छे. वली संसार तापनी टालणहार एवी एहज शिवतरुनी छाया छे. ॥ ५१ ॥
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महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत.
॥ ढाल पांचमी॥
प्रभु चित्त धरीने अवधारो मुल वात-ए देशी. एम निश्चय नय सांभलीजी, बाले एक अजाण । आदरशुं अमे ज्ञाननेजी, शुं कीजे पञ्चखाण ॥ सोभागी जिन सीमंधर सुणो वात ॥ ५२ ॥ व्याख्या-एम एहवो शुद्ध निश्चय नय सांभली एक अजाण मतना अध्यात्मी वोले छे के, अमे एकला बाननेज आदरभु-अंगीकार कर, पञ्चखाण प्रमुख व्यवहार तो हेठी दशानो छे, वेहने शुं करीए ? हे सोभागी जिन श्री सीमंधरखामि ! ए वात भरवक्षेत्र लोकनी मुणो अवधारो-॥ ५२ ।।
किरिया उथापी करीजी, छांडी तेणे लाज ।
नवि जाणे ते उपजेजी, कारण विण नवि काज॥सो० ॥शा व्याख्या-किरिया अनुष्ठानादिक रूप, तेहने उयापी नाखी ने कुमतिए लाज़ छोडी, लाजनो धर्म डयो. ते न जाणे जे कारण विना कार्य केम उपजे ? व्यवहार विना निश्रय केम आवे ? अने आन्यो पण केम ठरे ? ॥ ५३॥
निश्चय नय अवलंवताजी, नवि जाणे तस मर्म।
छोडे जे व्यवहारनेज़ी, लोपे ते जिन धर्म । सो०॥ ५४॥ व्याख्या-निश्चय नये अवलंबतां के निश्चय नयनो पक्ष ग्रहेतां थकां तस के० तेहनो मर्म नयी जाणता, जे व्यवहारने छोडे छे ते जिन धर्मने लोपे छे. व्यवहार परिणति विना निश्रय आवेज नहिं. उक्तंच ओपनियुक्तौ-"निच्छयमवलंबता, णिच्छयओ णिच्छय अयाणता । णासंति चरणकरणं, बाहिरकरणालसा केई ॥१॥” इति. ॥ ५४॥
निश्चय दृष्टि हृदय धरीजी, पाले जे व्यवहार । पुण्यवंत ते पामशेजी, नवसमुद्रनो पार ॥ सो० ॥५५॥ व्याख्या-निश्चय नयनी दृष्टि हृदय धरीने एटले तद्धेतु अमृतभाव अवलंबीने जे व्यवार पाले, ते पुण्यवंत पाणी भव समुद्रनो पार पामशे. निश्चय दृष्टि व्यवहार क्रिया ते तु, निश्चय भाव पक्ष ते स्वरूप, निश्चय आत्मा शुद्ध प्रति ते निश्चय अनुबंध जाणदो.
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सवासी गायार्नु स्तवन
(१५) तुरंग चढी जेम पामिएजी, वेगे पुरंनों पंथ । मार्ग तेम शिवना लहेंनी, व्यवहार निग्रंथ ॥ सो० ॥५६॥ व्याख्या-तुरंग के० घोडा उपर आरोहीने जेम वेगे पुरनो पंथ पामीए, तेम व्यवहारे करी निग्रंथ शिवनो मार्ग लहे. एटले हेतु निश्चय ते व्यवहारज ठहेराणो. ॥ ५६ ॥ फलसिद्धि काले साधनंनी अपेक्षा नथी, ए मोटे साधनहुँ अंसाधनपणुन होय,
ते देखाडे छे. महोल चढंतां जेम नहींजी, तेह तुरंगर्नु काज। सकल नहीं निश्चय लहेजी, तेम तनु किरिया साज॥सोगा५७॥ व्याख्या-महोल चढतां जेम तेह तुरंगर्नु काज नहीं, तेम निश्चय लहे थके तनु क्रियानो साज सफल नहीं. | काव्यम् मालिनी छैद:-"व्यवहरण नयः स्याधयपि मापदव्यामिह निहितपदानां हंत हस्तावलंवः । तदपि परममयं चिचमत्कारमात्र, परविरहितमंतः पश्यते नैप किंचित् ॥१॥" ॥ ५७ ॥
निश्चय नवि पामी शकेजी, पाले नवि व्यवहार | पुर्ण्यरहितं जे पंहवाजी, तहनो कुणं आधार । सो० ॥५८ .
व्याख्या-निश्चयभाव पामी न शके, अने व्यवहार पाले नहीं, एहवा जे पुण्यरहित जीर्व, तेहनो कोण आधार ? अर्थात् कोइ नहीं. ए भाव. ॥ ५८ ॥
हेम परिक्षा जेमें हुएजी, सहत हुशातन ताप । ज्ञान दशां तेंम परखीएजी, जिहां बहु किरिया व्याप ॥सौगों व्याख्या-हेम के० सोवर्णनी परीक्षा जेम हुताशन के० अमिनो ताप सहेतांज थाय, तेम ज्ञानदशा तिहां परखीए के. ज्या बहु क्रियानो व्याप होय. ज्ञानीने क्रिया खेदादिक रहित असंग भूपण रूपज छे. ॥ ५९ ।।
आलंबन विण जेम पडेजी, पामी विषमी वाट । मुग्ध पडे भवकूपमांजी, तेम विण किरिया घाट ।सो० ॥३०॥
ध्याख्या-लवन विना जेम विपम वाट गादिकनी पामी, तेने विषे पुरुष,पडे, तेम क्रियाना घाट विना मुग्ध के० अज्ञानी जीवो भवकूपमा पंडे, माटे किरिया छे ते पुष्ट भविकजनोने आलंबन आधार भूत छे..॥ ६०॥ .. .
चरित नणी बहु लोकमांजी, जरतादिकना जेह।... लोपें शुभ व्यवहार जी, बोधि हणे निजं तेह ॥सोला।।
वच सुरेंअश्वामीकर तस्यच तथास
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महामहोपाध्याय, श्री यशोविजयजी कृत. व्याख्या-घणा लोकमांहे भरतादिकनां चरित्र भणीने के० कहीने एटले भरतादिके शो क्रिया व्यवहार पाल्यो ? केवल आत्मशुद्धिएज केवलज्ञान पाम्या, तो व्यवहारनो शो परमार्थ ? ए, प्रकाशी, जे शुभ व्यवहारने लोपे ते निज के पोतानी बोधीने हणे. " आहच्च भावकहणे, पंचहि गणेहि पासत्था " इति (आवश्यक नियुक्त) वचनात् ॥ ६१॥
बहु दल दीसे जीवनांजी, व्यवहारे शिवयोग । छींडी ताके पाधरोजी, छोडी पंथ अयोग ॥ सो० ॥३२॥ व्याख्या-बहु दल के० घणां द्रव्य जीवनां व्यवहारे शिवयोग्य दीसे छे, तेणे करी व्यवहार क्रिया ते राज मार्ग छे. ए पाघरो मार्ग छांडीने जे छींडी ताके एटले गली कुंचीनो रस्तो शोधवा जाय ते अयोग्य कहीए. भरत मरुदेव्यादिकनुं आलंवन सामान्ये न करवं. उक्तंच-" गिहिसंयचमहत्तो" इत्यादि. ॥ ६२ ॥
आवश्यकमांहे भाखिओजी, एहज अर्थ विचार । फल संशय पण जाणतांजी, जाणीजे संसार ॥ सो० ॥६॥ व्याख्या-एहज अर्थनो विचार आवश्यक मांहे भाष्यो छे के जे, भरतादिक आलंबन लेइ क्रियाने स्थापे छे, ते क्रिया अदृष्टव्य मुख छे. क्रिया करता फल होशे के नहीं. होय? ए संशय केम टछे ? ते उपर कहे छे. जे फल संशय जाणतां पण संसार जाणीए. उक्तंच-श्री आचारांगे (पंचम अध्ययने). " संसय परिआणओ संसारे परिभाए भवति संसयं अपरिआणओ संसारे अपरिबाए भवति । " इति. “ कृष्यादौ फलसंशयेपि, यथोपायबनिश्चयात् । प्रवृत्तिस्तथा धर्मेपि, इति न्यायानुसारिणः ॥ १" ॥ ६३ ॥
॥ काल बट्ठी॥
मुनि मन सरोवर हसलो अथवा ऋषभनो घंश रयणायरू-ए देशी. अवर इस्यो नय सांजली, एक ग्रहे व्यवहारोरें। मर्म द्विविध तस नवि लहे, शुद्ध अशुद्ध विचारोरे ॥६॥ तुज विण गति नहीं जंतुने, तुं जग जंतुनो दीवारे। जीवीए तुज अवलंबने, तुं साहेब चीरं जीवोरे ॥ तुज ॥६५॥
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सवासों गाथातुं स्तवन.
(१७)
व्याख्या - अवर के० वीजो कोइ एक मतवादी पुरुष, एहवो व्यवहार स्थापक नय सांभलीने एकं व्यवहारनेज ग्रहे, पण तेहना द्विविध मर्म न पाने के० एक शुद्ध व्यवहार के अने एक अशुद्ध व्यवहार छे. वे भेद न पीछे ॥६४॥ हे भगवंत ! तमारा विना जीवने गति नयी तुं जगजंतुनो दीवो छे, तुज अवलंबने एटले ताहरी स्याद्वादवाणीने पक्षे जीवीए छीए. श्लाध्यता जीवने वर्ते छे. माटे तुं साहेब अमारे माटे चिरंजीवी वर्ते ॥ ६५॥ जेह न आगम वारीओ, दीसे राठ आचारोरे । तेज बुध बहु मानिओ, शुध कह्यो व्यवहारोरे ॥ तुज० ॥ ६६ ॥
०
व्याख्या -- जेह न आगम के सिद्धांत मांहे नथी वारयो. अशठ परिणामनो आचार दीसे छे तेहज बुध वहु के० घणा पंडिते मान्यो. शुद्ध व्यवहार कह्यो. उक्तंच - " मग्गों आगमणीई, अहवा संविग्गबहुजणाइन्नं । उभयाणुसारिणी जा, सा मग्गाणुसारिणी किfter ||१||" इत्यादि तथा "असढेण समाइनं, जं कत्थइ केणइ असावज्जं । ण णिवारियमहिं, वहुमणुमयमेयमायरियं ||२||” तथा “वत्तणुवत्तपवत्तो, गहुसो आसेविभो महाणेण । एसो ओ जियकप्पो, पंचमओ णाम वबहारो ||३|| " ||६६ ||
जेहमां निज मति कल्पना, जेहथी नवि भव पारोरे । अंध परंपरा वांधिओ, तेह असुद्ध आचारोरे ॥ तुज० ॥६७॥
व्याख्या - जेइमां निजय तिनी कल्पना अत एव जेहयो भवनो पार न पामीए, तथा जे अंधपरंपरा बांध्या ते अशुद्ध आचार जाणवो. उक्तंच - " जहसठे सु समत्तं सदाइ अशुद्ध Caterers | णिटिज्झवसाहि तूला, मसूरमाइण परिभोगो ॥ १ ॥ एमाइयसमंजस, मणे महा बुद्द चिंद्वियं लाए वहु एहिं आयरिय गए, पमा शुद्ध चरणाणं ॥ २॥ " ॥ ६७ ॥
शिथिल विहारीए आचरयां, आलंबन जे कुडारे ।
नियत वासादिक साधुने, ते नवि जाणीए रूडांरे || तु० ||६८||
व्याख्या - शिथिल विहारी पासत्यादिक, तेणे नियत वासादिक जे कुडां आलंचन आचरयां ते साधुने रूडां न जाणीए यतः- “नीभावासविहार, चेइयभत्तिं च अज्जिया लाभं । विगइ अ पडिव, णिद्दोसा चोइआ विन्ती || १ ||" इत्यादिक आवश्यके, एहना उत्तर सर्व तिहां छे. आलंबन तो कल्पना मात्र छे. उक्तंच - " आलंबणाणा लोगो, भरिओ जीवस्स अजऊ कामे । जं जं पासइ लोओ, तं तं अलवणं कुणह ॥२॥" ॥६८॥
आज न चरण छे करूं, संहननादिक दोषेरे ।
एम निज अवगुण ओलवी, कुमति कदाग्रह पोषेरे ॥ तु० ||६||
बच सुरेंद्रश्चामीकर
तस्यच तथास
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(१८)
महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. व्याख्या-आज चरण के० चारित्र नथी. संहननादिक रोषे करीने जे माटे चारि- । त्र अति आकर छे. ते पांचमे आरे हाथे न आवे. एम निज अवगुण ओलयीने कुमति पासत्यादिक कदाग्रह पोषे छे, पण अमे हिणा छैये अनेकालोचित यला अशठपणे जे करे ते साधु पूज्य होय एम कही न शके, पण पोतामा साधु सत्ता थापे छे ।।६९।।
उत्तर गुणांहे होणडा, गुरु कालादिक पाखेरे। मूल गुणे नही हीण्डा, एम पंचाशक भाषरे ॥तु० ॥७॥
व्याख्या-कालादिक पाखे० उत्तर गुणमाहे हीणा साधु होय, पण मूलगुणे होणा न होय, एम पंचाशक शास्त्र भाषे छे. तथाहि-"गुणगणरहियो वि इहं दठव्यो मूलगुणविउत्तो जो । णउ णाओ गुणमित्तविहूणोचि चंडरुदोउदाहरणे ॥१॥"-तथा गीतार्थ आताए साधु व्यवहार करतां आज पण चारित्र अखंड होय. उक्तंच-धर्मरत्न प्रकरणे "गीयत्या पारतां ता इह दुविहं मग्गमणुसरंतस्स | भावजइत्तं जुत्तं, दुप्परसहत जो चरण " तथगुरु आज्ञा पाले तेहज रत्नत्रय पामे छे. उक्तंच पंचाशक नामा ग्रंथे-" गुरुपारतंतनाणं, सदहणं एयसंगयं चेव । इत्तो उ चारिचीण, मासतुसादोण णिदिवें ॥१॥" ते माटे पंचमे आरे कालोचित यवना गुरु आज्ञाए करे तेहने चारित्रीयाज सहहवा. तरतम भावना दृष्टांत तो नृप गोपकादि व्यवहारादिक प्रसिद्ध छे. अर्थात् सर्वत्र प्रसिद्धन छे. ॥ ७० ॥ .
परिग्रह ग्रह वश लिंगीया, लेह कुमति रज माथेरे। निज गुण पर अवगुण लवे, इंद्रिय वृषभ नवि नाथरे ॥तु० ॥७॥
व्याख्या-परिग्रह ग्रह वश पर्ति जे लिंगीथाय छे. ते कमतरूप रज माये छेइने निज के० पोताना गुण अने पर के० पारकाना अवगुण लवे के० लबारो करे छे, पण पोवाना। इंद्रियरूप कृपभने ते नाथता नयी. तेवारे सम्यक्त्वयो अंश पामे छे ॥ ७१ ।।
नाणरहित हित परिहरी, निज देसण गुण लूसेरे । मुनिजनना गुण साभली, तेह अनारज रुसरे ॥तुज० ७२ ।।
व्याख्या-एम ते पोतानु हित पारहरी ज्ञानरहित थका निज दर्शनगुगने लूसेछे, अने : मुनिजनना के० साधु चारित्रियाना गुण सांभलीने वेह अनार्य रूशे छे. तंव-"गुगहीणो । गुणरयणायरेसु जो कुगा तुमप्पागं । मुतबस्सिणो अ होला, सम्म कोमलं तस्स॥१॥", इति उपदेशमाला ग्रंथनेविषे को छे. ॥७२॥.
अगुसम दोष जे परतणो, मेरुसमान ते बोलेरे । जेहसुं पापनो गोठडी, तेहसुं हियडलं खोबरे ॥तुज० ७३ ॥ व्याख्या-अणुसम के परमाणु मात्र जे परतगो के पारमानो दोष होय वेह प्रो.
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सवासो गाथा स्तवन. ते अनार्य द्रोह बुद्धिए मेरु समान करीने बोळेछे. जेहसुं पापनोज गोठडी बांधेछे तेहसु - हैड्डे खोलेछे. वेहनी साथे अंतर न राखे, अने साधुनी साथे अंतर राखे छे ।।७३॥
सूत्र विरुद्ध जे आचरे, थापे अविधिना चालारे । ते अति निविड मिथ्यामति । बोले उपदेशमालारे।तुज०७४॥
व्याख्या-इत्यादिक जे दंभी माया मृपावादे पोतानुं पारा गणवे करी हुँ रुटो, ए मुंडो एम ममत्वबुद्धिए करी जे सूत्रविरुद्ध आचरण करे, तथा अविधिना चाला के सूत्र 'विरुद्ध उन्मार्गने चलावे. दृष्टिरागीने जूग उपदेश देइने माया गाली उन्मार्गने थिर करावे ते अति निविड मिथ्यामति कहीए. एम उपदेशमाला वोले छे. यतः-"जो जहवार्य न कुणइ, मिच्छदिही तो हु को अनो। वुठेइ अ मिच्छत्त,परस्स संकं जणेमाणो॥१॥ ॥७॥
पामर जन घण नवि कहे, सहसा जूठ सशूकोरे । जूठ कहे मुनिवेष जे, ते परमारथ चूकोरे ॥ तुज० ॥७॥
व्याख्या-धर्मना अजाण एवा अनार्य लोक पण सहसामकारे जूठ बोले नहि. पामर के० गमार लोक ते पण हैयामां नास्तिक होय नहि. अने साधुवेश लइने जे जूलु बोले ' हने परमार्थ मुंगो जाणवो. ते तो अणगोल्योज भलो. ॥७५॥ निर्दय हृदय छ कायमां, जे मुनिवेषे प्रवतेरे ।
गृही यति धर्मथी बाहेरा, ते निर्धन गति वतैरे ॥ तुज॥७॥
व्याख्या-जे छकायमांहे निर्दय हृदय थका मुनिवेषेकरी प्रवर्ते छे. ते गृहीके गृहस्थना अने यतिना धर्मथी बाहेरा छे. यविधर्म विराधतानथी. अत्रे रहस्य-जे माटे धुरथी वेप लीधो त्यांथी मांडी साधुधर्म पाम्याज नथी तो ते यतिधर्म क्याथी विराधे ? अने चेप लेइ मागी खायछे ते माटे गृहस्थमा पण नहि. एटला माटे भिक्षुक इत्यर्य. श्राद्धधर्म अप्रतिपत्तिथी नथी, ते वली निर्धन गतिय वर्ते. भीखारीना टोलामांहे गणाय. ॥७॥
साधुभर्गात जिनपूजना, दानादिक शुभ कर्मरे। श्रावक जन कह्यो अति भलो, नहि मुनिवेषेअधर्मरे ।।तुज०॥७॥
व्याख्या-साधुनी भक्ति, श्रीजिनवरनी पूजा, अने दानादिक चार शुभ धर्म इहाँ : आदि शब्दथी शील तप भावना लेइए. तेणे शुभकर्मी श्रावक जन अति भलो कहो, पण अनिवेषे अधर्मी भलो कहो नहि. यत:-" अरिहंतचेइआणं, मुसाहुपूआरओ दहायारो। सुस्सावओ वरतर, न साहुवेसेण चूभधम्मो ॥१॥" ॥७७॥
केवल लिंगधारीतणो, जे व्यवहार अशुद्धोरे । आदरीए नवि सर्वथा, जाणो धर्म विरुद्वारे ॥तुज० ॥७॥
वच सुरेंजश्चामीकर तस्यच तथास
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. (२० )
महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कुव
व्याख्या - एहवो जे केवलज्ञानादिक गुण विना लिंगधारीनो जे आचार ते अशुद्ध व्यवहार जाणपणानो होय तोए न प्रमाणीए, अने सर्वथा आदरीए नहिं तेने धर्म विरुद्ध जाणिए. ए ढालनो परमार्थ निश्रय योग व्यवहार ते शुद्ध निश्चय, प्रतिकूल ते अशुद्ध एवो. 'विवेक राखबो. एम उपदेशमाळामा कर्तुं छे ते इहां कहां ॥ ७८ ॥ हवे त्रीजो संवेगपatit मार्ग देखाडवा आगळ ढाल कहे छे.
॥ ढाल सातमी ॥
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आगे
'पूरव वार नवाणुं ए देशी ॥
जे मुनिवेष शके नवि छंडी, चरण करण गुणहीणाजी । ते पण मारग मांहे दाख्या, मुनिगुण पक्षे लीणाजी ॥ मृषावाद भवकारण जाणी, मारग शुद्ध प्ररुपेजी । वंदे गवि वंदावे मुनिने, आप थइ निज रुपेजी ॥ ७९ ॥
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व्याख्या-जे चरण गुणे होणा थइ लज्जादिके मुनिवेष नयी छांडी शकता, यतः - " जइ न तरसि धारेडं मूलगुणभरं सउतरगुणं च । मुत्तूण तो तिभूमी, सुसावगतं वरतरागं ||१|| " इत्यादिक उपदेशमालायां • ग्रंथोपदेशना क्रमने साचवे तेपण मारगमांहे देखाडया छे, पण जो मुनिगुणपक्षे लीणा होय, शुद्ध आचार भाखे. मृषावाद ते भव के० संसारनुं कारण जाणीने शुद्ध मारग प्ररूपे, सुनिने पोते भावे वंदे, पण आप निजरूप थइने वांदवा न दे. अत्र गाथा - " संवेगषक्खियाणं लक्खणमेयं समासओ भणियं । ओसन्नचरणकरणाविजेण कम्मं विसोहंती ॥१॥ शुद्धं सुसाहुधम्मं, कहेइ निंदेह निययमायारं । सुतवस्सिआण पुरओ, वह अ सव्वोमरायणिओ || २ || वंदन वंदावर किइकम्मं कुणइ कारवे नेय अत्तनवि दिक्खं देइ सुसाहूण बोहेउं ||३|| ओसन्ना अतट्ठि परमप्पाणं च हणइ दिरकंतो } तं छुइ दुग्गइए, अहिअयरं बुड्डइ सयं च ॥ ४ ॥ उपदेशमालायामिति शोधी ॥ " जइ विण सकइ काउं, सम्मं जिणभासियं अणुपणं । तो सम्मं भासिज्जा, जह. भणियं खीणरागेहिं ॥१॥ ओसन्नो वि विहारे, कम्मं सोहेइ सुलहवोही अ । चरणं करणविशुद्धं, अवचूर्हितो परूर्चेतो ॥ २ ॥ शुद्धं सुसाहुघम्मं, कहमाणो ठवइ संयतइपरके ( तइय पक्खं मि ) अप्पाणं इअरो पुण गित्यधम्माड चुकति ||३||" इति गच्छाचारे ॥ ८० ॥
मुनि गुण रागे पूरा शूरा, जे जे जयणा पालेजी । ते तेही शुभ भाव लहीने, कर्म आपणां टालेजी ॥
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सवासो गाथानुं स्ववन.
आप हीनता जे मुनि भाषे, मान सांकडे लोकेजी । ए दुर्द्धरत एहनुं दाख्युं, जे नवि फूले फोकेजी ॥ ८० ॥
( २१ )
व्याख्या - ते संवेगपक्षी मुनि गुणरागे पूरा छतां मार्गे मामुक जल ग्रहणादिरूप जे जे जयणा पाछे, ते तेहथी शुभभाव इच्छा योगरूप लहीने पोतानां कर्म टाळे छे. "सम्यतवोत्पत्तिस्थानवचारित्रोत्पत्तिस्थानस्यापि गुणश्रेण्यंतरकोटिकरणासंभवादिति भावः " ते संवेगपक्षी महापुरुष मानसांकडे लोकछते जे मुखे आपहीनता भाषे, ए एहनुं दुर्धरव्रत छे. फोके फूलतो नथी. उक्तंच - " आयरतरसंमागं, सुदुकरं माणसंकडे लोए । संविग्गपक्खिअत्तं, ओसन्नेणं फुडं काउं ॥ १॥” इति उपदेश मालायां ॥ ८० ॥
प्रथम साधु वीजो वर श्रावक, त्रीजो संवेग पाखीजी । एत्र शिव मारग कहीए, जिहां छे प्रवचन साखीजी ॥ शेष ऋण भव मारग कहीए, कुमत कदाग्रह भरियाजी । गृहि यति लिंग कुलिंगे लखीए, सकल दोषना दरियाजी ||८१|| व्याख्या - प्रथम के० पहेलो साधु, वीजो वर के० प्रधान श्रावक, अने त्रीजो संवेगपक्षी, एत्रण शिवमार्ग के० मोक्षमार्ग कहीए. ज्यां प्रवचन उपदेशमाळादिक साखी छे. शेष के० थाकता रह्या जे त्रण, ते भव के० संसारमार्ग कहीए. जे कुमते अनेकदा हे भरेला छे. गृहस्थने लिंगे ब्राह्मणादिक, यति लिंगे निन्हवादिक, कुलिंगे तापसादिक लखीए के० जाणीए. ते केवा ? तोके सकल दोपना दरिया. गाथा - " सावज्जजोगपरिवज्जणार सव्वोत्तमो अ जइधम्मो ॥ वीओसावयधम्मो, तइओ संविग्गपक्खो य ॥ १ ॥ सेसा मिच्छादिट्ठी, गिहिलिंगकुलिंगदव्वलिंगेहिं जह तिण्णि य मोरकपहा, संसारपहा तहा तिष्णि ॥ २ ॥ " इति उपदेशमालायां ॥ ८१ ॥
जे व्यवहार मुगति मारगमां, गुणठाणाने लेखेजी । अनुक्रमे गुणश्रेणिनुं चढवुं, तेहज जिनवर देखेजी ॥ जे पण द्रव्यक्रिया प्रतिपाले, ते पण सन्मुख भावेजी । शुक्लबीजनी चंद्रकला जेम, पूर्ण भावमां आवेजी ॥ ८२ ॥
व्याख्या - जे व्यवहार मुक्तिमार्गमांहे गुणठाणाने लेखे वचनानुष्ठानरूप होय. अनुक्रमे गुणश्रेणिए वती चढवुं तेहज श्रीजिनवर देखे छे. जे पण प्रीति भक्त्यादिरूपे द्रव्य क्रिया ते पाले छे, ते पण शुक्लपक्षनी बीजनी चंद्रकला जेम होय तेम अनुक्रमे पूर्णभावमांदे आवे. एम अभ्यास क्रिया पण सफली तो निजोचिचे ज्ञानी संवेग पक्षीनी क्रिया शुद्धमार्गरूप होय. तेहमांशुं कहेतुं ? ॥ ८२ ॥ तेहज देखाडे छे.
वच सुरेंद्रश्चामीकर तस्यच तथास
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(२२)
महामहोपाध्याय श्री यनोविजयजी कृत. ते कारण लज्जादिकथी पण, शील धरे जे प्राणीजी। धन्य तेह कृतपुण्य कृतारथ, महानिसीधे वाणोजी ॥ ए व्यवहारने मन धारो, निश्चयनय मत दाख्युंजी। प्रथम अंगमां वितिगिच्छाए, भाव वरण नवि भाख्युंजी ॥८॥ व्याख्या-तह कारणे लनादिकयी पण जे नरनारी गील पा छे, तेह धन्य कृतपुन्य एवी वाणी महानिशीथमाह के.-"धन्ने णं से पुरित कयत्ये महाशुभारे, लेणं लोगल. लाए बि सीढं पालड़ ! पन्ने गं मा कयत्या कयलक्खणा महापात्रा, जेणं लोग लजाए बि सीलं पाठेइ ।" इत्यादि वचनात् । ए महानिशीथमांह कयुत व्यवहारनये मनमा धारो. निश्चयनयनो मतवी प्रथम अंगमाईज कया है-भाप्यो छ ज विचिकित्सा के मननी असमाधी ते छत्ता भावचरण के० भाव धारित्र भास्युं नयी. ठकाणे ठेकाणे नयना अर्य प्रमाण है. ॥ ८३॥
॥ ढाल आठमी ॥
॥ चौपाइनी देशी है. ॥ अवर एक भाये आचार, दया मात्र शुद्धज व्यवहार । जे बोले तेहज उत्थापे, शुद्ध करुं हुं मुख इम जपे ।। ८४ ॥ व्याख्या-अबर के बीजो कुमति एक बली भाषे के० कहे हे जे दया मात्र के केवल दया वेज शृद्ध व्यवहार जाणवो. एई जे मुखे वोले तहज उत्याप छे. पकाय भृत लोके कोण योगे दया याय? वली हुँ शुद्ध करुं हुं एम ते मुखे जपे छे. ।। ८४ ।।
जिनपूजादिक शुभ व्यापार, ते माने आरंत अपार ।
नवि जाणे उतरतां नई, मुनिने जीवदया क्यां गइ ।। ८५ ॥ व्याख्या-जिनपूजादिक जे शुभ के भला व्यागर, तहने कुमनि अपार आरंभ करी मान है. नवि जाणेन एम मुनिने नई क. नही उतरतां जीवदया क्यं गह? नयजाए उतर वा "जत्य जल तत्य वर्ण" इत्यादि रीत पकायनो वध संभव. ॥ ८५ ॥
जो उतरतां मुनिने नदी, विधि जोगे नवि हिंसा वदी। तो विधि जोगे जिन पूजना, शिव कारण मत भूलो जना ॥८॥
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सवासो गाथानु स्तवन.
(२३) व्याख्या-हवे जो एम कहेशो के, मुनिने विधि योगे नदी उतरतां आज्ञा प्रमाणे आशय विशुद्ध भावथी हिंसा न वदी के० न कही.-" अज्झत्य विसोहीए, जीवनिकाएहि संथडे लोए । देसियमहिंसयत, जिणेहिं तेलुकदंसोहि ॥१॥" इति वचनात् । तो विषियोगे जन पूजतां पण शिव कारण के० मोक्ष हेतु छे. ए वातमा जना के. हे लोको ! मत भूलो इत्यर्थ ॥ ८६ ॥
विषयारंभतणो ज्यां त्याग, तेहथी लहिए भवजलत्याग । जिनपूजामा शुभ भावथी, विषयारंभतणो नय नथी ॥८॥ व्याख्या-जेह करणीमां विपयारंभनो त्याग होय, तेहथी भवजलनो वाग लहे. जिनपूजा मांहे वीतराग गुण प्रणिधानरूप शुभभावथी विपयारंभनो भय नथी ते माटे जिनपूजादिक सदारंभ कहीए. एमां असदारंभनिचि मोहोटो गुण छे. ।। ८७॥
सामयिक प्रमुखे शुभ भाव, यद्यपि लहिए नवजल नाव । तोपण जिनपूजाए सार, जिननो विनय कह्यो उपचार ॥८८||
व्याख्या-यधपि श्रावकने सामायिक प्रमुखादिक अनुष्ठाने आरंभ निवृत्तिरूप शुभभाव बहेवो होय, तोपण जिनपूजाए जिननो उपचार के० लोकोपचार विनय पामे एम तो कझो ते ते विना केम होय ? विनय अंतरंग तप छे. शंका धरीने दान देव पूजादिक सामायिक प्रमुखे भेली नाखवाने अवसरे सर्व यथोचित साचवतांज आज्ञा प्रमाण होय. १८८॥
आरंभादिक शंका धरी, जो जिनराज भक्ति परिहरी। दान मान वंदन आदेश, तो तुज सबलो पडयो कलेश ॥८॥
व्याख्या-आरंभादिकनी शंका धरीने जो जिनराजनी भक्ति पूनादिक परहरि तो तुजने दान, मान, वंदन, आदेश सर्व क्लेश पड्यो छे. त्यां पण वायुकायादिक विराधना अवर्जनीय छे. परिणाम प्रमाण करता तो पूजामांहे निर्जराज छे. ।। ८९ ॥
स्वरूपथी दीसे सावध, अनुबंधे पूजा निर्वद्य ।
जे कारण निजगुण बहु मान, जे अवसरे वरते शुभ ध्यान ॥१०॥ व्याख्या-स्वरूपथकी पुष्पादि जीवारंमे करी सावध दीसे छे, पण अनुबंध जे उत्त. रोत्तर भाववृद्धि तेणे पूजा क्रिया निर्वथ छे. जेह कारणे ते पूजा अवसरे श्री जिनगुण बहुमानथी शुभध्याने वर्ते छे. मलीनारंभीने असदारंभनिवृत्ति अधिकारोचित भावे चित्त शुद्धि छे. ॥ ९ ॥
जिनवर पूजा देखो करी, भवियण भावे भवजल तरी। छकायना रक्षक हो वली, एह भाव जाणे केवली ॥ ९१ ॥
वच सुरेऽश्चामीकर तस्यच ...
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(२४) महामहोपाध्याय श्री यशोविनयनी कृत।
व्याख्या-ए श्रीजिनवर देवनी पूजा अर्चा सेवना देखी करी वीजा ध्यानादिके भावे भव्यपाणी भवजल तरीने छ काय रक्षक कहीए. एहवो भाव सम्यकदृष्टिने पूजामाहे वर्ते हे, ते केवली जाणे छे. अतएव कायवचनमनोयोग प्रधानपणे समंतभद्रा, सर्व मंगला, सर्वसिद्धिफला-ए त्रिविध पूजा होय. तेहमां चरणज परमश्रावकने कहीए छए. ॥११॥
जल तरतां जल उपर यथा, मुनिने दया न होए वृथा । पुष्पादिक उपर तिम जाण, पुष्पादिक पूजाने ठाण ||९२|| व्याख्या-यतिने कारणे जल तरतां जल जोव उपर दया परिणाम जेम फोक नथी. तेम पुष्पादिक पूजाने ठामे श्रावकने पुण्यादि जीव उपर दयाना परिणामनो अनुबंध भाजतो नथी एम जाणीए ॥ ९२ ।।
ते मुनिने नहीं किम पूजना, एम तुं शु चिंते शुभ मना ।
रोगीने औषध सम एह, निरोगी छे मुनिवर देह ॥ ९३ ॥ व्याख्या-जो निरवध जिनपूजा कही वो यति केम न करे? एम तुं शुभमना मुग्य भावयको शुं चिंतवे हे ? जेह माटे ए जिनपूजा रोगीने औपध समान छे. गृही तो मलीनारंभ रोगवंत छे, ते उपशमाववानुं ए मुख्य औषध छे. अने मुनिवर वोसर्व सावधानिवृत्त हे, ते रोगरहित रोग औपघ केम करे? ॥ ९३ ॥
॥ ढाल नवमी॥
प्रयम गोवालातणे भवेजी ॥ ए देशी॥ भावस्तव मुनिने भलोजी, वेउ भेदे गृही धार। श्रीजे अध्ययने कह्योजी, महानिशीथ मझार ॥
शुणो जिन तुझ विण कवण आधार ॥ ए आंकणी ॥९॥ व्याख्या-मुनि-साधुजनने भावस्तवनादिक करवो ते भलो छे. "भावक्षणमुग्गविहारयाय दबवणं तु जिणपूआ। पदमा जडणं दुण्ह वि, गिहीण पढमचिय पसत्या॥॥" एवं
श्रीमहानिशीयसूत्रमध्ये त्रीजे अध्ययने या छे. सांभलो हे जिन श्री सीमंघर देव, तारा - विना कोण आधार ? ॥ ९४ ॥
वली तिहां फल दाखियुंजी, द्रव्यस्तवतुंरे सार। स्वर्ग वारमुं गेहिनेजी, एम दानादिक चारं ॥ शुणो० ॥९५ ।।.
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सवासो गाथानुं स्तवन.
( २५ )
व्याख्या - वली तिहां महानिशीथमांहे द्रव्यस्तवनुं फल गेहिने के० गृहस्थने बार स्वर्ग दाख्युं. एम दानादिक चारनुं पण तेहज फल क. तेमाटे द्रव्यस्तव अणुव्रतादिक तुल्य गृहस्थधर्म जाणजो. यदुक्तं - " काकण जिणायतणेहिं मंडियसपल मेहणीव | दाणाइचकेण वि सड्डो गच्छिज्ज अचुयं ण परओ गोयमा " इत्यादि वचनात् ॥ ९५ ॥
हे अंगे द्रौपदीजी, जिनप्रतिमा पूजेय ।
सूरियाभपरे भावथीजी, एम जिनवर कहेय ॥ शुणो० ॥ ९६ ॥
व्याख्या-छठे अंगे श्री ज्ञाताधर्म कथाए अवदात प्रसिद्ध छे, जे द्रौपदीए श्री जिनप्रतिमा सूर्याभ देवतानी परे भावथी पूजी, एम श्री वीरपरमेश्वर कहे छे, कोइ कहेशे जे द्रौपदी भाविका नथी. ते उपर कहे छे. ॥ ९६ ॥
नारद आव्ये नवि थइजी, उभी तेह सुजाण ।
ते कारण ते श्राविकाजी, भाषे आल अजाण ॥ शुणो० ॥ ९७ ॥
व्याख्या- नारद आव्या तेहने असंयति जाणीने उभी न थइ. एह दृढ धर्मपणाने गुणे द्रौपदी शुद्ध श्राविका छे. ए कारण माटे ते श्राविकाज जाणवी. अजाण छे ते आल भाखे छे जे द्रौपदी श्राविका नथी. ॥ ९७ ॥
जिनप्रतिमा आगल कह्योजी, शक्रस्तव तेणे नार ।
जाणे कुण विण श्राविकाजी, एह विध हृदय विचार ॥ शुणो० ॥ ९८ ॥
व्याख्या - हवे ते नारी द्रौपदीए जिनप्रतिमानी आगल शक्रस्तव के० नमोत्थुर्ण भा स्तवनाए को, तो हवे श्राविका विना एह जिनप्रतिमा पूजवानी विधि कोण जाणे ? माटे हृदयमां विचारी जुओ के जो ए मिथ्यादृष्टि होय तो नागादिक प्रतिमा आगले दंडaa करी पुत्रादिकनी याचना करे. ॥ ९८ ॥
पूजे जिनप्रतिमा प्रतेजी, सूरियाभ सुरराय ।
वांची पुस्तक रत्ननांजी, लेइ धर्म व्यवसाय ॥ शुणो० ॥ ९९ ॥
व्याख्या- सूर्याभ सुरराज, जिनमतिमाने रत्ननां पुस्तक धर्मशास्त्ररूप छे ते वांची, धर्म व्यवसाय ग्रहीने पूजे. ॥ ९९ ॥
रायपसेणी सूत्रमांजी, मोहोटो पह प्रबंध ।
एह वचन अणमानतांजी, करे करमनो बंध ॥ शुणो० ॥ १०० ॥ व्याख्या - रायपसेणी सूत्रमांहे एह मोहोटो प्रबंध कह्यो छे. एह वचन जे नयी मानवा,
वच सुरेंद्रश्चामीकर
तस्यच
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( ३६ )
महामहोपाध्यायं श्री यशोविजयजी कृत.
तें देवताने 'नो मि' कहींने चीकणां कर्म बांधे छे. यतः- “पंचहिं ठाणेहिं जीवा दुल्लवोहियत्ताए कम्मं पकरंतिं तं जहा - भरहंताणमवन्नं वदमाणे १ अरहंतपन्नत्तस्स धम्मस्स अत्रनं वदर्माणे २ आयरियउवज्झायाणमवनं वदमाणे ३ चावन्नसंघस्सं अवनं वदमाणे ४ चिविकत वभचेराणं देवाण अवनं वदमाणे ५ | " ॥ १०० ॥
विजय देव वक्तव्यताजी, जीवाभिगमेरे एम ।
जो थिति ए सूरतणौजी, तो जिनगुण थुति केम ॥ शुणो० ॥ १०१ ॥
व्याख्या - श्री जीवाभिगमसूत्र मध्ये विजयदेवंनी वक्तव्यता पण ए रीविएज छे. जो कदेशो के ए देवतानी स्थिति छे तो वारशाखा प्रमुख पूजे तेम जिन प्रतिमा पूजी जोइए. तो इहां जिनगुणनी स्तुति केम करे छे ? ॥ १०१ ॥ सिद्धारथ राये करथाजी, यांग अनेक प्रकार ।
कल्पसूत्रे एर्म भाषियुंजी, ते जिनपूजा सार ॥ शुणो० ॥ १०२ ॥
व्याख्या- श्री कल्पसूत्रमध्ये 'जाएअ भाए दाएअ' ए अधिकारे श्रीसिद्धार्थ राजाए अनेक याग कराव्या एंवं घुं छे, तिहां याग शब्दे जिनपूजा कहीए. श्री कल्पसूत्र महे एम भाष्युं छे ते माटे श्री जिनपूजा तेहन सार छे अने आत्माने उत्तम गति तथा उत्तम भनिनी आपनार छे. ॥ १०२ ॥
श्रमणोपासक ते कॅह्माजी, पहेला अंग मझार ।
यागं अनेरा नवि करेजी, ते जाणो निरधार ॥ शुणो० ॥ १०३ ॥
व्याख्या - जे माटे श्री आचारांगसूत्रे द्वितीयश्रुतस्कंधमध्ये श्री महावीर देवनां मातापिता श्री पार्श्वनाथ तीर्थनां शुद्ध श्रावक कला छे, ते अनेरा पशु यागादिक न करे. ते माटे " यज, देवपूजा संगति करण दानेषु " एं धांतु अर्थे वलि याग ते पूजा भगवंतनी ते निरधार के निश्वये अर्थ विचारणाए भविक जीवने जाणवी. ॥ १०३ ॥
एम अनेक सूत्रे भण्युंजी, जिनंपूजा गृहिकृत्य ।
जे नवि माने ते सहीजी, करशे बहु भव नृत्य ॥ शुणो० ॥ १०४ ॥
व्याख्या -एम ए कारणे अनेक सूत्र मांहे श्री जिनपूजा ते श्रावकनुं कृत्य के० कर णी भण्यं के० कनुं छे. जे नहीं माने वे वहु भवचक्रवाल मध्ये नाटक करशे. ते माटे भविक जीव भवमीरु होय तेणे श्री जिनपूजा प्रमाण करवी. ॥ १०४ ॥
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सवासो गाथा स्तवन
(२७) || ढाल दशमी॥ ॥जं सुरसंघा सा सुरसंघा । अथवा एणे पुर कंबल कोइ न लेसी-ए देशी॥ अवर कहे पूजादिक ठामे, पुण्यवंध छे शुभ परिणामे । धर्म इहां नवि कोइ दीसे, जेम व्रत परिणामे मन हीसे ॥ १०५ ॥
व्याख्या-वली अपरमति कोइक एम कहे छे के पूजादिकने ठामे शुभ परिणामे पु. ण्यनो वंध छे, पण इहां धर्म कोइ दीसतो नथी. जेम व्रत परिणामे धर्म कहेतां चित्त हीसे छे, तेम पुष्पादिक आरंभ भणी पूजा धर्म कहेतां चित्त हीसतुं नथी. ॥ १०५ ॥ निश्चयं धर्म न तेणे जाण्यो, जे शैलेशी अंत वखाण्यो। धर्म अधर्म तणो क्षयकारी, शिवसुख दे जे भव जल तारी ॥१०६॥
व्याख्या-एम कहेछे ते मतीए निश्चय धर्म जाग्यो नयो. निश्चय धर्म जे शैलेशी त के० चउदमा गुणठाणाने छेहेडे वखाण्यो छे. ते धर्म केवो छ ? अधर्मनो क्षयकारी अथवा वीजो अर्थ एम छे जे धर्म अधर्म ए वनेनो क्षय करनारो छे, अने भवजल तारीने शिवमुख के० मोक्षसुख आपे एवो छे. उक्तंच धर्मसंग्रहण्या-"सो उभयखयहेज सेलेसीचरमसमयमावित्ति"-निश्चय धर्म जाण्यो होय तो तेहने विरहे पंचमे छठे गुणगणे सरखोज कहे पण पक्षपात न करे ।। १०६ ॥ तस साधन तुं जे जे देखे, निज निज गुणठाणाने लेखे। तेह धरम व्यवहारे जाणो, कारज कारण एक प्रमाणो ॥ १०७ ॥ __ व्याख्या-ते शैलीशी चरम समय भावी निश्चय धर्म तुं परंपराए साधन जेह निज निज के० पोतपोताने गुणाणे देखे छे तेहने व्यवहारे जाण. "संदुलाः प्रति वर्षवि पर्जन्यः" इति वचनात-कार्य कारण एक करी प्रमाण जे वस्तु रूपी उपचार पण प्रमाण छे. तेहनो निषेध तो पूनामांहे न संभवे, तो केम कहेवू ? जे पूजामांहे पुण्य होय पण धर्म न होय. ए विचारी जोजो ॥ १०७ ॥
एवंभूत तणो मत भाष्यो, शुद्ध द्रव्य नय एम वलि दाख्यो। निज स्वभाव परणति ते धर्म, जे विन्नाव ते भावज कर्म ॥ १०८॥
व्याख्या-एवंभूत नयनी अपेक्षाए भाष्यो ? शुद्ध द्रव्य नये वली एम देखायो छे. जेटलो निज स्वभावनो आविर्भाव ते धर्म, अने जेटलो विभावनो विलास ते भावकर्म जाणवो. ॥१०८॥ धर्म शुद्ध उपयोग स्वभावे, पुण्य पाप शुभ अशुभ विभावे । धर्म हेतु व्यवहारज धर्म, निज स्वभाव परणतिनो मर्म ॥ १०९ ॥
वच सुरेंजश्चामीकर तस्यच तथास
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(२८)
महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. ___ व्याख्या-अहीयां शुद्ध द्रव्य नय ते शुद्धाशुद्ध प्रकृतिव्यवहाररूप लेवी. अथवा नैगम अति शुद्ध द्रव्यार्थिक प्रकृति संग्रह नय छे ते तो सर्व आत्माने धर्मस्वरूप माने छे. पूजा दयाजनित धर्म कहेतो नयी, एनयांतर वादीए विचारवं. ऋजुसूत्र नयने मते यावत् काल शुद्ध उपयोग स्वभाव, तावत् काल धर्म. यावत् काल शुभाशुभ विभाव परिणाम, तावत् काल पुन्य पाप. ते नय अनुसरी जिनपूजादिक धर्म हेतु जाणी व्यवहारे धर्म कहीए. जेह माहे योग्यतापादक निजखभाव परिणाम आवे छे. ते माटे कारण कार्योपचारे करीए. ॥१०९॥
शुभयोगे द्रव्याश्रव थाय, निज परिणामेन धर्म हणाय । यावत् योग क्रिया नहीं थली, तावत् जीवछे योगारंभी ॥ ११० ॥
व्याख्या-श्री जिनदेवनी पूजादिक मांहे यद्यपि शुभयोगे द्रव्याश्रव थाय छे, तोपण निज के० पोताना परिणामे धर्म हणाय नहीं. यावत् के. ज्यहां लगे योगक्रिया थंभी नयी, तावत् के त्यां लगे जीव योगारंभी कह्यो छे. ज्यां लगी ए जयी विजयी त्यां लगे ते भणी अंतक्रिया निषेधी छे. ॥ ११ ॥
मलिनारंन करेजे किरिया, असदारंन तजीने तरिया। विषय कपायादिकने त्यागे, धर्म मति रहिए शुभ मागे ॥ १११ ।।
व्याख्या-श्रावकतो मलिनारंभी छे. जे जे दान देवपूजादिक धर्मक्रिया करे छे ते असदारंभ छांडीने संसार समुद्रने तरे छे. ते भाव तो पूजामांहे अविहड छे. विषय कषायादिक प्रमुखनो साग थाय ते रीते धर्मबुद्धिए शुभ मार्गमांहे रहिए. ए उपदेश छे ते जाणवो. ॥ १११ ॥ स्वर्ग हेतु जो पुण्य कहीजे, तो सराग संयम पण लहीजे । बहुरागे जे जिनवर पूजे, तस मुनिनी परे पातक धूजे ॥ ११२ ॥ ___ व्याख्या-वर्ग, कारण ते माटे जो द्रव्यस्तव पुण्य कहीए वो सराग संयम पण केम लेइए ? ते पण स्वर्गर्नु कारण छे. बहुरागे के० घणीए भक्तिए करीने श्री जिनवरने जे पूजे वेहनां पातक मुनि के० सराग संयम तेहनी पेरे धूजे के० कंपे. ॥ ११२ ।।
नावस्तव एहथी पामीजे, द्रव्यस्तव ए तेणे कहीजे॥ द्रव्य शब्द छे कारण वाची, भमे म भुलो कर्म निकाची ॥ ११३ ।।
व्याख्या-कोइ कहेशे के, द्रव्यस्तव कहेता अप्रधानस्तव थाय. ते शंका टाळे छे. एर पूजादिकथी भाषस्तव के० चारित्र पामे. ते कारणे द्रव्यस्तव के द्रव्य शब्द अहीयां , कारण घाची छे, अमधान वाची नयी. माटे कर्म निकाचीतें भूलो ममीश मां.
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सवासो गाथार्नु स्तवन । ढाळ अगीयारमी॥
॥ दान उलट धरी दीजीए-ए देशी.॥ कुमति एम सकल दूरे करी, धारीए धर्मनी रीतरे । हारीए नवि प्रभु वल थकी, पामीए जगत्मा जीतरे ॥ स्वामी सीमंधर तुं जयो ।। ए आंकणी ।। ११४ ॥ व्याख्या-एम सर्वे कुमति दूर करी व्यवहार तब श्रद्धानेज शुद्धात्म भावनारूप धर्मनी रीतिए घरीए. अने प्रभुना नामना वल थकी हारीए नहि. वली जगतमाहे जीत पामीए. हे श्रीमंधरखामी ! तमे जयवंता वर्तो. इत्यर्थः ।। ११४ ॥
भाव जाणे सकल जंतुना, भव थकी दासने राखरे । वोलिया चोल जे ते गणुं, सफल जो छे तुज साखरे॥स्वामी०॥११५।। __व्याख्या सकल के० सर्व प्राणी मात्रना भाव जे स्वरूप ते जाणे-देखे छे, ते माटे हे स्वामी, भव के० संसारना भय थकी दास के० सेवकने राख जे वोल वोल्या छे ते सफलपणे तो गणु, जो हे जगत्रयना नायक तारी साखे करी कहुं छै तो. ॥ ११५ ॥ एक छे राग तुज उपरे, तेह मुज शिवतरु कंदरे । नवि गणुं तुज परे अवरने, जो मिले सुर नर वृंदरे ॥स्वामी०॥११६॥
व्याख्या-एक राग मुजने तुज उपरे छे, तेह मुजने मोक्षनोज कंद छे. तुजने मेलीने अवर कोइ देवने ध्याववानी माहरी मनसा नथी. जो देवतानां अने मनुष्यनां ईद के समूह मळे तोपण तेने ध्या नहीं ।। ११६ ॥ तुज विना में बहु दुःख लयां, तुज मिल्ये ते केम होयरे । मेह विण मोर माचे नहीं, मेह देखी माचे सोयरे ।। स्वामी०॥११७॥
व्याख्या-हे प्रभु में ताहरा ध्यान विना बहु के० घणांज दुःख लयां, हवे तुजने मल्ये माइरा सर्व दुःख क्षय पाम्यां. मेघना आगमन विना जेम मोर महाले नहीं, मेह देखीने मोर नाचकला मांडे, तेम तुज दर्शने करी पाप नागं ॥ ११७ ।। मनथकी मिलन में तुज कियो, चरण तुज भेटवा सांइरे। कीजिए जतन जिन ए विना, अवर न वांछिए काइरे॥ स्वामी० ॥१८॥
वच सुरेखश्चामीकर तस्यच तथास
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(३०) महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. तुज वचन राग सुख आगले, नवि गाएं सुर नर शमरे । कोडी जोकपट कोइ दाखवे, नवि तर्जु तोए तुज धर्मरे॥स्वामी०॥११९॥ तुं मुज हृदयगिरिमा वसे, सिंह जो परम निरीहरे। कुमत मातंगनाजुथी, तो कशीप्रभु मुज वोहरे ॥ स्वामी० ॥१२०॥ कोडीछे दास प्रभु ताहरे, माहरे देव तुं एकरे। कीजिए सार सेवक तणी, ए तुज उचित विवेकरे ॥ स्वामी० ॥१२१॥ भक्ति नावे इस्युं भाखीए, राखीए एह मनमांहीरे। वासनां नव दुःख वारिए, तारिए सो ग्रही बांहीरे ॥ स्वामी० ॥१२२ ॥ वाल जेम तात आगल कहे, विनवु हुं तेम तुजरे । उचित जाणो तेम आचलं, नवि रह्यो तुजकिस्युं गुजरे।।स्वामी०॥ १२३॥ मुज होजो चित्त शुभभावथी, भव भवताहरी सेवरे । याचिए कोडी यतने करी, एह तुज आगले देवरे॥स्वामी० ॥ १२४ ॥
॥ कलश ॥
हरिगीत छंद. इम सकल सुखकर दुरित भयहर, विमल लक्षण गुणधरो। प्रभु अजर अमर नरिंद वंदित, विनव्यो सीमंधरो॥ निज नाद तर्जित मेघ गर्जित, धैर्य निर्जित मंदरो। श्री नयविजय बुध चरणसेवक, जशविजय बुध जय करो।स्वामी० ॥१२५॥
Baral
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Vol
इतिश्रीमन्महोपाध्यायगणिश्रीयशोविजयजी कृतं सीमंधरजिनस्तवनं बालावबोधसहितं संपूर्णम्.
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दोसो गाथानुं स्तवन.
|| श्रीमद्विजयानन्दपुरीश्वरचरणपङ्कजेभ्यो नमः ||
॥ अथ श्री श्रीमद्यशोविजयजी उपाध्यायकृत वीरस्तुतिरूप || हुनुिं स्तवन प्रारंभ.
॥ प्रथम अर्थकर्तानुं मंगलाचरण - अनुष्टुप्वृत्तम् ॥ प्रणम्य श्रीमहावीरं शंकरं शिवसौख्यदं । धीरवीरं प्रकुर्वे हं, श्रीवीरस्तववार्त्तिकं ॥ १ ॥
ए स्तवनमां प्राये - घणुंकरीने पद आघां पाछां होय, तेनो अन्वय करीने अर्थ करवो. ते अर्थ अमे अन्वय करीने लखभुं. ते अन्वय पद आघां पाछां होय, ते पोतानी मेले जोड़ लेजो. यद्यपि श्रीमद्ययशोविजय उपाध्यायजीएज आलावा लखवा रूप वार्तिक तो कर छे, पण सर्व पदनो अर्थ सर्वनी नजरमां न आवे, ते माटे पोताने संभारका सा तथा जे कोड माराथी अल्प बुद्धिवाला छे, तेओना उपकारने अर्थे ए अर्थ लखु हूं. त्यां प्रथम गाथामां मंगलाचरण, प्रयोजन, संबंध अने अभिधेय देखाडे छे.
॥ दाल १ ली ॥
॥ भविका सिद्धचक्रपद वंदो - ए देशी ॥
suit श्रीगुरुना पयपंकज, थुणशुं वीर जिणंद | ठवण निक्षेप प्रमाण पंचांगी, परखी लहुं आणंदरे ॥ जिनजी तुज आणा शिर वहिए, तुज शासन नय शुद्ध परूपणं । गुणथी शिवसुख लहिएरे ॥ जि० ॥ १ ॥
वच सुरेंद्रश्चामीकर
तस्यच तथास
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(१)
अर्थ- हवे प्रणमी कहेतां प्रणाम करीने, श्री गुरुके० तत्वने जे कहे तेने गुरु कहीए. ते गुरु श्रीके० लक्ष्मी ज्ञानादिक गुणनी तद्वत् जे गुरु तेना पयपंकज के० चरणकमल ते गुरुपदपंकजने नमीने हवे उत्तरक्रिया कहे छे. थुणभुं के० स्तवीभुं. वीरजिणंद के० वीरनामा चोवीशमा परमेश्वर. जिन के० जेणे राग द्वेप जीत्या छे, एटले सामान्य केवली तेमां इंद्र सरखा एटले तीर्थकर तेमने स्तवीचं. तेपण भी रीते स्तवीभुं ? ते कहे छे. पंचांगी प्रमाण aar निक्षेप परखीने आनंद लहुं, इत्यन्वय. १वांगी जे एक सूत्र, बीजी निर्युक्ति, त्रीजी
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(२)
महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत.
भाष्य, चोथी टीका अने पांचमी चूर्णि ए पंचांगी प्रमाणे थापना निक्षेपो परखीने आनंद पासु. इति प्रथम गाथार्थ ॥ १ ॥
हवे भावार्य एम एम कहां जे पंचांगी मानवाने योग्य छे. प्रतिमा पण मानवाने योग्य छे. ते सर्व बात आगल कहेशे, एटले ए गाथामां प्रथम पदे मंगलाचरण कर्यु. १ तथा पंचांगी प्रमाण ठवण निक्षेप परखी, ए पदे अभिधेय देखाडयुं. जे माटे वीरस्तव ए पण अभिधेय, तथा पंचांगी स्थापन कर तथा स्थापना निक्षेपो स्थापवो ए पण अभिधेय जाणवुं. २ तथा पंचांगी प्रमाणे ए पदमां संबंध देखाड्यो, जे माटे पंचांगीना परूपक परंपराए सर्वज्ञ छे, वेबारे गुरुपर्व क्रम संबंध आव्योज. ३ तथा आनंद पा - मुं, ए पदे करी प्रयोजन देखाड्युं. तेमां कर्ताए ग्रंथ करचो, एटले परोपकार थयो, तरत आनंद उपन्यो, ए अनंतर प्रयोजन. आनंद जे मोक्ष तेपामु ए परंपर प्रयोजन. तथा श्रोताने अर्थ ज्ञान ते अनंतर प्रयोजन अने सिद्धि वरची ए परंपर प्रयोजन ॥ ४ ॥ ए रीते चार वानां प्रथम गाथामां देखाड्यां. हे जिनजी तुज आणा शिर वहिए के० तमारी आज्ञा मस्तके धरीए. एटले ए पदमां एम देखाड्युं जे आज्ञा तेज प्रमाण छे, पण कुयुक्ति करवी ते प्रमाण नथी. जे माटे ते ढुंढक लोको एम कहे छे जे 'दयाए धर्म, किंवा हिंसाए धर्म.' एवं भोला लोकोने कहीने समजावे छे. तेओने पाछो उत्तर वालवा ए पद कहूं. यथा एम कहे तेने पाहुं पूछिए जे 'दयाए धर्म, किंवा आज्ञाए धर्म इति. एटला माटे हे प्रभुजी, तुज शासन के ० तमारी आज्ञा, तेहनी नय के० नीति तेने शुद्ध परुपण गुणथी के० यथार्थ परुपवारूप गुण थकी शिवसुख लहिए के० मोक्ष सुख पामीए. इति प्रथम गाथार्थ ॥१॥
हवे ते थापना निक्षेपो देखाडवा माटे सिद्धांतनी साख देखाडे छे. ए स्तवनमां हूँढी वत्रीश सूत्र माने छे. यथा अगीआर अंग, वार उपांग, एक नंदी, एक अनुयोगद्वार, एक दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, निसीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, अने आवश्यक ए वत्रीश. तेमांनीज साख देखाडशे. इति.
श्री अनुयोग दुवारे भाष्या, चार निक्षेपा सार ।
चार सत्य दश सत्या भाष्या, ठाणांगे निरधाररे ॥ जिनजी ॥ तु॥२॥
अर्थ - श्री अनुयोगद्वारने विषे भाष्या के कल्ला के. चार निखेपा सार के० प्रधानपणे, एटले वधता निक्षेपा न करी शके तोपण चारनी तो प्रधानता छे. अवश्य करना एवं देखाडवा सारं ए पद छे. यत:- "जत्य य जं जाणिज्जा निखेवं निखिवे निरवसेसं जत्थवि य न जाणिज्जा चचकयं निखिवे तत्थ ॥ १ ॥” इति अनुयोगद्वारे | अर्थ - अधिका निक्षेपा न जाणिये, तोपण चार निक्षेपा सर्व ठामे करवा. वळी चार प्रकारनी सत्यभाषा चोथे । तथा दश प्रकारनी सत्यभाषा दशमे ठाणे, ठाणांगे निरघार के० श्रीठाणांग सूत्रने पेनिश्चयपणे कही छे. यतः ॥ चन्त्रिहेसचे पनचे नामसचे ठवणसचे दन्त्रसचे भाव
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दोढसो गाथा स्तवन
(३) सच्चे ॥"-ए चोथे ठाणे तथा-"दसविहे सच्चे पनते तंजहा-जणवयसम्मयठवणा, नामे रूबे पडच्चसच्चे य । ववहारभावजोए, दसमे ओवम्मसच्चे य ॥१॥" इति ठाणांग मध्ये दशमे ठाणे छे. एनो अर्थ-कोंकणदेश प्रमुखनेविषे पयने पिच कहे छे. पाणीने उदक कहे छे. इत्यादिक जनपद सत्य कहीए. १ कुमुद कुवलयादिक पण पंकथी उपजे छे पण पंकज ते अरविंदनेज सम्मत छे. ए सम्मतसत्य. २ तथा लेप्यादिकनेविषेअरिहंत प्रतिमा, एककादिक अंकविन्यास, कापणादिकनेविषे मुद्राविन्यासादिक, ते सर्व थापना सत्य. ३ तथा कुलनी वृद्धि न करतो होय तोपण कुलवर्द्धन नाम होय ते नामसत्य. ४ व्रतना गुण न होय तो लिंग माने पण व्रती कहीए ते रूपसत्य. ५ तथा अनामिकांगलि कनिष्टाने आश्रीने दीर्घ कहीए अने मध्यमाश्रीने इस्व कहीए, ए प्रतीत्य सत्य. ६ पर्वत उपर तणादिक वलतां छतां पर्वत बले छे, पाणी झमे छे तोपण कहिशुं के घडो झमे छे, अने पेट छतां पण कन्याने अनुदरा कहे छे, इत्यादिक सर्व व्यवहार सत्य छे. ७ वर्णादिक जे भाव ते भावसत्य. यथा वगलां उजलां छे. यधपि बगलांमां पांचे वर्ण छे, तोपण शुक्लवर्ण उत्कृष्ट छे माटे उजलां बगलां एम कहे छे. एमज भमरो कालो, इत्यादिक भावसत्य जाणवु. ८ तथा दंडने जोगे जे दंडी कहीए, इत्यादिक योगसत्य कहीए. ९ अने समुद्र सरखं तलाव छे. इत्यादिक उपमासत्य. १० ए दश सत्यमा स्थापना सत्य आव्यु, तथा पूर्वोक्त चार सत्यमां पण स्थापना सत्य आव्यु, ते माटे स्थापना. ते सत्य छे, एम श्री ठाणांगनी साखे देखाड. ए गाथा पनवणा सूत्रे भापा पदमां पण छे. इति द्वितीय गाथार्थ. ॥२॥
एतो सामान्य प्रकारे थापना पण साची छे, एम कयु. हवे कहे छे जे वीतराग तो चारे निक्षेपाए साचा छे. ते देखाढे छे. जास ध्यान किरियामांहि आवे, तेह सत्य करी जाणुं ॥ . श्री आवश्यक सूत्र प्रमाणे, विगते तेह वखा[रे ।। जि०॥ तु०३॥
अर्थ-जास ध्यान के० जे वीतरागर्नु ध्यान, किरियामां आवे के क्रिया जे आवश्यकनी क्रिया तेमां आवे, तेह सत्य करी जाणु के० साचु करी मानु, जे माटे आवश्यकनी करणी ते चारित्रियानी छे, माटे ते जे क्रियामां बोले ते साचुन बोले तो चारित्र रहे अन्यथा चारित्र विराधे. भापासत्य ते साचुं वोलतां थाय छे ते विचारी जोजो. हवे श्री श्रावश्यकस्त्र प्रमाणे विगते के० भिन्न भिन्न पणे, तेह के ते नामादिक सत्य वखाएं छ. इति तृतीय गाथार्थ ॥३॥ चोवीशत्थयमांहि निक्षेपा, नाम द्रव्य दोय भाई ॥ काउस्तग्ग आलावे ठवणा, नाव ते सघले लाबुरे ॥ जि०॥तु०४॥
अर्थ-चोवीशत्थय के० चोवीश जिननी स्तवना एटले लोगस्स उज्जोगरे ए पाठ उचारतां ऋपभादिक चोवीश नाम प्रगटपणे कहे छे, ते नामनिक्षेपो जाणवो. तथा द्रव्यनि
वच सुरेंजश्चामी .. तस्यच ..
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MARAW
महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृच. क्षेपो "जे अइया सिद्धा" ए गाथामां छे, पण ए गाथा कुमति माने नहीं, तेने चोवीशत्या मांहेज देखाडे छे. नामद्रव्य के नामनिक्षेपो अने द्रव्यनि पो. दोय भावू के• ए पन्ने निक्षेपा भाई कुं. ते द्रष्यनिक्षेपो एम जे ऋपभादिक तिर्थकरने वारे जे प्रभु विचरता ते भावतीर्थकर जाणवा, पण वीजा वीश तीर्थकर रह्या ते चोवीशत्थामां द्रव्यनिक्षेपे वंदाणा. यत:-"भूतस्य भाविनो वा भावस्प हि कारणं तु यल्लोके। तत् द्रव्य तत्वज्ञैः सचेतनाचेतनं कथितम् ॥१॥ इतिवचनात् ॥ तथा वळी हमणां जे चोवीशत्यो कहेछे तेने "अरिहंते कित्तइस" अथवा "तिस्थयरा मे पसीयंतु" इत्यादिक पाठ कहेता मृपावाद लागेछे, जे माटे हमणां तो चोचीशे भावनिक्षेपे सिद्ध छे ते मारे पूर्व भावनो उच्चार लेइ द्रव्यनिक्षेपे वांदतांज सत्य थाय ते विचारी जोजो, एटले चोवीसस्थामांहे नाम अने द्रव्य ए वे निक्षेपा फलान्या. हवे थापनानिक्षेपी कहेले. काउस्सग्ग आलावेके० काउस्सग्ग करवानो आलावो जे "अरिहंत चेईआण करेमि काउस्सग्गं वंदणवत्तिए पूअणवचिआए।"इत्यादिक पाठ उच्चारतां ठवणाके० थापनानिक्षेपो भावुछु. अर्थ-अरिहंतनी प्रतिमाने वंदन पूजनथी जे फल होय, ते फलने अर्थे काउस्सग के०काउस्सग्ग करुंछु. अहीयो ढुंदी एम कहेछे जे अमे ए आलावो मानता नथी. तेनो उत्तर जे, आवश्यक सूत्रमांनो आलावो खंडित थाय तो पांचगं काउस्सग्ग नामे आवश्यक केम थाय? तथा आवश्यकसूत्र आज छे, तेमां ए पाठ छे ते केम ओलवाए? अने जे ओलवे तेने माथे आज्ञाभंगरूप वज्रदंडनो घात पडे. तथा आ स्तबनने अनुमाने जाणीए छैए, जे पूर्वे हुँदीमा आ आलावो मानता दीसेछे, पण हमणांज ना कहेछे. बाकी जो पूर्वे न मानता होय तो तेनी साख आ स्तवनमाज केम होय? इतिभाव. एम श्रीजा निक्षेपार्नु ध्यान क्रियामाहे आव्यु, अने भाव ते सघले लावुके भावनिक्षेपो तीर्थकरनो जे केवल ज्ञानादि गुणरूप ते तो ध्यान द्वाराए सर्वत्र क्रियासमाप्ति यावत् हदयमांहे लावूछु. इति चतुर्य गाथार्थ ॥ ४ ॥ ___एवं चार निक्षेपा आवश्यक क्रियामांहे देखाउया. हवे केटलाएक इंडीआ एम कहे छे जे-अमे आवश्यक सूत्र मानीए छैए पण ते आ तमे कहो छो ते आवश्यक छे नहीं.. तेने उत्तर देछे जे समोने कोणे कड्यु के ते आवश्यक नहीं ? ते विषेनो तो केवली विना निरधार शाय नहीं. वेवार ढुंदीआओ कहे के तमने कोणे का जे आवश्यक ते तेज छे? तेनो उत्तर जे अमे तो आगम प्रमाणे मान्यु. तेज आगली गाथाए देखाडे छे. पुस्तक लिखित सकल जिम आगम, तिम आवश्यक पह। भगवई नंदी साखे सम्मत, तेहमां नहीं संदेहरे ॥ जि० ॥ तु० ५॥
अर्थ-पुस्तकलिखित जेम समस्त आगम के सिद्धांत छे. तेम ए आवश्यक पण पुस्तकलिखित छे. तथा भगवई साखे के श्रीभगवतीस्त्रमांहे आवश्यकनी भलामण छे. यथा"जहा आवस्सए" इति तथा वली नंदीसाखेके नंदी सून मध्ये पण सर्व सूत्रनां नाम कयां,
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दोढसो गाथा स्तवन
(५) त्यां उत्कालिक सूत्रमा आवश्यक नाम प्रगट पणे कयुं छे. ते माटे अमे मानीए छैए तेम अवश्य तमारे पण मानवू पडशे नहीं मानो तो भगवती तथा नंदी ए के सूत्र विराधशो. ते माटे सम्मतके० ए वे सूत्रनी साखे मानवा योग्य छे, तेमां कांइ पण संदेह नथी. इति गाथार्थ ॥ ५॥ हवे ढुंढक कहेछे के-आवश्यक सूत्र तो घरघर जुदु छे एक नथी. तेने शिक्षा कहेछे.
सूत्र आवश्यक जे घरघरनु, कहेशे ते अज्ञानी। पुस्तक अरथ परंपर आव्यु, माने तेहज ज्ञानीरे ॥ जि०॥ तु०६॥
अर्थ-सूत्र आवश्यक जे घरघरचं के भिन्न भिन्नछे, एम जे कहेशे तेतो अज्ञानी अथवा मूर्ख जाणवा. शामाटे मूर्ख ? ते कहेछे. पुस्तकके० पानामां लख्यु छे ते ना केम कहेवाय? जेगाटे श्रीअनुयोगद्वारमध्ये का छे के-"नो आगमओ दन्वावस्सयं न पत्तयपोत्थयलिहिय" इति । तथा अर्थ पण छ आवश्यकरूप चाल्यो आवेछे. एमां त्रण अकारना आगम देखाड्या. यतः-"मुत्तागमे अत्थागमे तदुभयागमे ॥” इति । तथा परंपर आव्यु के० परंपराए चाल्यु आन्यु छे, ते पण मानवु. एमां पण त्रण भकारनां आगम देखाइयां छे. यत-"अत्तागमे अनंतरागमे परंपरागमें" इति । तेथी जे आवश्यक न माने तेणे एटला आलावा दहव्या माटे तेने मूर्ख कहीए. ते माटे माने तेहज ज्ञानीके० जे ए पात माने तेज ज्ञानी पुरुष छे, एम कहीए. इति षष्ट गाथार्थ ॥ ६॥ ___ वली जे एकलो भावनिक्षेपो वांदवा योग्य मानेछे, तेने स्थापना तथा द्रव्य निक्षेपो वांदवा योग्य छे एम बतावे छे. बंभीलिपि श्रीगणधरदेवे, प्रणमी भगवई आदे। ज्ञानतणी ते ठवणा अथवा, द्रव्यश्रुत अविवादेरे ॥ जि०॥तु०९॥
अर्थ-भगवई आदे के० श्री भगववीसूत्रने धुरे श्री गणधरदेवे के० सुधर्मा स्वामीए बंभीलिवि के ब्राह्मीलिविने प्रणमी के०प्रणाम करयो छे. "नमो वंभीए लिवीए" ए सूत्रे करीने, अने ब्राझीलिपि के०अक्षरविन्यास कहीए. ए अर्थ आगली गाथाए स्पष्ट थशे. ते अक्षरविन्यास तो ज्ञाननी स्थापना छे. यतः अनुयोगद्वारे-"आवस्सए ति ठवणा ठविजइ." वथा वली "सम्भावठवणा असम्भावठवणा" ए बे भेद पण अनुयोगद्वारमध्येज कहाछे. ते माटे तेके० ते ब्रामीलिपि ज्ञानतणी ठवणाके० ज्ञाननी थापना जाणवी. अथवाके० पक्षातरे जो थापना न गणीए अने अंथरूप ब्राह्मीलिपि लेइए तो द्रव्यश्रुत के० द्रव्यनिक्षेपे द्रव्यश्रुत कहिये. अविवादेके विवादरहितपणे एटले एमां कोई सघडो नथी. यता-"द्रव्यमुरंज पत्तयपोत्थयलिहियं ॥" इत्यादि अनुयोगद्वार वचनथी जाणवू. एटले ए भाव जे "नमो भीए लिवीए ॥" ए सूत्रममाणे ज्ञाननो स्थापनानिक्षेपो अथवाद्रव्यनिक्षेपो साधुने
वच सुरेंजश्चामीकर तस्यच तथास
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(६)
महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. वांदवा योग्य छे तो श्रीतीर्थकर देवना स्थापना तथा द्रव्य ए वे निक्षेपा वांदवा योग्य केम न थाय ? इति भावार्थ ॥ इति सप्तम गाथार्थ ॥ ७ ॥
आ ठेकाणे कोइ ब्राझीलिपिनो अर्थ मरडेछे. तेने शिखामण दीएछे. नेद अढारज बंभीलिपिना, समवायांगे दीठा। शुद्ध अरथ नरडी भव बहुला, भमशे कुमति धीठारे । जि०॥ तु०८॥
अर्थ-भेद अढारज मीलिपिनाके० ब्राझीलिपिना अढार भेद, श्रीसमवायांग मूत्रमा दीग के० देखाच्या छे. यथा-"बंभीएणं लिवीए अहारविहे लिविविहाणे पन्नते" इत्या. दि. ब्राह्मीलिपि अहार प्रकारनी छे. ते ब्राह्मीलिपि ते अक्षरन्यास रूप कहेछ. ते ब्राह्मीलिपिने पंचमांगने धुरे श्रीगणधर देव प्रणम्या, ते वाको अर्थ केम थाय ? नेमाटे ए शुद्ध अर्थ मरडीने कुमतिके० कुबुद्धिना धणी धीगके० वांको अर्थ करवाने धैर्यवंत, गणधर तथा तीर्थकरनी पण वीक नही धरतां, भववहुला भमशे के० घणो संसार रझळशे. ते माटे तमे संसार दीर्घयी | नथी वीहीता ? इति भावार्थ इति अष्टम गाथार्थ ॥८॥ ,
हवे पूर्वे कई जे कुमतिओ अर्थ मरडे छे. ते \ मरडे छे? ते कहेछे. 'नीलिपि जो तेहनो करता, तो लेखक पण आवे। गुरुआणा विण अरथ करे जे, तेहनो बोल ननावरे॥जि०॥ तु०९॥
अर्थ-वभीलिपि के. ब्राझीलिपि तेना करनारा ऋषभ परमात्मा तेने गणधर नम्या. जे माटे ब्राह्मीलिपि श्री ऋषभदेवजीए वतावी ते माटे एम आशंका परनी करीने उत्तर देछे. वभीलिपि के० पालाने दृष्टांते ब्राह्मीलिपिना कर्ता श्रीऋषभदेव लेइए. अहींया ए भाव ३. सूत्रधारने, पालो घडवा काष्ट लेवा जतो देखी कोइके पूछयु के क्यां जशो? तेवारे अशुद्ध नैगमनयनी अपेक्षाए मुवार वोल्यो जे पालो छेवा जइ. तेम अहींयां पण ऋषभदेवजीनो अर्थ करे छे. इति भाव. तेहने उत्तर-तो लेखक पण आवे के० तो लहिओ-पुस्तकनो लखनारो पण आवशे. इहां ए भाव जे नैगमनये ऋषभदेव लीधा पण अशुद्ध नैगमनी अपेक्षा छे ते थकी हुंकडो ते शुद्ध नैगम कहीए. तेम इहां दुकडी तो ब्रालीलिपिनो कर्ता लहिओ ठरे. जेम कोरीने अने छोलीने चोखो करयो एवोजे पालो तेने पालो कहे ते शुद्धनैगम कहेवाय. तेम अहींयां पण जाणवू. ए. नयनी अपेक्षाए दुकडो ते शुद्ध अने वेगलो ते अशुद्ध इति भाव. तेवारे लहिओ वांदवा योग्य तमारे थयो. १ तथा वली केहेशो के ब्राह्मीनो आदि कर्ता लेइy,तो ते मिथ्या छे. जे माटे ए "वंभीए लिविए" ए पदनो अर्थ नहि, ए तो उपचार करीने अर्थ खेंची छेइए तेवारे आवे ते तो निःप्रयोजन उपचार करीए तो सूत्र दोष थाय. २ तथा वली "नमो वंभीए लिवीए" ए पद भ्रांतिनु करणहार क{. तेवारे "नमो सिप्पसयस्स" एबुं पण भ्रांति रहित पद थाय. ते कान क? जे समवायांगसूत्र अढार लिपि ते साये विरोध पडेज नहीं ३ तथा वली "नमो अरिहंवाणे"
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दोढसो गाथा स्तवन
(७) एपदमां शुं ऋपभदेव आव्या नहीं ? जे वली "भीए लिवीए"ए पद कहीने अलगा देखाडल्या. ४ तथावली भीनो कर्ता तो 'लिवीए' ए पद' कहेवाजें | काम? तथा एम कहेशो के. ब्राह्मीलिपिनी क्रिया एमणेज वतावी ते क्रियागुणे वांदवा योग्य, तेनो उत्तर के, ऋषभदेव वांधा तेवारे ब्राह्मीलिपितो पहेलां वांदीज. जे माटे क्रियानो कर्तावंद्य तो क्रियावंधज थइ. इत्यादि पणा उत्तर छे माटे गुरु आणा विण के० गुरु जे परमगुरु श्री तीर्थंकर तेनी आज्ञा विना जे अर्थ करे के० खोटो अर्थ करे तेनो वोल आज्ञा वाद्यपणा माटे न भावे के० भावतो नथी इति भाव. अथवा गुरु के० शुद्ध परंपराए आव्या जे गुरु तेनी आणा. इति. हवे ब्राह्मीलिपि द्रव्यश्रुत छे, माटे बंदना करवा योग्य एवं कर्तुं. ते उपर दृष्टांत वतावे छे. जिनवाणी पण द्रव्यश्रुत छ, नंदीसूत्रने लेखे। जिम तेतिमवंन्नीलिपिनमिये, भाव ते द्रव्य विशेषरे॥जि०॥तु०१०॥
अर्थ-जिनवाणी पण नंदीमूत्रने लेखे द्रव्यश्रुत छे. ते के० तेने जेम नमीए छैए तेम वंभीलिपि के० ब्राझीलिपिने पण नमीए. इति पदत्रय अक्षरार्थ. भावार्थ तो ए छे जे श्री भगवतीने धुरे "नमो सुअदेवयाए" ए भूत्रे जिनवाणीने गणधरे नमस्कार करयो. अने जिनवाणी तो नंदीमूत्रमां द्रव्यश्रुत कही वोलावी छे. तथा चतत्पाठ-"केवलनाणेणsये गाउ जे तत्थपण्णवणजोगे । ते भासद वित्थयरो वइजोग सुझं हवा सेसं ॥॥" अर्थकेवल ज्ञाने करी अर्थ जे पदार्थो तेने जाणीने जे ज्यां प्रज्ञापना योग्य-अरूपवा योग्य ते त्यां तीर्थंकरो भाषे एटले जे अभिलाप्प होय ते बोले, अने अनमिलाप्प होय ते जाणे छे, पण वचन गोचर न आवे तेथी अनमिलाप्प वचने कहेवाता नथी, ते परमात्मानुं वचन योग शेपश्रुत थाय एटले द्रव्यश्रुत थाय. इति. एटले ए भावार्थ-तीर्थकरनो वचनयोग ते शेपश्रुत के द्रव्यश्रुत जाणवो एवो अर्थ छे. एq जाणी द्रव्यश्रुत जिनवाणी वंदीए तो द्रव्यश्रुत बंभीलिपि केम न वांदीए ? ए वेमां फेर नथी, तेनो हेतु कहे छे. भाव के० आपणो भाव ते द्रव्य विशेष के० द्रव्यनो विशेष करे. इति अक्षरार्थ. भावार्थ तो एछे के द्रव्यपणे तो सर्व वस्तु सरखी छे. जेम ब्राह्मीलिपि अक्षररूपे द्रव्य छे, तेम जिनवाणी छे ते भापावर्गणाना पुद्गलरूप द्रव्य छे. ए वेमां तो कांइ विशेष नथी. पण आपणा ज्ञानादिक भावना साधनपणे प्रणम्या थकी ते द्रव्य विशेप पाम्यो कहीये. ते माटे ए वांदवा योग्य छे एम सदहवू. इति दशम गाथार्थ ॥ १० ॥ . कोइ कहेशे के अजीवरूप थापनाथी आपणने शो गुण थाय? तेने कहीए छैए.
जेम अजीव संयमर्नु साधन, ज्ञानादिकनुं तेम। । शुद्धभाव आरोपे विधिसुं, तेहने सघले खेमरे ॥ जि०॥तु०११॥
वच सुरेंजश्चामीकर तस्यच .
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(८)
महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. ___ अर्थ-जेम अनीव संथमनुं साधन के. जेम वस्त्र पात्रादिक अजीव छे, पण ते संयम के चारित्रनां साधन छे. एयी चारित्र सपाय छे. ज्ञानादिकनुं तेम के० तेमज स्थापनाजे ब्राीलिपि तथा जिनपतिमा प्रमुख, ज्ञाननो तथा दर्शन शुद्धि प्रमुखनो हेतु थाय, ते मारे शुद्धभाव आरोपे विधिसुं के विधिपूर्वक पोतानो जे शुभाध्यवसाय तेजें आरोपण सामी वस्तुने विषे करे, तेहने के० ते माणीने सघले खेम के० सर्व ठेकाणे मंगलीक छे. इति भाव इति गाथार्थ ॥ ११ ॥ __ ते उपर सूत्र लखीए छैए-"ते महाफलं खलु अरहताण भगवंताणं नामगोयमस्स वि . सवणयाए ।" अहींयां ए आलावे नामनिक्षेप ते महाफलदायक कहो. तथा-"धनाणं ते गामागरनगरखेडकव्वडमंडवदोणमुहपट्टणासमसंवाहसनिवेसा जत्थ अरिहंता भगवंता विहरति" ए आलावामा प्रामादिकने धन्य कां. ते पण श्री अरिहंतनीज मशंसा थइ. तथा वली श्रीश्रमणसूत्र प्रमुख घणा सूत्रोमां तेत्रीश आशातना मध्ये गुरु संबंधी पाटी पीठ संथारे पग संघटतां आशातना लागे. ए सर्व वस्तुओअजीव छे. तोपण पोताने विशेषे आराघवा योग्य कहीओ, तेतो तुं पण मानेछे, तो पछी जिनपतिमा ब्राझीलिपि प्रमुख अजीव केम नथी मानतो ? तथा वली श्री अंतगडदशांगमा मुलसाना अधिकारे हरिणेगमेषीनी पतिमा आराधने ते हरिणेगमेषी आराध्य हतो, तेथी ते हरिणेगमीषी संतुष्ट थयो, तेम वीतरागनी प्रतिमा आराधने वीतराग आराध्य केम न थाय ? थायज. अहींयां कोइ कहेशे के, जेम हरिणेगमेषी संतुष्ट थयो तेम श्री वीतराग पण ए दृष्टांते तो संतुष्ट थवा जोइशे. तेनो उत्तर जे दृष्टांत होय ते तो एक देशे होय, ते माटे अहींयां आराध्यरूप देश लीपो छे एटले ए भाव जे वीतराग छे माटे काइ संतुष्ट न थाय पण आराध्य तो थायज. एवं सम्यकदृष्टिए विचारवं. वली भावजिन पण आराध्यफल देछे. तेमां पण बे वात छे. जे भावजिनने देखे छे ते पण पुदलपिंड आकार रूप देखे छे, ते तो थापना छे, ए पण उडो आलोच करी विचारजो. वीजुं भावजिन छवा होय त्यांपण पोतानो भाव निमल होय तो फल आपे. जो पोताना भाव विना फल आपे तो अभव्य अने दरभव्यनेज फल आपq जोइए, ते माटे निजभाव तेज प्रमाण छे. तेम थापना जिनने विषे पण जाणवू. ___ अहींयां पोतानो भाव प्रमाण को, वेमा कोइकने आशंका उपजे के सामी वस्तु जेवी होय तेवी हो पण पोतानो भावज प्रमाण छे. तेने कहे छे के एम नहीं ते उपर गाथा कहे छे. शुद्धभाव जेहनो छे तेहना, चार निक्षेपा साचा । जेहमां भाव अशुद्ध छे तेहना, एक काचे सवि काचारे॥जि०॥तु०१२॥ ___ अर्थ-शुद्ध भाव जेहनो छे के जे वस्तुनो भावनिक्षेपो शुद्ध छे. तेहना चारे निक्षेपा साचा छे. गौतमादिकनी परे. एटले ए भाव जे गौतमजीनो भावनिक्षेपोआराध्य साचो
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दोढसो गाथातुं स्तवन छे तो नामादिक पण गौतमनां आराध्य छे. परम मंगलिकभूत छे. तथा जेमां भाव अशुद के० जे वस्तुनो भावनिक्षेपो अशुद्ध छे, तेहने के० ते वस्तुने एक काचे सवि काचा के० एक भावनिक्षेप काचे करीने चारे निक्षेपा काचा जाणवा. अंगारमईकाचार्यनी परे. म तेहनो भाव अशुद्ध छे, तो तेनां नामादिक पण परम पापरूप छे. माटे आराध्य नहीं. तेथी भाव तेहज सत्य छे. माटे पापी जीवनी अजीवस्थापना पण आराध्य नहीं. इति भाव. इति गाथार्थ ।। १२ ।।
हवे व्यतिरेक दृष्टांते साध्य साधे छे. दश वैकालिके दृपण दाख्यु, नारी चित्रने ठामे। तो केम जिनप्रतिमा देखीने, गुण नवि होय परिणामेरे । जि०॥तु०१३॥
अर्थ-जेम दशवकालिक सूत्रने विषे नारी चित्रने ठामे के० स्त्रोतुं रूप चितर्यु होय, आलेख्युं होय, तेने जोता. एटलं पद अर्थगम्यथी लेवु. दूपण दाख्यु के० कंदर्प विकार उपजे एह दोप देखाइयो छे. यतः-"चित्तभित्रिं न णिज्झाए नारी वा मुअलंकियं । भरकर पिव दट्टणं दिदि पडिसमाहरे ॥१॥" ए गाथानो अर्थ एके चित्रामणनी मिति प्रत्ये न णिज्झाए के न जोहए. तेने विषे नारी के०स्त्री प्रतिमा ते अलंकृत होय माटे एवी पत्ये न जो. विकार उपजवानो हेतु छे माटे. भरकर के० सूर्य सामु जोइने जेम दिदि के० दृष्टि संहरी लेइए, तेनी परेज चित्रामण देखीने दृष्टि संहरी लेवी. इति भाव. इति दशवकालिके दृष्टांते जिनपतिमा देखीने परिणामे के० पोताने भावे केम गुण न होय ? एटले स्त्री रूप देखी दोप कहो तो जिनमतिमा देखीने गुण केम न थाय? थायज. इति भाष ।। १३ ।। ____एतो सामान्यपणे स्थापनानिक्षेपो वंध देखाइयो. हवे जिनप्रतिमा कोणे बांदी ? ते देखाडे छे. रुचकद्वीपे एक डगले जातां, पडिमा नमिय आणंदे। आवां एक डगले नंदीसरे, वीजे इहां जिन वंदेरे ॥ जि०।। तु० १४॥
अर्थ-अहींयां जंघाचारण मुनिनो अधिकार छे. आगली गाथामां जंघाचारण एहवु पद छे. ते जंघाचरण मुनि रुचक द्वीपे के० रुचक नामा तेरमो द्वीप. मतांतरे एकवीशमो द्वीप. तेहने विषे एक डगले जातां के० एकज डग भरी उत्पत्या ते त्यां उतरया. उतरीने पडिमा नमिय के० जिन प्रतिमा, तेने आनंदे के० हर्षे नमीने, आवतां के० पाछा वलतां, एक डगले नंदीसरे के० एक डगले नंदीसरनामा आठमो द्वीप, त्यां उतरे, त्यां उतरी विसामो लइ त्यां जिनप्रतिमा वांदे. वीजे के. वीजे डगले अहींयां आवे. अहींयां जिनमतिमा वांदे. ए अहींयांना जिन ते अशाश्वती प्रविमा वांदे. एम जणाव्यु. इति चतुदेश गाथार्थ ॥ १४ ॥
वच सुरेंजश्चामीकर तस्यच . स
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(१०)
महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत.
त्रिछी गतिए भगवई भाखी, जंघाचारण केरी । पंडगवन नंदन इहां पडिमा, ऊर्ध नमे घणेरीरे ॥ जि० ॥ तु० १५ ॥
अर्थ - त्रिछी गतिए भगवई भाखी के० श्री भगवती मूत्रने विषेए तीछिंगति कही. एक वार भगवतीतुं नाम दीधुं. एटले जंघाचारण तथा विद्याचारणनो अधिकार सघलो भगवतीसूत्रमां छे, एम समज. जंघाचारण केरी के० जंघाचारणनी तिरछी गति कही. हवे ऊर्ध्वलोकनी बात कहे छे. एक डगले उंचा मेरुपर्वतने माथे पंडक वन के० पांडुकवनने विषे जाय. त्यां चैत्यवांदे. त्यांथी पाछा चलतां एक डगले नंदन के० नंदनवन संभूतला पृथ्वीथी पांचशे योजन उच्चु छे, त्यां आवे. त्यांनां चैत्य वांदे. त्यांथकी बीजे डगले इहां पडिमा के० अहींयां धरती उपरे अशाश्वती प्रतिमाने वांदे. एम ऊर्ष नमे धणेरी के० ऊलोके धणी प्रतिमा वांदे. इति पंचदश गाथाये ॥ १५ ॥
वे विद्याचरण मुनिनां संबंध कहे छे.
विद्याचारण ते एक डगले, मानुषोत्तरे जाय।
वीजे नंदीसरे जिनप्रतिमा, प्रणमी प्रमुदित थायरे ॥ जि० ॥ तु० १६ ॥
अर्थ - विद्याचारणमुनि ते प्रथम एक डगले मानुषोत्तरे जाय के० अढीद्वीपनी मर्याढा करीने रह्यो एवो जे मानुष्योत्तर पर्वत ते पर्वते जाय. त्यांनां चैत्य वांदे. त्यांची वीजे के० वीजे डगले नंदीश्वर द्वीपे जाय. त्यां जिनमतिमा प्रत्ये प्रणमी के० प्रणाम करीने प्रमुदित थाय, एटले हर्षवंत थाय. इति गाथाये ॥ १६ ॥
तिहांथी पडिमा वंदन कारण, एक डगले ईहां आवे ।
ऊर्धपणे जातां वे उगले, आवतां एक स्वभावेरे ॥ जि० ॥ तु० १७ ॥
अर्थ - विहांथी के० ते नंदीसर द्वीपथी, पडिमावंदण कारण के० प्रतिमा वंदणने हेतुए एक डगले ईहां आने के० एक उत्पाते अहींयां आवे आवीने अहींयांनां चैत्य वांदे. ए तीर्च्छा लोकनी बात कही, हवे ऊर्धलोकनी बात कहे छे. कर्वलोके पण जातां वे डगलां अने आवतां एक डगलं. एटले ए भाव जे जातां एक डगले नंदनवने जड़ने चैत्य वांदे. अने बीजे डगळे पांडुकवने जड़ने चैत्य वांदे. त्यांथी एक डगळे अहींयां आवी अहींयांनी प्रतिमा चांदे . स्वभाव के० ए गतिना ए स्वभाव छे. वचमां वीजा विसामा करी शकाय नहीं. इति भाव. इति गाथार्थ ॥ १७ ॥
वे पूर्वे भगवती सूत्रमां ए पाठ छे. एवं तो कह्युं इतु, पण कीए ठामे छे ? ते कहे छे. शतकवीशमे नवम उद्देशे, प्रतिमा मुनिवर बंदी | इम देखीजे अवला भांजे, तस मति कुमति फंदीरे ॥ जि० ॥ तु० १८ ॥
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"दोसो गायानु स्तवन
(११) 'अर्थ-शतक वीशमे नवम उद्देशे के० शतक बीशम अने उद्देशो नवमो, तेमा प्रतिमा मुनिवर वंदी के० मुनिराजे प्रतिमा ए रीते वांदी छे. इम देखी के. एवो पाठ देखीने, जे अवला भांजे के. जे प्राणी अवला वांका जाय छे. तस मति के तेओनी जे बुद्धि, ते कुमति फंदी के० कुगुरुनो भोलवी थकी कुमतमा फंटाई रहे छे. एटले जो मिथ्यात्वने जोरे कुमति फंदमां पच्या छे, तो एवा प्रगट पाठ देखीने पण अवला मांजे छे. कुमतिनो जालमां गुंथाय छे. इति भाव ॥ इति गाथार्थ ॥ १८ ॥
हवे ते पाठ लखे छे. "कइ विहाणमंते चारणा पन्नत्ता! गोयमा! दुविहाचारणा पनचाजहा विज्जाचारणा यजंघाचारणा यासे केगटेणं भंते!एवं वुचइ विजाचारणागोयमा!छटै छट्टे'णं अणिक्खित्तेण तवोफम्मेणं विजाए उत्तरगुणलद्धि खममाणस्स विजाचारणलद्धी नाम लद्धी समुप्पज्जइसे तेणट्रेणं नाव विज्जाचारणा। विजाचारणस्स णं भंते'कहं सीहागई कहं सीहे गइविसए पाचेगोयमा!अयणं जंबुद्दीवे दीवे जाव किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं,देवेणं महिदीए जाव महासोक्खे जाव इणामेव तिकडुजंबुद्दीवं दीवं तिहिं अच्छिराणिवाएहि तिक्खुत्तो अणुपरियहित्ताणं हन्धमागच्छेजा, विज्जाचारणस्सणं गोयमा तहानीहागई तहासीहे गइविसए पाते। विज्जाचारणस्सण मैते! तिरिय केवइए गइविसए पन्नी गोयमा सेणं इतो एगेणं उप्पाएणंमाणुमुचरे पव्वए समोसरण करेइ,करेइत्तातहि चेइयाई वंदइ.वंदइत्ता वीएणं उप्पाएणं 'नंदीसरवरदीवे समोसरणं करेइ, करेइत्ता तहिं चेइआई चंदइ, वैदइत्ता तो पडिनियत्तइ, पडिनियत्तइत्ता इहमागच्छइ, इहमागच्छइत्ता इह चेइआई वंदइ, विजाचारणस्स णं गोयमा! "तिरिय एवइए गतिवसए पन्नत्ते। विजाचारणस्स णं भंते ! उड्ढें केवइए गतिविसए पन्नते? गोयमा ! से गं इतो एगेणं उप्पारणं नंदणवणे समोसरणं करेइ, करेइत्ता तहिं चेइयाई वैदइ, वंदइत्ता वितिएणं उप्पारणं पंडगवणे समोसरणं करेइ, करेइत्ता तहिं चेइयाइ वैदइ, वैदइत्ता तओ पडिनियत्तइ, पडिनियत्तइत्ता इहमागच्छइ, इहमागच्छइत्ता इह चेइआई वैदइ । विजाचारणस्स णं गोयमा ! उई एवइए गतिविसए पनचे । से णं तस्स ठाणस्स अणालोइअपडिकंते कालं करेइ नत्थि तस्स आराहणा । से णं तस्स गणस्स आलोइय पटिकते कालं करेइ अत्यि तस्स राहणा । से केणट्रेणं भंते ! एवं बुचइ जंघाचारणे? गोयमा ! वस्स णं अट्टमं अष्टमेणं अणिक्खियेणं वबोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणस्स जंघाधारणलद्धीनाम लदी समुप्पज्जइ, से तेणट्टेणं एवं बुच्चइ जंघाचारणे । जंघाचारणस्सणं भंते! कह सीहागई कह-सीहे गइविसए पन्नती गोयमा ! अयणं जंबुद्दीवे दीवे जहेव विजाचारणस्स णवरं तिसत्तक्खुत्तोअणुपरियत्तिाणं हब्वमागच्छेजा। जंघाचारणस्स ण गोयमा ! सहा सीहागई तहासीहे गइविसए पन्नत्ते, सेसं तं चेव । जंघाचारणस्सणंभंते! तिरियं फेवइए गतिविसए पनी गोयमा! सेणं इतो एगेणं उप्पारण रुअगवरे दीवे समोसरणं करेइ, करेइत्ता तहि चेइंआई वंदइ, चंदाचा तो पडिनियतमागे वीइएग उप्पाएगं गंदोसरे दीवे समोसरगं
वच सुरेंजश्चामीकर तस्यच तथाल.
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(१९) महामहोपाध्याय श्री पशोविजयणी कृत. करेइ, करेइना नहि चेहई वंदइ, बंदरता इहमागच्छइ इह चेइयाई बंदइ, जंघाचारणसणे गोयमा तिरिय एवइए गतिविसए पन्नते। जंघाचारणस्सगंभंते! उई केवइएगइविसए पनचा गोयमा से ण इतो एगेणं उप्पाएणं पंडगवणेसमोसरण करेइ,करेइत्ता तर्हि चेहयाई वंदइ, बंदइतातो पडिणियतमाणे विविएणं उप्पारणं नंदणवणे समोसरण करेइ,करेइत्ता वहि चेइयाई पदइ, बदइत्ता इहमागच्छइ, इहमागच्छइचा इह चेइयाई वंदइ, जंघाचारणस्स गोयमा! उई एवइए गविक्सिए पनचे । से णं तस्स ठाणस्स अणालोइअपडिकवे कालं करेइ नत्थि तस्स आराहणा। सेणं तस्स ठाणस्स आलोइअपडिकते कालं करेइ अत्यि तस्स आराहणा। सेवं भंते सेव भते जाव विहरह" इति भगवती सूत्रे शतक वीशमे उद्देशे नवमे ए पाठ छे.
हवे कुमति नवनवा अभिप्राय लावी ए आलावानो अर्थ मरडे छे. ते प्रगट फरी दूपवे छे. अहिओ इंढक कहे छे जे-चैत्य शब्दे अमे जिनमतिमा नयी मानता भने एम करता तमे चैत्य शन्दे जिनविमा कहो छो तो कहो, पण ते वांदतां लाभ होव तो सूत्रमा "तस्स गणस्स अणालोइम" इत्यादिक पाठे केम कडा जे ते स्थानकने अणालोए, अण पडिकमे काल करे वो विराधक थाय ? इति तेनो उचर कहे के जे
आलोअणY ठाण कमु जे । तेह प्रमाद गति केरो॥ तीर गति जे जात्र विचाले । रहे ते खेद घणेरोरे जि० तु०।१९।। अर्थ-वे ठाणर्नु आलोअण कयु के वे स्थानक जे चैत्यवंदनामां प्रमाद स्थानक तेहत जे आलोववं, तेज देखाडे छे. ते प्रमाद गति केरो के० प्रमादे गति करी वेनुं आलोवबुं छे जे कारण माटे लब्धि उपजीवन ते प्रमाद गतिछे. कोइ पूछे जे-ते गणनुं आलोअण कधु एहवी अनवय क्याथो का ? तेने कहोए छैए जे-"तसरा गणस्स - णालोइअ." इत्यादिक सूत्र पाठ थकी एवो अन्वय कर्या इति. तथा वली प्रमाद स्थान बीजं देखाडे छे. वीर गति के तीरना वेगनी पैरे उतावली गतिए जे चाल्या जाय, ते जाता थका जाब विचाले के वचमां तीर्थयात्राप्रमुख शाश्वतां देहेराममुख रहे के० रही जाय छे. ते खेद घणेरो के० घणो खेद चित्तमा उपने छे. एटले तीरना वेगनी परे गया ते आलोषण सानक कहीए. इति भाव ।। इति एकोनविंशतितम गाथार्य ॥ १९ ॥ __ हवे आलावानो अर्थ-'कइविहाणे के केटला मकारना हे भगवन्, चारण पनि कया छ? प्रभुनी कहे छे हे गौवमा चे प्रकारना चारणमुनि छे. "तं जहाँ इत्यादिक ते कहे छे. गक विद्याधारण बीजा जंघाचारण. 'से केणष्टेणं' के शा कारणथी वियाचारण ? प्रभुनी फहे छे. हे गौतम छट छट्ट ने 'अणिश्विनेने में अविश्रामणे एटले निाना तप करतां 'विजार के विधाएं करा पूर्वगत त विशेषे कगने उनरगुनलाग्यममाणस के पिंड विशुद्धयादिकने विषे तप, वेडने खमना-सहेता पटले तप करता इतिभाव विधाचारणब्धि उपजे छे. 'से तेणटेणे' के ते कारण विद्याधारणकहीए. ह खामिन् , विषाचारणनी 'कई
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दोडसो गायाई खपन.
(१३)
सीहा गई के केवी शीघ्रगति छ? 'कह सीहे गइत्रिसए' के शीघ्रगति विषय केवोछे एटले गमन पिना पण शीघ्रगति विपय केटलं खेत्र छे? इति भाव. प्रभुनी कहे छे. हे गौतम! अयणं के० आ जंबूद्वीप लाख योजननो यावत् ३१६२२७ योजन, ३ गाउ, १२८ धनुष्य १३ अंगुल झाझरां. एटकी परिक्खेवण के० परिधि छे. महर्दिक यावत् महावृखनो घणी देवता त्यां अच्छराणिवाएहि के० अण चपटी वगाडीए एटली वारमा सिक्खुत्तो के. प्रणवार जंबुद्वीप फरी आवे. विद्याचारणनी एची शीघ्रगति छे. एवो शीघ्रगतिनो विपरछे. ए सामान्य प्रकारनी गति कही. हवेत्रिछी गति विषय पूछेले. 'विजाचारणस्सणं' इत्यादिक मुगम छे, 'तिरियं केवडए गइविसए केत्रिछी गतिनो विपय केटलो है? प्रभुजी कहे छे. हे गौतम-'एगेणं उप्पारण' के एक डगले 'माणुसुत्तरे पन्चए' के०मानुपोत्तर पर्वतने विषे 'समोसरणं' के समवतार करे. करीने 'तत्य चेइयाई वंदई' के त्यहां चैत्य वांदे. 'बितीएणं उप्पाएणं' के० वीजे डगळे 'नंदीसरवरदी' के नंदीश्वर द्वोपने विषे 'समांसरगं करेई के० समवतार करे. करीने 'वहिं चेइआई वंदई के त्यां चैत्यने बांदे. 'ततो पडिनियचई के. त्यांथी पाछा निवते. 'इहमागच्छई के. अहींयां आये. इह चेइआई बंदई के. अहीयानां चैत्य चांदे, 'विजाचारणस्सणं गोममा! तिरियं एवइए गतिविसए' के हे गौतम वियाचारणनो त्रिछी गति विषय एटलोछे. 'विद्याधारणस्स णं उड् केवइए गइ विसए पभा के० ते विद्याचारणनो ऊर्ध्वगति विषय केटलो के ? मभुजी कहे छे. हे गौतम 'सेणं' के० ते, 'इतो' के० अहीयांथी, 'एगेणं उप्पारणं नंदणवणे समोसरण करेई के० एके डगळे नंदन बनने विषे समवसरण करे, करीने 'तहिं चेइआई वंदई' के. त्यां चैत्य वांदे, विवीएणं उप्पारण' के. वीजे डगले, 'पंडगवणे के पांडुकवन मेरने मस्तके समवसरण करे. 'वहि चेहआई चंदई के० त्यहां चैत्य वांदे. 'ततो पडिनियतई के त्यांची पाछा निवर्ते. इहमागच्छई के अढ़ियां आवे. 'इह चेडआई चंदई के अहीयांनां चैत्यवांदे. 'विजाचारणस्सण' इत्यादि सुगम छे. 'सेणं तस्स ठाणस्स' के०ते स्थानकने एटछे लब्धि फोरवी ते स्थानकने, 'अणालोइअपडिकते' के० अणालोए, अणपडिक्कमे, 'कालं करई' के काल करे. तो 'नत्थि तस्स आराहगा' के आराधना तेने नयी. 'सेणं तस्स ठाणस्स' के० ते स्थानकने, 'आलोइअपडिकते कालं करई के आलोचीने अने पडिकमीने काल करे वो 'अत्यिवस्स आराहणा' के० तेने आराधना छे. एट ए भावार्थ लब्धि उपजीवन ते प्रमाद रे. ते प्रमाद आलोया विना चारित्रनी आराधना न थाय. अने विराधक चारित्रनुं फल नपामे. 'से केणगं भंते' इत्यादिक जधाचारणना आलावानो पण एज अर्थ छे, पण एटलो फेर छे के अट्टम अनुमनां पारणां करता ए लब्धि उपजे । 'जंघाचारणसण भंते कह सीहा गई। इत्यादिक पण विधाचारणनी परे छे. पण एटल्लो फेर जे कोइ देवता 'तिसत्तक्खुत्ता' के. एकवीसवार जंबूद्वीपने फरी आवे, एबी शीघ्रगति जंघाचारणनी छे. 'जघाचारणस्स ण भते विरियं' इत्यादिक मुगम के, पण एटलो फेर जे 'सेणं एगेणं उप्पाएणं रुअगवरेदीवे समक्स
वच सुरेंजश्चामीकर तस्यच तथास
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महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. रणं करेई' के एके डगले रुचकवर जे तेरमो द्वीप तेने विषे समवसरण करे. करीने 'तहिं चेइआई चंदई त्यहां चैत्य वांदे, वांदीने 'तो पडिनिअत्तमाणे के त्यांची पाछा निवर्तता वितीएण गंदीसरवरे दीवे समवसरणं करेई के नंदीश्वर द्वीपने विषे समवसरण करे. 'तहि. चेइशाई वंदई के• त्यां चैत्यने वांदे. इहमागच्छई' के अहिंआं आवे. 'इह चेइआई वंदई.' के० अहिंयां चैत्य वांदे, जंघाचारणनो ऊर्ध्वगति विपय एटलो छे. यावत् संपूर्ण लगी मुगम छे. 'सेवं भंते' के गौतमस्थामो कहे छे. ॥ वहचि इति । अहींयां विद्याचारणने जा बे डगले अने आवई एक डगले, तथा जंघाचारणने जावु एक डगले अने आवq ये डगले, ते लब्धिनो स्वभाव छे. तथा कोइ कहे छे के, विद्याचारणने आवतां विद्या स्पष्टतर थाय, माटे एक डगले आवे. अने जातां तेवी न होय माटे वे डगले जाय. अने जंघाचारणने लब्धियी उपजे. माटे आनतां अल्प सामर्थ होय, तेथी आवतुं वे डगले अने जावू एक डगले. इति इति.
हवे ते आलोवचा उपर सिद्धांतसाखे दृष्टांत कहे हे. करी गोचरी जिम आलोए । दशवकालिक साखे ।। तिम ए ठाम प्रमाद आलोए । नहीं दोष ते पाखेरे ॥ जि० तु०२०॥
अर्थ-करी गोचरी के० गोचरी करीने जेम उपाश्रये आगीने साधु पद अर्थापत्तीए लइए. ते साधु. जिम आलोए के० प्रमादने मालोवे छे, पण नहीं दोष ते पाखे के० ते. प्रमाद विना बीजो दोप नथी. इति अक्षरार्थ. भावार्य तो एछे के श्रीदशवकालिके एम कडं जे, साधु गोचरी करी आवीने गुरु पासे आलोवे. ते भली रीतेन आलोयुं होय वो फरी पडिकामे. एम कवं. तेमा ए पडिकम्युं ते दोष लाग्यो तेने पडिकम्यु पण गोचरी करी ते पडिकम्यो नथी, तेम अहींयां पण पैत्यवंदना पडिकमो नथी. दोष लाग्यो ते पडि. कम्यो छे. इति भाव. एटले कोई पूछे जे-आलोया पडिकम्या विना काल करे तो विराधक थाय, एम क श्रीभगवतो सूत्रमा तेहनो शो जवाब वाल्यो?" तेने कहिए.जे हे देवाणु प्रिय, अमे जवाब वाल्यो, पण तु भलो समज्यो नथी. फरी सांभल..गोचरी करीने साधु, उपाश्रये आवतां मार्गमध्ये आलोया पडिकम्याविना काल करे तो आराधक कहीए, किंवा चिराधक कहीए? ते विचारी जोजो. यतः श्रीदशवकालिके पंचमाध्ययने।। "विणएणं पविसित्ता सगासे गुरुणो मुणी। इरियावहियमादाय, आगओ अ पडिक्कमे ॥१॥ आभोदत्ताण णीसेसं अइयारं जहकमं । गमणागमणे वेव भचपाणे असंजये ॥२॥ उज्नुपनो अणुन्दिग्गो, अन्वक्खितेण चेअसा । आलोए गुरुसगासे, जं जहा गहियं भवे ॥३॥ण स
मनालोइयं हुजा, पुदिपच्छाविजं कहं । पुणो पडिकमे तस्स वोसिंट्रो चिंतए इम||४अर्थ. 'विणएण' के विनय करी, 'पविसित्ता' के पेशीने, सगासे गुरुणो केन्गुरुनी समीपे 'मुणी'
के मुनि, 'आगओ एटले आन्यो थको, 'दरियावहीय पदिकमे के दरियावही पडिकमे.
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दोदो गावातुं स्वजन,
( १५९) 'आदाय' के ग्रहीले. १ पछी काउस्सग्गमांहे, आभोत्ता के उपयोग - देइने, नीसेस के ? - सघलाए, 'अइय़ारं' के अविचारने, 'जहकमं' के यथा अनुक्रमे अतिचारने चिंतचे. 'गमणागमृणे'-के०जातां आवतां; 'चेव के: निश्चये 'भत्तपाणे अ' के भात पाणीने विषे, 'संजयमुक्ति. २ 'उज्जुपन्नों' के सरल - १ज्ञावालो, 'अणुव्विरगो के उद्वेगरहित, 'अव्वक्खितेण - चे: असा के० सावधान- मने करी काउस्सग पारीने, 'आलोए, गुरुसगासे के गुरुनी 'समोपे आलोए, 'जं- जहा- गहियं के०जे जेम लीधो होय ते तेम.. ॥३॥ एम. करतां कदाचित्- '-- सम्ममालोइयं-हुज्जा- के० रुडी पेरे आलोयुं न होय, पुर्वि पच्छावि-जं कर्ड के० पूर्वे आ-हारादिक, होय ते पछे कहेवाणु होय, अथवा पछी ग्रधुं - होय ते पूर्वे कहेवाणं होय, 'जं-कड' के० जे-एम- कीधां तथा पूर्व कर्म दोष पश्चात् कर्म दोष लाग्या होय, तेनेः, 'पुण्ो परिक्रमे- के? फरी - परिकमे तस्स के ० ते सूक्ष्मअतिचारने, वोसिद्धो. के० ते कायाने वोसिरावी, चिंतए इमं के एम चिंतवे.- ए- चार गायानो अर्थ
हवे एवो भगवतीसूत्रनो पाठ सांभलीने कुमतिं बोल्यो: कहे कोइ 'ए कहेवा मात्रज | कोई न गयो नवि जाशे ॥ "
नहीं तो लवणशिखा मांहे जातां । केम आराधक थाशेरें ? ||जि० तु० २१|| अर्थ- कोइक कुमति एम कहे छे जे कहेंबामात्रज के० ए भगवतीसूत्रमां चारणऋषितुं नाम देने पण वे- कहेनारूप जाणवुं. पण कोइ न गयो- के० एरीते कोइ अती काले गयो नथी, तथा नवि जाशे के० अनागत काले कोइ जाशे पण नहीं. नेनो हेतु कुमति देखाडे छे. नहीं तो के' जे में कहां तेम न होय तो लबणशिखामां जातां के० लवणसमुद्रंनी शिखामां थइने जातां केंम आराधक याशे के० अपकायनी विराधना करी ने जतां आराधक कैम थाशे ? इति गाया अक्षरार्थ. हवे भावार्थ कहे छे, जे जंबूद्वीपने पछवाड़े वे लाख योजन एक दिशाए पहोलो एवों चारे दिशाए फरतो लवणसमुद्र छे,ते लवणमां सोल हजार योजन पाणी उंच चोफेर छे, ते पाणीमाथी थईने मुनि केज जाय ? अने जाय तो आराधक केम थाय ? तथा बीजों कोई मार्ग 'जवानो, नथी, ते माटे कहीए छैए के चारणमुनिनी बात ते भगवतीसुत्रमां कहेवारूप छे, पण करवारूपं नयीं ॥२१॥ - तिने आगली, गाथामा उत्तर दे सन्तर: सहस्त जोयण- जई. उंचा। चारण- ती चाले || समवायांग प्रगटः पाठ ए । शुं कुमति भ्रम घालेरे ? || जि० तु० २२ ॥
?
•
अर्थ - सत्तर- सहस्स जोयण के सत्तर हजार योजन, जई उँचा के० उंचा जईनें, चारण ती चाले के० ते चारणमुनि ती जाए छे. एम. ए. रीते श्रीसमवायांगसूत्रम मगट पाठ' छें, तो कुमति भ्रम घाले के० हे कुमति, कुत्सितं मतिना धर्णी भोला लोकने
...
वच सुरेंद्रश्चामी
स.
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महामहोपाध्याय श्री यशोविजयंजी कत.
खोटी खोटी बातो कही भ्रम घाछे छे ? संशयमां | पाडे छ? जे तु कहेछे तेम कहेवा मात्र होय तो समवायांगमूत्रमां एवो पाठ केम कहे ? इति भाव. यथा-" लवणेणं समुहे सत्तरजोयणसहस्साई सन्बग्गेणं पन्नत्ता। इमीसेणं रयणप्पभाए पुढवीए षड्समरमणिजाओ भूमिभागाओ साइरेगाई सत्तर जोयणसहस्साई उड्ढे उप्पडता तओ पच्छा चारणाणं तिरिपगई ॥” इति समवायांगे ॥ एनो अर्थ-लवणसमुद्र 'सत्तरजोयण सहस्साई के०सचर हजार जोजन 'सन्नग्गेगे' के सर्व थइने कयो छे. एक हजार उंडो, सोल हजारनी उपर शिखा. एवं १७००० 'इमीसेणं रयणप्पभाए पुढवीए' के०ए रत्नममा पृथ्वीथकी 'बहुसमरमणिजाओ भूमि भागाओं' के० घणी सरखी एटले वरावर रमणीक भूमि भाग थकी, एटछे मेरुनी धरतीयकी, 'साइरेगाई सत्तरजोअणसहस्साई उद उप्पइत्ता के सचरहजार जोजन शारा ऊर्ध्व जईने पच्छा केपछी 'चारणाणं तिरियगई के चारणमुनिनी नीला गति प्रवते. ते माटे भगवतीमूत्रनो पाठ करवारूप छे, पण कहेवारूप नयी. इति भाव. इति द्वाविंशतितम गायार्य ॥२२॥
हवे ए आलावामा चेइआई वैदे का, ते उपर कुमति चैत्यशब्दनो अर्थ ते ज्ञान कहे छे. तेह आशंका लावीने उत्तर वालवा गाया कहे हे.
चैत्यशब्दनो ज्ञान अरथ ते । कहो करवो कुण हेते ॥ ज्ञान एक ने चैत्य घणांछे । भूले जड संकेतरे | जि. तु० २३ ॥
अर्थ-चैत्य शब्दनो जे ज्ञान अर्थ करो छो, ते शा हेतुए करयो ? पाघरो अर्थ चैत्य के जिन घर अयवा जिनपतिमा. यतः-"चैत्यं जिनौकस्तदिवं चैत्या जिनसभातरुः ॥" इत्यनेकार्य संग्रहे एवो अर्थ मूकीने चैत्य के ज्ञान एवो अर्थ शा माटे फरवो पडे है? इति मात्र ज्ञान एक ने चैत्य घणां छे के० जान तो एक छे, अने चैत्य घणां छे, तेमाटे भूले के० ते अर्थ करतां भूले छे. शामाटे भूले छे? ते कहे छ. जडसंकेते के० मूर्खसंकेते, एटले शुद्ध गुरु परंपरा आवी होय तो निपुण संकेत होय, पण निगुरुना संकेत ते मूर्खज होय. इति गाया अक्षरार्थ. अथ भावार्य. ते कुमति एम कहे छे जे, “विद्याचारण जंघाचारण मुनिए नंदीवर प्रमुखनी वातो सिद्धांतमा सांभली ते सांभली हृदयमा कौतुक उपन्यु, जे ए बात केम हशे ? आपणी नजरे जोइए." एम विचारीने नंदीश्वरादिकने विषे जोया गया. त्यां जेम आगममां सांभल्युं तेम नजरे दीडं, ते वारे प्रभुना ज्ञानतुं बहुमान भाख्यु जे “धन्य प्रभुना मानने" एम कहीने प्रभुना ज्ञानने पगे लागे. चेइआई बदइनो ए अर्थ छ, एम कुमति कहे छे. नेनो उत्तर वाल्यो जे, मूर्ख व्याकरण प्रमुख भण्या विना शुं समजे? चेइआई के चैत्यानि ते द्वितीया बहुवचन छे, हवे जो ज्ञानने पगे लाग्या होय तो बहुवचन सूत्रकार शाने माटे कहे? ज्ञान तो एक छे. एवी वातो मूर्ख 'जाणे? इवि.
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दोडसो गायातु स्तवन.
( -१७ )
astri केटलीक वातो स्तवनमां नयी आणी, पण कांईक विशेष बात लखीए छैए. त्यां जड़ ज्ञानने पगे लाग्या, एम कहे तेवारे वाटमां जातां चमत्कार उपजे एवा पहाड पर्वत समुद्र प्रमुख घणा आव्या हशे, तो तेने देखीने मथुना ज्ञानने वंदना कां न करी ? ते विचारजो. वली एम चैत्यशब्दे ज्ञान कहीए तो 'नाणं पंच विहं पचत्तं ॥' इत्यादिक, सूत्रमां ज्ञानना आलावा धणा छे. त्यां सघले 'चेहयं पंच विहं पन्नत्तं । आभिणिबोहियचेयं, सुयचे, ओहिचेयं, मणपज्जवचेइयं, केबलचेइयं इत्यादि पाठ लखत, पण ते तो क्यांए दीसता नथो, तथा वली एवो अर्थ करे जे, आगममांथी बात सांभली निर्णय करवा गया, ते वारे शंका तो हृदयमां ठरी अने जिन वचनमां शंका उपजे, ते वारे साधु पणु केम रहे ? यतः - ' पयमक्खरंपि एक पिजोन रोएइ सुतनिद्दिनं । सेसं रोयंतो वि हुमिच्छदिट्ठा जमालि व || २ ||" ते माटे मूर्ख संकेतनो अर्थ छांडी निपुण संकेत अर्थ करीए तो सर्व समुं थाय. ए जवावना उचर घणा छे, तेहनो खप होय तो प्रतिमाशतक ग्रंथ उपाध्यायजीनो करेलो छे ते जोज्यो ए विस्तारे सर्यु ॥ २३ ॥
"
•
हवेली कुमति एम कहे छे जे, " चैत्य के० प्रतिमा हो तो पण भले हो पण ते शाश्वती प्रतिमा हती अने तमे तो अशाश्वती मानो छो." एम कहेनारने, एज आलावा - मांथी अशाश्वती देखाडे छे.
रुचकादिकना चैत्य नम्या ते । सासय पडिमा कहिए ||
जेह इहांना तेह अशाश्वत । बेउमां भेद न लहिएरे || जि० तु ० २४||
अर्थ-रुचकादिकना के॰ रुचक आदि देई. आदि शब्द थकी नंदीश्वरादिक लइए. ते चैत्यने मुनि जे नम्या ते सासय पडिमा के० ते शाश्वतीमतिमा कहीए तथा जेह इहांना के० अत्रे भरतनां चैत्य वांद्यां. 'इह चेइआई बंदर चि' पाठात् ॥ ने अशाश्वतां जाणयां. ते माटे मूर्ख होय ते शाश्वतीमां अने अशाश्वतीमां पूज्यापूज्यनो फेर पाडे. तेज मोटे आगल कहेवाशे जे द्रोपदीनो अधिकार, तेमां केवल अशाश्वतीनेज पूज्यपणु कर्तुं छे, ra fart कही बोलाव्युं छे, ते कारणे बेउमां भेद न लहीए के० शाश्वतीमा भने अarraani अंश मात्र भेद नथी. इति गाथार्थ ॥ २४ ॥
वे अधिकार पूरो थयो माटे उपसंहार करे छे.
ए
जे उपर साहेब तुज करुणा । शुद्ध अरथ ते भाखे ॥
तुज आगसनो शुद्ध परूपक । सुजश अमियरस चाखेरे ॥ जि००२५||
अर्थ- जे उपर सादेव तुज करुणा के० हे साहेब, जे प्राणी उपर तमारी करुणा एटले कृपा छे, शुद्ध अरथ ते भापं के० ते प्राणी यथार्थ व्याख्या कहे. अहींयां ए व्याख्याए, एक उपर करुणा छे अने एक उपर करुणा नथी एवो अर्थ थाय, ते बीतरागने केम घटे?
वच सुरेंद्रश्चामीकर
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(१८) महामहोपाध्यायामाग्यशोवनपणी त. अत्र उत्तरः जेम-एक वापना वे दीकरा होय, पापर्नु वे बेउ उपर हेत-सरखुन्छे, पण एक आज्ञाकारी छे, बोजोआज्ञाकारी नयी-तेमां जे आज्ञाकारी छे ते उपर हेत, लोक प्रगटपणे देखे छे, अने जे आज्ञाकारी नयी ते उपर यधपि पिवानुं हेत-छे, तोपण 'लोको -ते प्रगटपणे देखता नयी, तेम अहींयां पण तीर्थकरने यद्यपि सर्व प्राणीभी उपर करुणा के, पण जेओ आणाना आरायक-डे तेयो उपर अगटपणे दीसेछे, ते माटे एम-कलं. जे उपर साहेब इत्यादि० अहींयां सर्वया करुणा नयी एम कहेछे ते निवार, जेमाटे चीरस्वामिने छमस्थपणे भगवतीना शतक पभरमानी वृत्ति मध्ये श्रीअभयदेवदारिजीए-लरल्युं छे जे ॥ 'स्नेहगर्भानुकंपा सद्भावात्' ।। ते चारे केवलीने स्नेहरडिन-अनुकंपा ठरी, अन्यथा स्नेहगर्भ पदनुं / प्रयोजन ? इत्यादिक-बहु चर्चा-छे, ते ग्रंय-वचे माटे नयी लखता. ते भाटे तुज आगमनो जे शुद्ध परूपक होय ते पाणी मुजश के० भला यशरूप, अमियरस-के० अमृतनो रस ते चाखे के० आखाद करे. एटले कविए पोवानुं नाम पण सूचव्यु. इति पंचविंशति गाथार्थ ।। २५ ॥ ए प्रयम दाल -थयो. या ग्रंय ४७३ अक्षर १४. __ हवे बीजो दाल कहे छे. तेहनो संबंध जे प्रथम ढाले प्रतिमा स्थापन करीने प्रतिमाने वंदना कही, हवे केटलाक मूढ एम कहे जे जे “प्रतिमा बांदीए प्रण.पूजीए नहीं." तेमने समजाववा माटे वीजो दाल कहे छे. तेनी प्रथम गाथा.
__महाविदेह-क्षेत्र-सोहाम[-ए देशी ॥ तुज आणा मुज-मन वसी, जिहां-जिनप्रतिमा सुविचार लालरे । रायपनेणी सूत्रमां, सूरिआलतणो अधिकार लालरे-॥-तुज० १॥
अर्थ-तुज-आणा के तमारो जे आज्ञा,-मस्तास्थी चीरनी-जे-आज्ञा-ते-मुन मन वसी के० महारा चित्चने विषे रही छे. -एटले-श्रीजिनशासन मांहे आज्ञाए धर्म छे पण आजाग्राहमा युक्ति न करवी एम देखाइधु. ते आज्ञा केवी छे ? जिहां-जिनप्रतिमा सुविचार के०जे आनामां जिनप्रतिमानो-भलो विचार के-तेहिज आगम-साखे देखाडे-छे. -रायपसेणी सूत्रमा के रायपसेणी नामे वीजु उपांग, तेमा सूरियाभतणो-अधिकार-के.
भि नामे देवता जे परदेशी राजानो जोव प्रथम देवलोके उपन्यो तेनो अधिकार विस्तारे थे, एटछे ए-अर्थ जे सूर्याभ देवताए प्रतिमानी पूजा करो,-तेनो विस्तारे अधिकार ले. इति भाव इति प्रथम गाथार्य ॥१॥
वेहिल विस्तारें देखाडे . ते सुर अभिनत्र-उपन्यो, पूछे. सामायिक देव; लालरे। • शुभुज-पूरव-ने पछी, हितकारी कहो ततखेव; लालरे ।। तुज०२॥
___ भर्य-ते भर के० ते देवता अभिनव उपन्यो के नवों जे वारे उपन्यो तेवोरे पूरे
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दोढसो गाथा स्तवन सामानिक देव के० सामानिक जे पोताने सरखी ऋद्धिना धणी ते देवताओने पूछे छे. | मुज पूरव ने पछी हितकारी के० महारे पूर्व अने पछी हितकारी आ-विमानमांशु छ? ते कहो ततखेव के तत्काल कहो. इति द्वितीय गायार्थ ॥ २॥
ते कहे एह विमानमां, जिनपडिमा दाढा जेह; लालरे । तेहनी तमे पूजा करो, पूर्व पच्छा हित एह; लालरे ॥तुज०॥३॥
अर्थ-ते कहे के० हवे ते देवताओ उत्तर कहे छे जे, एह विमानमां के एजें आ पत्यक्ष विमान तेहमां, जिनपडिमा दाढा जेह के० जिनेश्वरनी प्रतिमा छे, तथा जिनेश्वरनी दाढाओ जे छे, तेनी तमे पूजा करो. इति स्पष्टं ।। पूर्व पच्छा हित एह के पूर्वे तथा पछी, जिनप्रतिमा तथा जिनदाढा ए वे वस्तुनी पूजा, तेज हितकारी छे. एरीते सामानिक -देवताए उत्तर वाल्यो. इति तृतीय गाथार्थ ॥ ३ ॥
अहियां जिनदाढा शब्दे जिनअस्थि जाणवां. अन्यथा सूर्याभदेवना.विमानने विष जिनदादा संभवे नहीं. जे कारण माटे, एक सौधर्मंद्र, बीजो इशानेंद्र, बीजो चमरेंद्र, अने चोथो वलींद्र, ए चार इंद्रनेज दाढा लेवानो अधिकार छे, एटला माटे जंबूद्वीप पमचिनी वृत्तिमां शांतिचंद्र उपाध्यायजीए जिनसकहा शब्दे ॥ जिनास्थिनी ॥ एवं लख्युं छे. जेम अहियां रायपसेणीमां पण ||सकहा।। एवोज पाठ छे. ते मारे दादा शब्दे अस्थि कहिए. इति भाव. तथा पूर्व पच्छानो अर्थ पोतेज अनेक रीते करशे. माटे अमे नथी लख्यो.
एप्रण गाथा कही तेमां सूत्र पाठ हतो, ते प्रमाणे गाथामां अर्थ बांध्यो. तथा च सत्सूत्रं "तएणं तस्स सूरियामस्स देवस्स पंचविहाए पज्जत्तिए पज्जत्तिभावं गयस्स समाणस्स इमेयारूपे अज्झथिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था । किं मे पुब्धि करणिजं? किं मे पच्छा करणिज? किंमे पुब्धि सेय? किं मे पच्छा सेय? किं मे पुन्धि पच्छावि हियाए सहाए खमाए णिसेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सई, तएणं तस्सरियामस्स देवस्स सामाणियपरिसोववण्णगा देवा सूरियामस्स इमेयाख्वं अज्झत्थियं समुप्पन्नं समभिज्जाणिवा जेणेवरियामे देवे तेणेव उवागच्छति । सरियामं देवं करयलपरिग्गहियं दसनई सिरसावन मस्थए अंजलीं-कहजएणं विजएणं वद्धावेइ, बद्धावेचा एवं वयासी । एवं खल देवाणुप्पियाण सूरियामे विमाणे सिद्धायतणे जिणपडिमाणं जिणुस्सेहप्पमाण मेवाणं अटुसर्य समिखिताणं चिइ । समाएणं मुहमारणं माणवए चेइयखंभे वइरामएस गोलवट्टसमुग्गएमुबहुइओ जिणसकहाओ सनिखिताओ चिटुंति । ताओणं देवाणुप्पियाण अमेसिंच बहुगं वेमाणियानं देवाणं देवीण य अच्चणिज्जाओ जावपन्जुवासणिज्जाओ। तं एयणं देवाणुप्पियाणं पुब्धि करणिजं एयण देवाणुप्पियाग पच्छा करणिज्ज एयणं देवाणुप्पियाणं पुब्धिपच्छावि हियाए मुहाए खमाए-निस्सेसाए आणुगामियचाए भविस्सइ । इति रायपसेणी उपांगे । अस्यार्य-तएण तस्स परियाभस्स देवस्स के० ते वारे ते सूरियाभ देवताने, पंचविहाए पज्जतीए पलती
वच सुरेअश्वामी ।
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( २० )
महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत.
भाव गयस्स समाणस्स के० पांच प्रकारनी पर्याप्ति पर्याप्तिभाव म्या थकाने एटले देबताने भाषा अने मन ए वे पर्याप्ति साथै नीपजे छे, माटे पांच कही. इमेयारूवे के० एवा प्रकारनो अज्झत्थिए पत्थिए के० मनमां मार्थ्यो. मणोगए संकप्पे समुपज्जित्था के० मनो गत संकल्प उपन्यो ते कहेछे, किं मे पुवि सेयं के०भुं मारे पूर्वे श्रेयकारी ? किं मे पच्छा सेयं के० शुं मारे पछी श्रेयकारी ? किं मे पुत्रि पच्छावि के० शुं मारे पूर्वे अने पछी हियाए के० हितकारी पथ्य आहारनी पैरे, सुहाए के० सुखने अर्थे, खमाए के० सगतने अर्थे, खेमने अर्थे, निसेसाए के० निश्रेयस जे मोक्ष तेने अर्थे, आणुगामियत्ताए के० अनुगमन करे ? एटले परंपराए शुभानुबंधी भविस्सर के० थशे ? नए णं सरियाभस्सदेवस्स सामाणिय परिसोवन्नगादेवा के० ते वारे ते मूरियाभदेवना सामानिक पर्पदामां उपन्या देवता ते, सरियाभस्स इमेयाखवं अज्झत्थियं समुप्पन्नं समभिज्जाणित्ता के सूर्याभदेवतानो एवो अभिप्राय उपन्यो जाणीने, जेणेव सूर्यामे देवे के ज्यां सूर्याभदेवता छे. तेणेव उवागच्छति के० त्यां अवे. सूरियामं देवं के० सूर्याम देवने, करयलपरिग्गहियं के०
हाथ जोडीने, दसन सिरसावत्तं मत्थए अंजली कहु के० दश नख भेला करी, मस्तके भाव करी अंजली करीने, जएणं के० जये करीने स्वपक्षनो जय, विजएणं के० परपक्षनो जय ते विजय कहिए. तेणे बघावे, वधावीने, एवंवयासी के० एम कहे. एवं खलु देवाणुप्पियाणं के० खलु नाम निश्वये हे देवानुप्रिया सूर्यामे विमाणे के० सूर्याभ नामा विमानने विषे सिद्धायतणे के सिद्धनुं घर एटले देहेरुं, ते देहेराने विषे जिणपडि याणं के० जिनेश्वरनी प्रतिमा छे, ते प्रतिमा केवी छे ? जिणुस्सेहपमाणमित्तानं के० तीर्थंकरना उत्सेष उंचत्व प्रमाण मात्र छे. अनुसयं सन्निखित्तं चिह्न के० एकशोने आठ थापना छे, तथा सभाषणं सुहम्मारणं के० सुधर्मनामा समाने विषे माणवर चेइयखंभे के० माण चकनामा चैत्यस्तंभ छे, ते स्तंभने विषे वहरामएस गोलबट्टसमुग्गएसु के० वज्रमय गोलवृत्त डावडा छे. तेमां बहुओ के० घणां, जिणसकहाओ के जिननां सकहा शब्दे अस्थि छे. सन्निखित्ताओ चिति के० थापनाए छे, ताओ णं के० ते जिनमतिमा तथा जिणसकहाओ ते देवाणुप्पिया णं के० हे देवानुप्रिय तमने तथा अन्नेसिं के० वीजा पण सम्यग् दृष्टि वैमाणियाणं देवाणं देवीणय के० वैमानिक देवता देवीओने, अञ्च्चणिज्जाओ के० अर्चना योग्य छे. जाव पज्जुवासणिज्जाओ के व्यावत् सेवा करवा योग्यछे. अहींयां यावत् शब्दे बंदणिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ इत्यादिक कहेतुं तं एयणं देवाणुप्पिया णं इत्यादिक सुगम छे. भावार्थ ए छे. के, ए तमने पूर्वे करवा योग्यछे, पछी करवा योग्यछे, ए तमने पूर्वे तथा पछी हितकारी सुखने अर्थ, क्षेमने अर्थे, मोक्षने अर्थ अने शुभानुबंधने अर्थे याशे.
अर्हियां केटलाएक कुमति कहे छे के, "ए देवतानी स्थिति छे. " तेहनो उत्तर जे, सूत्र पाठमां ॥ अन्नेसिं बहूणं वेमाणियाणं ॥ इति बहु पद शुं करवा कर्छु ? | सन्वेसिं मणिया | वो पाठ कां न कह्यो ? तेज माटे जाणिए छैए जे, ए सर्व देवतानो
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दोढसो गाथा स्तवन
(२१) स्थिति नहि, ए स्थिति ते सम्यग्दृष्टिनीज दीसे छे. तथा वली सिद्धायतन कहेवां गणषरजीने मृषावाद केम न थाय ? पण जिनमतिमा सिद्ध भगवान् ठरे तो सिद्धायतन कहेता मृपावाद न लागे ते विचारी जोज्यो. चली आ आलावे जेवां जिनमतिमा वांधानां फल कयां, तेवांज फल वर्त्तता जिनने वांद्यानां कह्यां छे. जेम ए रायपसेणी मांहेज पाठ छे-"तं महाफलं खलु तहारूवाणं अरहताणं भगवंताणं नामगोयस्स विसवणयाए किमंग पुण वंदण-नमसण-पडिपुच्छग-यजुवासणयाए एगस्सवि आरियस्स सवणयाए किमंग पुण विउलस्स अस्स गहणपाए, तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वदामि नसामि सकारेमि सम्मामि कल्लाणं मंगलं चेइयं देवयं पजवासामि । एयं मे पेच्चा हियाए मुहाए खमाए निसेसाए अणुगामियत्ताए भविस्सई" इत्यादि । अस्यार्थ-तं महाफलं खल्ल के० निधये तेहलु महाफल छे. शाg फल छे ? ते कहे छे, तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताण के० तथा रूप अरिहंत भगवंतना नाम गोयस्स वि सवणयाए के० नाम गोत्र सांभल्यां थकां पण, किमंग पुण के० तो तेहर्नु शुं कहेवु ? बंदण नमसण के बंदण करीए, नमस्कार करीए, पडिपुच्छण के० प्रतिपृच्छा करीए, पजुवासणयाए के सेवा करे. एगस्सवि आरियस्स सवणयाए के एक पण आर्यवचन सांभलीए तो महाफल थाय वो, किमंग पुण विउलस्स अट्ट, स्स गहणयाए के. विपुल अर्थन ग्रहण करीए तेहना फलनु | कहे? तं गच्छामिण के ते कारण माटे जालं, समण भगवं महावीरं वदामि नमसामि के०श्रमण भगवंत महावीरने वंदणा . करु, नमस्कार करुं कल्लाण के०कल्याणकारी,मंगल के मंगलोकनु करणहार, चेइय देवयं के. देवता संबंधी चैत्य जे प्रतिमा ते प्रतिमानी परे, पजुवासामी के० सेवा करूं. एयं मे० ए मुजने पेचा के० परभवे, हियाए मुहाए इत्यादिकनो अर्थ पूर्वनी परे जाणवो. एमां पण देवतानां चैत्यनी परे सेवा करूं एम कयु. नित्य पोवाना गुरुने वांदतां पण कल्लाणं इत्यादिक पाठ कहे छे, पण मूर्ख काई विचारता नयी. ए तो प्रसंगे कयु, पण ए पाठ लेखे थापना जिन अने भाव जिन ए वेउनां फल समान वताव्यां. तथा वली भाव जिनथी थापना जिन अधिक पण छे ते द्रौपदीने आलावे प्रगट करी देखाड . तथा एज आलावामां देहेराने सिद्धायतन गणधरजीए का. ते सिद्धनु घर कयु. एटले जिनप्रतिमा सिद्ध स्वरूप वलात्कारे ठरीज, ते वारे भाव जिनथी जिन प्रतिमा अधिकी थईज, एमां काई विवाद नथी. एटलाज माटे शक्रस्तवमां जिनमतिमा आगले 'ठाणं संपचाणं' कहीए छैए अने भाव जिन आगल ॥ 'ठाणं संपाविउकामे ॥ एवा पाठ छे. तो मूर्ख एटलं न विचारे के सिद्ध स्थानक पाम्या ते अधिक के सिद्ध स्थानक पामवानी इच्छा करे ते अधिक ? इत्यादिक घणी चर्चा छ, पण ग्रंथ वधे माटे लखता नथी. ए प्रसंगे सयु ॥३॥
हवे कुमतिओनी आशंकाओ उपाडी उपाडीने एज आलावामाथी गुप्त अर्थ प्रगट करी उत्तर दे छे. त्या प्रथम कोइफ कुमति कहे छे के 'सूर्याभ देवता जे वेला उपन्यो ते वेला पूजा करी पण पछी तो वधा भव पर्यत नथी करी. ते वारे ए तो लौकिक आचारनी परे ययु. पण धर्म अर्थे थयु नहीं" इति. तेने उत्तर कहे छे.
वच सुरेंजश्चामीकर
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महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. पूरव पच्छा शब्दथी, नित्य'करणी जाणे सोय; लालरे। समकित दृष्टि सबहे, ते द्रव्यथकी कम होय? लालरे ॥ तुज०४॥
अर्थ-पूरव पच्छा शब्दयी के पूर्व अने पछी हितकारी / ? एवं पूछयु, अने तेओए. " पूरव अने पछी एज हितकारी छे" एवं क. ते वारे पूजा विनानो शेषकाल कीयो रखो.? ते माटेज, सोय के० ते सूर्याभदेवता एम जाणे जे मारे नित्यकरणी सदा कर्तव्य छे. एटछे सदा काल पूजा करी एम व्यु. इति भावार्य. वली कोइक कुमति बोल्यो के "ए तो द्रव्यथी बाह्यथी पूजा करी पण भावथी नथी करी." इति. तेहने उत्तर देछे जे, समकित दृष्टि जे होय ते सहहे के० धर्म एह, सदहे, ते द्रव्यथी केम होय ? एटले समकिती द्रव्ययी करे तो शुं श्रद्धामा न होय ? जेम पुत्र विवाहादिक. इति भाव. इति तूर्यगाथार्य ॥ ४ ॥ तेज हवे स्पष्ट करी देखाडे छे.
द्रव्यथकी जे पूजीयां, प्रहरण कोशादि अनेक; लालरे । तेहथी बेड जूदां कहां, ए तो साचो भाव विवेक; लालरे ।तुज०५।।
अर्थ-द्रव्यथकी जे पूज्या. पहरण के० शत्र, कोश के० भंडार आदि शब्दयी अनेक पूज्या, पण ते सर्वथी बेउ जे जिन प्रतिमा अने जिन दाढा, ते जूदाज कहां छे. जे कारणे प्रणाम, अथवा शकस्तवादिक वीजा.कोइ स्थानके कह्यां नयी. तथा सामानिक देवे उत्तर पाल्यो, तेवारे पण प्रतिमा तथा दाढाज पूजवापणे वताव्यां, अने फल पण एनांज बता. व्याः ते माटे प्रगटपणे वे जूदाज-कयां छे. ए तो साचो भाव के० ए भाव ते साचो विवेक के. वेहेचीने भिन्न भिनपणे कयो छे. इति गाथार्थ ॥५॥
ते उपर द्रव्य भावनु दृष्टांत कहे छे. चक्ररयण जिण नाणनी, पूजा जे भरते कीध; लालरे । ज्यम ते त्यम अंतर इहां, समकित दृष्टि सुप्रसिद्ध लालरे ॥तुज०६॥
अर्थ-जेम भरते के० भरतराजाए, चक्ररयणनी के० चक्ररत्ननी पूजा, तथा जिननाणनी के० ऋषभखामीना केवलज्ञाननी पूजा; एम पूजा पद वेउ ठामे जोडिए. ते की, के० करी. ज्यम ते के० जेम चक्रनी पूजा, द्रव्यथी आलोकलु उपकारी जाणी करी, अने ज्ञाननी पूजा ते भाषयी आलोक तथा परलोकतुं उपकारी जाणी करी, त्यम अंतर इहां के. अहींयां सूर्याम अधिकारे पण द्रव्य तथा भावर्नु' एम अंतर जाणवू. समकित दृष्टि सुपसिद्ध के० सम्यग्दृष्टि जीवने ए तो प्रसिद्ध छे. अर्थात् प्रगटछे. एटछे मिथ्यात्व जेना पदय माहे होय तेने ए वे वात जुदी न भासे. इति भाव. एटले कुमतियां समकित नथीं; एम पणं देखाडयु. इति गाथार्थ. ॥९॥
हवे कोइ कुमति कहे छे जे धन काढवाने अधिकारे 'हियाए मुहाएं' इत्यादिक पाठ
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दोंडसों गाया 'स्तवन
(२३) कहा छे. ते जेमं आ लोकना सुखने 'अर्थे सूर्या में पूजा तेहने पुचि तथा पञ्छा एचे शब्द परलोक वाचक छे एहेचु- देखाडे छे. पहेले भव पूरव कहे, ज्ञाता. दुर्दर संबंध; लालरे। पच्छा कहुअ विषय कह्या, वली मृगापुत्र प्रबंध; लालरे । तुज०७॥
अर्थ-पहेले भव के० गतभव, पूरवभव के० पूरव शब्दे कहे छे. कोण कहे छे? ते कहे छे. ज्ञाता के० छद्रं अंग ज्ञातासूत्र कहे छे. ददुर संबंध क० नंद मणीआर देडका थया. ते संबंधां एटले देहकाना संबंधमा पूर्व शब्दे गतभव छः एम ज्ञातासूत्र कहेछे. इतिभाव. तथा च ज्ञातासूत्र-'पुचि पिणं मए समणस्स भगवओ महावीरस्स' । इत्यादि. ए रीते पूर्व शन्दे गतभव कहो. हवे पच्छा शब्दे आगलो अनागतभव देखाडे छे. पदने एक देशे पदना समुदायने उपचारीए माटे पच्छाकडुअ के० पछी कडुआ विपाक आवे. एषा विषय कहा छे. क्या कह्या छे? ते कहे छे. वली के० पूर्व शब्दनो अर्थ ज्ञाताए देखायो। तेनी अपेक्षाए वली मृगापुत्र प्रबंध के० मृगापुत्रना संबंधमां कह्यांछे, यतः-अम्मताय मए भोगा भुत्ता विसफलोवमा पच्छा कडुअविवागा अणुवंधुदुहावहा, अर्थ-अम्मंताय के० हे माता पिता, मए के० में, भोगा के० भोग, भुत्ता के० भोगव्या. ते कहेवा छे? विसफलोषमा के० विषफलनी उपमाए छे. पच्छा के० पछी आवते भवे, कडुअविवागा के०कडवा विपाक छे जेहना, अणुवंधु के० परंपराए, दुहावहा के० दुःखना आपनार छे.
एरीते श्रीउत्तराध्ययनमा मृगापुत्रे मातपिताने का. एम पच्छा शब्दे पण परभवनो अर्थ छे. एटले पूर्व पच्छा शब्द ते मूरियामने आभव वाचक नथीः ॥७॥
हवे कोइ कुमति कहे छे जेतमें पूर्व पच्छानो जे रीते अर्थ-कर्यो, तेम अर्थ करता आ भव तो न आंन्यो तेने उत्तर दे छे.
आगमेसीभद्दा कडा, गइठिई कल्लाणा देव; लालरे । तस पूरब पच्छा कहे, निहुँ काले हित जिन सेव; लालरे॥ तुजा .
अर्थ-आगमेसिभद्दा के० आगल मनुष्यावतार पामीने मोक्ष जावं छः एवा कबा के तथा गइडिई कल्लाणा के० अहींयां कल्याण शब्द वेउने जोडीए. एट ए अर्थ-गइकल्लाणा ठिइकल्लाणा । इति. त्यहां गइ कल्लाणा के० गति 'आवती मनुष्य गतिने विषे कल्याण के जेहने, तथा ठिइकल्लाणा के० स्थिति जे देवतानो भव, त्यां'पर्ण कल्याणछे. एवा देव के० सम्यग्दृष्टि देवता सूत्रे वखाण्या छे. यत:-'गइकल्लाणा ठिइकल्लाणा आगमेसिमदा' इति ॥ आगमेसिभद्दा के० आगले भद्रकारीछे. ते माटे त्रणे भव आव्या. जे माटे सूर्याम देव सम्यग्दृष्टि छे, ते भगवंत दाढा तथा जिन प्रतिमा पूजतां, वस पूरव पच्छा कहे के. ते देवने पूरव पच्छा कयां थकी, त्रिहुं काले हित के त्रणे काळे हित जाणबुं. जिन सेव के० परमेश्वरनी सेवा एवी छे.
वच सुरेंजश्चामीकर
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( २४ )
महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत.
हवे व्यतिरेके करी पूर्व पच्छा शब्दे अर्थापत्तिए त्रिकाल लेइए एम देखाडे छे. जस पूरव पच्छा नहीं, मध्ये पण तस संदेह; लालरे एम पहले अंगे कां, छे सुधो अर्थ ते एह; लालरे || तुज० ९ ॥
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अर्थ-जस पूरव पच्छा नहीं के० जेने पूर्वे तथा पछी नथी. मध्ये पण तस संदेह के० तेने वचमां पण संदेह जाणवो, एटले ए भाव जे, जेहने पूर्व अने पछी नथी, तेहने मध्ये संदेह. ते वारे एम आयु जे जेने पूर्व तथा पछी छे, तेहने मध्ये पण अवश्य छे. एम पहेले अंगे के० श्रीआचारांग सूत्रमां एम कझुंछे. यतः - "जस्स नत्थि पुरापच्छा मज्झे तस्स कुभो सिया ।" इति . जस्स नत्थि के० जेने नथी, पुरापच्छा के० पूर्व अने पछी, मन्झे तस्स कुओ सिया के ० तेने मध्ये पण क्यांथी होय ? इति आचारांगे, छे सुधो अरथ ते एह के० ए अर्थ सुधो छे. पांशरो के तेथ सूर्याभने त्रिकाल हितकारी जिनपूजा छे. इति भाव. इति गाथा ॥ ९ ॥
वे कोइ वली कहे छे जे वांदवाने अधिकारे 'पेच्चाहियाए' कहुँ छे ते परभव हित आवे. पण अहींयां पच्छा शब्द छे, माटे आभवज हितकारी छे तेने उत्तर दे छे.
पच्छा पेच्चा शब्दनो, जे फेरे कहे ते दुट्ट; लालरे ।
शब्द तणी रचना घणी, पण अरथ एक छे पुट्ठ; लालरे ॥ तुज० १० ॥
अर्थ - पच्छा अने पेचा ए वे शब्दनो जे फेर कहे के० अर्थ शब्दगम्यमान छे माटे जे फेर अर्थ करे छे, ते दुड्ड के० दुष्ट जाणवा, जे माटे, शब्दतणी रचना घणी के० शब्दरचना यद्यपि धणी छे, पण अर्थ तो एकज छे. एवकार गम्यमानछे. पुट्ट के० • पुष्ट अर्थछे. इति गाया अक्षरार्थ. हवे भावार्थ- जे पेच्चानो अर्थ जेम परभव छे, तेम पच्छानो अर्थ पण परभवज छे एम जाणवुं, पण शब्द फेर रचनाए भूलवुं नहीं. जेम वदनानाज अधिकारमां क्यहांक तो || पेच्चाहियाए || एम कर्तुं छे, तथा क्यहांक तो 'इह भवे वा परभवे वा आगामियत्ता भविस्सइ ' एवो पाठछे, ते माटे परभव अने पेवा, ए वे शब्दमां जेम फेर नथी, तेम पच्छा पेचा शब्दमां पण फेर न जाणवो. ते पच्छा शब्दे पच्छा कडुअविarit इत्यादिक ठामे परभवनो अर्थ संभव देखाड्यो छे ॥ १० ॥
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ए रायपसेणी सूत्रो पाठ हतो, ते चर्चा युक्तिना उत्तर वाल्या. हवे सूरियाभ देवता आगल शुं करे ? ते कहे छे.
वांची पुस्तक रत्ननां, हवे लेइ धरम व्यवसाय; लालरे । सिद्धायतने ते गंया, जिहां देवळंदनो ठाय ॥ लालरे ॥ तु० ॥ ११ ॥
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दोसो गाथानुं स्तवन.
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अर्थ-वांची पुस्तक रत्ननां के० शाश्वता रत्ननां पुस्तक वांचे. ते वांचीने, हवे इ धरम व्यवसाय के० धर्मना व्यवसाय शब्दे उपकरण लेइने, सिद्धायतन के० सिद्धनुं आयतन जे घर तेने विषे ते गयो के० ते सूरियाभ देवता गयो. ज्यां देवछंदतुं स्थानक छे त्यां गयो. इति गाथाये ॥ ११ ॥
जिनप्रतिमा देखी करी, करे शिर प्रणाम शुभ बीज; लालरे । पूष्प माल्य चूर्णे करी, वस्त्राभरणे वली पूज || लालरे ॥ तु० ॥ १२ ॥
अर्थ - जिनमतिमा देखीने करे शिर प्रणाम के० मस्तके प्रणाम करे. शुभ वीज के० प्रणाम शुभ जे पुण्य तेनुं बीज छे, एटले पुन्यनुं बीज छे, पुष्प के० फूले करी तथा माल्य के० मालाए करी तथा चूर्णे करी तथा वस्त्रे करी तथा आभरण के० घरेणांएकरी, वली पूज के ० पूजा करी. इति गाथार्थ ॥ १२ ॥
फूल पगर आगे करी, आलेखे मंगल आठ; लालरे ।
धूप देई काव्य स्तवी, करे शक्रस्तवनो पाठ ॥ लालरे ॥ तु० ॥ १३ ॥
अर्थ - ते बार पछी फूल पगर के० फूलना ढगला, आगल करी, आलेखे मंगल आठ के० अष्ट मंगलीक ते आलेखे. यथा स्वस्तिक १ श्रीवत्स २ कलम ३ भद्रासन ४ शरावसंपुट ५ मत्सयुग्म ६ दर्पण ७ नंदावर्त ८ एवं अष्ट मंगल, धूप देई के अनेक जातीना धूप देईने, काव्य स्तवी के० ते बार पछी अपुनरुक्त एकसो आठ काव्ये स्तवीने, करे शकस्तवनो पाठ के० छेहेली वारे नमुत्थुणंनो पाठ कहे. इति गाथार्थ ॥
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एबी सूत्र प्रमाणे गाथा वांधी. तथा च तत्सूत्रं- 'तएण से सूरिया देवे पोत्थयरयणं गिण्हइ, पोत्थयरयणं गिव्हिइत्ता पोत्ययरयणं विहडिइ, विहडिइत्ता पोत्थरयणं airs, वाइत्ता धम्मियं ववसायं गिण्हड, गिण्हइत्ता पोत्थरयणं पडिनिक्खवेइ, पडिनिक्खवेइत्ता सीहासणाओ अब्भुठेह, अब्ठेत्ता ववसायसभाओ पुरिमच्छिल्लेणं दारेणं पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमइत्ता जेणव नंदापुक्खरणी तेणेव उवागच्छ, उवागच्छत्ता हत्यपाय पक्खालेइ, पक्खालेइत्ता आचंते चोक्खे सहभूए एगं महं सेयं रययामयं विमलसलिल पुनं भिंगारं गिues, गिइत्ता जाई तत्थ उप्पलाई जान सयसहस्सपत्ताई ताई गिण्हर, गिण्हइत्ता जेणेव सिद्धायतणे तेणेव पहारेत्थ गमणाए । तरणं सूरियाभं देवं बहवे आभिओगिया देवा य देवीओ य अप्पेगइआ कलसहत्थगया जाव अप्पेगइआ धूवकडुच्छयहत्थगया सूरिया देवं पिटुओ समणुगच्छति । तरणं सूरियामे देवे चउहिं सामाणि साहसीहिं जाव अन्नेर्हि देवेहिं देवीहिं य सद्धिं संपरिबुडे सव्ववलेहिं जाव वाइअरवेगं जेणेव सिद्धायतणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता सिद्धायतणं पुरिच्छिमेणं दारेणं अणुपविसर, पविसइत्ता जेणेव देवच्छंद जेणेव जिप डिमाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छत्ता जिणपडिमाण
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वच सुरेंद्रश्चामीकर
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महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत.
आलोए प्रणामं करे, करेइत्ता लोमहत्ययं गिण्हर, गिण्हइत्ता लोमहत्येणं परानुसह, परासत्ता गंवोदणं हावेर, व्हावेइचा गोसीस चंदणेणं गायाई अशुलिप, अणुलिंपइत्ता जिणपरिमाणं अहयाई देवदूर जुअलाई निअंसेर, निअंसेचा पुप्फारुहणं १ मल्लारुहणं २ चुणारुणं ३ वत्थाहणं ४ आभरणारुहणं ५ करेइ, करेइत्ता आसत्तो उत्त विउलबरधारियमल्लदामकलाव करे, करेtचा करयल डिग्गहियं करयलप भट्टविप्पणं दसवण्णेणं कुसुमेणं मुकपुष्फपुंजोबयारकलियं करेह, करेइत्ता जिणपडिमाणं पुरओ अच्छेहिं सण्णेहिं रययामएहिं अत्थराहिं तंदुलेहिं अट्ठ मंगले आलिहइ, तं जहा - सत्थिय जाब दप्पणं, तयाषांतरं च णं चंदप्पभरयणवयरवरुलियविमलदंड कंचणमणिरयणभत्तिचित्तं कालागुरुपत्र रक्कुंदुरुकतुरुकडज्ांतधूवमघमघंतगंधुध्धुआभिरामं गंधवहिं विणिम्मुर्भतं वेरुलियमयकडुच्छ्रयं पग्गहिऊणं धूर्व दाऊण जिणवराणं, अट्टस विद्युद्धजुत्तेहि अपुणरुतेहिं संथुणइ, संघुणइत्ता पच्छा सत्तट्टपयाई पचोसकइ । वामं जाणु अंचे अंचेइत्ता दाहिणं जाणु धरणितलंस साइड तिक्खुतो सुद्धाणं धरणितलंसि णिवेसेइ, णिवेसेहत्ता एगसाडिअं उत्तरासंग करेइ, करेता जाव करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि क एयं वयासी, नम्रुत्यु अरहंताणं भगवंताणं ||" इत्यादि रायपसेणी उपांगे .
( २६ )
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अहींयां कुमति कहे छे के “ देवतानी करणी हुं मानुं नहीं. तेने पूछीए जे देवता, जे करणी करे तेमां पुण्य तथा पाप वधाय के नहीं ? जो कहेशो के वैधाय तो ए पूजा ममुख करतां पुण्य बधाणुं के पाप ? तेनो उत्तर देजो. त्यारे कहेशे के कांइ न वधाय. ते वारे जीव समयमात्र सात कर्म बांध्या बिना रहे नहीं, ते केम मेलवशो ? ते कहो. तथा कोइक कुमति कहे छे जे 'देवता तो 'नोधम्मिआ छे' तेनो उत्तर जे चारित्रनी अपेक्षाए तो नोम्मि सुखे कहो पण श्रुत समकितनी अपेक्षाए नोधम्मिआ केम कहेवाशे ? ते ज़िचारजो. बली श्री भगवती सूत्रने विषे अविरती देवताने कहीए तो || निरवयणमेयं ॥ एम कशुं छे. इत्यादिक युक्ति, उपाध्याय श्री यशोविजयजीकृत नोषम्मिया निषेध ग्रंथथी जाणवो
बली देवकरणी मानवी घटे छे. ते देखाडे छे,
जेहना स्वमुखे जिन कहे, भवसिद्धि प्रमुख छ बोल; लालरे । तास भगति जिनपूजना, नवि माने तेह निटोल ॥ लालरे ॥ तु० ||१४||
अर्थ - जेहना के० जे सूरियाभ देवताना, स्वमुखे जिन कहे के० जिनेश्वर अर्थात् श्रीस्वामी पोताने मुखे कहता हवा. भवसिद्धि प्रमुख के० भवसिद्धि प्रमुख, प्रमुख शब्दे बीजा अभवसिद्धि १ समकिती मिथ्याली, २ परिच संसारी अनंत संसारी ३ मुलभवोषी
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दोसो गाथानुं स्तवन.
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दुर्लभबोधी ४ आराधक विराधक ५ चरम अचरम ६ ए छ बोल लइए. इति. भावार्थ. जे देवताना ए छ वोलमां जे रुडा बोल ते प्रभुए बताव्या. तुं भव्य छे. १ तुं समकती छे, २ परिच संसारी छे, ३ सुलभ बोधी छे, ४ आराधक छे, ५ चरम छे, ६ एम बतायुं, इति भाव. तास भगति जिनपूजना के० ते सरियाभनी भक्ति आगल कहिं ते, तथा जिन पूजना जे पूर्वे कही ते, नवि माने के० जे मूर्ख माने नहीं, ते पुरुष निटोल के० अटोलकालुं लोक प्रसिद्ध कहेवाय छे, तेहवा जाणवा. इति गाथार्थ ॥ १४ ॥
हवे आलावानो अर्थ - तए णं से सुरिया देवे के० तेबारे ते सुरियाभ देवता, पोत्थयरयणं गिoes के ० पुस्तकरत्न लीए. लेइने, पोत्थयरयणं विहडिह के० पुस्तकरत्न उघाडे, उघाडीने, पोत्थयरयणं वाएइ के० पुस्तकरत्न वांचे. वांचीने, धम्मियं ववसायं गिन्हइ के० धर्म संबंधी व्यवसाय छे. अहींयां धर्म व्यवसाय ते पूजाना उपकरण ते ले. पोत्थयरयणं पडिनिक्खवइ के० पुस्तकरत्न पालुं सूके. पडि निक्खवेइचा के० ते मूकीने, सीहासणाओ अब्डलेइ के० सिंहासनथकी ऊठे. अन्हत्ता के० ऊठीने, बवसायसभाओ के० व्यवसाय सभाथकी, पुरिमच्छिलेणं दारेणं पडिनिक्खमइ के० पूर्वदिशिने वारणे नीकले, नीकलीने जेणेव णंदापुक्खरणी के० ज्यां नंदा नामे वाव्य छे, तेणेव उवागच्छइ के० त्यां आवे आवीने, हत्थपाए पक्खालेइ पक्खालेइत्ता के हाथ पग पखाले. पखालीने, आयंते के० नव द्वार श्रोतनां (देहनां ) छे, ते शुद्ध पाणीए पखालवे करीने, आंचंत के० ग्रतुं छे आचमन जेणे, चोक्खे के० थोडो पण मेल राखे नहीं, एटला माटे सहभूए के पवित्र थया. एगं महं के० एक मोहोटो, सेयं के० श्वेत उज्वल, रययामयं के० रुपानो, विमलसलिलपुर्ण के० निर्मल पाणी भरयो, भिंगार के० कलश, गिण्हेइ कं" ते लेइने, जाइ तत्थ उप्पलाई के० त्यां जे उत्पल एटले कमल, जाव सहस्सपत्ताई के० यावत् हजार पांखडीनां कमल. यावत् शब्दे वीजा कमलना भेद लेवा ते लेइने, जेणेव सिद्धायतणे के० ज्यां सिद्धायतन एटले जिनघर छ, तेणेव पहारेत्थ गमणाए के० त्यां जावाने उद्यम करे. तए णं सुरियामं देवं के० ते वार पछी सुरियाम देवने पूछे, वहवे आभिओगिया देवा देवीओ के० घणा आभियोगिक देवता देवीओ, अप्पेगइया कलसहत्थगया के० वेटलाएकना हाथमां कलश रही गया छे. जाव अप्पेगइया धूवकडच्छुयहत्थगया के० यावत् केटलाएकना हाथमां धूपना कडछा रही गया छे. अहींया यावत् शब्दथी केटलाएकना हाथमां भृंगार कमल प्रमुख लेवा, सुरियामं देवं पिटुओ समणुगच्छंति के सूरियाभदेवतानी पूंठे चाल्या जाय, ar णं सूरिया देवे के० ते वार पछी सुरियाभ देवता, चउहिं सामाणियसाहस्सिहिं के० चार हजार सामानिक देवताए, जाव अन्नेहिं देवेहिं देवीहि सद्धिं के० वीजा पण देवता देवीए संपरिव्बुडे के० परिवरचो. अहींयां यावत् शब्दे वीजा पर्षदाना, कटकना, आत्मरक्षक. इत्यादिक देवता लेवा. सव्ववलेणं के० सर्व वले सहित जाव वाइयरवेणं के० वाजीत्रना शब्द वाजते, जेणेव सिद्धायतणे के ज्यां सिद्धायतन छे. तेणेव उवागच्छई
वच सुरेंद्रश्चामीकर'
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महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत.
स्वागच्छत्ता के॰ त्यां आवे, त्यां आवीने, सिद्धायतणं पुरित्थिमेणं दारेणं के सिद्धायतन प्रत्ये पूर्वदिशिने वारणे, अणुपविसड के० प्रवेश करे, प्रवेश करीने, जेणेव देवच्छंदए के० ज्यां देवच्छंदो छे, जेणेव अट्टसचं जिणपडिमाओ के० ज्यां एकसो आठ जिन प्रतिमाओ छे, तेणेव उवागच्छइ के० त्यां आवे. आवीने जिनपरिमाणं आलोए के० जिन प्रतिमाने ढीठांकां पणामं करेड के प्रणाम करे. प्रणाम करीने. लोमहत्ययं गिन्छs के० मोरपीछी ले. लेइने, लोमहत्येणं परानुसड़ के ते मोरपीडीए पूंजे, पूंजीने, गंधोढणं व्हावे के सुगंध पाणीए नवरावे. नवरावीने, गोसीस चंदणेणं गायाई अणुलिप क० गोशीर्षचंदन जे वावनाचंदन, तेणे करीने गात्र जे प्रतिमानुं गरोर, तेहने विलेपण करे. करीने, जिनपरिमाणं के० जिनप्रतिमाने, अहयाई के० असत. देवदूसजुअलाई के० देवदूप्यनो युगल एटले जोडो, नियंसेड़ के० पहेरावे. पेहेरावीने. पुप्फारुहणं के० पूनुं आरोपण करे. मल्लारुहणं के० फूलनी मालतुं आरोपण करें. कृष्णारहणं के० वास वरास प्रमुख सुगंधी चूर्ण आरोपण करें. वत्वारुहगं के० वखनुं आरोपण करे. आभरणारुणं के० मुकुट प्रमुख आभरणतुं आरोपण करे. करीने आसत्तो के भूमिए लाग्यो उसत्त के० उपर लाग्यो बिडल के० विस्तीर्ण, बट्ट के० गोल. वन्धारिय के० लंवादमान. एवो मलदामकलावं के० माल्यदाम जे 'माला तेनो 'समूह करे. करपलप डिग्गहियं के हस्त तलने विषे ग्रथा. करयलपम्भदुविप्पमुद्देणं के० हस्ततलथी भ्रष्ट थयां मृक्यां एहवां, दसजवण्णेणं कुसुमेणं के० पंचचरणी फूले, मुकपुप्फपुंजो बयारकलियं १० मूक्या हे पुप्पना पुंज. तेहने उपचारे सहित करे. करीने, जिणपडिमाणं पुरओ के जिन प्रतिमानी आगल, अच्छेहि के० निर्मल, सण्हेहिं के० सुकोमल, रययामएहिं क० रूपमयी. अत्थराहि के हुंकडो वस्तुनो प्रनिर्वित्र पढे एहवा निर्मल, तंदुलेहिं के चोखे करीने, अट्टट्टमंगले आलिहइ के० अष्टमंगल आलेखे, तं जड़ा के० ते कड़े छे. सत्यिय के० स्वस्तिक, जाव टप्पण के यावत् दर्पण कहेतुं यावत् शब्दे श्रीवत्स प्रमुख लेवां. तयाणंतरं च णं के० ते चार पछी चंदप्पमरयण के० चंद्रप्रभ रत्न, चरय के० वज्र, वेरुलिय के० वैर्य रत्नमयी, विमलांड के० निर्मल छे दंड जेनो, बली कंचणमणीरयणभत्तिचित्तं के० कनक मणिरत्ननी भाति विचित्र छे, कालागुरु के० कृष्णागुरू, पवर के प्रधान, कुंरुक ते प्रसिद्ध, तुरुनामा गंधद्रव्य विशेष, डयंत धूव के० दह्यमान जे दशांगादि धूप. तेहनो मघमघंत क० महमहाट गंध धूआभिराम के० प्रगट थयो गंध तेणे अभिराम, गंधवहिं विणिमुयंत के० गंघ द्रव्य गुटिका सरखो सुगंध मूकते, वेरुलियमयकडुच्छथं के० वैर्ड्स रत्ननय कडछा, पन्गहिऊणं क० लेइने, धूवं बाऊणं जिगवराणं के० जिनवरने धूप ढेड़ने, अट्टसयं के० एक्शो आठ, विचद्ध जुतेहिं • शुद्ध युक्त, अपुणरुतेहिं के० फरी फरीने तेहनो तेह पाठ न आवे. एवा महाविचहि रहाकाव्ये, संथुणइ के० स्त्वना करे. करीने. पच्छाय सत्त पयाई के० पाछा सात लां, पचोसक के० पाछो ओसरे, वामं जाशु अंचे ० डावो ढींचण उंचो राखे
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दोढसो गाथा सवन. दाहिणं जाणु के जमणो दींचण, धरणितलंसि साइड के धरतीने विषे थापे. तिक्खुत्तो मुद्धा धरणितलंसि निवेसइ के० प्रणवार मस्तक धरतीए थापे. थापीने, एगसाडीउत्तरासंग करेइ के एक साडो उत्तरासंग करे. करीने, जाव करयलपरिग्गहियं दसनहं के० इस्ततल परिग्रहित दश नख, सिरसा के मस्तके आवर्तन करीने, मत्थए अंजलिं कटु के० मस्तके अंजली फरीने, एवं वयासी के० एम कहे. 'नमुत्यु ण' कहे. एहनो अर्थ टीकाथी जाणत्रो. अहींयां कहेवां ग्रंथ वधी जाय छे इति.
हवे ते छ वोल रायपसैणी मध्ये कया छे तथा हि-"तए णं से मूरियामे देवे समणस्स भगवओ महावोरस्स अतिए धम्म सोचा निसम्म इट्ट जाव उट्टेति उहित्वा समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ एवं वयासी, अहण्णं भंते सरियामे देवे किं भवसिद्धिए अभवसिद्धिए? १ सम्मदिष्ट्रिए मिच्छादिटिए?२परित्तसंसारीए अगंतसंसारीए१३ सुलहबोहिए दुल्लहवोहिए? ४ आराहए विराहए? ५ चरमे अचरमें? ६ मरियाभाइ समणे भगवं महावीरे धरियामं देवं एवं वयासी, मरियामा तुम णं भवसिद्धिए नो अभवसिद्धिए, जाव चरमे णो अचरमे" अस्यार्थ-तए णं से सरियाभे देवे के ते वारे ते भूरियाम देवता, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतीए क० श्रमण भगवान् महावीरनी समीपे, धम्मं सोचा निसम्म के०धर्म सांभलोने, हटु जाव' उट्टेति क० हर्प पामीने यावत् उठे. उठीने, समणं भगवं महावीर के० श्रमण भगवान् महावीर प्रत्ये, वंदइ नमसइ केवंदना करे. नमस्कार करे, एवं वयासी क० एम कहे. अहण्णं भंते सूरिया देवे के० हे भगवन् , हु मूर्याभ नामे देवता. किं भवसिद्धिए अभवसिभिए के० गुं भव्य छु किं वा अभव्य छु ? सम्मदिही के० सम्पदृष्टि छु किं वा मिथ्यादृष्टि छ ? २ परित्तसंस.रिए अणंतसंसारिए के० परित्त संसारी छु किंवा अणत संसारी छु ? ३ मुल्ल वोहिए दुलहयोहिए के० मुलभवोधि छु एटले परभवे जिन धर्म मासि सोहली छे जेने एवो छु के दुर्लभवोधि छ ? ४ आराधक छु के विराधक छ. ५ चरमे के० देवतानो भव छेल्लो छे के अचरमे के० घणा भव करवा छे ? सूरियामाइ के० सूर्याभने वोलावीने श्रमणभगवान् महावीर सूर्याभने एम कहे. सूर्याभा, तुमणं भवसिद्धिए क. हे सूर्याभ, तु भवसिद्धिक छे, अभवसिद्धिक नको. यावत् चरम छे, अचरम नथी. एम छ बोल रुडा कहेवा. वीजा निषेध करवा. इति गाथार्थ ॥ १४ ॥
हवे सूर्यामनी भक्ति देखाडे छे. प्रभु आगल नाटक कयु, भगति सूरियाभने सार; लालरे । भगतितणां फल शुभ कह्यां, श्री उत्तराध्ययन मोझार; लालतु०॥९५ अर्थ-अभु आगल नाटक कयु. ए स्पष्ट छ, ते माटे भक्ति सरियाभने सार के मूरि
वच सुरजश्चामी ।
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(३०) महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. याम देवताने सार एटले प्रधान भक्ति छे. तथा च तत् मूत्रं-"अहण्णं भंते देवाणुप्पियाणं भत्तिपुव्वयं गोयमाईणं समणाणं निग्गंथाणं वत्तीसइ वद्धं नट्टविहि उवदंसेमि ॥" अर्थअहण्यं भंते देवाणुप्पियाणं भत्तिपुच्वयं के० सूर्याभ प्रभुजीने कहे छे. हु देवाणुप्रियनी भक्तिपूर्वक, गोयमाईणं समणाणं निग्गंयाणं के० गौतमादिक श्रमण निग्रंथने, बत्तीसइ बद्ध नविहि उवदंसेमि के० वत्रीश विधि नाटक देखाडु ? इति राय सेणी मध्ये, ए सूत्रमा भक्तिपूर्वक एवो पाठ छे. माटे जाणीए छैए जे सरियाभने भक्ति, प्रधान छे अने भक्तिना फल तो शुभ के० उत्तम कयां छे श्रीउत्तराध्ययन मोझार के० श्रीउत्तराध्ययन मध्ये अध्ययन ओगणत्रीशमे छे. तया च तत्साठः-" गुरुसाहम्मियसुस् इसणयाएणं मंते ! जीवे किं जणइ ? गुरुसाहम्मियमुस्मुसणयाए विणयपडिवत्ति जणइ । विणयपडिवनेणं जीवे अण्णचासायणसीले नेरइयतिरिक्खनोणियमणुस्सदेवदुग्गईओ निरंभइ. वण्ण जलणभत्तिवहुपाणयाए माणुस्सदेवमुगइओ निबंधइ । सिद्धिमुगइं च विसोहेइ । पसत्थाई च णं विणयमूलाई सम्बकजाइ साहेइ । अने य वहवे जीवे विणइमत्ता भवइ । " अस्यार्थ-गुरुसाहम्मियके साधर्मिकनी गुरुनी, मुस्मसणयारण के० सेवा करतो, मते के० हे भगवन् , कि जणइ के० शुं उपार्ने ? गुरु उत्तर कहे छे. गुरुसाहम्मियमुस्वसणयाए के गुरु अने साधर्मिकनी सेवा करतो, विणयपडिवत्ति के उचित कार्य अंगीकार करे, विणयपडिवनेगं जीवे के. विनयप्रतिपन्न जीव, अण्णचासायणसोले के० गुळदिकना अवर्गवाद न बोले, ते वारे नारकी विर्यचनी योनि तथा मनुष्य देवतानी दुर्गतिने रुधे, वण्ण के प्रशंसा, संजलणं के. गुणतुं प्रगट करवू, भत्ति के० अजलो प्रमुख करवी, बहु मान ते अंतर पीनि-एटलां वानां करतो मनुष्यनी अने देवतानो. सुगइयो निर्वधइ के सदगतिओ बांधे, सिद्धि सुगई चविसोहेइ के० सिद्धिरूप सदगति ते रनत्रय वेहने विशुद्ध करे, परभवे मुक्ति साधे. वली, अन्ने वहवे जीवे के वीजा घणा माणोओने, विणमइत्ता भवइ के० विनयवंत करे उक्तंच. "ठिो ठावए पर" इति. गाथार्थ ।। १५ ॥
ए सरियाभनो अधिकार एकज ए स्तवनमा देखाइयो. एम केटला कहीए ? सूत्रमांतो ठगम ठाम कह्यां छे, माटे अति देश करे छे.
अंग उपांगे घणे कही, एम देव देवीनी भक्ति लालरे। आराधकता तेणे थई, इंहां तामली इंद्रनी युक्ति; लालरे ॥तु०॥१६॥
अर्थ-अंग के ज्ञातासूत्र प्रमुखने विषे देवीओ अनेक भवनपतिमा उपनीओछे. त्यां पण मूर्याभनीन रीति कही छे. तथा भगवतीमां इंद्रादिकनां नाटकघणां वखाण्यां छे. तया, उपांग के. जीवाभिगमादिकमां विजयप्रमुख देवतानो तथा तेवी रीते बीजा पण प्रण दरपाजाना घणी एमज कद्या छे. घणे कही के० एरोते घणे अंग उपांगे कहीछे. कहींक तो करी एवो पाउ छे. त्यां भक्ति करी, एवो अर्थ करीए. एम देव देवीनी भक्ति ए स्पष्ट छे.
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दोढसो गाथार्नु स्तवन. वली गणांगमध्ये चोथेठाणे नंदीश्वर द्वीपे घणा सुर अनुरादिकोए पूजा भक्ति प्रमुख करयां छे तथा ते देवता देवीओने आराधक कही वोलाव्यां छे. ते आराधकपणुं तो. तेणे थइ के० ते वीतरागनी भक्तिरज थइ छे. अहोंयां आराधतानी अपेक्षाए थइ एम कबू छे, अहीयां कोइ कहेशेके ए जिन भक्तिए आराधकता नथी. एतो पाछले भवे करणी करी छे, ते अपेक्षाए आराधकता कडा छे. एम कनारने उत्तर देछे. इहां तामली इंद्र के. तामली नामा तापस ते बोजा ईशानदेवलोके इंद्र थया, तेहनी युक्ति जाणजो. इति गाथातरार्थ.
भावार्थ तो ए छे के तामली नामा तापस, पोताने तपने कष्टेकरी वीजा देवलोकने विषे इंद्र थया, तेमणे प्रभु आगल नाटक करी पूछयु जे हुँ आराधक छु किं वा विराधक छु? इत्यादिक छ वोलनी पृछा श्रीभगवतीसूत्रमा कही छे. तेमां कथु जे "आराधक छो" एम का छे, माटे पूछीए छैए जे परभवनी अपेक्षाए आराधक होततो एतो परभवे तापस हता, तेथी केम परभव कहेवाशे? ते माटे आ भवनी प्रभुभक्तिन आरावकता कही छे. इति भाव इति गाथार्थ ॥ १६ ॥
ए जिनेश्वरनो थापनानिक्षेपो पूजवा योग्य छे एम कच. हवे कोइ कहे छे, "ए अचेतन छे. एमां शो गुण छे?" तेनो उत्तर कहे छे जे, जिनदाढा पण अजीव छे तेमां शो गुण छ ? अने पूजवा योग्य तो छे ते देखाडे छे.
भक्ति जीतधर्मे करी, लीए दाढा अवर जिन अंग; लालरे । थूभ रचे सुर त्रण ते, कहे जंबूपन्नत्ती चंग; लालरे॥तु०॥१७॥
अर्थ-भक्ति के० कोइक देवता भक्ति जाणी ले छे. जीत के० अपरदेवता पोतानो जीतव्यवहार जाणी ले छे. धर्मे करी के० कोइक धर्मे करी लेता हवा, एटले धर्म जाणी लेता हवा. लीए के० एटले प्रकारे ले. दाढा के० दाढा, अवर के० वली वीजा देवता, जिनअंग के. हाड दांत प्रमुख ले. तेवार पछी, मुर के० देवता, प्रण थूम, रचे के० करे, कहे जंपन्नती के. जंबू द्वीप पन्नत्तो एम कहे छे. आयत ग्रहणे मध्यग्रहणमिति न्यायाव. जंबूपन्नत्ती शब्दे जंबूद्वीपपानी लेइए, एटले जंबूद्धीपपमतीमध्ये एम कहे छे. चंग के. मनोहर. इति. तथाच तत्पाठ-"तए गं सके देविंदे देवराया उवरिल्लं दाहिणं सकह गिण्हइ । ईसाणे देविदे देवराया उवरिल्लं वाम सकहं गिण्हइ । चमरे अमुरिंदे असुरराया हिठिल्लं दाहिणं सकह गिण्डइ । वली वइरोयर्णिदे वइरोयणराया हिठिल्ले वानं सकह गिण्हइ । अवसेसा मवणवई जाव वेमाणिया देवा जहारिहं अवसेसाई अंगमंगाई गिण्हइ । केइ जिगमत्तिए केई जीयमेय तिकडु केई धम्मो तिकड्ड गिण्हति । तए णं सके देविंदे देवराया भवणबई जाव वेमाणिया देवा एवं वयासी, खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया सबरयणामए महइमहालए तो चेइयथूभे करेह, एग भगवतो तित्थगरस्स, एग गणहरागं, एग अवसे साणं अणगाराणां। सएणं घहवे जाव करेति । तए णं ते वहवे भवणवई जाव वेमाणिया देवा वित्थगरस्स परि
वच सुरेअश्वामी .
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(३२)
महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. निव्वाणमहिमं करति जेणेव गंदीसरे दीवे तेणेव उवागच्छति।" व्याख्या-तए णं सके देविदे देवराया के० तेवारे शक्र देवेंद्र देवतानो राजा, उवरिल्लं काहिगं के० जमणी उपरली, सकहं के दाढा, गिण्हइ के० ग्रह, ईशाणे देवि देवरापा के. ईशान देवेंद्र देववानो राजा, उवरिल्लं वान सकह गिम्हइ के. डावी उपरनी दाढा लोए. चमरे अनुरों से अनुरगया के० चमर असुरकुमारनो इंद्र, अमुरकुमारनो राजा, हिठिल्लं दाहिणं साई गिरहइ के जमणी हेठली दाढा लीए. वली वइरोयणिदे करोयणराया के० वली नामा वैरोचन इंद्र वैरोचनराजा, हिठिल्लं वान सकह गिण्हइ के० डावी हेठलो दाढा लोए. अवसेसा के। वीजा शेष, भवणवह नाव वेमाणियादेवा के० भवनपति यावत वैमानिकदेवता. जहारि के० जेम जेने योग्य होय ते, अवसेसाई के शेष थाकतां, अंगनंगाई .गिग्डइ के० अंगोपांग लीए. केइ जिणभत्तीए के० कोइक देवता जिननी भक्ति जाणी लीए, केइ जियमेयं तिकड के० कोइ जीत आचार छे, एम फरीने लीए, केइ धम्मो तिकडु गिण्हइ के० कोइक धर्म छ एम फरोने लीए. तए णं सके देविदे देवराया के० तेवार पछी शक देवेंद्र देवराना, भवणवा जाव वेमाणिया देवा एवं वयासी के भवनपति प्रमुख देवता एम कहे, खिपामेव भो देवाणुपिया के शोध शोघ्र हे देवानुप्रिय! सन्वरयणामए के० सर्व रत्नमयी, महइमहालए के अति मोटो, तो चेइअथूमे करेह के० श्रण चैत्यस्तूभ करो. एग भगवमो तित्थगरस्स के एक भगवान् तीर्थकरनी, एगं गणहराणं के एक गणधरनी, एगं अवसेसाणं अगगाराणं के एक शेप अणगारनी. तए णं के० तेवार पछी, वहवे जाव करेंति के० घणा भत्रनपति यावत् चार निकायना देववा धूम त्रण करे. तएणं के० ते वारे वे भवनपति प्रमुख देवता, वित्थगरस्स के तीर्थकरनो, परिनिव्वाणमहिम करंति के निर्वाण महोत्सव करे. जेणेव दोसरे दीवे के ज्यां नंदीवर द्वीप छे. तेणेव स्वागच्छति के० त्यां आवे इत्यादिक पाठ छे. इति जंबूद्वीप मज्ञप्ति पाठ इतिगाथार्य ॥१७॥
वली एज वात विशेषे कहे छे. शतक दशमे अंग पांचमे, उद्देशे छठे इंद; लालरे। दाढ तणी आशातना, टाले ते विनय अमंद, लालरे॥तु० ॥१०॥
अर्थ-शतक दशमे अंग पांचमे के० पांच अंग श्री भगवतीसूत्र-तेनुं दशसुं शतकतेने उद्देशे छठे के० छठा उद्देशाने विषे, इंद के चमरेंद्र प्रमुख इंद्र , दाढतणी आशाबना टाले के दादानो आशातनाओ टाछे छे. वे विनय अभेद के० ए वीत्र आकरो
विनय जाणवो. इति गायाक्षरार्थ. भावार्थ तो एछे जे, चमरेंद्र प्रमुख सुधर्मा सभा मध्ये , विषय प्रमुख नयी सेवदा, ते सुधर्मा सभा मध्ये परमेश्वरनो दादाओछे, तेनी आशातना टालवा माटे नयी सेवता. इवि भाव ॥१८॥
इहां ए स्तवनने विषे वो दशमा शवकना छा उद्देशानी साख लखी, अने श्री भग
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दोडसो गाथार्नु स्तवन.
(३३)
वती सूत्रमा जोता तो दशमा शतपना पांचमा उद्देशामा ए पाठ छे. ते माटे जाणीए छैए जे कोइ धुरथीज लखनारनो दोप छे. अन्यथा उपाध्यायजी एम आणे नहीं, एहवी तीति के. अथवा रामसत्तिए-अनाभोगे उपाध्यायजीए एम आण्युं छे. यतः-"नहि नामानाभोगः छस्थस्येह कस्यचित्रास्ति । ज्ञानावरणीयं हि ज्ञानावरणमऋतिकर्म ॥१॥" हवे ते पाठ लखीए छैए.-"चमरे णं भंते! असुरिंदे असुरकुमारराया चमरचंचाए रायहाणिए सुहम्माए सभाए चमरंसि सिंहाससि तुडिएग सद्धि दिव्वाई भोगभोगाई गुंजमाणे चिहरिचए? जो इणढे समढे से केणदेणं भंते ! एवं बुचइ नो पभू जाव विहरित्तए। गोयमा ! चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो चमरचंचाए रायहाणीए मुहम्माए सभाएमाणवए चेइअखंभे बहरामएमु गोलबहसमुग्गएसु बहुइओ जिणसाहाए सन्निरिकत्ताए चिटुंति । जाओ णं चमत्स्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो अन्नेसिंच बहूण अउरकुमाराणां देवाणं देवीण य अचणिज्जाओ वंदणिज्जाओ नसणिजाओ पुयणिजागो सकारणिज्जामो सम्मापणिज्जामो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासणिजामो भवति,से तेणटेणं अज्जो एवं बुधइ णो पशू जाय विहरित्तए । पभू णं भत्ते! चगरे अमुरिंदे असुरराया चमरचंचाए रायहाणीए मुहम्माए सभाए चमरंसि सिहासणंसि चउसट्रिए सामाणिय साहस्सीहिं वायचीसाए जाव अण्णेहिं अमुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि य सद्धि संपरिखुढे महया हयनट्ट जाव मुंजमाणे विहरिनए? ईता केवलं परियारिद्रीए नो चेव णं मेहुणवत्तियाए॥" व्याख्याचमरेणं भंते के० हे भगवन् ! चमरो, असुरिंदे के० असुरक्षेचनो इंद्र, असुरकुमारराया के० अमुरकुमारनो राजा, चमरचंचाए रायहाणीए के० चमरचंचानामे राजधानीने विषे, मुहम्झाए सभाए के. सुधर्मानामा समाने विपे. चमरंसि सिहासणंसि के० चमरनामना सिंहासनने विपे रखो. तुडिएगसद्धि के० तुटित जे द्राणीनो समुह ते साथे, दिवाई के. देवसंबंधी, भोगाई के० भोग, झुंजमाणे के. भोगवतो थको, विहरित्तए के. विचरे. ममुजी कहे छे. णो इणटे समटे के० ए अर्थ समर्थ नहीं. एटले भोग न भोगवे, से केणट्रेण भत्ते एवं बुचइ के० हे भगवन् , शामाटे एम कहो छो? णो पभू जाव मिहरिचए के. न समर्थ भोग भोगवतो विचरवाने. एम पूछे थके भगवान् कहेछ. हे गोयम, चमरस्सणं अमुरिंदस्स अनुरकुमाररनो के० चमरो असुरेंद्र असुरकुमार राजानी, चमरपंचाए रायहाणीए के० चमरचंचा राजधानीमा, सुहम्माए सभाए के. सुधर्मा सभाने विषे, माणवए चेइयखंभे के० माणवकनामा चैत्यस्थभने विषे बइरामएस के. वनमयी, गोलबहसाग्गएम के० घणा गोल डावडा छे. तेहने विषे, जिसकहाओ के जिनेश्वरनी दाढाओ, सनिरिकत्ताओ चिति के० थापी थको छे. जाओ णं के०जे दाढाओ, चमरस्स अमुरिदस्स असुर माररनो के० चगरो, असुरेंद्र, असुरकुमार राजाने तथा अन्नेसिं च के. वीजा पण देवताने, बहुणं अमरकुमाराणं के० घणा अमरकुमार, देवाणं के देवताने,
वच सुरेंजश्चामीकर
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(३४) महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. देवीण य के देवीओने, अच्चणिज्जाओ के० अर्चवा योग्य छे. वंदणिज्जाओ के० वांदवा योग्य छे. णमराणिज्जाओ के नमस्कार करवा योग्य छे. पूणिज्जाओ के० पूजवा योग्य छे. सक्कारणिजाओ के सत्कार करवा योग्य छे. सम्माणणिज्जाओ के० सन्मान करवा योग्य छे. कलाणं मंगलं के० कल्याणकारी, मंगलकारी. देवयं चेइयं के देवताना चैत्यनी परे. पजूवासणिजाओ के० सेवा करवा योग्य, भवंति के० छे. से तेणटेणं अजो एवं बुच्चइ के० हे आर्य, ते माटे एम कहीए छैये. णो पभू जाव विहरित्तए के नथी समर्थ, यावत् देवीओ साथे भोग भोगववाने. फरी पूछयु जे, चमरो असुरकुमार चारचंचा राजधानीने विषे सुधर्मा सभामां चमरसिहासनने विषे वेठो. चउसट्रिए सामाणियसाहस्सीहि के. चोसठ हजार सामानिक देवता साणे, तायत्तीसाए के० तेत्रीश त्रायत्रिंशक साथे, नाव अहि असुरकुमारेहि, इत्यादिक मुगम छे. इत्यादि भगवतीमूत्रे शतक दशमे उद्देशे पांचमे. इहां परिचारणशुद्धि के० नाट्य पूजामांहे स्त्रीशब्द श्रवणादिक परिचारण करे, पण मैथुन संज्ञाए सुधर्मासभामां शब्दादिक न सेवे. ए रीते जेम चमरेंद्रलगे एटले भवनपति, व्यतर, ज्योतिपी, वैमानिक तथा तेहना लोकपालना आलावा छे. ते सर्व अर्थी होतो जोज्यो. ___ हवे अहींयां कोइ पूछे जे भगवतीसूत्रमा तो एटलं कडं जे "मुधर्मासभामां दाढायो छे, माटे विपय वात न करे पण ते करत आशातना थाय, एम क्यां का छे?" एवी मूर्खनी आशका धरीने लखीए छैए जे सांभल, श्री उववाइ प्रमुख सूत्रमाहे अनाशातना विनय कह्यो छे, ते सर्व परमारथथी जोतां अरिहंतनोज विनय जाणतो. ___ हवे एवा अधिकार सांभलीने ते कुमति वोल्या जे "देवता तो अविरति, अपञ्चखाणी छे, नोपम्मिया छे. ए देवतानी करणी कोण लेखामां गणे छे ? ते माटे ए देवताए एटलां वानां करयां छे, पण अमे तो एनी करणी मानवा नथी." एम देवताने नोधम्मिा कही कहीने निदे छे तेने शिखामण दिए छे.
समकितदृष्टि सुर तणी | आशातना करशे जेह ॥ लालरे ।। दुर्लभवोधि ते थशे। ठाणांगे भाख्यु एह ॥ लालरे ॥ तु०॥१९॥
अर्थ-सभ्यदृष्टि मुरतणी के० सन्यग्दृष्टि देवतानी, आशातना करशे जेह के जे पाणी आशावना करशे, अवर्णवाद वोलशे, दुर्लभवोधि ते थशे के ते प्राणी दुर्लभवोषि था. एटले आगल वोधि वीजनो सामग्री दोहली मलशे. इति भाव. ठाणांगे भाख्यु एह के० एवी वात ठाणांगसूत्र जे त्रीशुं अंग तेमां कही छे. यदुक्तं-"पंचहि ठाणेहिं जीवा दुल्लहवोहियत्ताए कम्म पकरेंति तं जहा अरिहंताणं अवण्णं वयमाणे १ अरिहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अवण्णं वयमाणे २ आपरियउवज्यायागं अवण्णं वयमाणे ३ चाउवण्णस्स सघस्स अवण्णं वयमाणे ४ विवकतववंभचेराणं देवाणं अवणं वयमाणे ५" व्याख्या-पंचहि
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दोढसो गाथानुं स्तवन.
( ३५ ) ठाणेहिं के० पंच स्थानके, जीवा के० जीवने, दुलहवोहित्ताए के० दुर्लभवोधिपशुं एटले परभवे जिनधर्म प्राप्ति दोहली होय. कम्मं पकरेंति के० कर्म वांधे. तं जहा के० ते पांच प्रकार देखाडे छे. अरिहंताणं अवण्णं वयमाणे के० अरिहंतना अवर्णवाद बोलतो १ अरिहंतपण्णचस्स धम्मस्स अवण्णं वयमाणे के० अरिहंतना परूप्या धर्मना अवर्णवादने वोलतो. २ आयरियउवज्झायाणं अवण्णं वयमाणे के० आचार्य उपाध्यायना अवर्णवाद बोले ३ चावण्णस्स संघस्स अवण्णं वयमाणे के० चतुर्विध संघना अवर्णवाद बोलतो ४ पांचमा बोलनो अर्थ आगल लख्यो छे, पण एटलो फेर जे अवर्णवाद बोलतो दुर्लभवोधिप करे. तथा वर्णवाद ते जश बोलतो थको जीव सुलभवोधिपं करे. इति ठाणांगे ॥ इति गाथार्थ ॥ १९ ॥
ए जेम समकिती देवताना अवर्णवाद वोलतां दुर्लभवोधी थाय तेम एनो जश वोलतां सुलभवोधी पण थाय. ते देखाढे छे.
हने जश बोले कनुं । वली सुलन वोधित थाय ॥ लालरे ॥ तेणे पूजादिक तेहनां । करणी शिवहेतु कहाय ॥ लालरे ॥ तु० ॥२०॥
अर्थ - तेहने के ० ते समकितदृष्टि देवतानो जश वोले के० वर्णवाद बोलतां, कघुं. के० श्री ठाणांग मध्येज धुं छे. ठाणांग मध्ये एटलो पाठ अर्थ गम्यथी लड़ए. वली के० ते दुर्लभबोधिनी अपेक्षाए, सुलभवोधित थाय के० आगल वोधिवीजनी सामग्री तरत मले. यतः - " पंचहि ठाणे जीवा सुलहवोर्हित्ताए कम्मं पकरेति तं जहा अरिहंताणं वण्णं वयमाणे Goa विवकतव भवेराणं देवाणं वण्णं वयमाणे ॥ अहींयां कोई पूछे जे ए सूचना आलावामां समकिती क्यां का ? जे तमे कहो छो समकितीना अवर्णवाद वोले ते दुर्लभवोधी थाय ! ते तो एमां न आन्यां एम कहे छे, तेने सुत्रमांथी आम्नाय देखाडी समकित ठरावे छे. अहींयां आचार्य उपाध्याय इत्यादिक भाव निक्षेपे प्रसिद्ध छे. ते माटे der atri विशेषण पद न कह्यां. अने देवपदनो अर्थ तो मुख्यताए क्रीडादिक वाचक उदयिक भावपुष्टिपणे प्रसिद्ध छे, ते माटे विशेषण कहूं. विवक के० पाकां तप ब्रह्मचर्य, तेथी उपन्यां पुण्यकर्म जेने एवा देवनो अवर्णवाद बोलतां एतावता सम्यग्दृष्टि भाव्याज. इति भाव. तेणे के० ते कारण माटे ए सम्यग्दृष्टि छे. ते माटे तेहनां के० ते देवतानां पूजादिक के० पूजा आदि शब्दथी जन्म महोत्सव समवसरणादिक गमन समवसरणादिकनुं रच लेइए. एहवी जे करणी ते शिवहेतु कहाय के० मोक्षनां हेतु कहीए. एटले देवतानी जे पूजादिक करणी ते मोक्षहेतु जाणवी. इति भाव. इति गाथार्थ ॥ २० ॥
वली जेओ देवतानी करणी नथी मानता तेमने ठपको दे छे. ते जैनशेलीना अजाण छे एम देखाडे छे.
वच सुरेंद्रश्चामी
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(३६)
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महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. तप संयम तरुसम कह्यां । फलसम ते सुर शिव शर्म || लालरे॥ सुरकरणी माने नहीं। नवि जाण्यो तेणे ए मर्म ।। लालरे।।तु ॥२१॥
अर्थ-तप संयम तरुसम कह्यां के० तपस्या तथा संयम ते तो वृक्ष समान कहां छे. अने तेहनां फल समान वे, सुर के० देवतानां सुख, शिव के० मोक्षनां, शर्म के मुख कहां छे. एटले ए भाव जे, तप संयम ते कारण थयां अने देवतानां तथा मोक्षनां सुख ए कार्य थणं. हवे विचारो जे, कारण अने कार्यमध्ये अधिक शुं कहीए? एतावता कार्य अधिक कहिए. "केइत्य देवलोएडं केइ सिझति नीरया ॥” इति वचनाद. ते माटे सुरकरणी के. देवतानी जे करणी ते माने नहीं के० न माने, तेणे के० ते मूर्ख, ए कारण कार्य भावना संवधनो जे, मर्म के० गुह्यार्थ ते, नवि जाण्यो के० नथी ओलख्यो. एटले निपट मूर्ख छे. इति भाव. इति गाथार्थ ॥२१॥
हवे कोइकने शंका उपजे जे "देवतामा समजण काची हशे ते पूजा करे तो मुखे करो, पण अमे समजु थइने पूजा केम करीए ? तेने उत्तर दे छे.
दशवकालिक नर थको । सुर अधिक विवेक जणाय ॥ लालरे ॥ द्रव्यस्तव तो तेणे कस्यां । माने तस सुजश गवाय।। लालरे॥तु||२२॥
अर्य-दश वैकालिके नरथकी के दश वैकालिकने लेखे मनुष्य थकी पण, सुर के देवताने, अधिक विवेक जणाय के अधिको विवेक जणाय छे. तयाच तत्सूत्र-"धम्मो मगलमुक्किटु अहिंसा संजमो तवो । देवा वि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो ॥१॥" एगाथाने विषे एम का जे धर्मने विषे जेतुं सदा मन पर्ने छे, तेने देवता पण नमस्कार करे. अपि शन्दे एम सूचवे छे जे, मनुष्य कर तेमां कहेज ? ए लेखे मनुष्य यकी अधिक विवेक ठरयोज, अने द्रव्यस्तवतो तेणे करयां के द्रव्यस्तव जे, प्रभुपूजा, अने परमेश्वरनी भक्ति ते देवताए करयां छे. माने के० ते द्रव्यस्तव करयां ते माने, प्रतीति करे. तस के० ते पाणीनो मुजा के० भलो जे जश ते गवाय. एटले ए भाव जे देवतानां करयां द्रव्यस्तव मान्यां, एटले आगम प्रमाणे श्रद्धा थड. ते श्रद्धावंतना गुणग्राम भव्यप्राणी करेज. इति भाव. एटले कर्ताए जश एवं पोतार्नु नाम पण सूचव्यु. इति गाथार्थ ॥२२॥ एटले वीजो ढाल संपूर्ण थयो. ग्रंथाग्रंथ ५३६ अ० २४ सर्व ग्रंथाग्रंथ १० १०अ०६
हवे त्रीजी दाल मांडे छे. तेने पूर्व ढाल साथे ए संबंध छे के वीजा ढालमां पूजानो अधिकार देवता संबंधी कयो. हवे जे मूर्ख देवतानी करणीमां आई अवलं बोले छे, तेने मनुप्यना अधिकार सिद्धांत साखे ए ढालमा देखाडे छे. ए संबंधे करी आव्यो जीजी हाल तेनी प्रथम गाथा कहे छे.
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दोढसो गायानुं स्तवन.
ढाल ३ जी || ॠषभनो वंश रयणायरु || ए देशी ॥ शासन ताहरु अति भलुं । जग नहीं कोई तस सरखुरे ॥ तेम तेम राग घणो वधे । जेम जेम जुगति शुं परखुंरे ॥ शा० ॥ १ ॥
( ३७ )
अर्थ - शासन के० शीखामण वचन, ताहरु के० तमायें, अर्थापत्तिए हे परमेश्वर, तमारुं शीखामण वचन, अति भलं के० घणु रुडु छे. जग नहीं कोइ तरा सरखं के० जगतमां कोड ते सरखुं नथी. जेम जेम युक्तिए परीक्षा करुं हुं तेम तेम राग घणो बघतो जाय छे. इति प्रथम गाथार्थ ॥ १ ॥
·
श्रीअरिहंत अने तेहनां । चैत्य नमुं न अनेरारे ॥
अंबड ने तस शिष्यनां । वचन उववाइ घणेरांरे ॥ शा० ॥ २ ॥
अर्थ - श्री अरिहंत के० श्री वीतराग, अने तेहनां के० श्री वीतरागनां, चैत्य के० प्रतिमाने, नर्मु के० नमस्कार करुं. न अनेरां के० श्री वीतराग तथा वीतरागनी प्रतिमा टाली अन्यदर्शनी तथा अन्य दर्शनीनी प्रतिमा न नमु. ए रीने कोणे कां छे ? ते कहे छे. अंबड ने तस शिष्यनां के० अंबड परिव्राजक अने वडना शिष्य, तेनां वचन उवबाइ घणेरां के० श्री डबवाड़ प्रथम श्री आचारांग सूत्रतुं उपांग तेहमां घणां वचन छे. इति गाथार्थ ॥२॥ तथा च सूत्रं - "अंबडस्स णं नो कप्पड अन्नउत्थिए वा अन्नउत्थियदेवयाई वा अन्नउत्थिअपरिग्गहियाई अरिहंतचेइयाई वा वंदित्तए वा नर्मसित्तए वा नन्नत्थ अरिहंते वा अरिहंतचे आणि वा ॥ " ए अंवडनो अधिकार कह्यो. एज रीते तेना सातसें शिप्योनो अधिकार जाणवो ते कहीए हैए- "तेणं परिव्वायगा बहूई भंचाइ अणसणाई छेदित्ता आलोय किंता समाहिपत्ता कालमासे कालं किचा बंथलोंए कप्पे देवताए उबवन्ना तर्हि तेसि गई दससागरोवमाई ठिई परलोग आराहगा सेसं तं चेव ॥' अहींयां अंड शिष्यनो शेप अधिकार अंबडने भलाच्यो, ते माटे समकितनो आलाबो सहूनो सरखो जाणवो. इतिभाव.
अर्थ - अंबड परिव्राजक पोतेज वोले छे. अंवडस्स णं के० अंवडने, णो कप्पड़ के० न कल्पे, अन्नefore वा के० अन्य तीर्थी प्रत्ये तथा, अनउत्थियदेवयाणि वा के० वा अथवा अन्य तीर्थीना देव प्रत्ये, तथा, अन्नउत्थियपरिगहियाई के० अन्य तीर्थीए ग्रद्यां एवां अरिहंतनां चैत्य ने जिनमतिमा ते प्रत्ये, एटले ए भाव जे अरिहंतनी प्रतिमा होय, 'ते अन्य तीर्थीए पोत पणे ग्रही होय, ते प्रत्ये भुं न कल्पे ? ते कहे छे. वंदितए वा के० वंदना स्तवना करवी, तथा, नमसित्तए वा के० नमस्कार करवो, नन्नत्थ के० एह बिना, अरिहंते वा के० अरिहंत तथा, अरिहंतचेयाणि वा के० अरिहंतनी प्रतिमा, एटले ए बेचने वंदना नमस्कार करूँ, पण पूर्वे कलां तेमने न करूँ. इविभाव. एअंवडनो अधिकार
वच सुरेंद्रश्चामीकर
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महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत.
कह्यो. वली एज प्रमाणे तेना सातसे शिष्योनो अधिकार जाणवो. ते कहिए छैए- "ते णं परिव्वायगा के० ते परिव्राजक, वहुई भत्ताए अणसणाई छेदित्ता के घणा भात अणशणे छेदीने, आलोइयपडिकंता के० आलोइ पडिकमीने, समाहिपता के समाधि पाम्या थका, कालमासे काल किवा के काल अवसरे काल करीने, बंभलोए कप्पे के० पांचमा ब्रह्मदेवलोकने विषे. देवत्ताए उबवन्ना के० देवतापणे सघलाए उपन्या. तेहिं के० ते देवलोकने विषे, तेसिं के० ते देवताओनी, दस सागरोवमाई ठिई के० दश सागरोपमनी स्थिति छे. परलोगस्स आराहगा के परलोकना सहुए आराधक छे. सेसं तं चेव के० शेष वीजो सर्व पाठ अंबडनी परे कहेवो ॥२॥
हवे ते मूर्खलोक, चैत्य शब्दनो अर्थ फेरवे छे. ते उपर आगली गाथा कहे छे. चैत्य शब्द तणो अरथ ते । प्रतिमा नहि कोइ बोजोरे ॥ जेह देखी गुण चिंतिए | तेहज चैत्य पतीजोरे ॥ शा० ॥ ३ ॥
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अर्थ - चैत्य शब्दनो अर्थ ते प्रतिमा छे, पण नहीं कोई बीजो के० वीजो कोइ अर्थ नथी. ‘चैत्यं जिनौकस्तद्विषं ।' इति अनेक ार्य संग्रहवचनात् वली आवश्यक चूर्णिमध्ये पण कं छे जे - "सव्वलोए सिद्धाई अरिहंत चेइआई तेर्सि चेव पडिमाओ, चित्तिसज्ञाने संज्ञानमुत्पाद्यते काष्टकर्मादिषु प्रतिमां दृष्ट्वा ॥" चैत्य शब्दनो ज्ञान एवो अर्थ कोइ पण ठेकाणे नी. नहींतर || 'केवलवरनाणदंसणं समुपजइ ॥' एहवा पाठ सिद्धांतमां छे. तेम ॥ 'केवलवरचेइयदंसणे ॥' एवो पाठ पण होय तथा जेह देखी गुण के० जे देखीने गुण ते परमात्माना गुण अथवा पोताना ज्ञानादिक गुण, चितिए के प्रतीतमां आणीए. तेहज चैत्य पतीजो के ० तेमने चैत्य प्रतीतमां आणो. इति गाथार्थ ॥ ३ ॥ अने चैत्य कहेतां ज्ञान कहीए तो अन्य तीर्थीए ग्रधुं जे अरिहंतनुं ज्ञान ते केम संभवे ? तथा ज्ञान एक अने चैत्य अनेक छे ॥ चेइयाई | ए ठामे बहुवचन छे. इत्यादिक शब्दार्थनी वातो मूर्ख शुं जाणे ? व्याकरणादिक बिना व्युत्पत्ति शुं जाणे ? अने ज्यां शब्दशुद्धि न होय वो, ते विना वीजुं महाव्रत न आराधे. श्रीमनव्याकरणांगमां कहुं छे के - "नामरकाय-निवाय - उवस्लग्ग - तद्धिय-समास - संधि - पय हेउ - जोगिय - उणाइ - किरिया विहाण - धातु - सर - विभतिवनजुत्तं-तिकलं । दसविहंपि सच्चं जह भणियं तह कम्पुणा होइ दुवालस बिहाई वि होइ भासावणं पिय होड सोलसविहं एवं अरिहंतमणुन्नायं समिरिकयं संजएण कालंमि वत्तव्वं ॥" अर्थ - नाम ते देव, घट, वृक्ष इत्यादिक विभक्ति रहित शब्द ते नाम कहीए. आख्यात ते क्रियापद, जेम भवति, करोति, तनोवि, पचति, पठति इत्यादिक, निपात ते अनेक अर्थने विषे पडे, यथा-च, वा, खल, अहो, एव, एवं, नूनं, विना इत्यादिक. उपसर्ग ते उपसमीपे धातुने करीए ते उपसर्ग. प्र, परा, अप, से, अब, निर्, दुर्, वि, आङ्, अघि, अभि इत्यादिक. तद्धित तेने हित ते तद्धित यथा नाभेरपत्यं नाभेयः तव इदं तावकं मम इदं
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दोढसो गाथार्नु स्तवन
मामक, इत्यादि. समास ते, अव्ययीभाव प्रथम, तत्पुरुष बीजो, द्वंद्व श्रीजो, बहुव्रीहि चोयो, कर्मधारय पांचमो, द्विगु छठो अने एकशेप सातमो, ए सात समास जाणवा, उपनगरं ग्राम ए अव्ययी भाव १, अर्हतां चैत्यानि अरिहंतचेइआणि ए तत्पुरुष २, ग्रामनगरे नगरखेडकपडा इत्यादि द्वंद्व ३, बहुधनं यस्य स बहुधनः बहुधणो ए बहुव्रीहि ४, नीलं च तदुत्पलं नीलोत्पलं नीलुप्पलं ए कर्मधारय ५, दशानां पुराणां समाहारो दशपुरं, ए दिए ६, माताच पिताच पितरौ ए एकशेप ७, एम समास जाणवा. संधि के० वे पद एकठां मले ते संधि कहीए. यथा दधि इदं दधीद, गुणाकार इत्यादि. पद के विभक्ति अंते यावे ते पद कहीए. तथा हेतु पंचावयव अनुमाननो अंग-तर्क शास्त्र प्रसिद्ध. यौगिक ते घेउ पदने योगे निष्पन्न हरिषेण, श्रीषेण, पद्मनाम इत्यादि. ओणादि अनेक प्रत्यय छे. यथाअत सातत्यगमने इति धातु. अतति गच्छति इति आत्मा. अहीयां औणादिक प्रत्यय छे. एणीपरे औणादिक प्रत्यय थकी अनेक शब्द नीपजे छे. किरियाविहाण के क्रियाविधि क्रियाए करी पद नीपजे छे. यथा पठतीति पाठकः पचतीति पाचकः इत्यादिक. धातु ते भू सत्तायां पा पाने धा गंधोपादाने ध्या शब्दामिसंयोगयोः इत्यादि अनेक धातु छे. स्वर अकारादिक. अआ इई उऊ ऋ लल एऐ ओऔइत्यादिक. विभक्ति के० स्यादित्यादि. वर्ण ते अक्षर क ख ग घ ङ च छ ज झ व इत्यादिक. व्यंजन ते वर्ण कहेवाय एटले करी युक्त के० सहित तथा, विकलं के० त्रिकाल विषय अतीत अनागत वर्तमान काल विषयर्नु वचन, यथाविधि वोलवु. सविहं पि सच्चं नह भणियं के०दश प्रकारचें सत्य ते जेम पूर्व जणवयसम्मयठवणा इत्यादिक कहां छे. तह कम्मुणा होइ के० अक्षर लखनादिक क्रिया करे ते पण सत्य जाणवं. एटले ए भाव-जेम वचन सत्य बोलचे, तेम बीलु हस्तादिक कर्म पण सत्ये करणे. कोइ एम जाणशे जे में जुटुं वोलवानो नियम कीपो छे पण लखवानो तथा मस्तक नयनादिक संज्ञानो नियम नथी कीधो एम न जाणवू. जेम वचन सत्य तेम कर्म पण सत्यज कर इत्यर्थ दुवालस विहाई होइ भासा के० भाषाना बार भेद जाणवा. ते कोण? तो के एक संस्कृत, वीजी प्राकृत, त्रीजी सौरशेनी, चोथी मागधी, पांचमी पैशाचिकी, छठी अपभ्रंशिका. ए भाषा गधपध घेउ भेदे करतां भाषाना बार भेद थाय, वथा, धयणं पि य होइ सोलसविहं के वचन पण शोल प्रकारे जाणवु ते शोल भेद की? ते ग्रंथांतरथी कहीए छैए-"वयणतियं ३ लिंगतिय ३ कालतियं ३ तह परोरकपच्चरक ११ उवणीयाइचउकं १५ अज्झत्यं चेव १६ सोलसम” अस्यार्थ-एकवचन, द्विवचन अने बहुवचन, वृक्षः घटः पट: ए एक वचन, वृक्षौ घटौ पटौ ए द्विवचन, अने वृक्षाः घटा: पटा: ए बहुवचन ए वचनत्रिक. पुरुप बी नपुंसक लिंग, देवः नर: ए पुलिंग. कुमारि, नदी, नगरी, गंगा यमुना ए स्त्री लिंग. कमलं, मुखं, नयन, ए नपुंसक ए लिंगत्रिक ६. अतीत, अनागत, वर्तमान ए कालनिक ९. अकरोत् , अभूद, अपठत् ए अतीतकाल. करिष्यति, भविष्यति, पठिष्यति ए अनागत काल, करोवि, भवति, परति ए वर्तमानकाल
वच सुरेंजश्चामीकर
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महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत.
एवं ९. परोक्ष वचन ते, ए कार्य तेणे कीधुं इत्यादिक १०. प्रत्यक्ष वचन ते, ए एम करे छे इत्यादिक ११. उपनीत अपनीत ते पहेलो गुण, पछी अवगुण. जेम ए स्त्री सुशील छे पण काली छे १२ अपनीत उपनीत ते पहेलो अवगुण अने पछी गुण, जेम-ए पुरुष कुशील छे पण पंडित छे १३ उपनीत उपनीत ते पहेलो गुण कवो अने पछी पण गुण कहेवो. यथा-ए स्त्री रूपवंती छे अने सुशील छे १४. अपनोत अपनीत वचन ते पहेलु वखोडकुं अने पछी पण बखोढबुं. यथा, स्त्री कुरूपी छे अने कुशील छे १५. अध्यात्मवचन ते हैयामां गोपीने कish कहे होय अने हैयामां होय तेज कहेवाय. यथा, - कोइक रूनो वेपारी बाणीओ रू मोंधुं जाणी कोइक गामेरू लेवा गयो. हवे तृषा लागी. मनमां जाणे छे जे ख्नी बात कोहने कहेवो नथी. हवे ते वाणीयो पाणी पीवा कोइकने घरे गयो त्यां तेणे ते घरवाली खीने कर्छु के रू पा. हवे ते स्त्री विचिक्षण छे माटे जाण्युं जे एहने पाणी पीछे; अने एम क जे रू पा; माटे रू मधुं दीसे छे. पछी पोताना भरतारने कहीने रू पोते लेवराव्यं; त्यां लगी ते स्त्रीए रूना वेपारी वाणियाने आगता वागता करी भोजन करावी पछी विसर्जन करो. ए अध्यात्म वचन कहीए १६ एहवा सर्व पूर्वोक्त प्रकार समजीने बोले ते सत्य भाषा अने कांइकने ठामे कांइक कहे तो श्री वीतरागनी आज्ञा भंग करे. एवं के० ए रीते, अरिहंतमणुन्नायं के० अरिहंते आज्ञा करी छे. एम जाणी पूर्वे कं तेनुं सत्य बोलवु . समिख्किय के० सम्यक् प्रकारे बुद्धि आलोची विमासी संजपण काले वतव्वं के० संयमवंत चारित्रिए अवसरी बोलवं इति गाथार्थ ॥ ३ ॥
एमज आलावे आणंदने । जिनप्रतिमा नति दीसेरे ॥ सप्तम अंगना अर्थथी | ते नमतां मन हींसेरे || शा० ॥ ४ ॥
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अर्थ- मज आलावे आनंदने के० एल रीते जेम अंवडने कहुं तेम आनंदने आलावे पण जिनमतिमानुं नति के० नम दीसे छे. सप्तम अंगना अर्थथी के० ए सातमा अंगनो अर्थ छे. एटले श्री उपाशकदशांग मध्ये आणंद श्रावक जिनमतिमाने नम्या छे. ते कारणथी ते के जिनमतिमा नमतां थकां मनहीसे के० मन हर्पे. इति गाथार्थ. ४. ते आणंदन आलावो श्री उपासक दशांगसूत्र मध्ये छे; ते लखीए छैए.-"नो खलु मे भवे कप्पर अन्न पथिइ च णं अन्नउत्थिया वा अन्नउत्थियदेवयाणि वा अन्नउत्थियपरिग्गहियाई अरियाई वा दिए वा नमसित्तर वा पुव्वि अणालित्तेणं आलवित्तए वा संलवित्तए वा, तेसिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउँ वा अणुपदाउँवा, नवत्थ रायाभिओगेणं गणाभिभोगेणं बलाभिओगेणं देवाभिओगेण गुरुनिग्गहेणं वित्तिकतारेणं, कप्पड़ मे समणे निग्गंथे फामुएस णिज्जेणं असण पाणं खाइमं साइमेणं वत्थपरिग्गहकंवलपायच्छणेणं पाडिहारियपीढफलग सेज्जासंवारएणं श्रसहसज्जेणं परिलाभे माणस्स विहरित्तए, इति कट्टु एवं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिन्हा ||" - अस्यार्थ - नो के० नहीं, खल के० निश्चे, मे
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दोढसो गायानुं स्तवन.
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( ४१ ) के सुजने, भंते के० हे भगवन, कप्पड़ के० कल्पे पटले हे भगवन् सृजने नहीज कल्पे. इति भाव. भुं न कल्पे ? ते कहे छे. अज्ज पभि च णं के० आजथी मांडीने, अन्नउत्थिया वा क • अन्य तीर्थी मत्ये वा शब्द पक्षांतर सूचक के. अन्नउत्थियदेवयाणि वा के० अन्य affar देव हरिहरादिक. अन्नउत्थियपरिग्गहियाई अरिहंतचेडयाई के० अन्य तीर्थिए ग्रह्मां जे जिनचत्य - जिनमतिमा एटला प्रत्ये वंदित्तए वा केवढना करवी, नर्मसित वा के० नमस्कार करवो. पुत्रि अणालित्तणं के० आगलयी वगर वोलावे, आलवित्तिएवा के० बोलraj, संलवित्तम् वा के वारंवार बोलावं, ए सर्व न कल्पे. एम संबंध करवो. वली तेसिं के० तेहने असणं वा के० अगन ओधनाटिक, पाणं वा के० पाणी द्राक्षपानादिक, खाइभं वा के० खादिम शुखडी प्रमुख, साइने वा के० तंबोल प्रमुख, दाउँ वा के० देवु, अणुपदा वा के० वारंवार देवं न कल्पे, एम अहींयां पण जोडिए. पण ए छ कारण arted कहे छे. नन्नत्थ के० एटला कारण विना, रायाभिओगेणं के० नगराटिकनो खामी ने राजा कहीए, तेहनो अभिभग ते शासन, एटले राजानी आणाए करतां दोष नहीं, कार्तिक शेटनी परे १ गणाभियोगेणं के० लोकनी समुदाय ते गण कहीए, वेन आणा. २ तथा वलाभियोगेणं के० वलनंत चोर परम ऐश्वर्यनंत ते पोताना आग्रह करावे. ३ देवाभिओगेणं के० जैन प्रतिकुल क्षुद्र देवता तेहनी आणाए. ४ गुरुनिग्गणं के० गुरु ते माता, पिता, भर्ता, कलाचार्याटिक ते शाक्यादिना भक्तिवंत मिथ्यात्वी होय तेहना आग्रहधी वंदनादि कर पढे ते गुरुनिग्गहेणं कहिए. ५ वित्तिकंतारेण के० वृत्ति जे आजीविका नेहज कांतार ने भीष्म अटवी, तेहने एटले अन्यत्र artfernia rent मिथ्यात्वीनी आजीविका होय तेगे करी करवुं पडे. ६ ए छ छंडीए पूर्वे का तेमने वंदनादिक करता टोप न लागे. इतिभाव. ए न कल्पे वे कहुँ. हवे कल्पे
कहे छे. कप्पड़ से केव्युजने कल्पे. समणे निगं थे के जैन श्रमण निग्रंथ प्रत्ये अगन, १ पान, २ खादिम, ३ स्वादिम, ४ त्रत्थ के वस्त्र पडिग्गह के० पडघा - पात्र, कंवल के० वर्णम व पायपुच्छणेणं के० रजोहरण, पाडिहारिय के० वावरीने पाछां आपत्रां. एकवा. पोट के० बाजोट, फलक के० पाटला, सेज्जा के० वसती, संथारएणं के तृणादिक संथारो. ओमहमे सज्ज के० औपधने भेसज्जे करी, पडिलाभे माणस्स के० पडिलाभतां थकां, विहरित्तर के विचरनुं इति कट्टु के० एम करीने. एवं एयारूवं के एडवो एतद्रूप, अभिग्ग अभिfross के० अभिग्रह ते ले. इत्यादिक पाठ छे.
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हवे ढुंढक, ए आलावामां वांकु वाले छे, तेमने उत्तर वालवा माटे आगली गाथा कहे छे. ते ढुंढक एम कछे जे परतीर्थी तेहना ठेवनी प्रतिमाने वांदवानो निषेध करचो, पण जिनप्रतिमाने वांदी तो नथी एम कहे छे, तेहने उत्तर दिए छे.
परतीर्थी सुर तेहनी । प्रतिमानी नति वारीरे ॥
तेणे मुनि जिन प्रतिमा तणी । वंदन नति निरधारीरे ॥ शा० ॥५॥
वच सुरेंद्रश्चामीकर
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(४२) महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत.
अर्थ-परतीर्थी मुर तेहनी प्रतिमानी के० अन्यतीर्थी तथा अन्यतीर्थीना देवनी प्रतिमानी, नविवारी के० नमषानो निषेध करयो, तेणे के० तेहज कारणे, मुनि जिन प्रतिमा तमी के मुनिने तथा जिनप्रतिमाने वंदन नति निरधारी के० वंदना नमस्कारनो निरधार करथो. एटले ए भाव जे, अन्यतीर्थीने चंदनानो निषेध करयो; एटले मुनिने वंदना करु एम आव्युज. एमां मूर्खने पण शंका न उपजे. तथा पूर्व अंबडने आलावे अन्यवीयर्थीनो निषेध अने स्वतीर्थीनी हा एम वेवडो आलावो कोज छे, ते पण मूढो समजता नथी. इति भाव ॥५॥
चली कुमति एम कहे छे जे चैत्यशब्दे मुनि कहीए, एटळे अन्यतीर्थीनां ग्रह्मां चैत्य के० मुनि एहवो अर्थ मरडे छे. वेने उचर कहे छे.
परतीर्थीए जे परिग्रह्या । मुनि तेतो परतीर्थीरे ॥ त्रण शरण माहे चैत्य ते। कहे प्रतिमा शिव अर्थारे ॥शा०॥६॥
अर्थ-परती ए जे परिग्रयां मुनि के जे मुनि परती ए ग्रह्यां एटले अन्य तीर्थीओमां गया ते तो परतीर्थी के० ते मुनि तो परतीर्थीज कहीए, एटले परतीर्थीने चंदना नहीं कर तेहमा आवी गया ते माटे चैत्य शब्दनो मुनि अर्थ ते खोटो करे छे, ते उपर कहे छे. पण शरणमांहे चैत्य ते कहे पतिमा शिव अर्थी के० मोक्षअर्थी त्रण शरणमां चैत्य ते प्रतिमा छे एम कहे छे. एटले ए भाव जे भगवतीसूत्र मध्ये अमरकुमारना देवो सोधर्म देवलोक लगे जाय छे, त्यारे एक अरिहंत, वीजुं चैत्य अने त्रीजु अणगार ए अणनां शरण करे छे, तेहमा अरिहंत १ चैत्य २ अने अणगार ३ ए त्रण कहां छे. जो चैत्य के मुनि होत वो अणगार जूदा केम कहा? इति भाव. हवे ते श्री भगववीसूत्रनो आलावो लखीए छैए.-"नन्नत्य अरिहंते वा अरिहंवचेइयाणि वा भाविअप्पणो अणगारस्स वा णिस्साए उर्दू उप्पयंति नाव सोहम्मो कप्पो ॥" अस्यार्थ-ननत्य के० न अन्यत्र ए त्रण टालीने बीजी रीते जइ न शके. अरिहंते वा के अरिहंतनी निश्रा १ तथा, अरिहंतचेइयाणि के० अरिहंतनी प्रतिमा २ तथा, भाविअप्पणो के० संयम तपने विषे आत्मा भाव्यो छे जेणे, एवा, अणगारस्स के० अणगारनी निश्रा विना, उड़े उप्पयंति के० पर्व उतपते एटले ए निश्रा विना उंचा जइ न शके-भाव सोहम्मो कप्पो के० यावत्सौधर्म देवलोक लगे जइ न शके ॥ इति गाथार्थ ॥६॥ ___ अहीयां कोइक कुमति एम पूछे छे जे "कोण श्रावके देहेरा कराव्यां? " तेने कहिए जे श्री समवायांगसूत्रमा सर्वसूत्रनी हुंडी छे तेमां श्री उपासकदशांगनी हुंडी मध्ये कई छे ने “दशे श्रावकनां चैत्य तथा धर्माचार्य अने उधान कही." अहींयां साधु तथा प्रधान जूदा कयां छे, माटे चैत्य शब्दें मतिमा तथा देहेरांज ठरशे. तथा यधपि आजकालना दोषे करी सातमा अंगमा ए वावोनां पाठ विच्छेद गया छे, चोपण समवायांगनो पाठ
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दोढसो गाथार्नु स्तवन. खरो के नहीं ? ए लेखे श्रावके देहेरां पण कराव्यां छे. इति. ते पाठ लखीए छैए.-"से कि त उवासगदसाओ उवासगदसामु णं उवासगाणं नगराई उजाणाई चेइयाई वणसंडाई राया अम्मा समो धम्मायरिया इति ॥" अर्थ-से किं तं उवासगदसाओ के०उपासगदशांग तेरों कहीए ? एम पूछे थके उचर कहे छे उवासगदसामु ण के० उपासग दशांगने विषे, उवासगाणं के० श्रावकोनां, नगराई के० नगर कहेवाशे. उजाणाई के० उद्यान कहेवाशे. चेइआई के० चैत्य देहेरां कही, एम वनखंड कहीर, राजा कही. अम्मा के माता, पिता, धर्माचार्य कहीशुं ॥६॥
हवे कोइक मूर्ख, अन्य तीर्थीनां चैत्यने नहीं वांदु एम का, त्यां एम अपलं बोछे छे के जो चैत्य शब्दे जिनप्रतिमा कहेशो तेवारे आलावामां एम फछे के तेहने बोलावीस नहीं, अन्नादिक भापीश नहीं. ते केम मेलवशो ? ते उपर गाथा कहे छे.
दान कशु प्रतिमा प्रत्ये । एम कहे जे छल हेरीरे॥ उत्तर तास संभव तणी । शैली छे सूत्र केरीरे ॥शा०॥७॥
अर्थ-दान क प्रतिमा प्रत्ये के० ते कुमति बोल्यो जे प्रतिमाने दान |? एम कहे ने छल हेरी के० एम जे छलना हेरनार कहे छे. उत्तर तास के० तेहने उत्तर कहे छे. संभव तणी शैली छे सूत्र केरी के० सूत्रनी ए शैली छे, जेहने जे संभवे तेहने ते जोडीए, नहीं तो धणे ठेकाणे अर्थनो अनर्य थाय. एटले वंदना, नमस्कार ते अन्यतीर्थी एख सहुने जोडीए, अने दानादिक ते अन्य वीर्थीनेज जोडीए. पण प्रतिमाने न जोडीए. इति भाव. इति ससम गाथार्थः ॥७॥
ते संभव उपर सूत्रांतरनो पाठ आगली गाथामां देखाडे छे. दशविध बहुविध ज्यम कडं । वैयावच्च जह जोगरे॥ दशमे ते अंगे तथा ईहा । जोडीए नय उपयोगरे ।शा०॥८॥
अर्थ-दशविध के० दश प्रकारचं, बहुविध के० अनेक प्रकारचं ज्येम वैयावच्च कक्षु छे. ते, जह जोगे के०जेहने जेवू घटे तेह करवं. पण सामान्यसूत्रमा वैयावच्च करवू का. ते सर्वने सरखं नहीं. ते आगल देखाड . दशमे ते अंगे के० ते वैयावच्च दशमं अंग प्रश्नव्याकरण ते मध्ये जेम कह्यां छे, तथा इहां के० तेम इहां अन्यवीर्थी चैत्ये वंदनाममुख तथा अशनादिकर्नु देव, ते जेम घटे तेम अहीयां जोडीए. नयउपयोगे के० नयने उपयोगे जेम ज्यां जेवो नय घटे त्यां तेवो उपयोग राखी जोडीए.
हवे ते प्रश्न व्याकरण मध्ये त्रीजे संवर द्वारे पाठ छे ते लखीए छैए.-" अह केरिसए पुणाइ आराहए वयमिण जे से उवहिभत्तपाणे संगहदाणासले अञ्चत बाल १ दुब्वल २ गिलाण ३ बुद्ध ४ खवगे ५ पवते ६ आयरिय ७ उवमाए ८ सेहे
वच सुरेंअश्वामीकर
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(४४) महामहोपाध्याय श्री यशोविजयनी कृत. ९ साहम्मिए १० तवसी ११ कुल १२ गण १३ संघ १४ चेडयटे १५ निजस्ट्री वेयाव अणिस्सियन्सविडं बहुविहं पि करेंड" अर्थ-अथ के प्रश्न केरिसए के०कडेवा, पुणाइ पदते अलंकारने अर्थे छे. आराहए वयमिणं के० ए व्रत आरावे. एतावता गिप्य पूछे छे के हे भगवान, कंचो साधु ए त्रीजु व्रत आरावे ? एम पूछयाथी गुरु कहेछे. जे से केजे साधु, स्वडिभत्तपाणे के० वस्त्र तथा भातपाणीनो, संगह के० यथोक्त विधिए ठेवू. दाण केल्ययांक विधिए आचार्यादिकने आप. तेहने विषे, कुसले के निपुण एटले यथोक्त विधिए उपघि भाव पाणी लेइ जाणे तथा देड जाणे ते साधु ए त्रीजु व्रत आराव. तथा अञ्चत के. अत्यंत बाल होय, दुबल के० शक्तिहीन, ग्लान के० रोगादिकवत, बुट्ट के०वृद्धस्थविर, भपक के० मासक्षपणादिकनी करणहार. एटलाने विष वैयावच्च करे. त्या पवित्र के प्रवर्चक आचार्य उपाध्यायने विष वैयावच करे. तेहमा प्रवर्तक ते गच्छमाहे जे जेवा योन्य होय वेहने त्यहां प्रववि, ते मवर्चक कहीए. तथा, सेहे के नवदीक्षित शिष्यनी वैयावच करे. तथा, साहम्मिए के० लिंगे प्रवचने सरखो वर्ते ते साधर्मिक कहीए, तेहने वित्र वैयावच्च कर. तबस्सी के० चतुर्थ, पष्ट, अष्टमादिक तपनो करणहार तहने विषेवैयापत्र करे. तया कुल-गण-संघ-चइअट्टे के० कुल ते चांद्रादिक, गण ते कुलनो समुदाय कोटिकादिक, संघ ते कुलगणनो समुदाय जे चतुर्विध संघ ते. चैत्य के० अरिहंतनी प्रतिमा एटलानो जे अर्थ तहने विष निर्जरानो अर्थी कर्मक्षय वांच्छतो थको, अणिस्सियं के० मन मानादिकनी अपेक्षा विना एटले एहव॒ न वांच्छे जे हुँ एहनो वैयावञ्च कर; जेथी मारी प्रशंसा याय. एध्वा भाव रहित वैयावच करे ते कहे छ, वैयावच्च योग्यने उपष्टंभ द. अहींयां कोई एम पूछे के भातपाणी उपधि दीजे तेज वैयावच. एम कहे ते खोटुं. जे माटे वाल, दुर्वल, वृद्ध अने भपकादिकने विष भक्तपाननो वैयावच्च संभवे; पण कुल, गण अने संघ तया चैत्य एटलांने भातपाणीने देवेज वैयावच्च नथी. अनेरा घणा प्रकार वैयावचना होय; ते माटे कुल, गण, संघ तथा अरिहंतनी प्रतिमा-एटलानो कोइ अवर्णवाद, हीलना, विराधना करे, तेइने उपदेगादिक देड तेहनी विराधना टाले ए पण वैयावच्च कहीए. ए वैयावच चारित्रीओ करे ते त्रीजुं व्रत आराधे, अहींयां दशविध ते अन्यत्र ठाणांग क्या व्यवहारसूत्र मध्ये दश प्रकार कया है. यतः-"ठाणांगे दसविहे वेयावच्चे पन्नचे ते जहा । आयरिय वेयावच्चे १ उवज्झाय वेयावचे २ थेर ३ तवस्सी ४ गिलाण ५ मेह ६ कुल ७ गण ८ संघ ९ साहम्मिय वेयावच्चे १०" ए आश्रीने दश विध कर्जा छे. वहींयां पूर्वे जे घणा प्रकार कथा ते पण आ दशमां अंतर्भूत छे ते जेम बैयावच्च दश प्रकारनां सर्वने सरखां नहीं, नेम अनादिकर्नु दान पण अन्यतीर्थीने जोडीए, पण जिनपतिमाने न जोडीए. इति भाव. ए दशर्नु वैयावच, बहुविहं पि करेड के मातपाणी प्रमुख अनेक प्रकारे जहने जर्बु घटे, तेहने तेवू करे. इति वली प्रसंगागते लखीए छैये जे ए आलावामां साधुने दांडो को छे ते मूढो राखता नथी. ए रीवे भगवदीसूत्रे तयादश
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दोढसो गाथा स्तवन.
(४५) कालिके विपिवादे दांडो कयो छ, अने पूछया थकां कहे जे जे वृद्धने दांडो राखयो ते खोटुं कई छे. कारणे वृद्ध, कोई मूत्रमा कया नयी. दश बैकालिक विधिवादेदांडी पडिटेहवो को छे. हवे प्रस्तुत कई छे. साधुने जिनप्रतिमा तणु । वैयावञ्च त्यहां वोल्युरे ।। एह अरथथकी कुमतिनुं । हिय? कांई न खोल्युरे ॥ शा० ॥९॥
अर्य-साधुने जिनमतिमा तणु के० मुनिने जिन प्रतिमा तणुं एटले मुनिने जिनप्रतिमानु, वैयावच त्यहां बोल्यु के० ते प्रश्न व्याकरणमांज कयु. "चडअष्ट्रे निजरहि।" ए पद अनंतर वरणवी आव्या. तेह अरय यकी पण कुमतिनुं के० जिनवचन उत्यापक दुष्ट मतिना धणीनु. हैयुं कांड न खोल्यु के० लगार मात्र पण न उघड: अयचा कांइ न खोल्यु के गे न खोल्यं ? इति नत्रम गाथार्य ।।९।।
संघ तणी जेम थापना । यावच्च जस वादोरे ॥ जाणीए जिनप्रतिमातणुं । तेम ईहां कवण विवादोरे। शा०॥१॥
अर्य-संघवणी जेम स्थापना के० जेम पूर्व घोल कया त्यहां संपर्नु स्थापन करवू. वैयावच के० ते संवर्नु वैयावत्र कर. जसवादो के० ते संघनो जग बोलवो. तेम के० जेम संयने तेम जिनप्रतिमाने पण जाणवू. इहां कवण विवादो के० अहीयां पाप विचारे तेने शो विवाद छे ? इति दशम गाथार्थ ॥१०॥
हवे अहींयां जिनप्रतिमा अधिकार के माटे तवनमध्ये नधी गुंथ्यो, तोपण व्यवहारसूत्रयी आलोयण अधिकार लखीए छैम्, ते निश्चयथी जाणजोजी. जे मिरकू के. जे भिक्षु साधु, अन्नयरं के० अनेरो, अकिञ्चट्टाणं पडिसेविचा के० करवाने अयोग्य स्थानक पडिसविने, इच्छेनाके० वांच्छे. आलोइत्तए के० आलोचवू तो, जत्येव के. व्यहां, अप्पणी के० पोतानो, आयरियउबझाए पासेज्जा के० आचार्य उपाध्याय देखे, कप्पड़ से के कल्पे. ते साधुने, तस्संतिए के० तेनी समीपे. आलोडचए वा के॰आलोच. पडिकमित्तए वा के० पडिकमबुं. उवट्टित्तए वा के० प्रायश्चित्तने टाले, विसोहित्तए वा के० आमाने विशुद्धि करवा, अकरणयाए केफरी अणकरवे. अमुद्वित्तए वा के०एडवो उजमाल अयो. अहारिहं के० यथायोग्य, तवाकम्मं के० सप कर्म, पायच्छित्तं के० प्रायश्चित्त, पडिवज्जितए वा के०अंगीकार करीने विचरे छे. नो चेत्र णं अपणो आयरियउवयाए पासेजा के. कदाचित् पोतानो आचार्य तथा उपाध्याय न मल्या तो, जत्येव संभोइयं साइम्मियं के. ज्यहां आहार पाणी भैलु करे छे एवा सरखा धर्मना साधु, बहुस्सुयं के० बहुश्रुत, पजागम के० घणा आगमना जाण, पासेजा के० तेमने देखीने, कप्पइ से तस्संतिए केते सांभोगिक साधुने समीपे कल्पे, आलोइचए वा के आलोचई, जाव पविकमिचए वा के.
वच सुरेंजश्चामीकर
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(४६)
महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृतं.
यावत् पडिकम, नो चेवणं संभोइयं के० वली ते सांभोगिक पण, साहम्मियं के० सरखा धर्मना धणी, वज्जागमं पासेज्जा के० घणा आगमना जाण एवा न देखे तो जत्थेव अन्नसंभोइयं साहम्मियं के० ज्यहां अन्यसांभोगिक आहार पाणी एकठां न करवां ते साथे एवा सरखाधर्मी, बहुस्सुयं के० बहुश्रुत, वज्जागमं पासेज्जा के घणा आगमना जाण देखे, कप्पड़ से तस्संतिए के" तेमनी समीपे कल्पे अलाइचए वा के० आलाच जाव पडिवज्जि - तवा के यावत् प्रायश्चित ले, नो चेपणं अन्नसंभोइयं के० ते अन्य सांमेोगिक पण न T साहम्मियं के ० साधर्मिक, बहुस्सुयं के बहुश्रुत, वज्जागमं पासेज्जा के बहु आगमना
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घणी न देखे तो. जत्थेव सारुवियं के०ज्यां साधुना वेषधारी, वहुस्सुयं के बहुश्रुत, वज्जा
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गम । सेज्जा वहु आगमना घणी देखे. कप्पंति से तस्संतिए के ० तेहनी पासे कल्पे, अत्तर बा के आलोचकुं. जाव पडिवज्जितए वा के० यावत् प्रायश्चित्त पडिवजनुं, नो वेद सारुवियं के कदाचित् वेषधारी, बहुस्वयं के बहुश्रुत, बज्जागमं पासेज्जा के० बहु आगमवत न देखे तो, जत्थेव समणोवासगं के० ज्यहां श्रमणोपासक श्रावक पछवाडे चारित्र सेवी पडयाछे, साधुपणुं सूकीने श्रावक थया छे. पच्छाकडं के० तेहने पश्चात्कृत श्रमणोपासक कहीए, वहुस्सुयं के बहुश्रुत, वज्जागमं के वहुआगमना जाणने, पासेज्जा के० देखे. कप्पड़ से तस्संतिए के ० तेनी पासे कल्पे. आले इत्तए वा के० आलाच. जावपडिव जित्तए वा के० यावत् प्रायश्चित्त पडिवज्जे. नो चेव णं समणोवासंगं के० श्रमणोपासक पुर्वे कला एवा न देखे, पच्छाकडं के० पश्चात्कृत, बहुस्वयं के ० बहुश्रुत, वज्जागमं पासेज्जा के० बहु आगमना घणी न देखे तो, जत्थेव सम्मंभावियाई के० ज्यां सम्यक्भावित एटले सुविहित प्रतिष्ठित, चेइया के० जिनप्रतिमा, ॥ 'चैत्यं जिनौकस्तद्विवं' इति वचनात् ॥
वी प्रतिमा, पासेज्जा के० देखे. कप्पड़ के कल्पे, से तस्संतिए के ० तेहनीपासे, आलोइचएवा के० आलोच. जाव पडिवज्जित्तए वा के० यावत् पडिवज, नो चेव णं सम्मं भावियाई 'चेहयाई पासेज्जा के० सम्मग्भावित चैत्य पण न देखे तो, बहिया गामस्स वा के० गामने बाहेर, अथवा, जाब सन्निवेसस्स व के० यावत् सन्निवेशने बाहेर, पाहिणाभिमुद्दे वा के० पूर्व दिशिने सामा अथवा, उदिणाभिमुद्दे वा के० उत्तर संमुख रहीने इत्यादिक पाठ छे.
इत्यादिक व्यवहार प्रथमोद्देशके छे तो मुनि चैत्यनी, साखे आलोयण लीए एम कहूं. अहींयां चैत्यनो अर्थ बीजो थायज नहीं तो गृहस्य देव पूजा वैयावच्च चैत्यनुं करे तेहनुं शुं कहें ? तोपण सूर्खेनी आंखो उघडती नथी. हवे अधिकार वाले.
एम सवि श्रावक साधुने || वंदनानो अधिकारोरे ॥ सूत्रे कह्यो प्रतिमातयो || हवे कहुं पूजा विचारो ॥ शा० ॥ ११ ॥
अर्थ - एम सर्व श्रावक साधुने वंदनानो अधिकार प्रतिमानो सूत्रे को, एटले प्रतिमाने नंदनानो अधिकार, सूत्रे करीने अमे कहो . हवे पूजाना अधिकार कहूं . एडले
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दौसी गाथा स्तवन
(४७) प्रमंगागत पूर्वे सूर्यामादिकना पूजाना अधिकार कबाछे, पण मनुष्यना अधिकार हवे कहेवाशे. इति गाथार्थ ॥११॥
याग अनेक कस्या कह्यां ॥ श्रीसिद्धारथ राजेरे ॥ ते जिन पूजना कल्पमां ॥ पशुना याग न छाजेरे ॥ शा० ॥ १२ ॥ अर्थ-याग अनेक कहां के० अनेक याग करया, श्रीसिद्धारथराजे के० श्रीसिद्वारय राजाए करया कह्याछे ते याग, जिनेश्वरनी पूजा छे. श्रीकल्पसूत्रमा कह्यांछे. अहींयां ते दुष्ट पशुना याग वतावेछे, ते पशुना याग कहेतां छाजे नहीं. इति गाथार्थ ॥ १२ ॥ ते कल्पसूत्रनो पाठ लखीए छैए-"तएणं सिद्धत्ये राया दसाहियाए ठिइवडियाए बड्माणीए सइए य साहस्सिए य सयसाहस्सिए य जाए यभाए य दलमाणेय दवावेमाणे य लंमेमाणे पडिच्छेमाणे पडिच्छावेमाणे एवं विहरइ।" इति कल्पसूत्रे. अर्थ-तएणं सिद्धत्ये राया के० तेवार पछी सिद्धार्थराजा, दसाहियाए के० दश दिवसनी, ठिइवडियाए के स्थिति पताका कुलस्थितिरूप प्रवः थके, सइए य के सैकडो गमे, साहस्सिए के हजारोगमे, सयसाहस्सिए के० लाखोगमे, जाए य के० याग, अहियां यागशब्दे अरिहंतनी प्रतिमानी पूजा लेइए. दाए य के० पर्व दिवसादिकने विषे देवं. भाए य के० भागे लाभ्यु द्रव्य, तेहनो भाग, दलमाणे के० देता, दवावेमाणे के० देवरावता, लंभेमाणे के० जे पोताने लाभ आवे, पडिच्छेमाणे के० ग्रहेता, पडिच्छावेमाणे के० ग्रहेवरावता. एवं विहरइके० एम विचरे. ___ अहियां जिनप्रतिमानी पूजा लाखो गमे कही, तेहमां ते कुमति, परमेश्वरना पिताने याग ते पशुने होमवू एम कहेछेतेना मुख उपर आचारांगनी साख रूप चपेटो मारेछे.
श्री जिन पासने तीरथे । समणोपासक तेहोरे ॥ प्रथम अंगे कह्यो तेहने ॥ श्री जिनपूजानो नेहोरे । शा० ॥१३॥ अर्थ-श्री जिनपासने सीरथे के० श्रीपार्श्वनाथ स्वामिना तीर्थने विषे, समणोपासक तेहो के० ते सिद्धर्थराजा तथा त्रिसलाराणी समणानां उपासक एटले श्रावक, प्रथम अंगे के. प्रथमांग जे आचारांग तेहने विषे कह्यांछे. तेहने के० एरीते ते सिद्धार्थ राजा अने त्रिसला राणीने, श्रीजिनपूजानो नेहोके० श्रीजिनेश्वरनी पूजानो स्नेह छे. ते श्रावक थका बीजा याग केम करे ? इति भाव. सथा वली यज् एवो धातु, देवपूजावाचक छे. ते मूढा अनक्षर न समजे. पाचारांगे वीरनां मातपिता श्रमणोपासक कयां छे ते पाठ लखीए छैए-"समणस्स भगवओ महावीरस्स अम्मापिअरो पासावचिन्जा समणोवासगा आविहोस्था। तेणं बहुणि वासाणि समणोषासगपरियागं पालइत्ता छण्हं जीव निकायाण संररकणनिमित्तं आलोइत्ता निंदिता गरहित्ता अहारिहं सत्तरगुणपायच्छित् पडिवन्जिता कुससंथारं दुरुहिचा भतं पञ्चरकायंति,पचक्खायंतिता अच्चुए कप्पे देवताए ज्वमा तमोणे आउक्त
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(४८) महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. एणं भवक्खएणं ठिइक्खएक महाविदेहे वासे चरिमेणं उस्सासेणं सिज्जिसति धुग्जिसति मुचिसंचि सव्वदुरकाणमंत करिस्सति ॥" अर्थ-समणस्स भगवओ इत्यादि, श्रमण भगवान महावीरना, अम्मापिअरो के माता पिता, पासावच्चिजा के० पार्श्वनाथना अपत्य एटले शिष्य परंपरा तेहना, समणोवासगा आविहोत्या। के० श्रमणोपासक श्रावक होता हवा. तेणं इत्यादि ते घणां वर्ष लगे श्रमणोपासकनो पर्याय पालीने, छएहं जीव निकायाणां के० छकाय जीवनी, संरक्खणनिमिर्च के रक्षाने निमिते, आलोइत्ता के० आलेाइने, निंदिता के आत्मासाखे निंदा करीने, गरहिता के० गुरुसाखे गर्दा करीने, अहारिहं के० यथायो ग्यपणे, उत्तरगुणपायच्छितं पडिवजित्ता के उत्तरगुणरूप मायश्चित्त अंगीकार करीने, कुससंथारं दुरुहिता केण्डाभना संथारा उपर वेशीने, भत्तं पञ्चरकायति के आहारपाणीनां पञ्चक्खाण करे करीने, अच्चुए कप्पे देवताए उववन्ना के० अच्यूत जे बारमो देवलोकयां देवतापणे उपज्यां. तो के० त्यां थकी देवतासंबंधी, आउरकएणं के० आयुष्यनो क्षय थये थके एम भवनो क्षय, एम ते आयुष्यनी स्थितिनो क्षय थये थके, महाविदेहवासे के० महाविदेह क्षेत्रने विषे, चरमेणं उस्सासेणं के० छेहले श्वासोवासे, सिज्जिसंति के० निष्टितार्थ थाशे. बुजिस्संति के तत्वना जाण याशे, मुच्चिसत्ति के आठे कर्मथी मूकाशे, सन्वदुक्खाणमंतं करिस्संति के० सकल दुःखनो अंत करशे. ए रीविनां श्रावक सिद्धार्थ राजा अने त्रिसला राणी छे. ते अरिहंत पूजारूप यज्ञ करे पण वीजा पशूवरूप यज्ञ न करे. इतिगाथार्थ ॥ १३॥
श्रेणिक महाबल प्रमुखना । एम अधिकार अनेकारे॥ छठे अंगे वली द्रौपदी । पूजा प्रगट विवेकोरे॥शा०॥१४॥ अर्थ-श्रेणिक महावल प्रमुखना के० ए रीते श्रेणिकराजा अने महावल प्रमुखना अनेक अधिकार श्री सिद्धांतमा छे. त्यहां ॥ हायाकयवलिकम्मा ।। एवा पाठ छे. त्यां पलिकर्म ते पूजानो अर्थ छे. ते आगल चोथी ढालमां कही. वली छठे अंगे के० श्री ज्ञातासूत्रने विषे, द्रौपदीपूजा प्रगट विवेको के. द्रौपदीए प्रगट विवेके पूजा करी छे. इति गाथार्थ. ते झातासूत्रनो पाठ लखीए छैए-"तएणं सा दोवई रायवरकमा जेणेव मन्जगधरे तेणेव उवागच्छद, मज्जणधरं अणुप्पविसइ, व्हाया कयवलीकम्मा कयकोउअमंगल पायच्छित्ता मुद्धपावेसाई वत्थाई परिहियाई मज्जणघरामो पडिणिरकमइ, जेणेव जिणघरे तेणेव उवागच्छइ, जिणघरं अणुप्पविसई, पविसइत्ता आलोए जिणपडिमाणं पणाम करेइ, लोमहत्ययं परामुसइ, एवं जहा सरियामो निणपडिमाओ अच्चेई तहेव भाणिअब्ध जाव धूर्वदहइ, धूर्व दहइत्ता वामं जाणु अंचेइ, अंचेइत्ता दाहिणजाणु धरणितलंसि निहट्ट तिरकुचो मुद्धाणं घरणितलंसि निवेसेइ, सनिवेसेइत्ता ईसि पच्चुणमइ करयल जावकड्ड एवं वयासी नमृत्यु ण अरिईवाणं ममवंताणं जावसंपत्ताणं । वंदई नमसइ जिणघराओ पहि
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दोढसो गायानुं स्तवन णिरकमड." इति ज्ञातान्त्र अध्ययन मोलमे अर्य-चपणं मा दोवड रायवरकन्नाके वेवारे ते द्रौपदी, राजबरनी कन्या, जेणेच मजणवरे के ज्यां स्नान मजन करवातुं घरले, तेणेव उवागच्छड के० त्यां आवं. मजणवरं अणुपविमड क० मन्जनघरमां पगे. पहाया के० स्नान कयु. कयत्रनिकम्मा के० कयु के बलिकर्म पूजार्नु कार्य. अर्थात् इहां घरमां देहेरानी पूजा लेइए. ए देहेरावें स्नान पर का, शामाटे के विस्तार जिनपूजातो आगल कहेगे. कयकोउअमंगलपायच्छिना के० कौतुक ने निलकादिक, मंगल ने दधि दुर्वा अनतादिक-हज प्रायश्चित. दुम्स्त्रमादिकनां घातक ने, कय के० को ले जेणे, मुद्धपावमाई पत्याई परिहियाई के० शुद्ध जे उचल, पामाई के० देहरे जावा योग्य एवां बम्ब पडया है, मजणघरानो पडिणिग्कमह के० मन्जनयरमांयी नीकले. जेणेच जिणघर के ब्यां जिनयर हे त्यां आवं. जिणघ अणूपरिसड के० जिनघरमा पेशः पेशीने आलोए के.दीठे थक. जिनपडिमाण पणामं करंड कजिनमनिमाने प्रणाम करे. अहींयां पण जिनघर कहीं बोलान्यू: माहे जिनप्रतिमा ते जिन छः नहींनर गणघग्ने ए पाठ कहतां मृपावाद याय. हवे, लोमहन्ययं परामुसड के० मोगपीछी टे, एवं जहा मृरियाभो निणपडिमाओ अच्छड नहेव भाणियव्वं के० जम मृर्याभदेवता जिनमनिमान पूजे तम सबलोय विधि जाणवी ते अधिकार मृर्याभना त्यां लगे कहेवो. जाच धृवं डड के० यावत् धूप दह ने विस्तार पूर्व मयोभने अधिकार कयो के न्यांची जाणत्रों. ते धृप दहीन, वामजाणु अंचेड के० डावी ढींचण उत्री राखे. दाहिणं जाणु धरणितलनि निहट्ट के जमणो दींचण घरतीए थापः थापीने, निक्वुत्तों के त्रणवार, मुद्धाणं के० मस्तक, धरणितलंसि के० पृथ्वीतलपत्र, निवेमइ के थापे यापीन. ईसि पच्चुणमड के० लगारक नीच नमे. करयल जावक के हाथ जोडी दश नख भला करी मस्तके अंजली करीन, एवं वयासी के० एम कहे. नमुत्यु ण, अरिहंताणं भगवंनाणं के० नमस्कार यायो अरिहंत भगवंतप्रत्ये, जाव संपत्ताणं के० यावद सिद्धिगतिमत्ये पाम्या छो. यावत् शब्दं शुक्रस्तच संपूर्ण ययो कहवी. पछी वंदद के० बंदना कर, नमगड के० नमस्कार करे. जिणघरायो पडिणिक्खमा के जिनयरमांधी नीकलं. एनो विशेष अर्थ टीकायी जाणवा. अहीयां ते कुमति एम कहे जे जे द्रौपदी श्राविका न होती, ने पूजा करे एमां शुं ? एम कडे छ तेहने शिक्षा देतां श्राविका ठरावे छे.
नारद देखीने नवि थई । उभी तेह सुजाणरे ॥ जाणीए तेणे ते श्राविका | अक्षर एहज प्रमाणरे ॥ शा० ॥१५॥
अर्थ-नारद देखीने नवि यह उभी के जद्रोपटी नारद आव्या तेबारे असंयमी जाणीने उभी न घड. वह मुजाण के० एहवी ते मुजाण डाही जाणिए. नेणे ते श्राविका के ते कारणे नेने श्राविका जाणीए. श्राविका विना असंयमी आगल उभा न यावं,
वच सुरजश्चामीकर'
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(५०) महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. एह केम जाणे? अक्षर एइज प्रमाण के० अक्षर तेहज प्रमाण छे. एटले अहींयां आगम ममाणे श्राविका छे. इति गाथार्थः ॥ १५॥ ते आलावो ज्ञातानो छे ते लखीए छैए-"त एणं सा दोवईदेवी कच्छुलं नारयं असंजयअविरयअपडिहयपचरकायपावकर्म तिकट्ट नो आढाइ नो परिआणाइ णो अब्सट्टेइ ॥” इति. अर्थ-तएण के०नेवारे नारद आव्या ते वारे, सा दोषईदेवी के० ते द्रौपदीदेवी, कच्छुलं नारयं के० कच्छुलनामा नवमा नारद पत्ये, असंजय के० असंजमी, अविरय के अविरती, अप्पडिहयपञ्चरकाय के नयी इण्यां,
थी पचख्या पावफम्म के० पापकर्म जेणे, इति कट्ट के० एम करीने, णो आढाइ के० न आदर करे, नो परियाणाइ के० आयो जाणे पण नहीं, नो अब्सट्रेइ के ऊभी पण न थाय. इति.
वली ते द्रौपदी श्राषिका छे तेनुं बीजं प्रमाण कहे छे. आंबिल अंतर छठवें । उपसर्गे तप को रे ॥ केम नवि कहिए ते श्राविका | धर्मे कारज सीधुरेशा॥१॥
अर्थ-विल अंतर छठवें उपसर्गे के जेवारे अमरकंकाए द्रौपदीने छेई गया ते उपसर्गमां छठने पारणे आंबिल एहवं तप कीधु. केम नवि कहिए ते श्राविका के० तेने श्राविका केम न कहीए ? वली धर्मयी जेनुं कार्य पण सिद्ध थयु.
हवे तेणे छठ छठन वप कर्यु ते आलावो लखीए छैए-" ते माणं तुमं देवाणुप्पिया ओहय नाव झियाहि । तुमणं मए सद्धिं विउलाई भोगभोगाई जाव विहराहि । तएणं सादोवई देवी पउमनाम एवं वयासी । एवं खलु देवाशुप्पिया जंबुद्दीवे हीवे मारहे वासे पारवईए कण्हेनाम वासुदेवे भम पियभाजए परिवसई । तं जइ णं से छण्डं मासाणं मम कूवं नो इन्धमागच्छइ । तएणं अहं देवाशुपिया मैं तुमं वदसि तस्स आणावायवयगणिसे चिठिस्सामि । तएण से पउमे दोवइए एयमटुं पडिमुणेइ दोषइदेवी फतेउरे ठगवेइ । तएणं सादोवईदेवी छटुं छटेणं अणिरिकचेणं आयविलपरिग्गहिएणं ववोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ।।" इति. अर्थ-माणं तुमं देवाणुप्पिया ओहय नाव शियाहि के. अमरकंकाए जेबारे पद्मोत्तरराजाए द्रौपदीने मित्र देवता कने तेडावी नेवारे द्रौपदी विकल्प करती जाणीने पोचर द्रौपदीने कहे छे. उपहत मनथकी यावत् मत्त आध्यान करी, तुमणं मए सद्धि के० तमे मारी साणे, विउलाई भोगभोगाई जाव विहराहि के विपुल भोग भोगवतां थकां विचरो. एणं सा दोबई देवी के तेवारे ते द्रौपदी देवी, पउमनाम एवं बयासी के० पद्मनाभ प्रत्ये एम कहे. एवं खलु देवाणु के. हे देवानुमिय, जंबूरीवे हीवे के जंबूद्वीपनामा द्वीपने विषे भारहे वासे के० भरतक्षेत्रने विषे, त्यां वारवइए के.
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दोढसो गाथार्नु स्ववन. द्वारकानगरीने विषे, कण्हे नाम वासुदेवे के० कृष्ण नामे वासुदेव छ ने, मम पियभाउए के० माहरा भतारना भाइ, परिवसइ के० स्यां वसे छे. तं जइणं से के० ते जो, गण्हं मासाणं के० छ महीनामां, मम के०मने, कूर्व के० पाछी वालवा, नो इन्धमागच्छइ के० नहि आवे, तएणं अहं देवाणु के० तो हु हे देवानुमिय, जे तुमं पदसि के. जे तुं कहीश, तस्स आणावायवयणनिद्देसे चिइविस्सामि के० आज्ञाउपाय वचन निर्देशे रहीश. वएणं से पउमे के० तेवारे ते पद्मनाभ, दोबई ए यम पडिमुणेइ के० द्रौपदीनी ए बात मानी. पछी, दोवईदेवी के. द्रौपदी देवीने. कनवेउरे दावे के कन्याना अंतेउरमध्ये मके, तण सा दोवइदेवी के० तेवारे ते द्रौपदीदेवी, छदै छद्रेणं के छह छठने, अणिखित्तेणे के• निरंतर, आयविल परिग्गहिएणं के० आंबिल परिगृहीत, तवोकर्म के तपकर्म करीने, एटले छ छठने पारणे आंबिल करती थकी, अप्पाणं भावमाणे के० आत्माने भावती थकी, विहरइ के० विचरे ॥ इति.
वली कुमति कहे छे जे द्रौपदी श्राविका नथी एम कहे छे. तेहने दृष्टांत देइने पली द्रौपदीने श्राविका ठरावेछे.
रायकन्या कही श्राविका ॥ न कही जे भूलेरे ॥ राजीमती कही तेहवी ॥ तिहां संदेह ते झुलेरे ॥ शा०॥ १७॥
अर्थ-रायकन्या कही के द्रौपदीने राजकन्या कही छे, पण, श्राविका न कही के. श्राविका नथी कही. एम, जे भूले के. एवी वातो फरीने जे भूलेछे तेहने उत्तर कहेछे. राजीमती कही तेहवी के० जेम राजीमती साध्वी थकी राजकन्या कहीछे. अथवा मल्लिनाथने ज्ञातासूत्रमध्ये राजकन्या कहीछे तेहमा श्राविका पणुं तथा साध्वीप' केम गरे ? तेम द्रौपदी पण जाणवी. ए दृष्टांते, संदेह ते झुले के० संदेह जातो रहे. यत:-"बह सा रायवरकन्ना मुष्ट्रिया नियमधए ॥” इति उत्तराध्ययने. बली कुमति कहेछे जे परण्या पछी समकित पामीछे, ते पांच भरतार करया एटले नियाफयु हतुं ते पूरुं ययुः माटे मिध्यात्व थकां पूजा करीछे. एम कहे छे तेहने हवे उत्तर वाले छे.
हरि परे कर्म नियाणर्नु ॥ इह भवे भोग न नासेरे । समकित लहे परण्यापछी ॥ कहे ते शुं न विमासेरे ? शा०॥ १८॥
अर्थ-हरि परे के श्रीकृष्णनी पेरे, कर्मनियाणानुं के० जे नियाणा कर्म तेणे करी, इह भवे के०आ भवपर्यंत, भोग न नासे के० भोग नाशे नहीं. एटळे आ भवपर्यंत भोगवे, तेवारे छूटको थाय. समकित लहे परण्या पछी के० परण्या पछी समकित पामी, कहे ते शुं न विमासेरे के० एम कहेछे ते केम नयी विचारता ? इति अक्षरार्थ. भावार्यतो ए छेजे
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(५२) महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. दशाश्रुतस्कंधमां नवप्रकारनां नियाणां कहांछे. ते मध्ये धुरनां सात नियाणां कामभोगनां छे, ते उत्कृष्टे रसे निया| कर्यु होय तो समकित न पामे; अने जो मंदरसेनिया कयु होय तो मुखे समकित पामे. जेम कृष्ण, वासुदेव निया' करीने उपन्या छे, तेहने पण समंकितनी प्राप्ति थइछे. कोइ दुदिओ वोल्यो जे वासुदेवनी पदवी पाम्या एटले निया पूरु थयु, माटे वासुदेवनी पदवी पाम्या पछी समकित पाम्पाछे तेम द्रौपदी पण पांच भरतार पामी एटले निया पुरु थयु पछी परणीने समकित पामी ते खाटुं कहेछे. जे माटे निया [ तो भव लगे पहोंचे. केमके दशाश्रुतस्कंधमाज नवमुं नियाj दीक्षानुं का छे ते दीक्षा लोधी एटले निया' पुरुं थयु जोइए तेवारे तेहज भवनेविषे केवलज्ञान उपज्यु जोहए ते केवलज्ञान उपजवानी तो दीक्षाना नियाणावालाने ना कही छे. तद्यथा-"एवं खलु समणाउसो निग्गंथे वा निग्गंथी वा नियाणं किच्चा तस्स ठाणस्स अणालोइअ अपडिकते सव्वं तं चेव से णं मुढे भवित्ता आगाराउ अणागारं पवएजा, सेणं तेणेव भवग्गहणेणं सिजेजा जाव दुरकाणं अत्तं करेजा,नो इगट्टे समढे ॥” इत्यादि. एमां एम कयूं जे, ते दीक्षाना नियाणा पालों ते भवमा माक्षे न जाय. तेमाटे निया ते भव पूरो थाय त्यां लगे पहोंचे. पण मंदरसे नियाणु कयु होय तो सम्यक्त्वादिक गुण मुखे पामे. एक केवलज्ञान न पामे ते माटे द्रौपदीर्नु नियाणुं मंदरसेज छे. ते कारणे वाल्यावस्थाने विषे समकित पामी सभवे छे वाकी तो आम्नायविना सूत्र अक्षर देखीने अर्थ करीश तो एहज दशाश्रुतस्कंधमां त्रीश थानके महा मोहनीय कर्म वांधे. ते महा मोहनी तो उत्कृष्टी सीत्तर कोडा कोडी स्थिति
छे तो परदेशी राजाने समकित अणुव्रतनी प्राप्ति न थइ जोइए. जे माटे परदेशी राजाए -तो घणा पंचद्रिय जीवोनी हिंसा करी छे ते तो रायपसेणीसूत्रमा प्रसिद्ध छे. ते महामाहनी वांधीने घणो संसार रझळ्यो जोइए पण ते तो एकावतारीछे तेवारे ए सूत्र कम मलशे ? अने सूत्रमा तो द्रौपदीए पूजा करी तेबारे सूर्याभने भलाग्यो छे ते लेखे पण समकिती तो अवश्य ठरेज छे. वली परणवानी धक पकमां महामोहनी भीडमां जिनपूजानी करणी सांभरीछे, ए पक्की श्रद्धावंतीनां लक्षण छे. ते माटे द्रौपदी मुलभ बोधि हती; माटे -जिनपूजा सांभरीछे. अहियां कोइ कहेशे जे एकज वार पूजी कहीछे, पछीतो कहीए.पूजी नथी. तेहने कहीए जे एकवार पण कहोछे. अने द्रौपदीए खाधु तो एकवार पग नथी का माटे खाधु पण नहि होय. वली तुंगीया नगरीमा श्रावके साधु, एकजवार पांचाछे, तथा आणंद कामदेवादिके भगवंतने एकजवार वांद्याछे ते केम वीजीचार नहिज वांया होय ! वली जो परणतां मोहनी भीडमां जिनपूजा करीछे तो वीजे काले तो अवश्य पूजा करीन इशे एमां शी शंकाछे वली मूर्ख कहेछ जे ए स्त्री वतावीतो कोइ श्रावक कां न कह्यो ? 'तेने कहीए जे प्रभुजीने रेवती श्राविकाएज औषध वहोराव्यु तो श्रावके वहोराव्यु एम का न कयु ? वली प्रथम सिद्ध मरुदेवीमाता थयां, तथा वीर प्रभुनो अभिप्राय छ मास पांच दिन उणे चंदनवालाए पूरो करयोछे तथा संगमाना उपसर्गने छ महीने वत्सपाली डोसीए पार[ परमाने कराव्यु छे. वली ए चावीशीमां मल्लिनाथजी अनंत चोवीशीए
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दौडसो गाथाडे स्तवन स्त्रीपणे तीर्थकर थया, इत्यादिक आ चोवीशीमा स्त्रीओए घणां मायं काम फर्या छ । प्राय पुरुष तो करे तेमां शी वडाई? पण स्त्रीओने करवू दोहलं छे, तेम पुरुपने तो पूनानां कारण मेलववां सुगम छे; पण स्त्रीने विषम छे द्रौपदीनो अधिकार विस्तारे कह्योछे, जो स्त्रीए एम पूजा करीतो पुरुषे तो घणीज करीछे एमां शो संदेह ? ए भाव. वली द्रोपदीनी-निंदा करतां घणु दुःख पामशे, जेम कौरवोनो निकंदन थयो, तथा कैयाकीचक कवीला सहित दुःख पाम्यो; वली पनोत्तर राजा दुःख पाम्यो; अने द्रौपदीने शरणे उगरयो, तेम इंढक पण आ भवे जैनवाह थया छे, अने परभवे शी गति थाशे ? ते ज्ञानी जाणे, हवे ते राजवर कन्या पोताना नियम व्रतनेविषे रही थकी ए पाठ दीक्षा लीधा पछीनो छे,
वली कुमति कहेछे जे परण्या पछी समकित पामी छे, नहींतर पांच भार कम करे ? एम कहेछे तेने एज गाथामाथी उत्तर चालेछे,
हरि परे के श्रीकृष्णनी पेरे, कर्मनियाणर्नु के नियाणाचं जे कर्म-तेणेकरी, इह भवे के० आ भवमा भोगनो नाश न थाय; ते माटे, समकित लहे परण्या पछी के० परण्या पछो समकित पामी, कहे ते शुं न विमासे के० एम कहेछे ए वात केम विचारता नगी ? इति 'अक्षरार्थ, भावार्थ तो ए छे जे, श्रीकृष्णे पूर्वे निया" वासुदेव कर्यु हाँ, ते वासुदेव पदवी भव पर्यंत भोगव्या विना छूटको नहि पण समकितने बाध नयी, तेम द्रौपदीए पांच भरिनु,निया" कयें हतु, ते पांच भार थया विना छूटको नहीं पण समकितने वाधा कोणे करी ? जे माटे मनकल्पित नव नवी वातो उठावा छो? इति भाव इति गाथार्य ॥१८॥
जिणधर केणे कराव्युं । तिहां प्रतिमाने पइट्ठारे ॥ तेहनी पूजा ते कुण करे ॥ एम परखे ते गरिट्ठारे ॥ शा० ॥ १९ ॥
अर्थ-निणधर केणे कराव्यु के० देहेर जिनेवरतुं श्रावकटाली कोणे कराव्यु ? तिहां प्रतिमाने पइट्टा के० त्या प्रतिमा तथा प्रतिमानी प्रतिष्ठा एटलां वानां श्रावक विना कोण करे ? एम परखे फे० एम परीक्षा जे करे, ते गरिडा के० ते महोटा आदमी जाणवा, पण वगर विचारे जेम तेम जे बोले ते हलका जाणवा, इति वली कुमति कहे छ जे परणवा वेला पूज्या छे, तेने उत्तर कहे छे,
वर नवि माग्यो छे पूजतां ॥ शक्रस्तवे शिव मागेरे ॥ भक्ति समी सूरियाभने । विरती विशेषथी जागेरे ॥शा० ॥२०॥ अर्थ-वर नवि माग्यो छे पूजवा के पूजा करवां घर नथी माग्यो, शक्रस्तवे शिव
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(५४.) महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. मागे के० नमुत्यु ण करतां मोक्ष माग्याछे, जे माटे । 'तिण्णाणं तारयाणं ॥' इत्यादिक पद भावतां तुं तरयो मुनने तार, इत्यादिक भावना कीधीछे, पण वर पासु वो याग भोग तमारा कर , एम नयी कहां, तो अछतुं आल चढावी कां अनंतो संसार बांधो ? वली कुमति कहेछे जे सुरियाभनी परे कूवा, चाची, उंबरा प्रमुख पण द्रौपदीए पूज्यां छे, एम कहेछे. जे माटे ॥ 'जहा सूरियाभो तहेव जिणपडिमा अञ्चेइ॥ ए पाठे सूर्याभनी पेरे जिन प्रतिमा पूजे एम कयु छे. त्या देशविरती छ ते माटे सूर्याभयकी विशेष भक्ति छे एम पण समजवू. तेहज कहे छे. भक्तिसमी सूर्याभने के० भक्ति सूर्याभना सरखी. हवे भक्ति शब्द आगल जोडीए, विरती विशेषयी भक्ति जागे के देशविरतीए विशेष भक्ति मगट होय. इति गाथार्थ ॥२०॥
वली जिनपतिमाने || 'ठाणं संपचाणं ।' एम का छे तथा भाव तीर्थकरने 'ठाणं संपा वि कामे || एहवा पाठछे. माटे सिद्ध स्थानक पाम्या छो एम जिन प्रतिमाने सिद्ध गण, माटे भावतीर्थकरथी पण ए अपेक्षाए अधिकीछे माटे लौकिक पूजा द्रौपदीएमयी करी एतो विशेषे मत्यक्ष पाठ जणाय छे. आंख उघाडी जुए ते देखे. वली कोइ कुमति एम कहे छे जे जिनधर ते अवधिजिन घर एटले कोइ यक्षतुं देहरु इतुं. शामाटे जे अवपिजिन गणांग मध्ये कह्याछे. एम कहेछे ते खोटुं. जे माटे अवपिजिन आगल कोइए शकस्तव नयी करयं. इति ।।
धर्म विनय अरिहंतनो ॥ एम ए लोग उवयारोरे ॥ संभ वे सर्वने जाणिए ॥ समकित शुद्ध आचारोरे शा० ॥२१॥ अर्थ-धर्म विनय अरिहंतनो एम ए लोग उवयारो के एम ए पूजा, अरिहंतनो लोकोपचार विनय धर्मछे, एम अन्वय करवो. संभवे सर्वने जाणिए के जेहने जे संभवे तेहने ते जाणीए. एटले जे साधु एणी पेरे करे, देश विरवी एणी पेरे करे अने समकिसी एणी पेरे करे, एम जेहने जेवो पाठ संभवे तेहने यधपि सूत्रकारे न कहो होय तोय कहेवो. समजवू जे जिनपूना ते समकितनोज शुद्ध आचारछे पण मिथ्यात्वीनो आचार नयी. इति गाथार्यः ॥ २१ ॥ ते उपर दृष्टांत कहेछे.
आणंदनो विधि नवि कहो ॥ राय प्रदेशीने पाठेरे ॥ संभ व सर्व न मानशे । वींटाशे तेह आठरे ॥ शा० ॥ २२ ॥
अर्थ-आणदनो विधि नवि कयो के० सातमा अंगमा आणंदश्रावकनो विधि कयो। ते रीते नयी कहो. क्यहां नयी कह्यो ? ते कहेछे. रायप्रदेशीने पाठे के• रायपसेणीमां प्रदेशी राजाना पाठमां नयी कहो, ते माटे | आणंदे जेम व्रत समकित उचरयां तेम मदेशीए | नयी उचरयां ? तेमाटे जेने जे संभव होय ते मानवो, नया संभव सर्वन
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दोसो गाथानुं स्तवन.
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मानशे के० सघलो संभव नहि माने, वींटाशे तेह आठे के० ते आठे कर्मे बीटाशे, एटले घणी संसार रझलशे ॥ २२ ॥ तथा वली एहज संभव देखाढे छे.
पंडिकमणादिक क्रम नहीं || पाठे सप्तम अंगेरे ॥ पढम अतु ओगथी प्रकरणे ॥ सर्व कह्यो विधि रंगेरे || शा० ॥ २३ ॥
अर्थ - पडिकमणादिक क्रम के० पडिकमणादिकनो अनुक्रम, नहीं पाठे सप्तम अंगे के उपासक दशांगमां पाठ नथी. एटले ए भाव जे साधुने पडिकमणानो अनुक्रम तो थोडोएक श्री उत्तराध्ययने सामाचारी अध्ययनमां कह्यो छे, पण श्रावकने तो सातमा अंगमां आणंदादिकने कांइए बताव्यो नहीं; तेबारे श्रावक पडिकमणादिक कोण सूत्र उपर करे ? तेमाटे ए नगुरांने उत्तर देवानुं ठेकाणुं नयी. इहां शिष्ये पूछ के हे स्वामिन्, तेवारे श्रावक क्यांथी करे छे ? तेहने करुणाए पाछो जवाब कहे छे. पदम अणुओगथी के० प्रथमानुयोग जे दृष्टिवादना चोथा भेदनो प्रथम भेद, तेहमां थकी प्रकरणमां पूर्वाचार्ये सर्व विधि को छे. रंग के० पर उपकारने रंगे को छे. यतः श्रीसमवायांगसूत्रे - " से कि ते अणुओगो अणुओगे दुबिहे पश्नते तं जहा, मूलपढमाणुओगे य गंडियाओगे || ' इत्यादि. अर्थ - वारमा दृष्टिवादना भेद पांच छे. एक परिकर्म, बीजो सूत्र, त्राजो पूर्वानुगत, चाथा अनुयोग, अने पांचमो चूलिका - तेयां चोथो अनुयोग ते, दुविहे पनते के० ते वे प्रकारे छे. तेमां मूल प्रथमानुयोगमा घणी वातो सूत्रकारे लखी छे, पण ते कहेतां ग्रंथ वधेछे माटे नथी कहेता . इति गाथार्थ ॥ २३ ॥
हवे कोइक कहेशे जे प्रदेशी प्रमुखना अधिकारमां विशेषे बात कां न कही ? ने उत्तर कछे जे ए सिद्धांतनी शैलीजछे; ते उपर गाथा कंछे. किहांएक एक देशज ग्रहे ॥ किहांएक ग्रहे ते अशेषोरे ॥ कि एक क्रम उतक्रम ग्रहे ॥ ए श्रुतशैली विशेषोरे ॥ शा० ॥ २४ ॥
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अर्थ - किहांएक एक देशज ग्रहे के० कोहक स्थानके तो वस्तुनो देशज एक ग्रह. प्रेम श्री भगवती सूत्रमध्ये रथ मुसल संग्राम तथा महा शिलाकंटक संग्राम कहो, तेम, किहांएक ग्रहे ते अशेषो के० कोइक स्थानके समस्त ग्रहे, जेम निरयावलीमध्ये एहज संग्राम विस्तारे का छे. किहांएक क्रम के० कोइक स्थानकनेविषे अनुक्रमे कहे. जेम पनवणा प्रमुख विषे धर्मास्तिकायादिक अनुक्रमे कथा छे. उपक्रम ग्रहे के० कोइक स्थानके पश्चातु पूर्वी ग्रहे. जेम कल्पसूत्रनेविषे वीरस्यामिथकी रुपभदेवजी लगे अधिकार कह्यो. ए श्रुतशैली विशेष के० ए सिद्धांतनी शैली विशेषछे. यतः - "कत्थइ देसग्गहणं, कत्थई विप्पति निरवसेसाई | महकमाई, सहाववसओ निरुत्ताई ||१||" इति कल्पभाष्ये सुगमा ॥ ए घातो नजरमा राखे तो सुत्रनो खरो अर्थ थाय. ते देश प्रमुख सूत्रे ग्रह्मा होय ते संपूर्ण तो निर्युक्ति टीका प्रमुखमा पामीए. इति गाथार्थ. ॥ २४ ॥ इवे उपसंहार करेछे.
वच सुरेंद्रश्चामीक
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महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत.
शासननी जे प्रभावना ।। ते समकितनो आचारोरे॥ श्री जिनपूजाए जे करे । ते लहे सुजश भंडारोरे ॥ शा० ॥ २५ ॥
अर्थ-शासननी के० जिनशासननी, जे प्रभावना के० शासन उजलं देखाडवू, जे देखी लोक प्रशंसा करे, ते समकितनो आचारो के० ते समकितनो आचार छे. यतः श्री उत्तराध्ययन अठावीशमे अध्ययने कयु छे-"निस्संकियनिकंखियनिन्वितिगिच्छा अमूह दिही य । उववूह थिरीकरणे, वच्छल्लपभावणे अटू ॥१॥" अर्थ-निस्सकिय के देशथी सर्वथी शंका न करवी. १ निकंखिय के० अन्यदर्शननी वांच्छा न करवी.२ निच्चितिगिच्छा के० फलनो-संदेह न राखवा. अथवा मल मलीन गात्रदेखीने साधुनी दुगंछा न करवी. ३ अमूढदिठी य के० कुदर्शनीना विद्या चमत्कार देखे तोपण जिनशासन रुडे जाणे. पण. मतिमूढ न थाय. ४ ए चारे श्रद्धारूप अंतराचार छे. हवे वाह्यक्रियारूप चार आचार कहेछे. उववूह के प्रशंसा करीने गुणवंचना ते ते गुणर्नु वधार. ५ थिरीकरण के धर्माशुष्टानमां सीदाताने थिर करवा ६ वात्सल्यं के० साघमिकोने भातममुखे उचित मतिपत्तिनु कर..७ पभावणा के जेथकी जिनशासननी उन्नति थाय. एवी चेष्टाए वर्तवु. ८ तेमाटे मभावना ते समकितनो आठमो आचारछे, ते श्रीजिनपूजाए जे करे के श्रीजिनेश्वरनी पूजाए जे माणी शासननी उन्नति करे, ते लहे मुजश भंडारो के० ते पाणी पूजा करीने शासननी प्रभावनानो करणहार भलो-जशनो भंडार पामे. एटले पूजा, तीर्थ यात्रा, संघ काढवे शासननी प्रभावना थायछे एम देखाइयु. तथा जश एवं पोतानुं नाम पण कविए सूचयु. इवि पंचविंशतमी गाथायें ।। २५ ॥ एम श्रीजो ढाल संपूर्ण थयो. ग्रंथाग्रंथ ५१३ अक्षर १६ सर्व ग्रंथाग्रंथ मलीने १५२४ अक्षर-१०
हवे चोथो ढाल कहेछे. तेहने पूर्व ढालसाथे ए संबंध छे, जे त्रीजा ढालमां पूजानो अधिकार कयो, हवे ते कुमति, पूजामां हिंसा माने छे तेहने जवाव देवा चोथो ढाल कहे छे, ए संबंधे आव्यो चोथो-ढाल तेहनी ए प्रथम गाथा कहेछे,
॥ दाल चोयो ।। झांझरिया मुनिवर धन धन तुम अवतार ए देशी ॥ कोइ कहे जिन-पूजतांजी ॥ जे षट्काय आरंभ ॥ ते कम श्रावक आचरे जी ।। समकितमां थिरथंन ॥ सुख दायक तोरी आणा मुज सुप्रमाण || टेक ॥१॥
अर्थ-कोइ कहे जिन पूजता के० कोइक तो इंढीआ एम कहे छे जे परमेश्वरनी पूजा करता थका, जे पट्काय आरंभा के छ कायनी जे हिंसा थाय छे, ते के० ते पूजा केम श्रावक आचरे के० श्रावक केम करे? समकितमां थिरथम के समकिन,
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दोसो गाथा स्तवन
दृढ छे ते श्रावक छ कायनी हिंसानो हेतु जे जिनपूजा ते, धर्मवास्ते केम करे : ईति प्रथम गाथार्थ. सुखदायक के. हे मुखदायक, सुखना देणहार, तोरी आणा के तमारी आज्ञा ते, मुज सुप्रमाणके. महारे प्रमाण छ, अथवा प्रभुजीनी स्तवना तो करेज छे माटे प्रभुजीने कहे छे न सुखदाइ जे तमारी आज्ञा ते मारे प्रमाण छ, एटले ए भाव जे तमारी आज्ञा ते प्रमाणछे, पण कुयुक्ति करवी ते प्रमाण नथी ॥१॥
हवे उत्तर वाले छे, तेहने कहीए जतना भक्ति । किरियामां नहीं दोष ॥ पडिकमणे मुनिदान विहारे ।। नहींतो होय तस पोष ॥ सु० ॥ २ ॥
अर्थ-तेहने कहीए के० जे पूनामां हिंसां वतावे छे तेहने कहीए, ॐ कहीए ? ते कहेछे, जतना भक्ति के० एक जतना, वीजी भक्ति, किरियामांक. जे क्रियामां होय एटले जे क्रियामा जतना तथा भक्ति होय, नहीं दोप के० ते क्रियामां दोप नथी, तथा कदाचित् तेहमां पण हिंसा कहीने दोष देखाडीए तो, पडिकमणे के० पडिकमणामां, मुनिदान के० मुनिने दान देतां, विहार के मुनिने विहार करतां, नहींतो के० जतना-भक्तिए पण करतां दोष कहीए तो, होय तस पोप के० ते प्रतिक्रमण प्रमुखमा-पण हिंसानी पुष्टि थाशे, एटले ए भाव ज, प्रतिक्रमण करतां उठ वेस करतां वायुकाय हणाय, मुनि दानमां पण उन्ही वाफ नीकले, तथा दान देवा उठतां पण जीवघात थाय, वली मुनिने विहार करतां पण पृथ्वी, पाणी, वायु, वनस्पति वली त्रस वेद्रियादिफनो पण घात थाय; ते माटे ए-पण न करवां; एम कहे, पडशे, ते माटे जतना भक्तिए क्रियामां दोप नथी ।॥२॥
हवे ते उपर दृष्टांत देखाढे छे. साहमी वच्छल पकिय पोसह ॥ जगवई अंग प्रसिद्ध ॥ घर निर्वाह चरण लिए तेहनां ॥ ज्ञातामांहे हरि कीध ॥ सु० ॥३॥
अर्थ-साइमीवच्छल के० साधर्मिफनां वात्सल्य करयां, तथा पक्खिय पोसह के. पाक्खीनो पोसो करयो ए अर्थे सूचव्यो. एहवो शंख पुष्कलीनो अधिकार - भगवई अंग प्रसिद्ध के श्री भगवतीसूत्रमा प्रसिद्धछे. तथाच तत्पाठ:-"तएणं से संखे समणोवासए एवं चयासी, तुम्हे गं देवाणुप्पिया विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावह । तर्पण अम्हे विलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा विसाएमाणा परिभाएमाणा परि . जेमाणा पक्वियं पोसह पडिजागरमाणा विहरिस्सामि ॥" इति भगवतीसूत्रे शतक वारंमे उद्देशे पहेले ।। अर्थ-तएणं के० सावत्थीनगरीने बाहेर वीरस्वामि समोसरचा. त्यां शंख भावक प्रमुख घणा श्रावक, देशना सांभलीने पाछा परभणी आवे छे तेवारे, से संखे के०
शंख श्रावक, समणोवासए के. वीजा श्रमणोपासकोने, एवं धयासी के० एम कहछे. तुम्हे णं देवाशुप्पिया के० हे देवाशुपिय तमे, विउल के० विपुल अशनादिक, स्वकखडा
वच सुरेंजश्चामीकर
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(५८)
महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत.
वेह के० रंघावो. तरणं अम्हे के० तेवारे आपण, विचलं असणं इत्यादिक सुगम छे. तेहने आस्वादन करतां थकां थोडं खानुं, घणुं तजः ते आस्वाद कहीए, शेलडीनी पेरे, तथा विसाएमाणा के० विशेषे स्वाद करतां खजर प्रमुखनी पेरे घं खातां योद्धुं काढी नाखतां, परिभाएमाणा के० अन्योन्य देतां परिभुंजेमाणा के अन्नाटिकनी पेरे सर्व वावरतां पाखी संबंधी पोसह, पडिजागरमाणा के० पालता थका, विहरिस्सामि के० विचरथं. इति. एम ठराव करीने पट्टे व परिणामे घेर जड शंखेतो निराहार पोसह करचो. ते 'सुदक्खुजागरिका' एम भगवंते वखाप्यो. ते माटे वीजा श्रावकना पक्खिय पोसह वखोडया न कहीए. जेम घना अणगारनो तप वखाप्यो एटले बीजा अणगारनो तप वखोडयो न कहीए. जिनशासनमां सर्व करणी शक्ति प्रमाणे लेखेछ: ते माटे ए साहमिवत्सल करतां हिंसा तमारे लेखे यह जोड़ए: पण जतना तथा भक्ति होय त्यां दोष न लागे एम मानीए तो सूत्रमां समु लागे. तथा वली. घरनिर्वाह चरण लिए तेहनां के० जे चारित्र लीए तेना घरनो निर्वाह, हरि कीध के० कृष्णे करचो छे. ते ज्ञातामां के० ज्ञातामृत्रमध्ये कर्तुं छे वे हिंसा. कृष्ण केम नहीं लागे ? अहीयां तो जतना पण नयी, तथा च ज्ञातामूत्रं - "तएणं से कण्डे वासुदेवे थावच्चापुत्त्रेणं एवं वृत्ते समाणे कोडंवियपुरिसे सहावे. सहावेड़ता एवं वयासी, गच्छह णं देवाशुप्पिया बारवए नयरीए सिंघाडगतिगजाब पहेसु हत्थिखंघवरगया महया महया सडेणं उग्घोसेमाणा उग्घोसणं करेह । एवं खलु देवाणुप्पिया यावच्चापुते संसार भडब्बिगो भीए जम्म मरणाणं इच्छा अरहओगं अरिहनेमिस्स अंतिए मुंडे भविता पव्वडचए. तं भो खल्ल देवाणुप्पिया राया वा जुनराया वा देवी वा कुमारो वा ईसरो वा तलबरं वा कोर्डवियसेद्विसंणावसत्यवाडे वा यावचापुचं पत्रर्यंतमणुपब्चयति तस्स णं कन्दे वासुदेवे अणुजाणड. पच्छाउरस्सावि य से मित्तणाह जोगखेमं वमाण पडिवहर चि घोसणं घोसेह. जाव घोसेः । तएणं यावच्चापुत्तस्स अणुराएणं पुरिससहरूपं णिक्खमणाभिम्मुहं व्हायं सव्वालंकारविभूसियं पचेयं पचेयं पुरिससहस्सवादिणीस सिवियामु दुरुडं समाण मिचणाइपरिवुडं यावच्चापुत्तस्स अंतियं पाउन्भयं । तरणं कण्हे वासुदेवे पुरिससहस्सनंति यं पाडव्भवमाणं पासड़. कोडं वियपुरिसे सहावे. सहावेड़ता एवंवयासी, जहा मेहस्स णिरकमणाभिसेओ तहेत्र सेयापोएहि व्हावे जाब अरहओ अद्विनेमिस्स छत्ताइछत्तं पडागाइपडागं पासेइ. विज्जाहरचारणे जाव पासित्ता सीयाओ पचोरुहइ । तरणं कण्हे वासुदेवे यावच्चापुत्तं पुरओ काउं जेणेव अरहाअरिट्टनेमि सन्नं तं चेत्र ||" इति ज्ञातासूत्रे अध्ययन पांचमे ॥ अस्यार्थ-तएण से कण्हे वासुदेवे के नेवारे ते कृष्णवासुदेव, यावत्रापुचेणं एवं बुसमाणे के० यावच्चापुत्रे एम कहे थके एटले कृष्णने थावचापुत्रे कर्तुंः जे भरणयी रखवालो तो रहुं एम कहे यके, कोटुंबियपुरिसे सहावे के० कौटविक पुरुषने बोलावे. वोलावीने एवं वयासी के०एम कहे. गच्छहणं देवाणुप्पिया के हे देवानुप्रिय, जाओ. वारखइएनबरीए के ० द्वारकानगरीने विषे, सिंघाडगतिगजाव पसु के० सींगोडाने आकारे
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दोढसो गाथा स्तवन
ARRAN
मार्ग, एम त्रिक चोक मार्ग. यावत् राजपथने विषे, हथिखधवरगया के हाथीना स्कयने विपे सीने, महया सणं के मोटे शब्देकरी, उग्घोसेमाणा के घोसणो करता, उग्घोसणं करेह के० उद्घोपणा करो एटले लोकने एम जणावो. एव खल्लु देवाणुप्पिया के हे देवानुप्रियो एवी रीते, थावच्चापुत्ते ससारभचिग्गे के० थावच्चापुत्र ससारना भपथी उद्वेग पाम्याछे. भीए जम्ममरणाग के जन्म मरणयो पीहोन्याछे. इच्छइ अरहोगं अरिएनेमिस्स अंतिए के अरिष्टनेमि अरिहंतने पासे इच्छे छे. मुढे भवित्ता पन्चइत्तए के मुंड यइने प्रवा लेवाने, तं भो खलु देवाणुप्पिया के०हे देवानुप्रिय. जे कोइराया वा जुवराणा के० राजा अथवा युवराज, देवो वाके०राणीममुख, कुमारो वा के०कुमार ईसरो वा के ईश्वर, तलवरे वा के० कोटवाल, कोइंबिय के कुटुंपना स्वामी, सेट्टी सेणाव के शेठ सेन पति, सत्यवाहे वा के०सार्थवाह, थावचापुत्तं पञ्चयंतमणुपव्वयति के० यावच्चापुत्र दीक्षा लेताने पछवाढे दीक्षा लीए, एटले थावच्चापुत्र साथे दीक्षा लीए तस्स णं कन्हे वासुदेवे अणुज णइ के० तेहने कृष्णवामदेव आज्ञा आपेछे. पच्छा के० ते राजा दीक्षा लीधे थके पछवाडे, आउरस्सावि य के आतुर जे धनादिकने अभाव दुःखी हशे, से के तेहना. मित्तणाइ के मित्र ज्ञाति एटले पोता संबंधी परिजनने, जोगखेनं वट्टमाण के योग क्षेम वर्तमान वहेशे. एटले जेहनी पासे नहीं होय तेहने आपशे; ते योग कहीए; अने जेहनो पासे हगे तेहने पालशे तेहने क्षेम कहीए, ते योग तथा क्षेम वर्तमानकाले जेम घटशे तेम राजा कृष्ण फरशे. एटले ए भाव जे-जे कोइ थावच्चापुत्र साथे दीक्षा ले तेहने पछवाडे तेना धरना निर्वाहनी चिंता कृष्ण करशे, ते अटकावे कोइ रहेशो नहीं. इति भान. घोसणं घोसेह के घोपणा करो. जार घोसेइ के० ते कौडविक पुरुप तेमज उद्घाणा करे. एणं थावञ्चापुत्तस्स अणुराएणं के० थावचापुत्रने रागे, पुरिससहस्स के क हजार पुरुष, णिक्खमणाभिमुहे के दीक्षा लेवा सन्मुख यया. हाय के० स्नानम्मुख करो, सव्यालंकारविभूसिय के.सर्व अलंकारे शोभित थइ, पत्नय पत्तेयं के प्रत्येके भिन्न भिन्न, रिसस्सहस्स वाहिणीस सिवियासु के हजार पुरुप उपाडे एवी शिविकाने विषे दुरुढ समाण के वेठा थकां, मित्तणाइपरिडं के मित्र ज्ञाते परिवरया. यावच्चापुत्तर अतिय पाउन. थावच्चापुत्रने समीपे प्रगट थाय एटले थावश्चापुत्रने पासे आवे. एण कन्हे वासुदेवे पुरिससहस्समंतिय पाउम्भवमाणं पासइ के० ते कृष्ण वासुदेव हजारे पुरूप आव्या देखे. काहुँविय पुरिसे सद्दावेइ के. कौटुबिक पुरुपने वोलावे वोलावीने, एव वासी के० एम कहे. जहा मेहस्स णिक्खमणाभिसेओ के जेम मेघकुमारनो निष्करणाभिषेक ते दीक्षा लेवानो अभिषेक करयो; तहेव के० तेमज, सेयपीएहिं के० भत पीलां एटले कनक रूपाने कलशे करी, व्हावेइ के० नवरावे, नाव अरहो अस्टिनेमिस्स छचाइछत्तं पडागाइपडाग पासइ के. अहींयां यावत् अरिहा अरिष्टनेमिना छत्राति छत्र पताका देखे, विज्जाहरचारणे जाव पासिचा के विद्यापर चारण मुंभक देवता आकाश थकी उतरता देखीने, सीयाओ
वच सुरेंजश्चामीकर तस्यच तथास.
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( ६० )
महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत.
पचोरुहइ के० शिबिका थकी उतरे. तरणं कण्हे वासुदेवे के० तेवारे कृष्ण वासुदेव, थावश्चापुत्तं पुरओ काऊं कं० थावचा पुत्रन आगले करीने, जेणेव अरहाअरिनेनेमि के०ज्यां अरिहा अरिष्टनेमि छे; सन्व तं चैव के बाकी सर्व मेघ कुमारनी परे कहेतुं अहीयां कृष्ण महाराजे लोकनां घर निर्वाह करयां; तेमां हिंसा लागे के नहि ? ते विचारजो. इतितृतीय गाथार्थ ॥ ३ ॥
कुणिक राय उदायन कीधां | वंदन मह सुविविके ॥ पहाया कय बलिकम्मा कहिया ॥ तुंगीय श्राद्ध अनेक ॥ सु० ॥ ४ ॥
अर्थ - वली कुणिकराय के० कुणिकराजाए, बंदनमह के० घणे आडंबरे वांदवाना महोत्सव करया. एटले प्रभुजीने सामाइयां करयां, ते श्री उववादसूत्रमां विस्तार घणो छे; ते लखतां ग्रंथ घणो वधे माटे लखता नथी. वली उदायन के० उदाइ राजाए पण सामइयां करयां. ते श्री भगवतीसुत्रमां शतक तेरमे उद्देशे छठे अधिकार छे. तथा च तत्पाठ–“तएणं उदायणे राया इमी से कहाए लट्टे समाणे हट्टह कोडंवियरिसे सहावेत, सद्दावित्ता एवं वयासी, खिप्पामेव भो देवाशुप्पिया वीतभयं नगरमभितरवाहिरियं जहा कोणीओ उबबाईए जाब पज्जूवासेइ ।।” अस्यार्थ-तएणं उदायणे राया के० तेबारे उदाहराजाए, इमीसे कहाए लखट्टे समाणे के० वीरस्वामिने आव्यानी कथा पामे थके. हट्ट के० हर्ष पामे. संतोष पामे. कोडुंचियपुरिसे सहावेइ के० कौटुंबिक पुरुषने बोलावे. बोलावीने एवं बयासी के० एम कहे. खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया के भो देवानुप्रिय शीघ्र, वीतभयं नयरमभितरवाहिरिय के० ए वीतभयनगर मध्ये तथा वाहेर शणागारो. इत्यादिक. जहा कोणिओ उबवाईए के ० जेम कुणिक राजा उववाह सूत्रमां कह्या छे तेम कहेतुं जान पज्जु वासेइ के० यावत् प्रभुजीनी सेवा करे. एम कूणिकने, उदाइने, सामईयामां हिंसा लागे के नहीं ? ते विचारजो. तथा, व्हाया कयवलिकम्मा के० करचां छे बलिकर्म-पूजाकर्म जेणे एहवा, लुंगी श्राद्ध अनेक के० तुंगीया नगरीना अनेक श्रावक वखाण्या छे. ते भगवतीसुत्रना शतक वीजे उदशे पांचमे छे, ते श्रावक पूजा करे ते अरिहंत विना वीजा कोण देवनी करे ? ते विचारजोजी. तथा बलिकर्म ते पूजाज छे. शामाटे जे ज्ञातासूत्र मध्ये - "तएण मल्ली विदेहवररायकन्ना व्हाया जाब पायच्छित्ता सव्वालंकारविभूसिया वहूहि खुज्जाहिं नाव परिखित्ता ||" अहिंयां वे वार सरखो पाठ छे; ते माटे मल्लिए कय वलिकम्मा के० वे चार देव पूजा करी. अप्पणो पडिमं कारेइ के० पोतानी प्रतिमा भरावी वली नित्य आहार कवल मूक्यो. तेहमां पण जीवनी उत्पत्ति थाय. पण ते हिंसामां नहीं. बली यतिना पडिकमणसूत्रमहे ॥ 'मंडिपाहुडिआए वलिपाहुडिआए ।' ए पाठ छे. मंडिपाहुडियाए के भीखारीने माटे ढांकणीमांहे धान घाल्युं ते ले नहीं, बलिपाडुडि
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दौढसौ गाथा स्तवनः याए के नैवेधनुं धान वहोर नहीं अजाणवां वहोरी खाधु तो॥ मिच्छामि दुकडे ।। वली नाममाला मध्ये-'पूजाणा सपर्चाि उपहार बलीसमा ।।' एम महानिशीथ आवश्यक नियुक्ति मध्ये पण वली ते नैवेद्य छे. वास्तुक शास्त्रनेविषे पण तथा ज्योतिषशाने घर देवतानो पूजा करीने भूतने बलि देइने पेसवु कई छे यत:-"गृहे प्रवेशं मुविनीतवेषः, सौम्यायने वासरपूर्वभागे । कुर्याद्विधायालयदेवता , कल्याणभूः भूतवलिकियां च ॥ १॥" एम अनेक ठामे बलि शब्द नैवेध पूजा छे. इति तूर्य गाथार्थ ॥ ४॥
हवे ए क्रिया ते समकितनी करणीछे ते कहेछे. समकित संवरनी ते किरिया ॥ तेम जिनपूजा उदार ।। हिंसा होय तो अरथदंडमां ।। कहे नहीं तेह विचार ।। सु०॥५॥
अर्थ-समकित संवरनी ते किरिया के० ए समकित नामे संवर, तेहनी क्रिया छे. जे माटे श्रीठाणांगने विषे ठाणे पांचमे कह्यु छ -"पंच संघरदारा पन्नता त जहा-सम्मत् १ विरई २ अपमादो ३ अकसायया ४ अयोगया ५" इत्यर्थः पंचसवरद्वार कह्यां छे. समकित ते संवर कहीए. एम विरति तथा अममादीपणु तथा अकसायीपणुं तथा अयोगीपण, तेहमा साहमीवच्छल तथा घर निर्वाह चारित्र लीए तेहनां, तथा सामैयां करयां. ए सर्व समकित संवरनी करणी छे. तेम जिनपूजा उदार के० उदारपणे जिनपूजा करवी ते पण समकित संवरनी करणी छे. एहमां हिंसा नथी. एहमा एम पण कहेवाणू जे समकिती देवताछे ते समकित संवरना धणी छे. तेहने अधर्मी केम कहीए तथा देवतानी करणी अधर्ममां कहीए नो, कोइक देवता तीर्थकरने साधुने अने श्रावकने परीसह करे, कोइक सेवा करे, ते घेउने फल केवां होय ? वली कोइक शिष्य दवता थयो होय ते गुरुने चारित्रथी पडिवाइ देखीने गुरुने ठेकाणे आणे वेहने अधर्मी केम कहीए ? तथा गुरुए काल करयो होय ते तमारे मते देवता थयो न जोइए. शामाटे जे देवतामांवे जावी के समकिती तथा मिथ्यात्वी, तेमां जो समकिवी थाय तो मुरियामनीपरे जिनमतिमा पूजे; अने मिथ्यात्वी कहेतां तमारी जीभ चाले नहीं. मनुष्य पण थाय नहीं. शामाटे जे तमे तमारा गुरुने चारित्रिया मानोछो ते मरीने मनुष्य थाय नहीं. सिद्धिपण पंचमकालमांहे हमणां परे नहीं. माटे अमने संदेह छे जे तमारा गुरु मरीने कंइ गतिए जाय ? वली तमारा गुरुए काल करयो तेहने तमे केम वंदना करोछो ? ते समजावजो ते मारे देवताने अधर्मी न कहेवाय. वली उत्तराध्ययने हरिकेशी अणगारखं जक्षे वैयावच्च करचु, बामणोने लोहि वमता करया; तेहने हिंसा दोष लाग्यो के नहीं? तथा सूत्रकारे तो वैयावच्च कही बोलाव्यु | 'जक्खा हु वेयावडियं करेति ॥ इति पागत. ते वैयावच्चना करणहारने अधर्मी कम कहेवाय ! तथा बली ज्ञातामांह पोटिलाए तेतली पुत्र समजाव्यो. तथा वली सौधर्मेन्द्रे भग पंतने अवग्रह आज्ञाकरी, ते धर्म कहीए के अधर्म कहीए वली लोकांतिक देव, प्रभुनीने मविवोषवा आवे ते अधर्ममां केम गणाय ? इत्यादि लखीए ? ए:मसंगे सय
वच सुरेंजश्चामीकर तस्यच तथास.
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(६०) महामहोपाध्याय श्री यशोषिजयजी कत. पच्चोरुहइ के० शिबिका थकी उतरे. तएणं हे वामदेवे के० तेवारे कृण्ण वासुदेव, थावछापुच पुरओ काऊ कं० थावचा पुत्रन आगले करीने, जेणेव अरहास्ट्रेिनेमि के०ज्यां अरिहा अरिष्टनेमि छे सव्य तं चेव के बाकी सर्व मेघ कुमारनी परे कहेवू अहीयां कृष्ण महाराजे लोकनां घर निर्वाह करयां तेमां हिंसा लागे के नहि ? ते विचारजो. इतितृतीय गाथार्थ ॥३॥
कुणिक राय उदायन कीधा ।। वंदन मह सुविविके ॥ हाया कय बलिकम्मा कहिया ॥ तुंगीय श्राद्ध अनेक ॥ सु०॥ ४ ॥
अर्थ-वली कुणिकराय के कुणिकराजाए, वंदनमह के० घणे आडवरे वांदवाना महोत्सव करथा. एटले प्रभुजीने सामाइयां करयां, ते श्री उवधाइसूत्रमा विस्तार घणो के ते लखतां ग्रंथ घणो वधे माटे लखता नथी. वली उदायन के० उदाइ राजाए पण सामइयां करयां ते श्री भगवतीसूत्रमा शतक तेरमे उद्देशे छठे अधिकार छे. तथा च तपाठ-"तएणं उदायणे राया इमीसे कहाए लट्टे समाणे इतर कोडवियरिसे सहावेति, सहाविता एवं वयासी, खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया वीतभयं नगरमभितरवाहिरियं जहा कोणीओ उपवाईए जाच पज्जूवासे ।।” अस्यार्थ-तएणं उदायणे राया के तेवारे उदाइराजाए, इमीसे कहाए लट्टे समाणे के० वीरस्वामिने आव्यानी कथा पामे थके. इतट के० हर्ष पामे. संतोष पामे. कोडवियपुरिसे सद्दावेइ के० कौटुंबिकपुरुपने बोलावे. वोलावीने एवं चयासी के० एम कहे. खिप्पामेव भो देवाशुप्पिया के भो देवानुभिय शीघ्र, वीतभयं नयरमभितरवाहिरियं के० ए वीतभयनगर मध्ये तथा बाहेर शणागारो. इत्यादिक. जहा कोणिओ उववाईए के० जेम कुणिक राजा उववाइ सूत्रमा कला छे तेम कहे. जाव पज्जू वासेइ के० यावत् प्रभुजीनी सेवा करे. एम कूणिकने, उदाइने, सामईयामां हिंसा लागे के नहीं ? ते विचारजो. तथा, "हाया कयवलिकम्मा के० करयां छे वलिकर्म-पूजाफर्म जेणे एहवा, तुंगीय श्राद्ध अनेक के० तुंगीया नगरीना अनेक श्रावक वखाण्या छे. ते भगवतीसूत्रना शतक बीजे उद्देशे पांचमे छे ते श्रावक पूजा करे ते अरिहंत विना वीजा कोण देवनी करे ! ते विचारजोजी. तथा पलिकर्म ते पूजाज छे. शामाटे जे ज्ञातासूत्र मध्ये-"तएणं मल्ली विदेहवररायकना न्हाया जाव पायच्छित्ता सव्वालंकारविभूसिया वहहि खुजाहिं नाव परिखित्ता ॥" अहिंयां वे वार सरखोपाठ छे तेमाटे मल्लिए कय पलिकम्मा के० वे वार देव पूजा करी. अप्पणो पडिमं कारेइ के० पोतानी प्रतिमा भरावी वली नित्य आहार कवल सूक्यो. वेहमां पण जीवनी उत्पत्ति थाय. पण ते हिंसामा नहीं. वली यतिना पडिकमणसूत्रमाहे ॥ 'मंडिपाहुडिआए वलिपाहुहिआए ॥ ए पाठ छे. मंडिपाहुडियाए के भीखारीने माटे ढांकणीमांहे धान पाल्यु ते लेवू नहीं. बलिपाहुडि
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दोदसी गाथा स्तवन :
( ६१ )
याए फे० नैवेधनुं धान बहोरनुं नहीं अजाणतां बहोरी खाधुं तो ॥ मिच्छामि दुई | वली नाममाला मध्ये - ' पूजार्हणा सपर्यार्चा उपहार बलीसभा ॥' एम महानिशीथ आवश्यक निर्युक्ति मध्ये पण वली ते नैवेद्य छे. वास्तुक शास्त्रनेविषे पण तथा ज्योतिषशास्त्रे घर देवतानां पूजा करीने भूतने वलि देइने पेसवुं कर्तुं छे यतः - "गृहे प्रवेशं सुविनीतवेषः, सौम्यायने वासरपूर्वभागे । कुर्याद्विधायालयदेवताच, कल्याणभूः भूतबलिकियां च ॥ १ ॥ " एम अनेक ठामे वलि शब्दे नैवेद्य पूजा छे. इति तूर्य गाथार्थ ॥ ४ ॥ हवे ए क्रिया ते समकितनी करणीछे ते कहेछे. समकित संवरनी ते किरिया || तेम जिनपूजा उदार ॥ हिंसा होय तो अरथदंडमां ॥ कहे नहीं तेह विचार || सु० ॥ ५ ॥ अथ - समकित संवरनी ते किरिया के० ए समकित नामे संवर, तेहनी क्रिया छे. जे माटे श्रीठाणांगने विषे ठाणे पांचमे कयुं छे -“पंच संवरदारा पन्नत्ता तं जहा सम्मत्तं १ चिरई २ अपमादो ३ अकसायया ४ अयोगया ५" इत्यर्थः पंचसंवरद्वार कह्यां छे. समकित ते संवर कहीए. एम विरति तथा अप्रमादीपणुं तथा अकसायीपणुं तथा अयोगीपणुं, तेहमां साहमीवच्छल तथा घर निर्वाह चारित्र लीए तेहनां, तथा सामैयां करयां. ए सर्व समकित संवरनी करणी छे. तेम जिनपूजा उदार के० उदारपणे जिनपूजा करवी; ते पण समकित संवरनी करणी छे. एहमां हिंसा नथी. एहमां एम पण कहेवाणु जे समकिती देवताछे ते समकित संवरना धणी छे. तेहने अधर्मी केम कहीए ? तथा देवतानी करणी अधर्ममां कहीए तो, कोइक देवता तीर्थकरने साधुने अने श्रावकने परीसह करे, कोइक सेवा करे, ते वेउने फल फेवां होय ? वली कोइक शिष्य देवता थयो होय ते गुरुने चारिथी पडिवाई देखीने गुरुने ठेकाणे आणे तेहने अधर्मी केम कहीए ? तथा गुरुए काल करयो होय ते तमारे मते देवता थयो न जोइए. शामाटे जे देवतामां वे जाती छे किती तथा मिथ्यात्वी, तेमां जो समकिती थाय तो सुरियामनीपरे जिनमतिमा पूजे; अने मिथ्यात्वी कहेतां तमारी जीभ चाले नहीं. मनुष्य पण थाय नहीं. शामाटे जे तमे तमारा गुरूने चारित्रिया मानोछो; ते भरीने मनुष्य थाय नहीं. सिद्धिपण पंचमकालमांहे हमणां घरे नहीं. माटे अमने संदेह के जे तमारा गुरु मरीने कंइ गतिए जाय ? वली तमारा गुरुए काल करयो तेहने तमे केम वंदना करोछो ? ते समजावजो ते माटे देवताने अधर्मी न कडेबाय. वली उत्तराध्ययने हरिकेशी अणगारतुं जक्षे वैयावच्च करयुं, ब्राह्मणोने लोहि वमता करया; तेहने हिंसा दोष लाग्यो के नहीं ? तथा सूत्रकारे तो वैयावच्च कही बोलाव्युं || 'जक्खा हु वेयावडियं करेति ॥' इति पाठात्. ते वैयावचना करणहारने अधर्मी केम काय ? तथा वली ज्ञातामांहे पोटिलाए वेतली पुत्र समजाव्यो. तथा वली सौधर्मेन्द्रे भग वंतने अवग्रह आहाकरी, ते धर्म कहीए के अधर्म कहीए ? वली लोकांतिक देव, प्रभुजीने प्रतिषोधवा आवे ते अधर्ममां फेम गणाय ? इत्यादि शुं शुं लखीए ? ए-मसंगे सधैं,
सम
वच सुरेंद्रश्चामीकर तस्यच तथास
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(६२) महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत.
हवे बली पूनगमांडे हिसा कहेछे, तेहने पूछीए जे ज्ञातासूत्रमध्ये सुबुद्धिमधान राजाने प्रतियो- वा निमित्ते खाम्नु पाणी लाव्या; ते हिंसा थइ के नहीं ? ते विचारजो. तथा जंबूद्वीप पन्नतीमाहे प्रभुजीनो जन्माभिषेक वर्गच्यो छे ते तो समुद्रसरखा पाणीना प्रवाह चाल्या नेहगां पृथ्वी, पाणी, ते -, वार, वनस्पती, उसकायमां केइ काय उगरी इशे? तो पण परमेश्वरनो उन्माभिषेक ते हिंसा न कहेवाय. भक्ति प्रवल छे माटे. तेम पूजामां पण हि न गणवी. एटलान माटे पश्नव्याकरणमध्ये दयानां नाम कह्यांछे. तेहमा पूजाममुखन नाम कन्याछे. ते पूजा ते दया कहीछे पण हिंसाना नाममां पूजा नथी. इत्यादिक घणीची छे. बटली लखाय ? आत्मार्थी होतो मध्यस्थ थइने जोज्यो. हिंसा होय तो के जिनपूजामा हिंसा होय तो, अथडमां कहे नहीं ? तेह विचार के० श्री सूयगडांगभूत्रना वीजा श्रुतस्कंधना वीजा अध्ययनमा तेर क्रिया चालोछे तेमां प्रथम अट्टादंडे के० अथें, प्रयोजने हिंसा करे ते अर्थदंड कहीए. जो पूजा करतां हिंसा होय तो अर्थदंडमां पूना को नहीं ? अने न कही तेवारे जाणीए छैए जे पूनामां हिंसा नथी. इति पंचम गाथार्थ ॥ ५॥
नाग भूत जक्षादिक हेते॥ पूजा हिंसा उत्त ॥ सूगडांगमा नवि जिन हेते ॥ बोले जे होए जुत्त ॥ सु॥६॥ अर्थ-नाग भूत जक्षादिक हेते के० नागने हेते भूतने हेते, जाने हेते, पूजा हिंसा उत्त के० पूजा ते हिंसा कहीछे. सूगडागमां के सूगडांगमध्ये, नवि जिन हेते के जिनेश्वरने हेते पूजा ते नथी कही. एटले ए भावजे ते सूगडांगमध्ये अर्थदंडमां नागादिकनी पूजा ते हिसामां गणीछे; पण जिननी पूजा नथी गणी, ते मारे पूजानो अधिकार कह्यो. अने जिनपूजा शे न कही ? ते कहे छे-बोले जे होए जुत्त के० स्त्रमा जे जुक्त होय तेहन वोले, अयुक्ति न वोले. तथा उलटा सिद्धांतमा चेत्य महोत्सव वोल्या छे | 'चेइयमहेराइवा ।। इत्यादिक आचारांग प्रथम श्रुतस्कंध प्रथमाध्ययन प्रथम उद्देशेछे. एम जमाली प्रमुखने अधिकारे एवा ठाम ठाम पाठछे देहेरां पण उववाइसूत्रमध्ये चंपानगरी वर्णववाने अधिकारे पाडे पाडे कह्यांछे, अने ठामे गमे नगरीओनो वर्णव उववाइसूत्रने भलान्योछे. तेवारे सर्व नगरमध्ये पाडे पाडे चैत्य उरयांज. इत्यादिक घणो विचारछे. केटलो लखाय १ ॥६॥
इवे कुमति कहेछ, पूजामां हिंसा के माटे ज्या हिंसा होय त्यां जिनेश्वरनी आज्ञा केम होय! ते उपर गाथा कहे छे.
ज्या हिंसा तिहां नहीं जिनआणा || तो केम साधु हार॥ कर्मबंध नहीं जयणा भावे ।। ए छे शुभ व्यवहार ॥ सु०॥७॥
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दोढसो गाथार्नु स्तवन अर्थ-कुमति वोलेछे के, ज्यां हिंसा के. ज्यां हिंसा होय, तिहां नहीं जिनआणा के. त्यां भभुआणा न होय. तेनो उत्तर कहेछे. तो केम साधुविहार के० तो मुनिने विहारनी आज्ञा परमेश्वरे केम करी ? वली विहार करतां नदीमां-"एगं पायं जले किच्चा ॥ एग पायं थले फिचा ॥" एडवा पाठ आचारांगे तथा कल्प सूत्रे केम कन्या ? वली नदी उतरतां मूर्य अस्तगत थाय तो पाणीमांने पाणीमां चारे पहोर साधु उमा रहे. एम दशाश्रुतस्कंधमां केम आज्ञा करी ? वली वरसाद वरसतां पण वहोरवा जवाना अधिकार कल्पसूत्रनी सामाचारीमां केम कह्या ? वली वरसाद वरसतां एक साधु अने एक साच्ची, एकांते वृक्षादिक मे भेलां थायतो उभा न रहे; वरसतामां पण चाल्यां जाय. ए आज्ञा केंम कीधी ? वली ऋषभदत्त प्रभुने वांदवा गया. तिहां-'धरिमयं जाणपवरं ॥' एम का ते रथ ने धर्मयान केम का ? ए रथ, मार्गमध्ये शी दया पालशे ? तथा धर्मयान अने पापयान ए चे प्रकार जुदा पण दीसे छे. माटे पापयान कां न कछु ! वली श्रावक आणदादिकने उपासकदशांगमध्ये व्रत उचरान्यां ते वारे प्रथम व्रतमां " वारणे दोर होय तो तेहने भातपाणोनो विच्छेद करे तो अतीचार लागे. ए अतीचार जाणवा पण आचरवा नहीं." एम आज्ञा केम कीधी ? तथा वली आचारांगमां कडं जे वहोर्यु लूण गृहस्थ पाछु न लेतो पोते वावरे सांभोगिकने वहेंची आपे. ते लुण वापरता विराधना केटली थाय ? पण एटली विराधना करतो आराधक कहो. ज्यां हिंसा त्यां आज्ञा नहीं. एम कहो तेवारे सघलां ए सूत्र देखाइयां. तेहथी वीजा पण घणां छे. केटलाक लखाय? ते सघलाए व्यर्थ थाय; ते माटे ते ते ठेकाणे हिंसापण छे अने आज्ञा पण करीछे. ए विचारजो. ___ हवे शिष्य पूछेछे जे " हिंसा पण छे अने आज्ञा पण छे तेवारे ए केम मेलवीए." इवे उपकार करवा शीखवेछे. सांभल माइ, कर्मबंध नहीं जयणा भावे के० जनाभावे कर्मबंध नथी. एटले ए भाव जे, जतनाए जे जिनशासननी करणी करी तेहमां यद्यपि हिंसा होय तो पण फर्मबंध न थाय. इति भाव. ए छे शुभ व्यवहार के० एहज भलो व्यवहार छे. इति सप्तमी गाथार्थ ॥७॥
हवे कोइ कहेशे जे, “ पूजामां हिंसा तो थायछे, तेहनो बंधपण प्रथम थाय छे." एम कहेछे वेहने कोइक वचमां उत्तर वालेछे.
प्रथम बंध ने पछी निर्जरा || कूपतगोरे दिलुत ।। कोइ जोडे बुध भाषे ।। भाव ते शुचिजल तंत ॥ सु०॥८॥
अर्थ-प्रथम बंध ने पछी निर्जरा के० प्रथम फूल, जल, न्हावं, धूप, दीपे जीव हींसाए वंध याय; पछी भावना स्तवनाए आल्हादताए निर्जरा थायछे. कूपतणोरे दिछत के कूआने दृष्टांते, जेम कूवो खोदे तेवारे ते माटी प्रमुखे मेलो थाय, मजूरी करता तर
वच सुरेंजश्चामीकर तस्यच . ..
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(१२) महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी त. ___ हवेली पूनमांडे हिंसा कहेछे, तेहने पूछीए जे ज्ञातामुत्रमध्ये सुवुद्धिमधान राजाने प्रतियो-वा निमित्ते खान्नु पाणी लाव्या ते हिंसा थइ के नहीं ? ते विचारजो. तथा जंबूदोप पन्नतीमा भुजीनो जन्माभिषेक वर्गन्यो छे ते तो समुद्रसरखा पाणीना मवाह चाल्या तेही पृथ्वी, पाणी, ते, वार, वनस्पती, त्रसकायमा केइ काय उगरी हशे? तो पण परमेश्वरनो उन्माभिषेक ते हिंसा न कहेवाय. भक्ति प्रवल छे माटे. तेम पूजामां पण हि न गणवी. एटलाज माटे पश्नव्याकरणमध्ये दयानां नाम कह्यांछे. तेहमां पूजाममुखना नाम कथाछे. ते पूजा त दया कहीछे पण हिंसाना नाममां पूजा नथी. इत्यादिक घणीची है. वली लसाय ? आत्मार्थी होतो मध्यस्थ थइने जोज्यो. हिंसा होय तो के० जिनपूजामा हिंसा होय तो, अब डमां कहे नहीं ? तेह विचार के० श्री सूयगडांगमूत्रना वीजा श्रुतस्कंधना वोजा अध्ययनमां तेर क्रिया चालोछे तेमां प्रथम अट्टादडे के० अर्थे, प्रयोजने हिंसा करे ते अर्थदंड कहीए. जो पूजा करतां हिंसा होय तो अर्थदंडमां पूजा कहे नहीं ? अने न कही तेवारे जाणीए छैए जे पूजामां हिंसा नथी. इति पंचम गाथार्थ ॥५॥
नाग भूत जक्षादिक हेते॥ पूजा हिंसा उत्त ।
सूगडांगमा नवि जिन हेते ॥ वाले जे होए जुत्त ॥ सु०॥६॥ अर्थ-नाग भूत जक्षादिक हेते के० नागने हेते भूतने हेते, जक्षने हेते, पूजा हिंसा उत्त के० पूजा ते हिंसा कहीछे. सूगडागमां के० सूगडांगमध्ये, नवि जिन हेते के जिनेश्वरने हेते पूजा ते नथी कही. एटले ए भावजे ते सूगडांगमध्ये अर्थदंडमां नागादिकनी पूजा ते हिसामां गणीछे; पण जिननी पूजा नथी गणी, ते माटे पूजानो अधिकार कह्यो. अने जिनपूजा शे न कहो ? ते कहे डे-बोले जे होए जुत्त के सूत्रमा जे जुक्त होय तेहज वोले, अयुक्ति न वोले. तथा उलटा सिद्धांतमां चैत्य महोत्सव बोल्या छे ॥ 'चेइयमहेराइवा ।। इत्यादिक आचारांग प्रथम श्रुतस्कंध प्रथमाध्ययन प्रथम उद्देशेछे. एम जमाली प्रमुखने अधिकारे एवा ठाम ठाम पाठछे देहेरां पण उववाइसनमध्ये चंपानगरी वर्णववाने अधिकारे पाढे पाडे कह्यांछे, अने गमे ठामे नगरीओनो वर्णव उववाइसूत्रने भलाग्योछे. तेवारे सर्व नगरमध्ये पाडे पाडे चैस उरथांन. इत्यादिक घणो विचारछे. केटलो लखाय ? ॥६॥
हवे कुमति कहेछे, पूनामां हिंसा छे माटे ज्यां हिंसा होय त्यां जिनेश्वरनी आज्ञा केम होय ? ते उपर गाथा कहे छे.
ज्या हिंसा तिहां नहीं जिनाणा | तो केम साधु तिहार ।। कर्मबंध नहीं जयणा भावे ।। एछे शुभ व्यवहार ॥सु०॥७॥
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दोदसी गाथा स्तवन.
( ६३ ) अर्थ - कुमति वोलेछे के, ज्यां हिंसा के० ज्यां हिंसा होय, तिहां नहीं जिनआणा के० त्यां प्रभुआणा न होय. तेनो उत्तर कहेछे. तो केम साधुविहार के० तो सुनिने विहारनी आज्ञा परमेश्वरे केम करी ? वली विहार करतां नदीमां- "एगं पायं जले किच्चा || एगं पायं थळे किया ।" एहवा पाठ आचारांगे तथा कल्प सूत्रे केम कहा ? वली नदी उतरतां सूर्य अस्तगत थाय तो पाणीमांने पाणीमां चारे पहोर साधु उभा रहे. एम दशाश्रुतस्कंधमां केम आज्ञा करी ? वली वरसाद वरसतां पण वहोरवा जवाना अधिकार कल्पसूत्रनी सामाचारीमां केम कला ? वली वरसाद वरसतां एक साधु अने एक साध्वी, hi दिकामे भेलां थायतो उभां न रहे: वरसतामां पण चाल्यां जाय. ए आज्ञा केम कीधी ? वली ऋषभदत्त प्रभुने वांदवा गया. तिहां- 'धग्मियं जाणपवरं ॥ ' एम क ते रथ ने धर्मयान केम कां ? ए रथ, मार्गमध्ये शी दया पालशे ? तथा धर्मयान अने पापयान ए वे प्रकार जुदा पण दीसे छे. माटे पापयान कां न कर्तुं ! वली श्रावक आणंदादिकने उपासक दशांगमध्ये व्रत उचराव्यां; वे वारे प्रथम व्रतमां “ वारणे ढोर होय तो तेहने भातपाणीनो विच्छेद करे तो अतीचार लागे. ए अतीचार जाणवा पण आचरवा नहीं एम आज्ञा केम कीधी ? तथा वली आचारांगमां कहुं जे बहोर्यु ऌण गृहस्थ पार्छु न लेतो पोते वावरे सांभोगिकने वर्हेची आपे. ते लुण वापरतां Paneer hear थाय ? पण एटली विराधना करतो आराधक कह्यो. ज्यां हिंसा त्यां आज्ञा नहीं. एम कहो तेवारे सघलां ए सूत्र देखाड्यां. तेहथी वीजां पण घणां छे. केटलाक लखाय ? ते सघलाए व्यर्थ थाय; ते माटे ते ते ठेकाणे हिंसापण छे; अने आज्ञा पण करीछे. ए विचारजो.
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हवे शिष्य पूछेछे जे " हिंसा पण छे अने आज्ञा पण छे; तेवारे ए केम मेलवीए. " हवे उपकार करवा शीखवेछे. सांभल भाइ, कर्मबंध नहीं जयणा भावे के० जतनाभावे कर्मबंध नथी. एटले ए भाव जे, जतनाए जे जिनशासननी करणी करी तेहमां यद्यपि हिंसा होय तो पण कर्मबंध न थाय. इति भाव. ए छे शुभ व्यवहार के० एहज भलो व्यबहार छे. इति सप्तमी गाथार्थ. ॥ ७ ॥
हवे कोइ कदेशे जे, " पूजामां हिंसा तो थायछे, तेहनो बंधपण प्रथम थाय छे. " एम कछे तेहने कोइक वचमां उत्तर वालेछे.
प्रथम बंधने पछी निर्जरा || कूपतणोरे दिड़ंत ॥
कोइ जोडे बुध भाषे || भाव ते शुचिजल तंत ॥ सु० ॥ ८ ॥
अर्थ - प्रथम बंधने पछी निर्जरा के० प्रथम फूल, जल, न्हावुं, धूप, दीपे जीव हींसाए बंध यायः पछी भावना स्तवनाए आल्हादताए निर्जरा थायछे. कूपतणोरे दित के कूआने दृष्टांते, प्रेम कूबो खोदे तेवारे ते माटी ममुखे मेलो थाय, मजूरी करतां तर
वच सुरेंद्रश्चामीकर
तस्यच
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महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. सपण लागे, थाक पण चडे. पछी पाणी आवे तेवारे मेल जोय, तरस भागे, थाक पण उतरे, वीजा लोक पण पाणी पीए ते माटे ए दृष्टांते प्रथम वंध थाय; पछी निर्जरा थाय यतः आवश्यकनियुक्तौ-"अकसिणपवत्तगाणं, विरयाविरियाण एस खलु जुत्तो । संसारपयणुकरणे, दव्यत्यए कूवदिवो ॥१॥" व्याख्या-अकसिणपवत्तगाणं के समस्तपणे न प्रवृत्या एहवा, विरयाविरियाण के विरताविरती-श्रावक देशविरती, जे कारण माटे श्रावक देशथी मत्याछे. सर्वयी वो मुनि प्रवृत्या छे. ते श्रावकने, एस के० ए, दव्वत्थए के० द्रव्यस्तव घटमानछे. संसारपयणुफरणे के० संसार पातलो करवाने, कूवदिटुंतो के कूआनुं दृष्टांत जाणवू. इति उक्तगाथार्थः १ ते कूआतुं दृष्टांत कयुं ते रीते, कहीने कोइ जोडे के० कोइक ए रीते कहीने जोडेछे. पण तेहने निषेधेछे. बुधभाषे के. पंडित लोको तो एम कहेछे. भाव ते शुचिजल के० भाव जे अध्यवसाय शुभछे ते शुभ अध्यवसायरूप पाणीए अशुभधरूप मेले मेलो थतोज नथी. इति भाव. अहींयां शिष्य पूछे छे जे कूआतुं दृष्टांव केम मलशे ? वेहने उत्तर दीएछे जे दृष्टांत होय ते देशिक होय, माटे अहींयां बंघरूप मेल, शुभ अध्यवसायरूप पाणी. एटली सरखामणी लीजीए. हवे एहज वात दृढ करेछे.
उपादानवशे बंधन कहियुं ॥ तस हिंसा शिर उपचार ।। पुष्पादिक आरंभतणा एम ॥ होय भावे परिहार । सु०॥९॥
अर्थ-उपादान के० आत्मानो अध्यवसाय, वेहने वशे बंधन कहियु के वंध कह्यो. एटले जेवो आत्मानो अध्यवसाय थाय तेहवो बंध पडे. यत:-"जं जं समय जीवो, माविस्सइ जेण जेण भावेण । सो तमि मि समए, सुहामुहं बंधए कम्मं ॥१॥" इति उपदेश मालायां ॥ व्याख्या-जे जे समये जीव, जे जे भावे आवेशमा आवे, ते माणी ते ते समये शुभाशुभ कर्म बांधे. इति. तस के० तेहने अध्यवसाय विना जे हिंसा छे ते उप चारेज छे. एटले पूजामां फूल पाणी प्रमुखनी हिंसा कहेवाय छे, ते उपचारे कहेवाय छे. ने माटे हिंसाना अध्यवसाय नथी. माटे एहने माथे हिंसा ते उपचारे छे. पुष्पादि आरभवणा के० फूल प्रमुखना आरंभनो, एम के० ए उपचार प्रकारे, होय भावे परिहार के० अध्यवसाए परिहार थाय. एटले अध्यवसाय विशेषे पुष्मादिकनो आरंभ टले आरंभ न लागे. इति भाव. इतिगाथार्थ ॥५॥ वली दृष्टांते करी दृढ करेछे ,"
जल तरतां जल उपर मुनिने ॥जेम करूणारे रंग, ॥ पुष्पादिक श्रावकने तेम ॥ पूजामांहे चंग ॥ सुः॥१०॥
अर्थ-जल तरतां के० पाणी तरता, जल उपर मुनिने जेम करुणानो रंग के० जेम मुनिने पाणी उपर दयानोज रंग छे, पण अंश मात्र हिंसानो परिणाम नथी. पुष्पादिक
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दोढसो गाथा स्तवन
(६५) उपर श्रावकने तेम पूजामां के० श्रावकने तेहज रीते एटले मुनिनी रीते, पूजामां फूल धूप दीप प्रमुखमां जाणवू. चंग के० मनोहर-एटले श्रावकने फूलं प्रमुख उपर दया भाव छे, पण हिंसानो परिणाम अंशमात्र नथी. अहीयां जलतरतां कडं तेहमा एम सूचव्यु जे पाणी, उतरे तो खरा, अने पाणी तरे पण खरा. जे कारण माटे ठाणांग मध्ये पांचमे ठाणे पांचे ठामे आज्ञा न ओलंधे. तेमां साधवी तणाती देखीने तरीने पण साधु काढे. एम आज्ञा करी छे. माटे पाणी सरतां एम पाठ कहो. इति दशमी गाथा ।। १० ।। पात्र दानथी शुभ विपाक ज्यम ॥ लहे सुबाहुकुमार ॥ पहेले गुणठाणे भद्रक पण ॥ त्यम जिनपूजा उदार ।। सु०॥ ११ ॥
अर्थ-पात्र दानयो के मुपात्रने दान दीपायो शुभ विपाक ज्यम के० जेम शुभ विपाक, लहे के० पामे. सुबाहुकुमार के० श्रीविपाकसूत्रमा मुवाहुकुमार, पहेले गुणठाणे के. मिथ्यात्व गुणठाणे इता, भद्रक पण के० भद्रक सरल स्वभावपणे हता. एटले ए भाव जे, मुबाहुकुमार भद्रक हता, मिथ्यात्व गुणठाणे हता; सुपात्र दाने करी पुन्य बंधा', संसार परित्त को अने शुभ विपाक पाम्या. त्यम जिनपूजा उदार के० एज रीते मिथ्यात्वी होय अने उदार भक्ति ए जिनपूजा करे ते शुभ विपाक पामे. इति एकादशमी गाथार्थ ॥११
वली कुमति वोल्यो जे-" दानवें फल कयु पण पूजानुं फल क्या कयुं छे?" तेहने उत्तर करे छे. उपलक्षणथी इत्यादि.
उपलक्षणथी जेम शीलादिक ॥ तेम जिनपूजा लीध ॥ मनुज आयुबंधे ते सुबाहु ।। तेणे समकित न प्रसिद्ध ।। सु० ॥१२॥
अर्थ-उपलक्षणथी जेम शीलादिक के० दानना उपलक्षणथी जेम शील तप प्रमुख लीजीए, तेम जिनपूजा लीध के० तेम उपलक्षणथी जिनपूजा लीधी छे. अन्यथा महानिशीथसूत्रमा तो प्रगटपणे पूजानां फल कहां छे. पण महानिशोथसूत्र कुमति न माने, माटे उपलक्षण बवाव्यु छे. वली कुमति वोल्यो-"मुवाहुकुमार मिथ्यात्वी क्या कथा छे?" तेहने उत्तर दीए छे. मनुज आयुर्वधे ते सुबाहु के० ते सुवाहुकुमारे मनुष्य आयुप पांध्यु छे. समकिती होय ते नियमा वैमानिक आयुष वांधे. तेणे समकित न प्रसिद्ध के. ते कारणे एहने समकिव प्रसिद्ध नथी. ॥ १२ ॥
वली मिथ्यात्व गुणठाणे पुण्यकरणी करतां शुभविपाक पामे ते उपर वीजु दृष्टांत कहे छे. मेघजीच इत्यादि ।
मेघ जीव गज शस अनुकंपा ।। दान सुबाहु विचार ।। पहेले गुणठाणे पण सुंदर ॥ जेम जिनपूजा प्रकार || सु०॥.१३ ।।
तस्यच . .
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(६६) महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. ___ अर्थ-मेघ जीव गज शस अनुकंपा के० मेघकुमार श्रेणिकनो पुत्र, ते पाछले भवे गज इतो. तेणे ससलानी अनुकपाए पग हेठो न मूक्योः अने महा वेदना खमी. ते वेलाए पण तेने मिथ्यात्व हतुं. तेम दान सुबाहु विचार के० सुवाहु कुंवरतुं दान तेहनो पण विचार करवो. ते पहेले गुणठाणे पण सुंदर के० रूडा अध्यवसायवंत हता. तेम जिन पूजानो प्रकार पण एम जाणवो. एटछे मिथ्यात्व गुणठाणे एवढो गुण करे छे, तो समकित देशविरति वालाने ए पूजा गुणकारी थायः एमां पूछचुंज ? सामु एहथी अधिक गुण करे. इति त्रयोदशमी गाथार्थ ॥ १३ ॥
हवे एम कहे थके कुमति वोल्मो जे-"पूजामां गुण मानो छो ते पारे साधु कान करे ? जेहमा गुण होय ते सहुए करे" एम कहे छे वेहने उत्तर वाले छे. दान देव पूजादिक सघलां ॥ द्रव्यस्तव कहां जेह ।। असदारंनो तस अधिकारी ॥ मांडी रहे जे गेह ॥ सु०॥ १४ ॥
अर्थ-दान देव पूनादिक संघलां द्रव्यस्तब कहां जेह के० दान, देव पूजा आदि शब्दयी साहमिवच्छल, प्रभावना, वीर्थयात्रा, अने रथयात्रा प्रमुख ठेवां. ए सर्व द्रव्यस्तव कह्यां छे. असदारंभी के० होणा आरंभना धणी, तस अधिकारी के० ते द्रव्यस्तवना अधिकारी छे. ते असदारंभी केवा छे? मांडी रहे जे गेह के. जेओ घर मांडी रह्या छे एवा छे. एटले ए भाव जे-आरंभ वे मकारे छे. एक सदारंभ अने बीजो असक्षारंभ. तेमां दान, देवपूजा, साहमिवत्सल प्रमुखमां जे आरंभ-वे सदारंभ कहीए, अने घरवार करावतां तथा छैयां छोकरां परणावतां जे आरंभ-ते असदारंभ कहीए. जे असदारंभी होय ते सदारंभनो अधिकारी होय. पण निरारंभी मुनिराजने सदारंभ पण कम होय ! इति भाव.
हवे ते उपर एक पृष्ठांत कहीए छैए-चोमासामा कोइपण गृहस्थ, धर्मशालामा सामायिक करी वेठो. एवामां वरसाद आव्यो, तेणे करी ते धर्मशालामा चूवा लाग्युं. तेवामां कोइ छूटो गृहस्थ त्यां आव्यो। तेणे चूवा स्थानके कुंडे मांडयु. ते कुंडं पाणीए भरा[. एवामां ते कुंडामां मांखी पडी ते तडफडे छे. हवे ते सामायिकवालो गृहस्थ, ते माखी काढे के न काढे ? जो काढे तो असंख्याता अपकायनो घात थाय छे सचित्तनो स्पर्श पण याय छे. जो न काढे तो चोरेंद्रि माखी मरेछे अने तेथी दया रहेती नथी हवे कोइ वीजो छूटो गृहस्थ आवे ते माखीने मुखे काढे. ते वारे गृहस्थ गृहस्थमा, विरति तथा अविरतिमां पण एटलो फेर छे तो, पूजा करवामां साधु तथा गृहस्थमा फेर केम न होय ! इवि गाथार्थ ।। १४ ॥ सदारंभमां गुण जाणी जे ॥ असदारंन निवृति ॥ अरमणीकता त्यागे भाषी । एमज प्रदेशो प्रवृति ॥ सु०॥ १५ ॥
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दोडसो गाथा स्वन.
( ६७ )
अर्थ- सदारंथमां गुण जाणीजे के० असदारममां बेठो होय तेने सदारंभमां गुण जाणीए. शो गुण जाणीए ? ते कहे छे. असदारंभनिवृत्ति के० 'असदारंभनो त्याग था. एटले ज्यांलगी सदारंभमां प्रवृत्ते त्यांलगी असदारंभ न करेज, बली सदारंभमां द्रव्यमूर्छा उतारे, ते द्रव्ये असदारंभ न सेवे. इति भाव. ते उपर सूत्र साख देखाडे के अरमणिकता त्यागे के० अरमणिक न थाजे. ए प्रकारे, भाषी के० कही. प्रदेशी एमज प्रवृत्ति कें देशी राजानी वृत्ति बतावी. एटले ए भाव के, केशीस्वामिए मदेशी राजा धर्म पाम्या तेवारे कछु के हे राजन् रमणिक थहने अरमणिक म थाजे. तेवारे रमणिक थाजे एम कलेज. इति गाथार्थ ॥ १५ ॥ हवे सूत्रपाठ लखीए छैए. " मा णं तुमं पएसी पुब्बि रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिधे भविज्जासि ||" इत्यादि. अस्यार्थ - माणं तुमं के० मत थाजे तुं. पुव्विं रमणिज्जे भवित्ता के० पूर्वे अन्यने दान देनारो थइने पछी, अरमणिज्जे भविजांसि के हवे धर्म पाया पछी अदाता थइश मां. अन्यथा अमने अंतराय बंधाय. वली जिनधर्मनी अपभ्राजना थाय. इति. वली आगळे आलावे प्रदेशीए कहुं छे के, हुं पूर्वे रमणिक थइने अरमणिक नहीं थाउं. हुं सात हजार गामना चार भाग करीश. एक भाग हाथी घोडा प्रमुख वाहनमां, देश, एक भाग कोठारमां नाखीश, एक भाग अंतःपुरने दइंश, अने एक भाग दानशालाए विपुल चार प्रकारना अशनादिकं रंघाषीने घणा श्रमण, माहण, भिक्षु, पंथी प्रमुखने आपीश. इत्यादि पाठ तो छे. जो सदारंभमां गुण छे तो, इति ॥ वली सूत्रसाखे बीजुं दृष्टांत देखाडे छे. लिखन शिल्पशत गणितं प्रकाश्यां ॥ त्रण प्रजा हित हेत ॥
प्रथम राय श्री ऋषभजिणंदे || तिहां पण ए संकेत ॥ सु० ॥ १६ ॥
अर्थ-लिखन के० अढार लिपि गणित पद अहींयां जोडीए. एटले गणित ते एक, दर्श, शतं सहस्रं इत्यादिक, शिल्पशत के० सो शिल्प, ए प्रकाश्यां के० कां. त्रण के० ए लिखनादिक जाणत्रां. उपलक्षणथी बहोतेर पुरुषकला १, चोसठ खीनी कला २, अने सो शिल्पकला ३, प्रजाहित हेत के० प्रजाना हितने कारणे, प्रथम राय के प्रथम राजा श्री ऋषभजिनेश्वरे खांडयां हिांपण ए संकेत के० त्यां श्री ऋषभदेवने पण एज संकेत छे. एटले ऋषभदेवजीने पण उन्मार्ग तजीने मार्गे लोक प्रवृत्ते एवोज संकेत के. अन्यथा ऋषभदेवजी त्रण ज्ञानना धणी एम वतावेज केम ? इति भाव. ते सूत्रपाठ कहे - “लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ सउणरुयपज्जवसाणाओ बावतारं कलाओ चउसट्ट्ठिमहिलागुणे सिप्पस च कम्माणं तिन्निवि पयाहियाए उवदिसह उवदिसइता ||" इति व्याख्यालेहाइयाओ के० लिखन आदेदेइ, गणियप्पहाणाओ के गणित के प्रधान जेहमां. सउणरुयपज्जवसाणाओ के० शकुनरुत छेहेडे छे जेने, वावचरिं कलाओ के० एवी बहोतेर कला १, चउसठिमहिलागुणे के० चोसठ स्त्रीना गुण २, सिप्पसयं च कम्माणं के० कर्म जे कृषि वाणिज्यादिकं. तेहमां सो शिल्प ३, तिनिवि के० एत्रणे, पयाहियाए के० प्रजाना हितने
तस्यच तथास
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( ६८ )
श्री यश महामहोपाध्याय विजयजी कृत.
अर्थे, उवदिसह के० देखाडे छे. इति. अहीयां कोइ पूछे जे “ए कलाप्रमुख, प्रभुजी केम देखा ?" तेनो उत्तर कहीए छैए. ए कलाममुख उपाये करी सुखे आजीविका निर्वाह थाय. तेवारे चोरीप्रमुख व्यसन पण न सेवे. ते सांभली शिष्य बोल्यो के " वहु सारं. ए हेतु वलादिक देखाबुं थाओ; पण राज्य मवर्त्ता केम घटे ? " गुरु कहेछे. उत्तमना उपकारने अथे, दुष्टना निग्रहने अर्थे तथा धर्मस्थिति ग्रहेवाने अर्थे ते राज्यस्थितिए रुडी री प्रवर्त्ततां अनुक्रमे महापुरुषने उपदेशे चोरी प्रमुख व्यसन निवर्ते, तेथी नारकी प्रमुखनी गति निवर्ते, आ भव परभवनां सुख साधवा समर्थ माटे राज्यस्थिति प्रशस्त तथा महापुरुषनी प्रवृत्ति ते सघले परउपकारी होय. वहु गुण अल्प दोष कार्य कारण विचारणा पूर्वकज होय. वली ठाणांगना पंचमाध्ययने पण कं छे- “ धम्मेणं चरमाणस्स पंचनिस्साठाणा पत्ता तंजहा छक्काया १, गणो २, राया ३, गाहावई ४, सरीरं ५, इत्यादि." एमां एम कहुँ जे धर्म आचरतां पंच निश्रा स्थानक छे. तेहमां : राजानी निश्राए धर्म पाली शके. टीकामां कह्युं छे के, राजा छे ते धर्मने सहायकारी छे.. दुष्ट थकी साधुनी रक्षा करे, एम कहुं छे. बली परम करुणावंत, परमधर्मना प्रवर्त्तावनारा अने त्रण ज्ञानना धणी - तेणे राज्यधर्म प्रवर्त्तान्यो तेमां कांइ अनुचित नथी. युक्ति ए घटती बात छे. तेहनो विस्तार जिनभवन पंचाशकनी सूत्रवृत्तिमां यतना द्वारे व्यक्तपणे देखाड्यो छे. त्यांथी जाणवो. अहींयां ग्रंथ गौरवना भय थकी लखता नथी. एणे करीने ॥ ' राज्यं हि नरकांत स्यादिराजा न धार्मिकः ॥' एह उक्ति पण दृढ थइ तथा वली त्रीजा आराने छेडे राज्यस्थिति उपन्ये थके धर्मस्थितिनो उत्पाद थयो. अने पांचमा आराने छेडे श्रुत, आचार्य, संघने धर्म - पूर्वान् विच्छेद जाशे. तथा विमलवाहनराजा, मंत्री, न्यायमार्ग मध्यान्हे विच्छेद जाशे, अनि संध्याये विच्छेद जाशे. यतः - " सुअसूरि संघधम्मो पुव्वण्हे छिज्जही अगणि सायं । निवविमलवाहणा सहुममंती तद्धम्म मज्झहे ॥ १ ॥ " ए लेखे धर्मस्थिति विच्छेद भयो पछी राज्यस्थिति विच्छेद थयो. तेचारे राज्यस्थिति ते धर्म स्थितिनो हेतु छे; एम उर्युज. ते माटे प्रभुजीने राज्यस्थिति स्थापना कांइ अनुचित नथी. ॥ १६ ॥
हवे अहीयां वली कोइ पर बोल्यो के “मुनि होय. ते पूजा प्रमुख हिंसानो उपदेश केम करे ?" ते उपर ॥ सुनि उपदेश दिए । एम सूत्र साखे देखाडे छे.
यतनाए सूत्रे कां मुनिने ॥ आर्य करम उपदेश |
परिणामिक बुद्धि विस्तारे | समजे श्राद्ध अशेष ॥ सु० ॥ १७ ॥
अर्थ - यतनाए के० सुनिने सूत्रने विषे अर्थात् उत्तराध्ययन सूत्रने विषे कहाँ छे, एटले मुनि आर्यकर्मनो उपदेश दीए. इति भाव. पछी श्राद्ध परिणामिक बुद्धिए करी विस्तारे अशेष समजे. इत्यन्वय श्राद्ध के० श्रावक, परिणामिक बुद्धि के० बुद्धि परिणमी जाए एवी बुद्धिए करीने विस्तारे. अशेष समजे के० सर्व समजी जाय ते
सूत्र पाठे
ए
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दोढसो गाथा स्तवन
(६९) छे. ॥ जइ तंसि भोए चइउं असत्तो, अन्जाई कम्माई करेहि राय। धम्मे ठिो सन्वपयाणुकंपी तो होहिसि देवोइओ विउव्वी ।१।"व्याख्या-चित्रमुनिए ब्रह्मदत्तने उपदेश घणो दीयो, पण प्रतिबोध न पाम्यो. तेवारे चित्रमुनि कडेछ. जइ के जो, तसि के तुं छे. भोए चइउं असत्तो के० भोग छोडवा असमर्थ तो, अजाई कम्माई के० आर्य फाम-उत्तम लोकने उचित एहवां कार्य जे अनुष्टान, करेहि राय के हे राजन् करजे. धम्मे ठिओ के धर्मने विपे रह्यो. प्रस्ताव थकी गृहस्थ धर्म लइए एटले गृहस्थ धर्ममां रखो. सव्वपयाणुकपी के० सर्व मजा जे पाणी तेमनी अनुकंपावंत थको, तो के० ते आर्य कार्य करवायी होहिसि के० थाइश. देवो के देवता, इओ के० आ मनुष्यना भव थकी, विउच्ची के. क्रिय शरीरवंत यइश.
अहीयां कोइक कहे छे जे “आर्य काम ते पोसह सामायिक लीजीए पण पूना नहीं" तेने कहीए जे भोग छोडवा असमर्थ कयो छे अने पोसह सामायिकमां तो भोग छंडाय छे; माटे पूना, प्रभावना अने साहमिवत्सल प्रमुखज आवे
आर्य कार्य श्रावकनां जेछ । तेहमां हिंसा दिठ ।। हेतु स्वरूप अनुबंध विचारे ।। नाशे देई निज पिठ ॥सु० ॥१८॥
अर्थ-आर्य कार्य श्रावकनां जे छे के जे जे श्रावकनां आर्य काम छे, तेहा हिंसा दिठ के० तेहमां एटले आर्य काममां हिंसा दीठी छे. ते हिंसा त्रण प्रकारे छे तेत्रण प्रफार देखाडेछे. हेतु के. एक हेतुहिंसा, स्वरूप के० वीजी स्वरूपहिंसा अन, अनुबंध के. त्रीजी अनुवंघहिंसा, विचारे के० ए त्रण भेद, हिंसाना विचारे तो, नारे देइ निज पिठ के ते पूजा प्रमुखमां हिंसा मरूपनारा कुमति पोवानी पूठ देइने नाशे पण युक्तिए की शके नहीं. इति अष्टादशमी गाथार्थ ॥ १८ ॥
हवे एज प्रण प्रकारनी हिंसानो अर्थ देखाडे छे. हिंसाहेतु अयतना भावे ॥ जीव वधे ते स्वरूप ।। आणाभंग मिथ्यामति जावे ॥ ते अनुबंध विरूप | सु०॥१९॥
अर्थ-हिंसाहेतु के हेतुहिंसा ते कहीए जे, अयतना भावे के० अनाउपयोग प्रमादे प्रवर्तव; तेहमां यद्यपि जीवहिंसा न थाय तोपण हेतुहिंसा कहीए. हवे स्वरूपहिंसाकहे छे. ते स्वरूप के० तेहने स्वरूपहिंसा कहीए. कोने ? ते कहे छे. जीव वधे के० माणीनो घात थाय. तेवारे एटले मुनिराज पण उपयोगे चालता हालता होय अने कोइ जीवनो घात थयो. तो मुनिने स्वरूपहिंसा लागे; पण ते स्वरूपहिंसा, हीणां फल देवानो एकांत नहीं. हवे अनुबंधहिंसा कहे छे. आणाभंग के० प्रभुजीनी आज्ञानो भंग करे, आज्ञा लोपे मिथ्यामति भावे के० मिथ्या विपरीत एहवी जे मति, ते भावे करीने एटले विपर्यास
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तस्यच : स.
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१७.) महामहोपाध्याय श्री यशोविजयनी कृत. श्रद्धाए करीने जेटलु प्रवर्तन करे. कष्ट अनुष्ठान करे ते यद्यपि बायथी हिंसा न करतो होय तोपण, पोतानो आत्मा हणाय छे, माटे अनुबंध ते सततर भावे परंपराए हिंसानु फल आपे छे मारे अनुवंधहिंसा कहीए. ते विरूप के पूर्वे थे हिंसा कही, तेथी ए'महा विरूप छ, विपरीत स्वरूपछे. इति ओगणीशमी गाथार्थः ॥१९॥ वली एइंज' स्पष्ट करेछे. हेतु स्वरूप न हिंसा सेवी ॥ सेवी ते अनुबंध ॥ तो जमालि प्रमुखे फल पाम्या ॥ कहुआ करी बहु बंध सु॥२०॥
अर्थ-हेतुस्वरूप के हेतुहिंसा तथा स्वरूपहिंसा, न हिंसा सेवी के० ते हिंसा सेवी न कहीए. एटळे दुष्टविपाक फल तेवां नपे अने, सेवी ते अनुबंध के अनुबंध हिंसा ते हिंसाज सेवी. जे माटे महा विपरीत, परभवे दुष्टविपाक फल ते ए आपे छे. ते उपर दृष्टांत देखाडे छे. तो जमालि प्रमुखे फल पाम्या, कडुआं के ते अनुबंध हिंसावंत हतो तो जमालि प्रमुख कडुआं फल पाम्या. करी बहु दूध के० घणा दूध क्लेष करीने काया कष्ट करी वली वीजाने पण मिथ्या श्रद्धानी वासनारूप द्ध करीने. एटले ए भाव जे, जो आणा विना एकली दयायीज जो धर्म पामे तो श्री भगवती सूत्रना नवमा शतक मध्ये जमालिनो अधिकार विस्तारे छे; तेहमां जमालिए शुद्ध चारित्र पाल्यु छे. माखोनी पांख सरखी दुहवी पण नथी, पण एक प्रवचन लोप्यु. वीजें,सर्व साचं मानतो हतो पण फल ते हिंसानां आप्यां, पण अहिंसानां न आप्यां. तो रे,अमविओ, एना सरखी तो तमाराथी दया पलती छे नहीं. मात्र मुखे दया दया पोकारो छो, माटे आणा विना तमांरो निस्तार केम थशे? ते जमालिनो अधिकार घणो छे माटे अहींयां लखता नथी. आत्मार्थी हो तो
स्वहां जोज्यो.
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सरूपथी हिंसा न टले छ । समुंद्रजले जे सिद्ध ।। वली अपवादपदे जे वरते ॥ पण तेणे शिवपद लोध ।।सु०॥२१॥
अर्थ- सरूपयी हिंसा न ट के नयी टलती, समुद्रजले जे सिद्ध के लवण समुद्र तथा कालीदषि तथा जलशब्दें गंगा प्रमुख नदींना पाणीमां सिद्धि वरचा एटले अढी द्वीप के समुद्र मध्ये सूचिअग्र जेटली जग्या सिद्ध नथी थया एहवी नथी. तेवारे पाणीमां सकल कर्मक्षय करतां पाणीना जीवोनी सरूपयी हिंसा यायछे. वली के० वी उदाहरण कहे छे. अपवादपदे जे वर के० अपवापद ते कारणे करनु पडे. त्यां वर्ततां हिंसा याय छे, पण तेणे शिवपद लीप के पण ते अपवादेना सेवको, मोक्षपद' पाम्या छे. श्री आघारांगसूत्र द्वितीयश्रुतस्कंध 'मथम अध्ययन देशमे उद्देशे-" से भिक्खू वा भिखूणी वा जावस माणे सिया से परो अभिह अंतो पडिग्गहे विलं वा लोणं नौ उम्भिय वा लोणं परिभाईचा नीहहु दलएजा, तहप्पगार पंडिग्गहेंगे परहत्यसि वापरपायसि वा अफा.'
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दौंडसी गाथानुं स्तवन.
(७१) जानो परिग्गजा, सेमाहच पडिगाहिएसिया तं च नाति दूरं गए जाणिना से तमायाए तत्थ गच्छिज्जा पुव्वामेव आलोइज्जा आउसोत्ति वा भगिणीति वा इमं किं ते जाणया दिनं उदाहु अजाणया ? से य भणिज्जा नो खलु मे जाणया दिनं अजाणया, इमं खलु आउसो इदाणि निसिंरामि तं भुंजह वा णं परिभाएज्जा, तं परेहिं समणुन्नायं संमणु सिट्ठ ततो संजयामेव भुंजिज्ज वा पिएंज्ज वा, जं च नो संचाएह भोत्तए वा पाय वा साहम्मिया तत्थ वसंत संभोइया समणुन्ना अपरिहारिया अदूरगया समणुन्नाया ते वत्तन्वं सि या नो जत्थ साहम्मिया जहेब बहुपरियावनं कीरइ तहेव कायन्त्रं सिया एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खू सामग्गियं ।। " व्याख्या - से भिक्खु वा भिक्खुणी वा के० ते साधु अथवा साधवी, जावस माणे के० यावत् गृहस्थने घेर गोचरी पेठां, सिया के० कदाचित्, सेपरो के० 'ते गृहस्थ, अभिहुअंतो के० मांहे पेशीने, पंडिग्गहे के० पात्रने विषे ग्लानादिकने कांजे खांड प्रमुख याच्ये थके, विलंवा लोणं के० खाण विशेषे उपनुं लुण, उभियं वा के० लुणना आगारमां उपन्युं, तो के० तेबारे, दातार परिभाइत्ता के पोताना भाजन मध्येथी थोडंक ग्रहीने, निह के बहार नोकलीने दलएज्जा के० साधुने आपे, तहप्पगारं के० तथा प्रकारनुं, पडिग्गहगं के० भाजन हजी, परहत्थसि वा के० परना हाथमां छे, परपायँसि वा के० परभाजनने विषे, अफासुअं के० एहवं सचित्त, जाव नो पडिग्गहेज्जा के० यावत् न पडघावे न लिए निषेध करे, आहच्च के० सहसात्कारे पडिगाहए सिंया के पडघान्युं होय-लीधु होय. तंच नाति दूर गया जाणिज्जा के० ते तार घणो समीपे जाणीने, से तमायाए के० ते भिक्षु, लवणादिक लेइने तत्थ गच्छिना के० ते दातार पासे जाय, जईने. 'पुव्वामेव आलोइज्जा के प्रयमयी ते लवणादिक देखाडे, पछी एम कहे. आउसोत्ति वा के हे आडखावत, भगिणीत्ति वा के० हे वहेन, इमं ते किं जाणया दिनं के० 'आ लुण प्रमुख तमे जाणते आप्युं ? उदाहु अजाणया के० अथवा अजाणे आप? से य भणिज्जा के० ते एम कहे, नो खलु मे जाणया दिनं के० में जाणीने नयी आप्युं, अजाणया के० अजाणे आप्युं छे, एवं खलु आउसो के० ' हे आउखावंत साधु, इंदा णि निसिरामि के० हवणां में आप्युं तं भुंजह वा णं परिभाएज्जा के० ते तमे भोगवो, अथवा तमारा साधुने बर्हेची आपो तं परे हिं समणुन्नायं समणुसिट्ठ के० ते परे एम जाणीने आज्ञा आपे थके, ततो संजया मेव के ० ते वारे साधु पोते कारणे, भुंजेज्ज वा पीएज्ज वा के ० खाय अथवा पीए, जंच नो संचाएइ भोत्तर वा पायए वा के० जो न भोगवी शके अथवा न पान करी शके, साहम्मिया तत्थ वसंति के० त्यां साधर्मिक साधु वसता होय, संभोइया समणुन्ना अपरिहारिया के० एक समाचारी वाला जाणे, तप न करचो होय, अदूरंगया समणुन्नाया के० ढुंकडा जाणीने, तेवत्तन्त्रं सिया के० तेहने कहे, एटले तेहने वहेंची आपे, नो जत्य साहम्मिया के० ज्यां एवा साधु न होय, जहेब बहुपरियावन की - रति के० बंडु पर्यापन्न विधि करे, ते विधि आचारांगमा पूर्वे कही छे, तहेव कायव्वं सिया
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( ७३ )
महामहोपाध्याय श्री यशोविजयनी कृत.
के० तेम करे, एवं खलु तस्स भिक्खुस्स सामग्गियं के० ए भिक्षुनुं सामग्र्य जाणवु, ए मुनिने लूण वावरतां स्वरूप हिंसा क्यां टली ? अने मुनि उत्कृष्ट कला माटे शिव पद पण लीधुं. वली अहींयां पण विचारज्यो, आज्ञा प्रमाण के दया प्रमाण ! इति.
" से भिक्खु वा भिक्खुणी वा गामाशुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से वप्पाणि वा फलिहाणिवा पागाराणिवा तोरणाणि वा अग्गलाणि वा अग्गलपासगाणि वा उन्नाओ वा दरीओ वास परकमे संजयामेव परकमेज्जा नो उज्जुणं गच्छेज्जा केवली बुया आयाणमेयं से तत्थ परकममाणे पयलेज्ज वा पवडेज्ज वा से तत्थ पयलमाणे वा पवडमाणे वा रुक्खाणि वा गुम्माणि वालयाओ वा वल्लीओ वा तणाणिवा हरियाणिवा अवलंविय अवलंविय उत्तरिज्जा ॥" व्याख्या - सेभिक्खू वा भिक्खूनी वा के० ते साधु अथवा साधवी, गामानुगामं दूइजमाणे के० ग्रामानुग्राम विचरतां, अंतरा से के० मार्ग वचमां, वप्पाणि वा के०वम होय, फलिहाणि वा के०खाइ होय, पागाराणिवा के० कोट होय, तोरणाणि वा के० तोरण होय, अग्गलाणि वा के० भोंगल होय, अग्गलपासगाणिवा भोंगलनां पासां पड्यां होय, उन्नाओदरीओ के० कोइ वस्तु विशेष, सड़ परकमे के० छते बीजे मार्गे, संजयामेव परकमेज्जा के० यतनाए ते बांके मार्गे जाय, नो उज्जुअं गच्छेजा के पाघरे मार्गे न जाय, केवली ब्रूया आयाणमेयं के० केवलज्ञानी कहे छे, आयाण ते कर्मग्रहेवानुं कारण छे. एटले पाघरे मार्गे जातां पडे आखडे तो संयम आत्मानी विराधना थायज हवे कदाचित् अन्य मार्गे अणछते, से तत्थ परिकममाणे के० ते मुनि ते मार्गे जाय; अने जातां थकां पयलमाणे के० चलायमान थको, पasमाणे के० पडतो थको. रुक्खाणि वा के० रूखने आलंवे अथवा, गुम्माणि के० गुल्मने आलंबे अथवा लयाओ के० लताने आलंबे अथवा, वल्लीओ के० वेलडीने अवलंवे अथवा, तणाणि के० तृणने आलंबे अथवा, हरियाणि वा के० हरियाने आलंबे, अवलंबिय अवलंविय के० आलंबी आलंबीने, उचरिज्जा के० उत्तरे, अहींयां अवलंविय अवलंबिय ए पद सहूने जोडीए. इति आचारांगे द्वितीयश्रुतस्कंधे तृतीय अध्ययनस्य द्वितीयोदेशक.
अहींयां पण रूख प्रमुख ने आलंवतां स्वरूपथी हिंसा दीसे छे, अने मार्ग तो ए मुनिराजनो दीसे छे: माटे शिवपद पण पामे अहींयां पण विचारजो के आज्ञाप्रमाण के दयामेमाण? जो दयाप्रमाण तो वृक्षादिकने केम झाले ! ए विचारनो. ते माटे यद्यपि ए सुनिने लूण वावर तथा वृक्षादिकनुं अवलंबनुं ते स्वरूपथी हिसा छेः पण अबंधे निरवद्य अहिंसा ज छे. तेम जिनपूजामां पण स्वरूपथी हिंसा छे पण अनुबंधे अहिंसाज छे. इनि गाथार्थ ॥२१॥ वली एज वात दृढ करे छे.
साधुविहार परे अनुबंधे ॥ नहीं हिंसा जिनभक्ति ॥
एम जे माने तेही वाधे || सुजश आगम शक्ति || सु० ॥ २२ ॥
अर्थ - साधुविहार परे के० मुनिना बिहारनी परे, अनुबंधे के० परंपराए चाळी अवे
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दोसो गाथार्नु स्तवन एवी हिंसा नहीं के० नथी, जिम भक्ति के जिनेश्वरनी भक्तिमा एटले पूजामां, हिंसा नथी एटले एम कयु जे साधु विहार करे छे, तेहमां यद्यपि वायुकायादिक कोइक अवसरे त्रस कायनी पण अथवा नदी प्रमुख उतरतां वीजी अपकायादिकनी पण हिंसा, खरूपे छे, पण अनुबंधे मुनिने हिंसा नथी. तेम श्रावकने जिनपूजामां हिंसा नथी. इति भाव. एम जे माने के० ए रीते आगमनी रीतिए जिनपूजामां हिंसा नथी एम जे पुरुष माने, तेहनी वाधे के० ते पुरुषनी वधे, गुजश आगम शक्ति के० सुख तथा जश, तेहने आगम के. आववानी शक्ति एटले ते प्राणीने सुख आवे, जश आवे. एटले एमां जश एवं कविए पोतानुं नाम पण मुचन्यू. इति गाथार्य ॥ २२ ॥ ए दाल पण संपूर्ण थयो. ग्रंथाग्रंथ ४८९ अक्षर, २८ सर्व ग्रंथांग्रंथ २०१४ अ० ६.
हवे पांचमी ढाल कहे छे. ए ढालने पूर्वनी ढाल साथे ए संबंध छे. पूर्व ढालमां पूजा करतां हिंसा न थाय. एम ठराव्यु ते तो जिनप्रतिमा ठरे ते वारे पूजा ठरे; माटे जिनमतिमानो वर्णव सिद्धांतमा विस्तारे छे ते कहे छे.
।। ढाल पांचमी।।
॥ मारी सहीरे समाणी-ए देशो ॥ सासय पडिमा अडसय माने ॥ सिद्धायतन विमानेरे॥ धन धन जिन वाणी ।। टेक ।। प्रभु तें भाषी अंग उवंगे । वरणवशुं तेम रंगेरे ॥ धन० ॥१॥
अर्थ-सासयपडिमा अडसय माने के० शाश्वती प्रतिमा एकसो आठ प्रमाणे, सिद्धायतन के० सिद्धन घर एटले देहेरां, विमाने के० विमानने विषे, धन्य धन्य जिनवाणी छे, एटले मुखनी वात नथी, ए तो परमेश्वर कही गया छे. हे प्रभो तें, अंग जे ठाणांग प्रमुख अने उपांग ते जीवाभिगम प्रमुखने विषे भाखी के० कही छे, अहींयां भक्तिए तुकारो छ तेहमां दोष नथी. जेम तमे अंग उवंगे कही छे तेम अमे, रंगे के० 3 वर्णवशुं ॥ इति प्रथम गाथार्थ ॥१॥ कंचनमय कर पद तल सोहे ।। भविजननां मन मोहरे ॥ध०॥ अंकरतनमय नख ससनेहा । लोहिताक्ष मध्ये रेहारे ॥ध० ॥२॥
अर्थ-कंचनमय के० सुवर्णमय, कर पदवल के० हाथ पगनां तलीआं, सोहे के० शोमे छे, भव्य पाणीनां मन मोह पामे एहवां छे. अंकरत्नमयी नख ते पण, ससनेहा के स्निग्ध
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(७४) महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. स्नेहवंता छेएटले. उजला छे, लोहिताक्षरननी, मध्ये रेहा के० रेखा छ एटले नख मध्ये राती रेषा छे. इति द्वितीय गाथा ।। २॥ गात्र यष्ठि कंचनमय सारी । नाभि ते कंचनक्यारीरे ॥ १०॥ रिठरतन रोमराजि विराजे || चुचूक कंचन छाजेरे || ध०॥३॥ ___अर्थ-गात्रयष्ठि के० गात्र जे शरीर तद्रूपयाष्ट ते, कंचन के० सुवर्णमय, सारी के० मनोहर छे. इति भाव. नामि ते जाणीए, कंचननी क्यारीज होयना ! एवी महा मनोहर छे. रिठरतन के० श्यामरतनमयी रोमराजि विराजे छे. चुचूक के० स्तनप्रदेश ते कंचनमयी छाजे छे. इति तृतीय गाथार्थ ।। ३ ।। श्रीवच्छ ते तपनीय विशाला || होठ ते लाल प्रवालारे ॥ध०॥ दंत फटिकमय जीह दयालु ॥ वली तपनीयतुं तालुरे ॥ ध० ॥४॥ ___ अर्थ-श्रीवच्छ हृदयनामध्यभागे, ते तपनीय के लगारेक राता सुवर्णमय छे. विशाला के० विस्तीर्ण छे. होठ ते लाल के होठ राता परवाला सरखा छे. एटले सुंदर छे. दंत फटिक के दांत ते फटिक रत्नमयी छ. एवा उज्वल सफेद छ. जीह के जीव्हा, दयालु के० दयावंत छ. तथा वाल के तालवू, तपनीय के० रक्त सुवर्णमय छे. एटळे जीभ तथा तालवू ए पेट वानां रावां छे. इति सूर्य गाथार्थ ॥४॥ कनक नाशिका तिहां सुविशेषा । लोहिताक्षनी रेखारे ॥१०॥ लोहिताक्ष रेखित सुविशाला || नयन अंक रतनालारे ॥३०॥५॥ ___ अर्थ-कनक के० सुवर्णमय, नाशिका मुविशेषा के० घणां विशिष्ठाकारे छे, एटले महा मनोहर नाशिका छे. लोहिताक्षरतनी नाशिकामा रेखा छे एटले लाल रेखा छे. लोहिताक्षरतननी रेखाए रेक्षित एवा मुविशाला के० विशाल, नयन के० नेत्र छे. वली अंक रतनालां के० अफरत्नमयी छे. एटले उज्वल अने मध्ये राती टसरयो छे. ॥ इति पंचम गाथार्थ. ॥५॥ अच्छिपत्ति भमुहावली कीकी ॥ रिठरतनमय नीकीरे ॥३०॥ श्रवण निलाडवटी गुणशाला ॥ कंचन झाकझमालारे ॥ध०॥६॥
अर्थ-अच्छिपत्ति के० पापणो, भमुहा के उपर वांकी भांपणी. कीकी प्रसिद्ध छे. एत्रण वस्तु, रिवरतनमय, के० श्यामरतनमय, नीकी के० मनोहर छे. श्रवण के कान तथा, निलाडवटी के० भाल ते गुणशाला के० गुणनी शाला-स्थानक छे. ते कंचननां छे. शाकझमाला के० देदीप्यमान एहवां छे ॥६॥ वज्ररतनमय अतिहि सोहाणी ॥ शशघडी सुखखाणीरे ॥३०॥ केशभूमि तपनीय निवेशा । रिठरतनमय केशारे ॥ ५० ॥७॥
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दोढसो गाथार्नु खवन. अर्थ-बजरतनमयी अविहि सोहाणी के. अत्यंत मन गमती, एहवी शीश घडी के० मस्तकनी घडी छे मुखनी खाण छे. केशनी भूमिका ते, तपनीय के० तपावेला सुवर्ण सरखी किंचित् रक्त छे. रिठरतनमय के० श्यामरत्नमयी केश छे. एटले काला छे ॥ इति सप्तमी गाथार्थ ।। ७ ॥
हवे ते एकसो आठ प्रतिमाने प्रत्येके एक एक प्रतिमाने, अगीयारमतिमाओवीजी छे ते शुं काम करे छे ? ते कहेछे.
पूठे छत्र धरे प्रत्येके । प्रतिमा एक विवेकरे ।। ध०॥ दोय पासे दोय चामर ढाले । लीलाए जिनने उवारे ॥ध० वा
अर्थ-पूठे एक प्रतिमा विवेके सहित छत्र धरे छे. वेडपासे, दोय के० वे मूर्ति, यभुजीने चामर ढाले छे. ते लीलाए करीने जाणे जिनेश्वरने, उवारे के० उवारणांज करती होयना ? इति अष्टमी गाथार्थ ॥ ८॥ नागभूत यक्ष ने कुंडधारा ।। आगे दोय उदारारे ॥१०॥ ते पडिमा जिनपडिमा आगे ॥ मार्नु सेवा मागेरे ।। ध० ॥९॥ ___ अर्थ-चली जिनप्रतिमा आगल चे मूर्ति, नागदेवतानी छे थे मूर्ति, भूतदेवतानी छे वे मूर्ति यक्षदेवतानी छे अने वे मूर्ति कुंडधारा के० आज्ञाधारकनी छे. ते घणी उदारमधान छे कवि कहेछे के हुँ एम मा छु जे ते प्रतिमाभो, जिनप्रतिमा आगल, सेवा के चाकरी मागे छे. इति नवमी गाथार्थ. ॥ ९॥ घंट कलश शृंगार आयंसा ॥ थाल पाइ सुपइठारे ॥ ध०॥ मनगुलिया वायकरग प्रचंडा । चित्ता रयण करंमारे ॥ध० ॥ १० ॥ __ अर्थ-घंट एकसो आठ, कलश एकशो आठ, शृंगार ते पण कलश विशेष जाणवा ते एकसो आठ, आयंसा के दर्पण एकसो आठ, थाल एकसो आठ पात्री भाजन विशेप ते एकसो आठ, मुपतिष्ठ भाजन विशेष. ते एकसो आठ, अने मनोलिका विविका विशेष ते एकसो आठ, वावकरग कहेतां जलशून्य कुंभ एकसो आठ-प्रचंड के. अत्यंत शोभनीक छ, चित्ता के० विचित्र नाना मकारना करंडीमा एकसो आठ के ।। इवि दशम गाथार्थ ।। १० ॥ हय गय नर किन्नर किंपुरिसा॥ कंठ उरग वृष सरिषारे॥ध०॥ रयणपुंज वली फूल चंगेरी ॥ माल्य ने चूर्ण अनेरीरे॥५०॥ ११ ॥ __ अर्थ-इय के० हयकंट, गय के० गजकंठ, किन्नर के० किन्नरकंठ, किंपुरिसा के. किंपुरिसकंठ, उरय के० उरगकंठ, अने वृषसरिपा के० वृषभकंठ-इत्यादिक कंठ शद्ध संघले
तस्यच ..
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(७६) महामहोपाध्याय श्री यशोविजयणी त. जोडीए. सरिषा के सरखा-ए सर्व एकसो आठ कहेवा. रवना पुंज एकसों माठ, वली फूलनी पंगेरी के० छाबडी, माल्य के० फूलमालानी चंगेरी. तेमज चूर्ण के सुगंधी चूर्णनी, अनेरी के० वीजी छावडी. ए पण एकसो आठ कहेवी. गंध वस्त्र आन्नरण चंगेरी ॥ सरसव पुंजणी केरीरे ॥१०॥ एम पुष्पादिक पडल वखाण्यां ॥ आगे सिंहासन जाण्याधि०॥१२॥
अर्थ-वली गंधनी एंगेरी. वखनी चंगेरी, आभरणनी चंगेरी अने सरसवनी चंगेरी, वली पुजणी केरी के० जणीनी चंगेरी. ए सर्व एकसो आठ जाणवां. एम पुष्पादिक के० फूल मास्ना, पडल के वख, वखाप्यां के जीवाभिगम प्रमुखने विषे वखाण्यां छे. वली आगल सिंहासन जाण्यां छे, सिद्धांव वचने करीने. ॥१२॥ छत्र ने चामर आगे समुग्गा ॥ तैल कुष्टभूत जुग्गारे ।। १०॥ भरिया पत्र चोयग सुविलासे ॥ तगर एला शुचि वासेरे॥०॥ १३.!
अर्थ-छत्र एकसो आठ, चामर एकसो आठ. वली आगल समुग्गा के० डावडा. तैलभृत वे० सुगंधी तेलना भर्या, कुष्ट के० सुगंध वस्तुना भा. जुग्गा के० योग्य. ए सर्व एकसो आठ आठ जाणवा. वली डावडा पत्रे करी मर्या के. चोगय के० सुगंध द्रव्ये भर्या छे. मुविलासवंत छे. तगरे करी भरचा छे. एला के० एलचीए भरथा छे. शुचिवास के पवित्रवासे छे. इति त्रयोदश गाथार्थे ॥ १३ ॥ वलि हरताल ने मनसिल अंजन ॥ सवि सुगंध मनरंजनरे । ध०॥ ध्वजा एक शत आठ ए पूरां ।। साधन सर्व सनूरारे ॥१०॥१४॥
अर्थ-वली हरतालना डावडा छे, मनसिलना डावन छे-अने अंजनना डावा . सवि सुगंध के० सर्व मुगधिवंत हे. मनरंजन के० मनने रीझ उपजावे एवा डावा छे. ध्वजा के० नाहानी ध्वनाओ छे, ए सर्व एकसो आठ पूरां के ए-सर्व साधन-छे. सनरी के० नूरसहित छे. ॥ इचि चौदमी गाथार्य ॥ १४ ॥
सुर ए पूजा साधन साथे ॥ जिनपूजे निज हाथेरे ॥१०॥ सिद्धायतने आप विमाने । थूभादिक बहु मानेरे ॥ध॥१५॥
अर्थ-मुर जे देवता-ते ए पूजानां साधन सहित, जिनेश्वरनी पूंना पोताने हाये करे ३. आप विमाने के० पोताना विमानने विषे, सियतने के सिद्धन घर-तेहने विषे पूजा करे है. वली धूमादिकने विर्षे वहु मान करे. इति गाथार्य ।।.१५ ॥
त्यां देवता भावना भावे, ते शीरीते भावे ! ते कहे के,
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दोदसो गाथार्जु स्ववन.
एह
पूरव दरिशण दीहूं ॥ सुरतरु फलथी मीठुरे ॥ घ० ॥ ए संसार समुद्रे नावा ॥ तारण तरण सहावारे ॥ ६० ॥ १६ ॥
(-७७)
अर्थ - एह अपूर्व दर्शन दीठ्ठे एटले कदापि काले संसारमां भमतां, भावयकी प्रमुदर्शन नयी थयुं माटे अपूर्व, सूरतरु के कल्पवृक्षना फल करतां पण मीठु. वली ए प्रभु भक्ति, संसार समुद्रने विषे नावा के० झहाज बराबर छे. जेम नावा पोते तरे अने वीजाने तारे तेम प्रभुजी पोते तरया अने भक्ति लोकने तारक स्वभाव छे. भक्ति अथवा जिनमतिमानुं विशेषण छे माटे स्त्रीलिंगे भाप्युं छे. इति पोडग गाथार्थं ॥ १६ ॥
एम विस्मय भवभय गुणरागे ॥ झीले तेह अतागेरे ॥ ध० ॥ राधे मां ने वलि नाचे || धरम ध्यान मन साचेरे ॥ ६० ॥ १७ ॥
अर्थ - एम विस्मय के० प्रभु गुणनी अद्भुतता तथा भवनो भय के० संसारनी वीक, तथा, गुणरागे के० प्रभ्रुगुणना रागने विषे पण ते राग कहेबो छे ? अतागे के० जेहनो ताग नयी; अपार छे. तेहमां देवता झीले. तेहमां राचे, माचे, मन थाय अने, नाचे के० नाटक करे. धर्म ध्यानमां जेमनुं साधुं मन छे. सप्तदश गाथार्थ ॥ १७ ॥
थेइ थेइ करतां दे ते जमरी || हर्षे प्रभुगुण समरीरे ॥ ध० ॥
योग निरालंबन लय आणी ॥ वश करता शिवराणीरे ॥ ६० ॥ १८ ॥
अर्थ-थेइ थेइ करतां भमरी दीए के० भ्रमरी देतां हर्प थकी प्रभुना गुण समरी के० संभारीने, निरालंबन जोग ते सिद्धस्वरूपनी, लय आणी के तलालीन थइ, शिवराणी के ० मोक्षराणीने वश करता थका छे. इति अष्टादश गाथार्थ ॥ १८ ॥
एम- नंदीश्वर प्रमुख अनेरां ॥ शाश्वत चैत्य भलेरांरे ॥ ध० ॥
त्यां जिनपूजेते - अनुमाने ॥ जनम सफल निज मानेरे ॥ ४० ॥ १९ ॥
अर्थ-एम नंदीश्वर प्रमुख अनेरां के० बीजां भलां रुढां शाश्वत चैत्य छे. अहींयां प्रसुखशब्दे रुचकनां, कुंडलनां, भवनपति प्रमुखनां लेइए. त्यां जिनेश्वरनी पूजा करे ते अनुमाने पोतानो जन्म सफल मान के एटले देवताने जन्म सफल थयानुं ठेणुं जिनराजनी भक्ति छे. बीजूं नथी. इति एकोनविंशति गाथार्थ ॥ १९ ॥
कल्यः एक अठाइ वरषी । तिथि चउमासी सरखीरे ॥ ध० ॥ तेह निमित्ते सुर जिन अरचे || नित्य भक्तिपणे विरचेरे ॥ ध० ॥ २० ॥
अर्थ - कल्याणक के० जन्म, दीक्षा, केवल ज्ञान, अने मोक्ष ए कल्याणके तथा वरषी संवत्सरी तथा चोमासानो अठाह-ए दिवसे घणा देवताभो भेला मलो अठा
तस्यच
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(७४) महामहोपाध्याय श्री यशोविजयी कृत. महोच्छच कर के. सरखी ३० ए सर्व सरखी वियि छे. ते कल्याणक प्रमुख निमिच पा. मीने, सर के देवताओ, जिनेश्वरनी पूजा कर छे. नित्य भक्ति के निरंतरपणे प्रभुभक्ति रचे छे. ते पूर्वे पूपच्छा शब्दनी युक्तिमा कडुछे. इपि गायार्य ॥२०॥
भाव ते अकयत्नात्र मलिया ॥ ते नत्रि जाए टलियारे । ध०॥ फरि त्रांव नवि हाय निषेधे । हुओ हेमरस वेधेरे ॥ध० ॥२१॥
अर्य-भाव के० पोलानो भाष, अमरभाव के० प्रभुनो भाव-ते साये मल्यो थको ते नधि भाए दलियों के ते टली जाय नहीं. ते उपरांत कह छे. च पदनों अर्थ मेलोछे. जे रस वेधे त्रांबावं हेम ययुं. ते हम, निषेध के० आंबाने निषेधपणे थयुं छे. ते फरी त्रांच नहि, हॅय के० न थाय; तेम पोवानो भाव अक्षयभावं मल्यो टली जाय नहीं.। इति गायार्य ॥ २१ ॥ बली दृष्टांत कई छे. एके जललव जलधि नलाए ॥ तो ते अक्षय पाएरे || ध०॥ आपभाव जिनगुणमांही आणे ॥ तेम ते अखय प्रमाणेरे ॥१०॥२२॥
अर्थ-एक जललब के० पाणी किंदु एक पण जलवि के समुद्र मांडे, भलाए के० भले तो ते अक्षय याय एटटे मुकाय नहीं; तेम, आपभाष के० पोताना भाव, जिनेश्वर गुणमाई आणे वी अभय थाय. प्रमाणे के० पूर्वे जे युक्ति कही अथवा दृष्टांत का ते प्रमाणे करीने अक्षय याय. 1 इति गायार्थ ।। २२ ॥
अपुणस्त अडसय बड वृचे ।। एम सुर भावे चित्रे ॥०॥ एम जिन पूजी जे गुण गावे ॥ सुजश लील ते पावरे ॥१०॥२३॥
अर्थ- पूजा करीने, अपूणरुच के ले एकवार का ते बीनी वार न आवे वेहने अणस्त कहीए, एवं, अडसय बडवृत्ते के० एकसो थाठ मोटो कान्योएकरी सुरज देवतातो चिचने विष भावं. परीत जिनधरने पूजीन एटले यहींयां व्याख्यान यकी जिन पतिमा पूजिने जिनना गुण गाव ते पाणी, अनशलील के० भला जशनी लीला पामे. कविए जा शब्द जयविजय एवं पोतार्नु नाम पण मृचव्यु.
इचे जिन तित्रानो वर्ग:व त्या चौकासी संवत्सरी तथा जिन जन्मानिक कल्याण के पूजा अठाइ महाच्छन म जोवामिगम त्रने विष कझोछे त पाठ लखीए ए-"इस सिदायतपस्स बहु मज्जदसभाए एत्यर्ण एगा मणिपहिया पनचा दो जोयणा मायामविरक्षमण जायण बाहल्लणं सध्यमणिमया अच्छा नसणं मणिपटियाए उर्मि एत्यगं एगे मह देवच्छंदए पनने दो जायणाई आयामविरकमणं साइरंगाई दो जोषणाई वह सण सन्चायणामए अच्छे ।।" अर्थ-त सिहायतन के सिद्धन घर-तेहना बहु मध्य
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दौसी गायानु स्वपन.
भागे, एत्थणं के० अहीयां, मणिपेडिया के० मणिनी पीठिका छे. ते पीठिका ये योजन आयाम लांबी, अने विरकंभ के० पोहोली छ. जोयण के० एक जोजन, बाइलणं के० जाडपणे छे. सर्व मणिमयी छे. अच्छ के निर्मल छे-इत्यादिक वर्णववी. तीसेणं मणिपेदियाए उपि के० ते मणिपीठिका उपर, एत्यणं के० अहींयां, एगेमई के० एक महोटो, देवच्छंदए के० देवच्छंदो छे. ते प्रभुने वेसवानुं पर विशेष पन्नते के० कधु छे. ते वे यो. जन लावू पहोलु छ ने योजन झाझेरु उचुं छे. सर्व रत्नमयी, अच्छ के निर्मल छे. सूत्र"तत्य णं देवच्छंदए अट्ठसयं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहप्पमाणमेत्तागं सन्निरिकत्त चिट्ठए नासिणं जिण पडिमाणं अयमेवारूवे वण्णावासे पनत्ते ।।" अर्थ-तत्थ णं के ते देवच्छंदाने विषे अठ्ठसयं जिणपडिमाग के० एफसो आठ जिनेश्वरनी प्रतिमा ते केवी छ। जिणुस्सेहप्पमाणमेत्ताणं के० जिनेश्वरना शरीरनु उस्सेह जे ऊंचपणुं ते प्रमाण मात्र छे. एटले पांचशे पनुष्य प्रमाणे छे. सनिरिकत्तं के० रूडी रीते थापनाए रह्यो छे. वासिणं जिणपडिमाणं के० ते जिनमतिमानो, अयमेयारूवे के० ए एहवाखरूप, वण्णावासे के वर्णावासवर्णव, पबचे के० कह्यो छे. सूत्र-" तं जहा तवणिजमया हत्थतला पायतला, अंकामयाई णखाई, अंतो लोहियरकपरिसेयाई, कणगामया पादा, कणगामया गोप्फा, कणगामइओ जंघाओ, कणगामया जाशें, कणगामया उरु, कणगामईओ गायलठीओ, तपणिज्मईओ
णाभीओ, रिट्ठमइओ रोमराजीओ, तवणिधम्या चुच्चया, तवणिज्जमया सिरिवच्छा, कणगईओ वाहाओ, कणगमयाओ गीवाओ, रिट्ठमये मंसू सिलप्पवालमया ओट्ठा, फलिहमया दंता तवणिजमईओ जीहाओ, तवणिजमया तालुया, कणगमइओ णासाओ, अंतो लोहिअरकपरिसेआओ, अंकामयाई अच्छीणि, अंतो लोहियरकपरिसेआई, पुलमामईओ दिट्ठिओ, रिट्ठामईओ तारगाओ, रिट्ठमयाई अच्छिपचाई, रिठ्ठामईओ भाहाओ, कणगामया कवोला, कणगामया सवणा, कणगामया निलाडवटा, वइरामईओ सीसघडीओ, तवणिजमइओ केसंत केसभूमिओ, रिट्ठामया उवरिसुद्धया ॥" अर्थ-तं जहा के. ते वर्णव करे छे. तवणिज्जमया के० वपाव्या सुवर्णमयी, हत्थतला के हाथ तलीओ छे. पायतला के० पगनां तलीयां छै एटले हाथ पगना तलीयां रावा छे. अंकामयाई के० अंकरत्नमयी नख छे; एटले सफेद छे. अंतो के० मध्ये, लोहिअरकपरिसेयाई के० लोहिताक्षरत्ननी राती रेखा छे. कणगामयाओ पादा के० मुवर्णमय पग छे, कणगामया गोप्फा के० सुवर्णमय गुल्फ एटले धुंटीओछे कणगामईओ जंघाओ के मुवर्णमयी जंघाथोछे, हीचणथी हेठली ते जंघा कहीए. कणगामया जाणु के० सुवर्णमयी दींचण छे. कणगामयाउरु के० कनकमय साथलछे कणगामईओ गायलठ्ठीओ के० कनकमयी गात्रयष्टिछेएटले शरीर छे. तपणिज्जमईओणामियो के० वपाव्या मुवर्णमयीनाभिछे एटले रातीछे. रिट्ठामईओ रोमराईओ के० श्यामरत्नमय रोमराजी शरीरनी छे तवणिज्जमया चुचुया के० तपाच्या सुवणमय चुचुक छे एटले स्तनाप्रदेश रावा छे. तवणिज्जमया सिरिवच्छा के० तपाव्या सुर
.. तस्यच .
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(60) महामहोपाध्याय श्री यशोविजयनी कृत. मियी श्रीवच्छ छे एटले राताछे.कणगमईओ वाहाओ के मुवर्णमयी बांह छे. कणगमयाओ गीवाओ के० सुवर्णमय ग्रीवा के० कंठ छे. रिहमये मंसू के० रिष्टरत्नमय दाढी पूंछ छे. सिलप्पवालमया के० परवालापय, ओढा के होठ छे. फलिहमया दंता के० स्फटिकरलमय दांत छे तवणिज्जमयाओजीहाओ के तपान्या सुवर्णमय जीव्हा एटले जीभ छ तवणिजमया तालुआ के० तपाच्या सुवर्णमय तालबुं छे. एटले जीभ अने तालवू ए वने राता छे. फणगमईओ नासाओ के सुवर्णमय नाशिकाछे, अंतो लोहियरकपरिसेयाओले. ते नाशिका मध्ये लोहिताक्षरत्ननी रेखा छे. अंकामयाई अच्छीणि के० अंकरत्नमयी आंखो छ एटळे उज्वल छे. अंतो लोहिअरकपरिसेयाओ के० ते नेत्र मध्ये लोहिताक्षरत्ननी रेखाओछे. पुलगामइओ दिठिमओ के पुलकरत्नमयी दृष्टिछे ए पद सूत्र मध्ये छे. पण वृत्तिकारे अर्थ नयी करयो, माटे अमे पण सामान्ये लख्युछे. रिट्ठामईओ तारगाओ के रिष्टरलमयी तारा एटले कीकी छे. रिट्टमयाई अच्छिपचाई के रिष्टरत्नमयी आंखनी पापण छ. रिटामईओ भमूहाओ के रिष्टरत्नमय भांपणि छे. कणगामया कवोला के० कनकमयी कपोल एटले गल्लस्थल छे. कणगामया सवणा के० कनकमय श्रवण एटले कान छे. कणगमया निलाडवटा के सुवर्णमय निलाडपट्ट छ एटले कपोल छे. बहरामईओ सीसघडीओ के० वज्ररत्नमयी शीर्षघडी छे. तवणिज्जमईओ केसंत केसभूमियो के तपाच्या सुवर्णमय केशनी अंतभूमि छे. एटले केशभूमि रक्त छे. रिट्ठमया के श्याम रत्नमय. उवरिमुद्धया के० ऊपर मुर्दशा केश छे. अय-सूत्रम्-"वासिणं जिणपडिमाणं पिट्ठओ पचेयं छत्तधारपडिमाओ पन्नवाओ । वाओणं छत्तधारपडिमाओ हिमरययादेंदुष्पगासाई सकोरिंटमल्लदामाई धवलाइंआयवत्ताई सलील ओहारेमाणीओ ओहारेमाणीओ चिठ्ठति तासिणं जिणपडिमाणं उभओपरिक पत्तेयं पचेयं चामरधारपडिमाओपन्नताओ।नाओ पंचामरपारपडिमाओ चंदपहवेलिय नाणामणिकणगरयणविमलमहरिहतवणिज्जुजलविचित्लदंडाओ चिल्लियाओ संखकक्कुंदनगरयअमयफेणपुंजसनिगासाओ मुहुमरययदीहवालाओ धवलाओ चामरायो सलील ओहारेमाणीओ ओहारेमाणीओ चिट्ठति । तासिणंजिणपडिमाणं पुरओदोदोनागपडिमाओ दो दोजरकपढिमाओदोदो भूयपडिमाओदोदो कुंडधारपडिमाओविणओवणयाओ पायवडियाओ पंजलीउडायो सनिरिकत्ताओ चिट्ठति । सन्वरयणामईओ अच्छाओ जाव प. डिरूवाओ।" अर्य-तासिणं जिणपडिमाणं पिट्ठओ के ते जिनप्रतिमाने पूठे. पत्तेय-पत्तेयं छ
घारपडिमाओ पन्नताओ के प्रत्येके एकेक छत्रधरनी मचिमा कही छे. तामोणं छत्तपार पडिमाओ के० ते छत्रधरमतिमा एहवे छत्रे सहित छे. हीम के शीतकाले हिम पडे छ। एह रयय के० रुघु, कुंद के० मचकुंद एटले मचकुंदन फूल, इंदु के चंद्रमा, पगासाई के ए सर्व जेषां उजला होय वेवां छे. सकोरिटमल्लदामाई के० कोरिटलना फूलनी माला सहित, धवलाई आयवचाई के० उज्वल जे छत्र, सलील के० लीला सहित मनोहर, ओहारेमाणीओ चिट्ठति के० धरती थकी रहे छे. एटळे मनुजीने छत्र धरे वासिणं के०
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दोदसी' गाथा स्तवनः ते जिनमतिमाने, उमओपरिकं के० बेहु पासे, पत्तेयं पत्तेयं के प्रत्येके प्रत्येके एटले एकेकी जिनमतिमाने, चामरपारपडिमाओ के० चामरनी धरनारी घे वे प्रतिमा छे. ताओ णं के० ते चामरधार प्रतिमाओ केवी छे ! ते कहे छे. नाणामणिकणग के० नाना प्रकारना मणि तथा सुवर्ण-तेणे करी विमल के० निर्मल, महरिह के० महर्य, तवणिज्जुञ्जल के. तपाच्या सुवर्णमय उज्वल अत्यंत देदीप्यमान, विचित्त के० विचित्र प्रकारना, दंडाओ के. चामरना दंड छे. चिल्लियाओ के० देदीप्यमान, शंख प्रसिद्ध छे. कुंद के० मचकुंदनु फुल, दगरय के० पाणीना कण, अमयफेणपुंज के० अमृतशब्दे क्षीरसमुद्र तेहतुं फेण तेहनो पुंज फे० समूह, सनिगासाओ के.. ते सरखा उज्वल मुहुम के० सूक्ष्म, रयय के० रूपानादीहवालाओ के. दीर्घ लंबायमान वाल छे एडवा धवल वामर छे. ते सलील ओहारेमाजीओओहारे माणीओचिति के० लीलाए जिनने ओवारती थकी एटले वीझती थकी रहे. तासिणं इत्यादि. वली ते जिनमतिमानी आगल दो दो नागपडिमाओ के० चे चे नागदेवतानी मतिमा छे. बली दो दो जखपडिमाओ के० थे वे यक्षदेवनी प्रतिमाओ छ, वली दो दो भूयपडिमाओ के० वे वे भूतनी प्रतिमाओ छ वली दोदो कुंडधारपडिमाओ के. घे वे आज्ञाधार देवनी प्रतिमाओ छे. ते सर्व प्रतिमाओ केहेवी छे? विणोवणयाओ के० विनये करी उपनत के० नमोओ छे. पायवडियाओ के पगे लागती छे पंजलिउडाओ के० प्रांजलिपुट करयोछएटले हाथ जोडग्या छ एवी सनिरिकत्ताओ चिट्ठत्ति के० रूही रीते रही छे. सन्चरयणामईओ के० सर्व रस्नमयी. अच्छाओ इत्यादिक वर्णववी. यावत् प्रतिरूप छे. सूत्रम्-"तासिणं जिणपडिमाणं पुरओ अट्ठसयं घंटाणं अठसय चंदणकलसाणं अट्ठसयं भिगाराणं एवं आयंसगाणं थालाणं पातीणं सुपइट्ठगाणं मणगुलियाणं वातकरगांणं चित्ताणं रयणकरंडाणं हयगाणं जावउसमकंठगाणं पुष्फचंगेरीणं जावलोमहत्यचंगेरीणं पुप्फडलगाणं अठ्ठसयं तेलसमुग्गाणं जावधूवकडुच्छगाण सनिरिकताण चिति" अर्थ-तासिणं इत्यादि ते जिनपतिमाने आगल, असयं घंटाणं के. एफसो आठ घंटा छे अछसय चंदणकलसाणं के० एकसो आठ चंदनना कलश छे अट्ठसंयं भिंगाराणं के० एकसो आठ भिंगार-ते पण कलर्श विशेष छे. एवं के. एरीते जे आगल कहीए. तेपण एकसो आठ आठ कहेवा. आयसगाणं के. आरिसा छे, पात्रीओ छे, थाल छे, मुमतिष्टक के० भाजन विशेष छे. ए शब्दना अर्थ ढालना टवामां लख्या छे तेहथी जाणवा. मनोराप्तिका वावकरक चित्ररत्नना करंडिया छे, हयकंठ प्रमुख कंठ कहेवा, फूलममुख चंगेरी कहेवी. एम पुष्प प्रमुखना पडल कहेवा. अटठसय तेलसमुग्गाणं के० एकसो आठ, तेलना डावडा छे. यावत् छेडे एकसो आठ, धूपना कडछा कहेवा. सणिरिकत्ताण चिट्ठति के० रूढीरीते रह्या छे. वली भागल नंदीश्वर दीपना अधिकार मध्ये सिद्धायतननो अधिकार कहीने ए पाठ लख्यो छे.
"तत्यणं वहवें भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणियादेवा चाउम्मासियपाडिवएस संवच्छ
, तस्यच , ::
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( ८२)
महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत.
रेल य अन्ने बहुसु जिणजम्मणनिरकमणनाणुष्पायपरिनिन्वाणमादिएस अ देवकज्जेस य देवसमितीलु अ देवसमुदएलु अ देवसमवारसु अ देवपओयणेमु य एगंतओसहिया समाजा पतियपकीलिया भट्ठाहिआओ महामहिमाओ करेमाणा मुहं मुहेणं विहरति ॥" अर्थ-वत्यणं के० ते सिद्धायतनने विषे, वहवे के० घणा एटले सम्यग्ष्टि होय ते, भवणवड़ के ० भवनपति वाणमंतर के० व्यंतरदेवता, जोइस के० ज्योतिषी, वैमाणिया के० वैमानिक एटले चारे निकायना देवता चालम्मा सिय पाडिवरस के० चोमासाना पडवाना दिवसे एटले कार्त्तिकी प्रमुख चोमासे, तथा संवच्छरे के० संवच्छरीने विषे बीजा पण बहुसु के० घणां, जिणजम्पण के० जिनेश्वरने जन्म कल्याणके तथा, निरकमण के० दीक्षा कल्याणके, नाणुप्पाय के केवलज्ञान उपजे ते कल्याणके, तथा निव्वाणमादिएस अ के० मोक्ष ए आदे दे वीजा पण, देवकज्जेमु य के० देवकार्यने विषे देव सम्मितीस अ के० देवताओना समुदाय मल्या होय तने विषे. एहज वे पदना पर्याय, वे पढ़े कहे छे. देवसढएस देवसमचाएस ए वे पदनो पण एहज अर्थ. देवपयओयणेषु य के० देवताना प्रयोजनने विषे एटले कार्ये करी. एगओसहिया समाणा के० एक्ठां मल्यां यकां, पमुदिय पीलिया के प्रमुदित एटले हर्षवंत, क्रीडावंत, अट्ठाहियाओ महामहिमाओ के० अठाइरूप महा महोच्छव एटले आठ दिवस लगी महा महोच्छव करतां थकां सुखे सुखे विचरे छे. एरीते जीवाभिगम प्रमुखे पाठ छे. बीजां एकसो आठ काव्ये स्तवनुं. सूर्याभ देवना अधिकारमां कहां है. एटले ए ढाल संपूर्ण थयो. ग्रंथाग्रंथ २२० अक्षर ४ सर्वाग्र मलीने ग्रंथाग्रंथ २२३४ अ० १०
हवे छठी ढाल कहे छे. तेहनो पूर्व ढाल साथै ए संबंध छे जे एक तो पूर्वे कां छे जे "पंचगी प्रमाणे स्थापना निक्षेपो परखीने आनंद पासुं." ते स्थापना निक्षेपो मूत्र प्रमाणे देखाडे. वली ते सूत्रम्मं योग वहेवा वह्या छे ते ढुंढीया मानता नथी. ते योग, सूत्र साखे देखाडे छे: तथा पंचांगी पण सूत्र साखे देखाडे हे. अथवा पूर्वे एम कनुं हतुं जे " तमारी आज्ञा पालवी. पण युक्ति न करवी " ते आज्ञा तो योग तथा पंचांगी माने तेवारे पाली कहेवाय; अने समकित पण तेवारेज थाय. माटे ए ढालमां योग तथा पंचांगी देखाडे हे. ते ढालनी ए प्रथम गाया लखीए हैए.
॥ ढाल ग्वी ॥
भोलीडा हंसारे विषय न राचीए ॥ ए देशी ॥
समकित सूरे तेहने जाणीए ॥ जे माने तुज आण ॥
सूत्र
ते वांचेर योग ही करी ॥ करे पंचांगी प्रमाण ॥ स० ॥ १ ॥ अर्थ - ते प्राणीने शुद्ध समकित जाणीए, जे तमारी आज्ञा माने. ते आज्ञा बतावे छे.
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दोसो गाथानुं स्तवन.
( ८३)
जे प्राणी योगवहीने सूत्र वांचे तथा पंचांगी प्रमाण करे एटले सूत्र, निर्युक्ति, भाष्य, टीका, अने चूर्णि; एहमां जे कधुं छे ते सर्व सत्य करी माने ॥ १ ॥ उद्देशादिक नहीं चउनाणनां ॥ छे सुअनाणनां तेह ॥
श्री अनुयोगद्वार थकी लही || घरीए योगसुं नेह || स० ॥ २ ॥
अर्थ - उद्देशादिक के० उद्देश १ आदि शब्दे समुद्देश २ अनुज्ञा ३ अने अनुयोग ४ ए चारे, नहि चडनाणनां के० चारे ज्ञान जे मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान, अने केवलज्ञान ए चारनां नथी. छे सुअनाणनां तेह के० ते उद्देशादिक श्रुतज्ञाननां छे. ते माटे भणावुं अर्थ कह्यो ते श्रुतज्ञाननोज थयो. श्री अनुयोगद्वार थकी लही के० पामीने योग साथै स्नेह धरीए. ते अनुयोगद्वारनो पाठ लखीए छैए.
अथ सूत्रम् - " नाणं पंचविहं पन्नत्तं तं जहा - आभिणिवोहियनाणं १ सुअनाणं २ ओहिनाणं ३ मणपज्जवनाणं ४ केवलनाणं ५, तत्थ चचारि नाणाई ठप्पाई ठवणिज्जा णो उद्दिसि - तिणो सम्मुडिसिज्जति णो अणुत्रविज्जति । सुअनाणस्स उडेसो समुहेसो अणुन्ना अणुओगो पवन्तइ । जइ सुअनाणस्स उडेसो समुद्देसो अणुन्ना अणुओगो पवत्तह, किं अंगपविट्ठस्स उद्देसो ४ पवत्तइ, अंग वाहिरस्स उडेसो ४ पवत्तइ ? अंगपविट्ठस्स वि उद्देसो ४ । इमं पुण पट्टवणं पडुच्च अंगवाहिरस्स ||" इत्यादि अनुयोगद्वार सूत्रादौ || अर्थ - नाणं पंचविहं के० ज्ञान पांच प्रकारे, पनत्तं के० कर्तुं छे. तं जहा के० ते कहे छे. आभिणिवोहियनागं के० मतिज्ञान, सुअनाणं कं० श्रुतज्ञान, ओहिनाणं के० अवधिज्ञान, मणपज्जवनाणं के मनपर्यांयज्ञान अने, केवलनाणं के० केवलज्ञान, तत्थ के० तेहमां, चत्तारि नाणाईं के० चारज्ञान, उप्पाईं के० थापी मूकी. ठवणिज्जा के० स्थापना योग्य छे. णो उद्दिसिज्अंति के उद्देश ते सामान्य कथन, चार ज्ञानने नथी. णो समुद्दिसिज्जति के०समुद्देश ते विशेषे कथन नथी. णो अणुनविज्जंति के अनुज्ञा पण न थाय. एटले उद्देश समुद्देश अनुज्ञानी क्रिया छे ते न थाय; जे कारण माटे मतिज्ञानादिक चार ज्ञान अपातुं लेबातुं नथी; ते माटे सुअनाणस्स उद्देसो सम्मु
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सो अणुना अणुओगो पवचइ के० श्रुतज्ञाननो उद्देश समुद्देश अनुज्ञा अने अनुयोग ते अर्थ कथन प्रवर्त्ते छे. जइ सुअनाणस्स उद्देसो समुहेसो अणुन्ना अणुओगो पचत्तर के० जो श्रुतज्ञाननां उद्देशादिक चारवानां प्रवर्त्ते छे, किं अंगपविट्ठस्स उसो ४ पचत्तर के तो भुं अंग प्रविष्टना उद्देशादिक चार प्रवत् छे के, अंगवाहिरस्स उसो ४ पवत्तर के अंग वाचना उद्देशादिक चार प्रवर्त्ते छे? जे माटे श्रुतज्ञान तो अंगमविष्ट आचारांगादिक पण छे, अने अंगवा आवश्यकादिक पण छे; माटे पूछयुं जे अंगप्रविष्टनो के अंगबाह्यनो छे? अंगपविट्ठस्स विउसो ४ के० अंगमविष्टंनो पण छे अने अंगबाह्यनो पण छे. इमं पुण पट्ठवणं पहुन्च अंगबाहिरस्स के० ए आश्रीने तो अंगवानो छे. जे शिष्यने जेहनो उद्देशादिक प्रवर्त्ततो होय तेनुं नाम दीजीए. ए आलावो अनुयोगद्दारने धुरे विस्तारे छे. अहींयां संक्षेपे लख्यो छे माटे तिहां जोइ जो.
तस्यच
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(४) श्री महामहोपाध्याय यशोविजयजी कृत.
उद्देशादि क्रमविण जे नणे ॥ आशाते तेह नाण ॥ नाणावरणी रे वांधे तेहथी ॥ जगवई अंग प्रमाण ॥ स० ॥३॥
अर्य-उद्देशाटिक के उद्देश समुशादिकनां, क्रमविण के० अनुक्रम विना जे भूत्र भणे, आशातना करे छे. तेह के० ते माणी, तेहथी के० ते ज्ञाननी आशातनाथी, नाणावरणी के० बानावरणो कर्म वाये. भगवई अंग प्रमाण के भगवती नामे पांच, अंग, वे प्रमाणे एटले भगवति सूत्रमा की छे ते लखीए छैए. ॥ ३॥
"नाणावरणिज्जकम्मसरीरप्पओगबंधे णं भंते! कस्स कम्मस्स उदएणीगोयमा नाणपडिणीयाए नानिण्हवणयाए नाणतराएण नाणप्पासणं नाणासायणाए नार्णावसंवायणाजोगेणं नाणावरणिज.कम्मसरीरप्पयोग बंधड़ ।।" इति ॥ अर्थ-नाणावरणिज्ज इत्यादि जानावरणी कर्म गरीरनो जे प्रयोगसावंध ते, कस्स कम्मस्स उदएणं के० कोण कर्मनां उदये करीने; एटले जानावरणी साथी बंधाय? इति भाव. प्रभुनी कहे छे. हे गोतम ! नाणपडिणीयाए के० बानतुं प्रत्यनीकपणं ते अनिष्टर्नु आचरण करे. नाणनिण्हवणयाए के. ज्ञानतुं ओलवयूँ करे. एटले जान अने बानी कोइरीत अभेद छे. माटे ज्ञान जे पासे भग्यो तेहने ओलवे. नाणंतराएणं के० जानना अंतराय करवे. एटले ज्ञान भणनारने भाव पाणी वस्त्र उपाश्रयना लामतुं निवारण कर. तथा, नाणप्पओसेणं के ज्ञानने प्रदेष करीने एटले अंतर भीति वान ज्ञानी उपर न राखे. तथा, नाणासायणाए के० जाननो आशातना करे छे. बानोनी जाति हीले,नार्णावसंवायणाजोग के ज्ञाननो विसंवाद-विपरीव प्ररूपणा करे. नाणावरणिन्ज इत्यादि एम करता जीव ज्ञानावरणा कर्म वांधे. इति भगवतीसूत्रे. वली भगवती प्रमुख अंगने छहडे तपयोग विषिलेशथी कटोज छे. तेहनो लेश लखीए छैए.॥"पन्नतीए आइमाणं अट्ठण्डं सयाणं दो दो उद्देसगा दिसिज्जति, णवरं चउत्यसयं पढमे दिवसे अठ वित्तीयदिवसे दो उसगा उहसिन्गतिवमाओ सयाओ आरज्म जावइयं पवेयह ताबइयं एगदिवसेणे उदिसिज्जति उक्कोसेणं सयपि एगदिवसेण। मज्झिमेणं दोहि दिवसेहिं सयं, जहन्नेणं तिहिं दिवसेहिं सर्य,एवं जाव वीसइम सयं,णवरं गोसालो एगदिवसेणं उहिसिन्नंति, जह सो विऊ एगदिवसेणं अणुण्णविजइ, अह न विऊ आविलदुगेगंअणुण्णविनंति।" अर्थ -पमतीए के भगवती सूत्रने विषे,आइमाणे अट्ठण्इं सयाग केल्धुरना आठ शतक तेना दो दो उद्देसगा डिसिजति के०व वे उसा उशीए, णवरं के० एटलुं विशेप जे, चउत्थसय पढमे दिवसे अह के० चौथा शतकना पहले दिवसे आठ उद्देशा, वितीय दिवसे दो उहेसा उदिसिन्नति के. वीजे दिवसे वे उद्देशानो उद्देश करोए. हवे, णवमाओ सयामो आरम्भ के० नवमा शतकथी मांडीने जावइयं पवे के जेटलु भणे. तावइयं उदिसिज्जइ के तेटलो उद्देशीए. उक्कोसेणं सयं एगदिवसेणं के० उत्कृष्टुं एक दिवसे शतक, मज्झिमेणं दोहि दिवसेहि सयं के० मध्यम वे दिवसे शतक, जहाणेणं तिहि दिवसेहिं सयं के० जयत्ययी
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दौढसौं गाया खवनः त्रण दिवसे शतक उद्देशीए, एवं जाव चीसइमं सयं के० एम यावत् वीशमा शतक लगे कहे. णवर के० एटलं विशेष जे, गोसालो एगदिवसेणं उदिसिजति के० गोशालानु पन्नरमुं शतक एक दिवसे उद्देशोए जइ सो विऊ के०जो ते बुद्धिवंत होय तो एगदिवसेणं अणुण्णविनंति के० एक दिवसे अनुज्ञा करीए. अह न विऊ के०जो बुद्धवंत न होय तो आयविलदुगेणं अणुण्णविनंति के० वे आंविले अनुज्ञा करीए एटले ए भाव जे पूर्व जेटलं भणता तेटली क्रिया करावीने भणावता, ते माटे एम कबु जे वे दिवसे बे आंविलनी क्रिया करावीने अनुज्ञा करावे. सूत्रम्-"एगवीसवावीसतेवीसइमाई सयाई एकेक दिवसेणं उदिसिजति । " अर्थ-एगवीस के० एकवीशमुं, वावोशमुं, ने तेवीसम्सुं शतक ते एकेक दिवसे उद्देशीए इत्यादिक सन वातो योग विधिधी जणाय. हवे पाठ अधूरो छे, ते सूत्र लखीए छैए. जे माटे कोड सामाचारी भेदे तथा काल भेदे आधुनिक क्रिया फेर दीसे छे मारे' अर्थ नथी लखता ।। मूत्रम्-"चवीसइम सयं दोहि दिवसेहिं छ छ उद्देसगा, पंचविसइम सयं दोहिं दिवसेहि छ छ उद्देसगा, वधिसपाइ अ सयाई एगेणं दिवसेणं, एगिदियाई वारस एगेण दिवसेणं सेढीसयाई बारस एगेणं दिवसेणं जुम्मसयाई वारस एगेणं दिवसेण, एवं वेइंदियाणं वारस्स, तेइंदियाणं बारस, चरिदियाणं वारस, अंसनिपंचिंदियागं वारस, सचिपचिदियमहाजुम्मसयाई एगवीसं एगदिवसेणं उदिसिजति. रासिजुम्मसयं एगदिवसेणं उदिसिज्जति." ए बीजो गाथानो अर्थ ॥ ३ ॥
श्री नंदी अनुयोग दुवारमा । उत्तराध्ययनेरे योग । कालग्रहणनारे विधि सघलो कह्यो । धरिए ते उपयोग।।स०॥४॥
अर्थ-वली श्री नंदीसूत्र तथा अनुयोगद्वारसूत्र तथा श्री उत्तराध्ययन सूत्रने विषे पण योग के० योग कहा छे. कालग्रहणनो के. जोगमध्ये कालग्रहणनो विधि करवो पडे छे ते विधि सघलोय कह्यो छे. धरिए ते उपयोग के० तेहनो उपयोग राखीए. एटले ते राखीने जोगनी श्रद्धा राखीए. इति तुर्य गाथार्थ ॥ ४ ॥
हवे ते सूत्रना आलावा लखए छैए. यथा नंदीसूत्रे-"से गं अंगठयाए पढमे अंगे दो मुअक्खंधा पणवीसं अग्झयणा पंचासीइ उद्दसणकाला पंचासीइ समुद्देसणकाला ।।" इत्यादि पाठ छे. अस्यार्थ. अहींयां आचारांगादिक सर्व सिद्धांतना उद्देशण काल दिन कह्या छे ते माटे प्रथम आचारांगना कहेछे. सेणं के० ते, अंगठ्याए के अंगार्थे जोइए तो प्रथम अंग छे. तेना दो मुअक्खंधा के० चे श्रुतस्कंध छे. पणवीस अज्झयणा के बेहु श्रुतस्कंध थइने पचवीश अध्ययन छे. पंचासीइ उद्देसणकाला पंचासीइ समुहेस के योगविधिगम्य उद्देश समुद्देश जाणवा. काला के० कालग्रहणविधि लामे. इत्यादिक सर्व सिद्धांतनां पाठ छे. केटला लख्यामां आवे ? तथा श्री अंनुयोगद्वारने धुरे घणो पाठ छे. ते ग्रंथ वधे माटे लखता नथी. तथा श्री उत्तराध्यपके अगीयार, अध्यपने यथा-"वसे गुरुकुले निचजो:
तस्यच . .
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( ८६ )
महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत.
गवं उवहाणवं । पियंकरे पियंवाई से सिक्खं लद्धमरिह ||१||" अर्थ - वसे गुरुकुले के ० गुरुकुळे वसे जे, एटले गुरूकुले वसीने गुरु आणाने विषे सावधान रहे जे, निश्चं के० निरंतर, जोगवं के० धर्म व्यापारवंत तथा उवहाणवं के० अंगादिक अध्ययनने विषे आंबिल प्रमुख तप विशेष कही ते उपधानवंत, पियंकरे के० आचार्यांदिकने अभिमत आहारादिक अजुकूलकारी प्रियंवाई के० आचार्यादिकना अभिप्राय प्रमाणे बोले, से के० ते प्राणी सिक्ख के० सुत्रार्थ ग्रहणरूप शिक्षा, लडुमरिहइ के० पामवाने योग्य. एटले ए भाव जे, जे प्राणी उपधान करे; ते सूत्रार्थ ग्रहवा योग्य छे. इति गाथार्थ.
वली उत्तराध्ययन मध्ये छब्वीशमे अध्ययने कं छे. - "जं नेइ जया रति, नरकत्तं तंमि नहचभागे | संपत्ते चिरमिज्जा, सज्झायं पउसकालम्मि ॥ १ ॥ " अर्थ-जं नेइ के० जे नक्षत्र, रात्रि मत्ये पूरुं करे, ते नक्षत्र, नहचउन्भागे संपत्ते के० आकाशने चोथे भागे आd; एटले बिरमिज्जा के० विरमे सज्झायं के० सज्झाय प्रत्ये, पउसकालंमि के० प्रादोपि - क कालने विषे एटले पहेले पहोरे रात्रे मादोपिक काल ते वाघाइकाल लेवो लाभे- "तम्मेव य नरकत्ते, गयणचउन्भागसावसेसंमि । वेरित्तियं पि कालं, पडिलेहित्ता मुणी कुज्जा ॥ २ ॥" अर्थ - तम्मेव य नरकत्ते के० तेहज नक्षत्र, गयणचऊ भागसावसेसंमि के० आकाशनो चोथो भाग, सावसेसं के०थाकतो रहे तेवारे, वेरित्तियं पि कालं पडिलेहित्ता के० वेरती काल ग्रहण पण कुज्जा के करे एटले ग्रहे - "पोरसीए चउव्भागे, वंदिताण तओ गुरुं । अप्पडिक्कमित्ता कालस्स, भायणं पडिलेहए || ३ ||" अर्थ - पोरसीए चउन्भागे के० पोरसीनो चोथो भाग बाकी रह्यो. पहेला पहोरनो एटले छ घडी दिवस चढे. वंदित्ताण तओ गुरुं के० गुरुने वंदना करीने, अप्पडिक्कमित्ता कालस्स के० कालने न पडिकमे, भाणं पडिलेह के भाजन पडिलेहे. शामाटे जे सज्झाय पाछली पोरसीए करवो छे; माटे काल न पडिक . अहीयां पाभाइ काल बोल्यो. - "पोरसीए चउब्भागे, वंदिताण तओ गुरुं । पडिकमित्ता कालस्स, सिज्जं तु पडिलेहए ||४|| " अर्थ - पोरसीए चउन्भागे के पोर - सीने चोथे मागे, अर्थात् दिननी चोथी पोरसीने चोथे भागे गुरुने वंदना करीने पडिक - मित्ता कालस्स के० काल पडिकमीने. सिज्जं तु पडिलेहए के० सिज्ना जे वसति ते पडि - हे एटले प्रातःकाले पाभाइ काल पडिकम्यो न होय तो ते सांजे पडिकमे. तथा वसती पडिले ते बीजा काळे, कालग्रहणना मांडला करे. इति ॥ " पारियकाउस्सग्गो, वंदित्ता - ण तओ गुरुं । धुइमंगलं च काउं, कालं संपडिलेहणए || ५ ||" अर्थ - पारियकाउस्सग्गो के० पडिकमणानी विधिने छेडे काउसग्ग करीने गुरुने वांदीने, थुइमंगलं च कार्ड के० स्तुति, परमेश्वरना गुणनी तद्रूप मंगल करीने कालं संपडिलेहए के० काल पडिलेहे. एea कालग्रहण लीए. अहीयां वाघाइ काल आव्यो । “पोरसीए चउत्थीए, कालं तु पडिलेडिया | सज्झायं तु तओ कुज्ना, अबोहंतो असजए || ६ ||" पोरसीए चउत्थीए के०रातनी चोथी पोरसीए, कालं तु पडिलेहिया के ० काल जे वेरती काल ते लीए पछी, सज्झायं तओ
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दोढसो गाथानुं स्तवन.
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( ८७) कुज्जा के० सझाय करे. अवोतो असंजए के असंजमीने अणजगावतो. "पोरसीए चउभागे, वंदित्ताण aओ गुरुं । पडिक्कमित्ता कालस्स, कालं तु पडिलेहए ||७||" अर्थ - पोरसीए चभागे के० पोरसीने चोथे भागे. एटले पाछली वे घडी राते गुरुने वंदना करीने पडकमित्ता कालस्स के० काल जे वेरतीकाल पडिकमीने, कालं तु पडिलेहए के० काल जे पाभाइ काल ते पडिले. ए रीते सूत्रमां जोगविधि साक्षात् बताव्यो छे. तेहनो विधिए मूढा, केवल सूत्र उपर केम जाणे? वली उत्तराध्ययन'मध्ये अध्ययन ओगणत्रीशमे कहां छे ॥ यथा - "कालपडिलेहणाएणं भंते जीवे किं जगह ? कालपडिलेहणाएणं नाणावर णिज्जं कम्मं खवेइ ||" अर्थ - काल के० वाघाइकाल, अढरतिकाल, वेरतिकाल, अने पाभाइकाल - एनी पडिलेहणाएणं के० आगम विधिए यावत् निरूपणा एटले काल ग्रहण लेवु, जागनुं, इत्यादिक विधि करतो. जीव थ उपार्जे ? एम पूछये थके उत्तर कहे छे. काल पडिलेहणा करतो जीव, नाणावरणिज्जं कम्मं खवेड़ के० ज्ञानावरणी कर्म खपावे. एम कालग्रहण पूर्वक सूत्र भण, वांचनुं, मूत्रमां बोल्युं, तथा तेनो विशेष विधि तो नियुक्ति वृत्ति परंपराथी जाणीए, बाकी न जाणीए. इति तुर्यगाथार्थ ॥ ४ ॥
शु
पांची गाथामां साधुने योग वहेतां आगमेसिभदा थाय ते देखाडे छे. ठाणे श्रीजे रे वली दशमे कधुं ॥ योग वहे जेह साध ॥ आगमेसिभद्दा ते संपजे ॥ तरे संसार अगाध ॥ स० ॥ ५ ॥
अर्थ - ठाणे जीजे के० श्रीठाणांगसूत्रने विषे त्रीजे ठाणे, वली दशमे कां के० ठाणांगमध्ये दशमे ठाणे कर्तुं छे. योग बहे जे साध के० जे साधु जोग बहे, तेने आगमेसि भद्दा ते संपजे के० आगल भद्र नीपजे. तरे संसार अगाध के० अपार संसारनो पार पामे. एटले संसार पार पामे. ए पद त्रीजा ठाणाने जोडीए. आग मेसिभद्दा संपजे ए पद दशमा ठाणाने जोडीए. एटले ए भाव जे, योग बहे तो संसार तरे एम त्रीजे ठाणे क छे; तथा जोग बहेतो आगमेसिभद्दा याय एम दशमे ठाणे कधुं छे. ठाणांग सूत्र मध्ये ए रीत छे; ते माटे ए गाथानो अर्थ पण एम जोडीने संबंध करचो. इति पंचम गाथार्थ ||५||
ed ठाणांगनो पाठ लखीए छैए- "तिहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं वीतीवएज्जा तं अणिदाणयाए दिठिसंपन्नयाए जोग वाहियाए ||" अर्थ - तिहि ठाणेहिं के० त्रणे स्थानके, संपने के पाम्ये थके, अणगारे के० मुनिराज, अणादीयं के जेहनी आदि नहीं. अणवदग्गं के० जेहनो अंत नही, दीहमद्धं के० दीर्घ एटले लांवो के अध्वा के० मार्ग जेहनो एहवो चाउरंत के० चार विभाग छे नरकगति प्रमुख तद्रूप संसार तेहज कांतार के० अटवी. ते चार गतिरूप संसार अटवी प्रत्ये वीतीवएज्जा के० अत्यंत वर्जन करे; एटले पार उतरे. ते त्रणे स्थानक कहे छे. अणिदाणयाए के०भोग ऋद्धिनी प्रार्थना, आर्तध्यानरूप जे नियाणु ते न करे. १ दिट्ठिसंपन्नयाए के०
तस्यच
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(८)
महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत.
सम्यग्दृष्टिपणुं २, अने जोगवाहियाए के० जोग जे श्रुतना तप प्रमुख क्रिया विशेष ते करतो ३, हवे दशमे ठाणे पाठ छे. तेहमां पण जोग वाहिताए । ए पाठ छे; ते लखीए छैए- "दसहि ठाणेहिं जीवा आगमेसिभदाकत्ताए कम्मं पकरेह तंजहा || अणिदाणयाए १, दिट्ठसंपन्नयाए २, जोगवाहियत्ताए ३, खंतिखमणयाए. ४, जितेंदियत्ताए ५. अमाइल - याए ६, अपात्ययाए ७, सुसामणयाए ८, पवयणवच्छलयाए ९, पवयणउब्भावणाए १० ॥" अर्थ - दसहि ठाणेहिं के०दशे स्थान के, एटले दशे कारणे जीव, आगमेसिभद्दा - कत्ताए के० आगल आवते भवे, भद्र एटले कल्याण छे जेहने, सुदेव सुमनुष्यपणुं पामे. तथा मोक्षरूप भद्र पामे. तं जहा के० तेहज दश कहे छे. अनिदान १, दृष्टिसंपन्न २, योगवाही २, ए ऋण पूर्वे कला तेम खंतिखमणयाए के० क्षमाए खमता पण असमर्थपणे नहीं. ४ जितेंदियत्ताए के० इंद्रियनो निग्रह करतां ५, अमाइल्लयाए के० अमाइपणे करीने ६, अपासत्थयाए के० ज्ञानादिकने पासे बसे एटले ज्ञानादिक मध्ये न बसे, ते पासत्थो, कहिए. ते पण देशपासत्थो सर्वपासत्थो ते पासस्थापणुंज्यां नहीं ते अपासत्यो कहीए. तेणे करीने, ७ सुसामणयाए के० मूलोचरगुण सहित साधुपणं करते, ८ पवयणवच्छलुयाए के० प्रवचन जे द्वादशांगी अथवा संघ तेहतुं वात्सल्य ते हितकारपणुं एटले प्रत्यनीकने शिक्षा देवे करी ९ पवयणउब्भावणाए के० ते द्वादशांगीनो अथवा संघनो उद्भावन धर्म कथावाद लब्धि जशवाद बोलवे करीने १० एहमां जोग वहिवा कह्या ते माटे साधु तथा श्रावक पोताने उचित भणे पण तपक्रिया विशेष करीने भणे. ते आगली गाथामां देखाडे हे ॥ ५ ॥
योग वहीने रे साधु श्रुत भणे ॥ श्रावक ते उपधान ॥
तप उपधाने रे श्रुत परिग्रह कहाा || नंदीए तेह निदान ॥ स० ॥ ६ ॥ अर्थ - योगवहीने साधु ने श्रुत भणे के० साधु ते योगवहीने सिद्धांत भणे; श्रावक ते उपधान के० श्रावक उपधान वहीने सूत्र भणे. तप उपधाने के० तप उपधाने करीने श्रुत परिग्रह कह्या के० श्रुतनुं परिग्रहण के० ग्रहण करे. एम कहुं छे. ते एम श्रावक क्यां कला छे? ते कहे छे. नंदीए के० श्री नंदीसूत्र मध्ये कथुं छे. तेह निदान के० ते माटे योग उपधान कहीए छैए. यतः - " सुअपरिग्गहा तवोवहाणाई इति" अर्थ - अपरिग्गहा के० श्रुतनो परिग्रह करे. तोवहाणाई के० तप उपधान सहित, इति गाथा ॥ ६ ॥
श्री नंदीसूत्रे. इति षष्ठी
इरियादिकां रे षट उपधान छे || तेणे आवश्यक शुद्ध ॥ गृही सामायिक आदि श्रुत भणे || दीक्षा लेइ अलुद्ध ॥ स० ॥ ७ ॥
अर्थ - इरियादिकनां के० इरियावही प्रमुखनां, अहींयां उपलक्षणथी नवकारनुं उपधान लीजीए. आदि शब्दथी वीजां चार उपधान लीजीए. एटले, पट उपधान छे के० छ
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दोढसो गाथार्नु स्ववन.
(८९) उपधान छे. यथा पहेलं उपधान, पंचमंगलमहामुअखंघ, वोजु पडिकमणासुअखंघ, श्रीखं शक्रस्तवाध्ययन, चोथु चैत्यस्तवाध्ययन, पांचमु नामस्तवाध्ययन अने छटुं श्रुतस्तवसिद्धस्तवाध्ययन ए छ तेणे के० ते उपधाने करीने, आवश्यकमूत्र शुद्ध थाय. गृही के० गृहस्थ सामायिक आदे श्रुत भणे के० सामायिक आदि देइने, आदि शब्दयी दृष्टिवादपर्यंत श्रुतसिद्धांत भणे, दीक्षा लेइने अलुद्ध के० लोभ, उपलक्षणथी क्रोधादिक तेहनो त्याग करीने ते उपधाननो अधिकार महानिशीथ मूत्र मध्ये विस्तारे छे ते जाणवू. ते कहता ग्रंथ वधे ते माटे नथी लखता. तथा मूढा महानिशीथ सूत्र मानता नथी; ते नथी मानता तेने केहेवाना उत्तर प्रत्युत्तर घणा छे, पण नथी लखता. तथा सुबुद्धि मंत्री प्रमुखने अधिकारे वीजे पण सर्व ठगमे दीक्षा लीधा पछी । सामाइयमाइयाई एकारस अंगाई अहिजइ के. सामायिक आदि देइने अगीआर अंग भणे एहवा पाठ छे. इति सप्तम गाथार्थ ॥७॥
वली श्रावक मूत्र न भणे ते देखाडे छे. सूत्र भण्या कोई श्रावक नवि कह्या । लद्धहा कह्या तेह ॥ प्रथम ज्ञान ने पछी दया कही । तिहां संजत गुण रेह ॥ स०॥८॥
अर्थ- सूत्र भण्या कोइ श्रावक नवि कह्या के० कोइ श्रावक कोइ सूत्रमा मूत्र भण्या कह्या नथी. लछा कया वेह के० उलटा लट्ठा कह्या छे. अर्थ-लाध्या छे जेणे इत्यादिक तुंगीआ नगरी प्रमुख श्रावकने अधिकारे कया छे. यतः भगवती सूत्रे शतक बीजे उद्देशे पांचमे-“लद्धट्टा गहियट्ठा पुच्छिट्ठा अभिगयट्ठा विणिच्छियट्ठा ।।" इति. अर्थ-लद्धडा के अर्थ ग्रया छेतेहथी अर्थ लाध्या छे. पुच्छियहा के०संशय थकां पूछया छ अर्थ जेमणे, अभिगयठा के प्रश्न करी निर्णय कर्या-अर्थनु अभिग्रहण जाणपणु थयु. विणिच्छियष्ठा के० एटला माटे निश्चित अर्थ छे जेणे, एम का छे; पण । लद्धमुत्ता गहियमुत्ता ।। इत्यादि पाठ कहींए नथी. उलटुं दीक्षा लीधा पछी पण एटलो काल गये भणे, एम कर्जा छे ते लखीए छैए.-"
तिवासपरियागस्स निग्गंथस्स कप्पइ आयारप्पकप्पे नाम अज्अयणे उहिसित्तएवा, च. उवासपरियागरस निग्गंथस्स कप्पति । सुअगडे नाम अंगे उहिसित्तए, पंचवासपरियागस्स समणस्स कप्पति दसाकप्पव्यवहारा नामज्झयणे उहिसित्तए, अठवासपरियागस्स समणस्स कप्पति ठाण समवाए नार्म अंगे उद्देसित्तए, दसवासपरियागस्स कप्पति विवाहे नाम अंगे उधिसित्तए, एकारसवासपरियागस्स कप्पति खुडिआविमाणपविभत्तिमहलियाविमाणपविभत्ति अंगचूलिया वगचूलिया विवाहचूलिया नाम दिसित्तए, बारसवासपरि यागस्स कम्पति अरुणोषवाए वरुणोववाए गरुलोववाए घरणोववाए वेसमणोववाए वेलंघरोववाए अज्झयणे उधिसित्तए, तेरसवासपरियाए कप्पति उठाणमुए समुशाणमुए देविदोषवाए नागपरियापलिया नाम अज्झयणे उदिसित्तए, चउदसवास क
. तस्यच तथास
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(९०) महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. पति सुमिणभावणा नाम उछिसित्तए, पण्णरसवास कप्पति चारणभावणा नाम अज्अयणे उदिसित्तए, सोलसवास कप्पति वेयणीसयं नाम अज्अयणं उदिसित्तए, सत्तरसवास कप्पति आसीविसनामं अज्अयणे उदिसित्तए, अहारसवास कप्पति दिडिविसमावणा नाम अज्अयणे उदिसित्तए, एगुणवीसइवासपरियागस्स कप्पति दिठिवाए नाम अंगे उहिसित्तए, वीसवासपरियाए समणे निग्गंथे सव्वसुआणवाई भवति ॥" अस्यार्थ-एनो अर्थ सुगम छे तो पण संक्षेप लख छे. त्रण वरसना पर्यायना धणी साधुने कल्पे आचारप्रकल्प नामा अध्ययन भणवाने, चार वरसनी दीक्षावालाने भूयगडांगसूत्र भण कल्पे. एम पांच वरसनाने दशाकल्प, व्यवहार अध्ययन भण, कल्पे. आठ बरसना पर्यायवाला ठाणांग समवायांग भणे, दश वरसना पर्यायवाला भगवती सूत्र भणे. अगीआर वरसना पर्यायवाला खुहियाविमानमविभक्ति महल्लियाविमानप्रविभक्ति अंगचूलिया, वगचूलिआ अने विवाह चलिया भणे; चार वरसना पर्यायवाला अरुणोपपात, वरुणोपपात, गरुडोपपात, धरणोपपात, वैश्रमणोपपात अने बैलंधरोपपात भणे. तेर वरसना पर्यायवाला उपस्थानश्रुत, समुहाणश्रुत, देवेंद्रोपपात अने नागपरियावलिया अध्ययन भणे. चउदवरसना पर्यायवाला स्वमभावना अध्ययन भणे. पनर वरसना पर्यायवाला चारणभावना अध्ययन भणे. सोल वरसना पर्यायवाला वेदनी शतक अध्ययन भणे. सत्तर वरसना पर्यायवाला आसी विस अध्ययन भणे. अढार वरसना पर्यायवाला दृष्टिविपभावना नामा अध्ययन भणे.
ओगणीस बरसना पर्यायवाला दृष्टिवादनामा अध्ययन भणे. वीश वरसना पर्यायवाला सर्व सूत्रना वादी होय. इति व्यवहारदशमोद्देशके. जो साधु एटला वरस पछी भणे तो श्रावक तो सर्वथा न भणे. इति भाव । तेवारे ढुंढक वोल्यो जे, जो एम छे तो श्री दशवैकालिक मध्ये केम कयु जे 'पढमं नाणं तओ दया' के प्रथम ज्ञान ने पछी दया. ज्ञान विना दया कम पाले ? माटे श्रावक ए लेखे सूत्र भणे ते उपर उत्तर वाले छे. प्रथम ज्ञान ने पछी दया कही छे ते कोने कही छे? ते उपर आगलं पद कयु छे. तिहां संजत गुण रेह के० तिहां संजत कया छे. गुणनी रेखा सरखा मुनि एवा होय, यतः-"पढमं नाणं तो दया एवं चिठ्इ सन्च संजए ॥" एम दशवकालिकनो पाठ छे माटे श्रावकने केम जोडो छो! पण सब सावए एवं नथी कड्यु तो एह वचनथी शो संदेह उपजे छे ! इत्यष्टमी गाथार्थ ॥८॥
नवमे अध्ययने रे वीजा अंगमां । घरमां दीव न दी? ॥ वलिय चउदमेरे कडं शिक्षा लहे । ग्रंथ तजे ते गरिट्ठ । स०॥९॥
अर्थ-नवमे अध्ययनेरे वीजा अंगमां के० वीजु अंग जे सूयगडांग सूत्र वेहनानवमा अध्ययनने विपे एम कायं छे. घरमां दीव न दीठ के० घरमा गृहस्थे दीवो न दीगे; माटे दीक्षा ले छे. ॥ यत:-"गिहे दीवमपासंता, पुरिसादाणिया नरा । ते धीरा बंधमुक्का, नावकखंति जीवियं ॥१॥इति सूयगडांग सूत्रे नवमे अध्ययने ।। अर्थ-गिहे दीवम
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दोढसो गाथानुं स्तवन.
( ९१ )
पासंता के० घरने विषे सुत्ररूप दीवो नथी देखता; ते माटे पुरिसादाणिया नरा के० पुरुषो देय नामना धणी, एहवा पुरुष, सूत्ररूप दीवो देखवाने, ते धीरा के० ते धीर,
शुका के० संसार बंधन छांडे. एडले दीक्षा आदरे छे. नावकखंति जीवियं के० असयम जीवितव्ये जीवनुं नथी वांच्छता. ए गाथार्थे पण सूत्र घरमां भणता नथी दीसता, चलिय चउदमे कहां के० वली सूयगडांग सुत्रनाज अध्ययन चौदमे कü. शिक्षा लहे के० शिक्षा पॉमे. एटले सूत्र भणवारूप शिक्षा पामे. कोण पाये ? ते कहे छे. ग्रंथ तजे के० परिग्रह छांडे ते गरिट्ठ के० गुण गरिष्ठ होय ते. एटले निग्रंथ थाय ते शिक्षा सूत्रनी पामे. इति गाथार्थ-हवे चौदमा अध्ययननी गाथा लखीए छैए- " गंधं विहाय इह सिरकमाणो, उहाय सुर्वभचरे बसिज्जा । ओवायकारी विणयं तु सिरके . जे छेय से विप्पमायं न कुज्जा ॥ १ ॥ " अस्यार्थ - गंथं विहाय के० परिग्रह छांडीने, इह सिरकमाणो के० सूत्र भणतो थको, उहाय के० चारित्रमां सावधान थने, सुवंभचरे वसिज्जा के भली रीते ब्रह्मचर्यने विषे वसे. ओवायकारी के० उपायनो करणहार एटले रत्नत्रयनो आराधक, विषयं तु सिरके के० विनय प्रत्ये शीखे. जे छेए के० जे निपुण छे. से वि के० ते प्राणी, पमायं न कुज्जा के० प्रमाद न करे इति. एहमां पण कां जे परिग्रह छांडे तेवारे सूत्र भणे इति भाव. इति नम गाथार्थ ॥ ९ ॥
सप्तम अंगे अपढिया संबरी ॥ दाख्या श्राद्ध अनेक ||
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चाधरादिक ते कथा || मोटो एह विवेक ॥ स० ॥ १० ॥
अर्थ:- सप्तम अंगे के० श्री उपासगदशांग सूत्र मध्ये, अपढिया संवरी के० भण्या विना संवरवंत कह्या. एम दाख्या श्राद्ध अनेक के० अनेक श्रावक देखाड्या छे. पण सूत्र भण्या नथी कला. इति भाव. ते कामदेवना अधिकार मध्ये प्रगटपणे श्री उपासकदशा मध्ये कथुं छे. यथा-" तरणं समणे भगवं महावीरे वहवे समणे निग्र्गथे निम्गंथीओ य आमंतेत्ता एवं वयासी, जइ ताव अज्जो समणोवासगा गिहिणो गिहमन्झे वसंता दिव्यमाणुस्स तिरिरजोणिए उवसग्गे सम्म सहति जाव अहियासंति, सका पुणाइ अजो समणेहिं निग्गंयेहिं दुवालसँगं गणिपिडगं अहिज्झमाणेहिं दिव्वमाणुस तिरिरक जोणिए उवसग्गे सम्भ सहित्तए जान अहियासित्तए, तो वे वहवे समणा निग्गंथा निग्गंधीओ य एयमहं विणएणं परिणे । तएण से कामदेवे समर्थ भगवं पसिणाई पुच्छइ ||" इत्यादि । व्याख्या - तरणं समणं भगवं महावीरं के० तेवारे श्रमण भगवान महावीर स्वामी, वहवे समणे निग्गंथे निम्गंधीओ य के० घणा श्रमण निग्रंथ निग्रंथीने एटले घणा साधु साध्वीने आता के० आमंत्रण करीने-चोलावीने, एवंवयासी के० एम कहेता हवा. जड़ ताव अज्जो के० हे आर्यों, जो - समणोवासगगिहिणो के० श्रमणोपासक गृहस्थ गिहमज्झे वसंता के० घरमां रहेवा, दिव्यमाणुसतिरिरकजोणिए के० देवता संबंधी, मनुष्य संबंधी अने तिर्येच संबंधी
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(९२) महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. -उवसग्गे सम्म सहइ के० उपसर्ग सम्यग् रीते एटळे भली रीते-मकारे सहे छे. जाव अडियासेइ के० दीनता अणकरवे अहियासे छे. सकापुणाइ अज्जो के. हे आर्यो, विशेथे समर्थ था. समणेहिं निग्गंथेहिं के० श्रमण निग्रंथे, दुवालसंग के० द्वादशांगी, गणिपिडगं के० गणि जे आचार्य-तेनी पेटी. अहिज्झमाणेहिं के० भणते थके, दिव्वमाणुस तिरिरकोणिए उवसग्गे के देवता, मनुष्य अने तिर्यंच संबंधी उपसर्ग, सम्म सहितए के० सम्यग्रीते सहेवाने, जाव अहियासिचए के० यावत् अहियासवाने तओ के तेवारे. ते-बहवे समणा निग्गंथा के० ते घणा श्रमण निग्रंथ, निग्गंथीओ य के० साधवी एयमई विणएणं पडिमणेति के० ए अर्थ विनये करीने सांभले. एटले ए समुदाय अर्थ जे प्रभुजीए साधु साध्वीने कह्य जे श्रावक थकां उपसर्ग खमे छे तो तमे द्वादशांगी प्रमुखना भणनारा छो; माटे तमारे तो विशेषे उपसर्ग सहेवा इति भाव. एहमा एम कय जे, श्रावक वगर भण्या विना संवरवंता छे. इति तात्पर्याय. वएणं से कामदेवे के तेवार पछी ते कामदेव समणं भगवं पसिणाई पुच्छइ के० श्रमण भगवानने प्रश्न पूछे. इति सूत्रार्थ-वली उपासगदशांग मध्येज कुडकोलिया नामा भगवानना श्रावकनो अधिकार छे. यथा ॥-कुंडकोलियेवि समणे भगद महावीरे कुडकोलिय एवं क्यासी से नूणं कुंडकोलिया कल्लं तुम्मे पुन्वावरण्हकालसमयसि असोगवणियाए एगे देवे अंतिय पाउन्मवित्ता । वएणं से देवे णाममइंच वहेव जाव पाडगए । से नूगं कुंडकोलिया अछे समठे इंता अस्थि त धनो सिणं तुम जहा कामदेवे ॥व्याख्या-कुंडकोलिया के० हे कुंडकोलिया, एह आमंत्रण करीने समणे भगवं महावीरे के० श्रमण भगवान महावीर कुंडकोलियं के० कुंडकोलिया श्रावक प्रत्ये एवं वयासी के० एम कहेता हवा. से नूगं कुंडकोलिया के० हे कुंडकोलिया ! निश्चे कल्लं के० गइ काळे तुम्मे के तुजने पुन्वावरण्हकालसमयंसि के० मध्यान्ह समयने विषे असोगवणियाए के० अशोकवाडीने विषे एगे देवे अंतिय पाउभविता के० एक देवता प्रगट थयो. एणं से देवे के० तेवारे ते देवता णाममुदं च के० ताहरी नाममुद्रा तहेव जाव पडिगए के० तेमज यावत् गयो, एटले यावत् शद्ध एम सूचव्यु. नाम मुद्रा वन देवताए लीयां, प्रश्न पूछयो, तेना ते जवाव उत्तर करया. अनुक्रमे निपृष्ट व्याकरण करचे थके देवता पाछो गयो. से नूगं कुंडकोलिया के० ते निश्चे हे कुंडकोलिया, अहे समझे के०ए अर्थ साचो. हता अत्यि क० प्रभुजीने कहेछे. हे भगवन् सत्य, तं धन्नो सि गंतु केन्मभुजी कहे छे धन्य छो तमे जहा कामदेवे के० जेम पूर्व कामदेव कह्या छे तेम कहेवा. एटले साधुने वोलावीने प्रभुजीए कयु जे घरमा रह्या श्रावक पण एम करे छे तो तमे वो द्वादशागीना धरनारा छो. तमने विशेपे एम जोइए. इति जो श्रावक सूत्र भणता होत तो एम कहेत नहीं इतिभाव. ____ अहींयां कोइक एम कहेजे "द्वादशांगीना भणनारा कह्या छे. ते द्वादशांगी भणीन शके पण थोडं घणु भण्या होशे." तेहने उत्तर देछे-नवि आचारधरादिक ते कह्या के० आचारांगादिकना घरनारा श्रावक नयी कहा. एटले ए भाव जे ।। "अप्पेगइया आयार
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दोहसो गाया स्तवन
(९३) धरा अप्पेगईया मूअगडधरा ॥" एम एकादगांगादि भणनारा साधु विवरीने उववाइ प्रमुखमां कया छे पण श्रावक नयी कया, तो तमे खोटी संभावना भी करो छो? मोटो एह विवेक के० ए श्रावक तथा साधुने विवेक वहेचण मोटो करयोछे. इति दशमी गाथार्थ ॥१०॥
__ अहीयां कोइकनी आशंका करीने उत्तरवाले छे. ते दुवक बोल्यो जे "उत्तराध्ययनमां पात्रकने कोविद कयो छे ते भण्या बिना कोबिद केम कहीए? तेहने उत्तर.
उत्तराध्ययनेरे कोविद जे को ॥ श्रावक पालित चंप ।। ते प्रवचन निग्रंथ वचनथकी ।। अरथ विवेके अकंप ॥ स०॥ ११॥
अर्थ-उत्तराध्ययने के० उत्तराध्ययनने विषे कोविद जे कयों के कोविद एटले पंडित कह्यो छे. श्रावक पालित चंप के० चंपानगरीने विष पालित नामा श्रावकने कयो छे. यतः-"चंपाए पालिए नाये,सावए आसि वाणिए । महावीरस्स भगवओ,सीसोसो उ महप्पणो ॥१" व्याख्या-चंपानगरीने विषे पालिए नाम सावए के० पालित नामा श्रावक थासि के होतो हवो. वाणिए के० वणिक जाति ते केवो छे ? महावीरस्स भगवओ सीसो के महावीर जे चोवीशमा परमेश्वर तेमनो शिष्य छे. महप्पणो के० ते वीर केवा छ ? महात्मा छे. मोटो छे आत्मा जेहनो इति. वली ते श्रावक को छे? ते कहे छे."निग्गथे पावयणे, यावर से वि कोविए । पोएण ववहरंत, पिहुँड नगरमागए ॥२॥" व्याख्या-निग्गथे पावयणे केनिग्रंथ संबंधी प्रवचन तेहने विष सावए के०ते श्रावक, कोविए के० पंडित छे. पोएण बवहरते के जिहां जे व्यापार करतो, पिदुई नगरमाग: के० पिहुंड नामा नगरने विषे आवतो हवो इति उत्तराध्ययने एकवीगने अध्ययने जे कोविद कह्यो छे ते प्रवचन निग्रंय के० निग्गंथे पाषयणे निग्रंथर्नु प्रवचन, वचनथकी के० एहज वचनथी जाणीए छैए जे प्रवचन भण्यानो संबंध ते निग्रंथनेज छे. अने श्रावकने कोविद कयो ते अरथ विवेके के० अर्थनी धारणाएज होय. अकंप के० अपकंप निश्चलपणे श्रावक लहान कया छे. पण लद्धमुत्ता कहींए पाठ नथी. वलो श्रावक कोविद कयो पण अघीत न करो तो एहमां गो संदेह आवे ? आज पण श्रावक मूत्र भण्या विना अर्य करीने घणा डाह्या दीसे छे. अहींयां वली दुहकमति वोल्यो के "उत्तराध्ययनमां को छ के, मूत्र भणतो सम्यक्स पामे, तेवारे मिथ्यात्वी चको भणे एम आव्यु " यतः-" जो मुत्तमहिजतो,एण ओगाइड उसम्मत् । अंगेण वाहिरेण वसो मुत्तइति नारयो॥१॥" व्याख्या-जो मुत्तमहिन्जतो के. जे मूत्र भणतो,सुएण ओगाइड उ सम्म के श्रुने करीने सम्यक्लने अवगाहे. अंगेण के. अंगे करीव के० अथवा वाहिरंग के अंगवाये करी, सोमुत्तत्ति नायब्बो के• ते मूत्ररुची जाणवो. इति उत्तराध्ययने अध्ययन अगवीशमे.
हवे ए उचराध्ययननी गाथायी पण श्रावकने मूत्र भणवू नावे, जे माटे 'मूत्र भण्ये समकित अवगाहे ते पापड़ जल अवगाहे' ए दृष्टांत जागg. एटले जल छतुं छे तेहने अव
तस्यच तथास.
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( ९४ )
महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत.
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गाहे. ए दृष्टांते छतां समकितनेज साधुने अवगाहनुं आव्यु, पण मिध्यात्वीथको सूत्र भणी ये 'सम्यक्त्व पामे एम तो घेलो बाहेलो होय ते पण न कहे. कांक्षा मोहनीय कर्मना उदययी शंकित भाव छे, ते साधु भगतो निःशंकित करे, पछी निःशंकित मुत्ररुची नामे सम्यक्त्व अवगाहे; ए सुधो अर्थ मानवो वली मिथ्यात्वी ते अन्य तीर्थी कहए, अने अन्यतीर्थीने मुत्र भणावे तो चार मासतुं प्रायश्चित आहे. एम अहां भागल कहेवागेः तोभण तो वेगलं नु ते विचारजो. इति एकाइमनी गाथार्थ ॥ ११ ॥
सूत्रे दीर्धुरे सत्य ते साधुने || सुर नरने वली अत्थ ॥
संवर द्वारेरे बोजे एम कनुं ॥ अंग दशमे समरस्थ || स० ॥ १२ ॥
अर्थ - मूत्रे के० सूत्रयी, दीधुं के० आप्युं, सत्य के० साधुं चीजुं व्रत, साधुने के० सुनिने, एटले परमेश्वरे मुनिने मूत्रयी सत्य आप्युं. मुर नरने वली के० वली देवता अने मनुष्यने, अत्य के० अर्थथी सत्य आप्यु, संवर द्वारे वीजे एम कधुं छे अंग दशमे के० श्रीव्याकरणने विषे, समरस्य के० समर्थपणे कां छे. तथा च तत्पाठ:- "तं सर्व भगवंततित्थगरसुभासियं दस विहं चउदसपुवीहि पाहुडत्यवेsयं महरिसीण य समयप्पदिनं देविंदनरिदे भासियत्यं ॥ " इति व्याख्या - जे सत्य, पूर्वोक्त वीजुं व्रत भगवंत पूज्य तीर्थंकरतुं सुभाषयुं. दस विढं के० दश प्रकार, जणवयसम्मयठवण इत्यादि पूर्वे कया है, ते सिद्धांत प्रसिद्ध जाणवा. तथा चौद पूर्वधर, पाहुडत्थवेइयं के० पाहुडो जे पूर्वगत भाग विशेष जेम अध्ययन उद्देशादिक कहीए तेम तेहने अर्थ विदित जाणवुं तथा, महरिसोणं के० उत्तम साधु तेहने, समय के० सिद्धांत, पदिन्नं के० दीघुं, एतावता सिद्धांत वीतरागे साधुमणी दीधु, सत्यवचन जाणे भाषे ते माटे ए अक्षरे एम जाणीए हुए जे, श्री वीतरागनी आज्ञाए साधुनेज सूत्र भणवुः पग मूत्र गृहस्थने दीधुं एम न कं. तथा, देविंद नरिंदे भासियत्य के० देवेंद्र सौधर्मादिक, नरेंद्र राजा भारतादिक तेहने भाप्या रूपया अर्थ जेहना. एतावता देवेंद्र नरेंद्रादि के सिद्धांतनो अर्थ सांभली सत्यवचन जाणे. इति द्वादशमी गाथार्थ ॥ २ ॥
aat श्रावकने सूत्र भगवानो निषेध देखाढे छे. वलिय विगयपडिबद्ध ने वाचना | श्रीठाणांगे निषेध ||
नविय मनोरथ श्रुत भणवातणो ॥ श्रावकने सुप्रसिद्ध ॥ स० ॥ १३ ॥
अर्थ - बलि के पूर्वे क तेहथी वीजुं, विगयपडिवद्धने के० नित्य विगय प्रतिवद्ध होय, तेहने, वाचना के० सूत्रनी वाचना देवी ते, श्री ठाणांगसूत्रे निषेध के० ठाणांग सूत्र ने विषे निषेध कर्योछे. तथा च तत्पाठ:- "तओ अवायणिज्जा पन्नत्ता तं जहा - अविणीए चिगइपविद्धे अविभोसियपाहुडे । तभो कप्पंति वाइत्तए, तं जहा - विणीए अविगइपडिवद्धे
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दोढसो गाथानुं स्तवन.
( ९५ )
विओसिय पाहुडे ॥” इति अर्थ - तओ अवायणिज्जा पन्नत्ता के० त्रण वाचना देवा योग्य नहीं एटले सूत्र न भणावतुं कह्याछे. तं जहा के०ते देखाडेछे, अविणीए के अविनीत होय - विनयवंत न होय. १ विगइपडिबद्धो के० घृतादिक विगय तेहमां गृद्ध होय एटले योग नयी बहेतो २ अविओसिय के अव्यवस्थित, अनुपशांत प्राभृत के नरकपालनी परे क्रोध जेहने - एटले परमाधार्मीनी परे कषायवंतछे. यतः - " अप्पेवि पारमाणि अवराहे वयइ खामियं तं च । बहुसो उदीरयंतो अविओसिय पाहुडो स खलु ॥ १ ॥" अर्थ - पारमाणि के० परम क्रोध समुद्घात करे इति. वली, तओ कप्पंति वाइत्तए के० त्रण जनने वाचना देवी कल्पे. तं के० ते देखाडे छे. विनीत होय १ अविगय प्रतिवद्ध होय एटले योगवाही होय विसविय पाहुडो के० कषाय उपशम्या होय, एवानेज सूत्र भणवं कं जो श्रावकने सूत्र arai होय तो तेनो मनोरथ कां न होय ? ते कहे छे. नविय मनोरथ श्रुत भणवा तणा के० श्रुत भगवानो मनोरथ नहीं कह्यो, श्रावकने सुप्रसिद्ध के० प्रसिद्धपणे श्रावकने नयी को शामाटे श्रावक अने यतिना मनोरथ त्रण त्रण जुआ जुआ कहा। छे यतः“तिर्हि ठाणेहिं समणे निग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ, कया णं अहं अप्पं वा बहु वासु अहिज्जिस्सामि । कया णं अहं एकल्लविहारं पडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरिष्यामि । कया णं अहं अपच्छिममारणांतियं संलेहणा जूसणा जूसिए भत्तपाणपडिआइक्खिए पाउनगर्म कालमradमाणे विहरिस्सामि । एवं समणसा सवयसा सकायसा पडिजागरमाणे निग्गंथे महाणिज्जरे पज्जवसाणे भवइ || " व्याख्या-तिहिं ठाणेहिं समणे निग्गंथे के० त्रणे स्थानके श्रमण निग्रंथ, महानिज्जरे के० मोटी कर्मक्षपणा, महापज्जवसाणे के० अत्यंत पर्यवसान एटले समाधिमरण करे. माटे फरी मरवु नहीं माटे ए मोटो अंत, भवइ के० होय - करे. कया णं अहं के० केवारे हुं, अप्पं वा बहुं वा सुअं अहिजिस्सामि के० थोडं घणुं श्रुत भणीश ? १ कयो णं अहं एकलविहारं पडिमं उब संपज्जित्ताणं विहरिस्सामि के० केवारे हुँ, एकलविहार प्रतिमा अंगीकार करीने विचरीश ? २ कया णं अहं अपच्छिममारणंतिए के० छेली मरण संबंधी, संलेहणा जूसणा जूसिए के० संलेपणा जे तप-ते तपनी जूसणा जे सेवा ते सेवाए करी जूसिए के० रूक्ष थया छे, भन्तपाणपडियाइक्खिए के० भात पाणीनां पञ्चक्खाण कर्यांने जेहने पाउवगमं के पादपोपग़म अणसण करी, कालमणवखमाणे विहरिस्सामि के० मरण अणइच्छतो केवारे विचरीश ? 3 एवं के० ए री, स के० ते साधु, समणता के मने करी सहित, सवयसा के० ते साधु, वचनें करी, सकायसा के० ते साधु कायाए करी एटले त्रिकरणे करी, पडिजागरमाणे के० प्रतिजागरण करतो थको, निग्गंथे के० निग्रंथ, महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवद्द एहनो अर्थ पूर्वनी परे, ए साधुना त्रण मनोरथ कला. हवे श्रावकना कहीए छेए- “तिहिं गणेहिं समोवासए महाणिज्जरे महापज्झवसाणे भवइ, तं जहा, कया णं अहं अप्पं वा बहुं वा परिइस्लामि ? कया णं अहं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वहस्सामि २ कया अहं अपच्छिममारणांतियं संलेहणाजूसियभत्तपाणपदिआइक्लिए पाउवगमं कालमणब
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तस्यच .
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(९६) महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत.. कंखमाणे विहरिस्सामि ३। एवं समणसा सवयसा सकायसा पडिजागरमाणे समणोवासए महाणिज्जरे महापज्जवसाणेभवह ॥" अस्यार्थः-त्रण स्थानके समणोवासए के० श्रावक महा निर्जरा महा पर्यवसान करे. वेहज त्रण स्थानक कहे छे केबारे हुं थोडो घणो परिग्गडं के० धन धान्यादिक नव प्रकारनो परिग्रह छांडीश ? केवारे हु, मुंडे भवित्ता के मुंड थइने अगाराओ अणगारय पव्वहस्सामि के० अगार जे घरवास छांडीने अणगारवास अंगीकार करीश ? बीजो मनोरथ सुगम छे. पूर्वनी परे जाणवो. इति ठाणांग त्रीजे ठाणे. तथा वली कडं छे.-"महत्थरूवा वयणप्पभूया, गाहाणुगीया नरसंघमझ । ज भिक्षुणो सीलगुणोववेया, इहुज्जयंते समणोमि जाओ ॥१॥" अस्या व्याख्या-ब्रह्मदत्तने चित्रमुनि कहे छमहत्यरूवा के मोहोटो छे अर्थ जेनो, वयणप्पभूया के० वचन अल्पभूत एवी गाथा, एटले धर्मोपदेशनी गाथा. अणुगीया के अनुकूलपणे कही, तित्थयरे के० तीर्थकरे कही; एटलं बाहेरथी लेइए, नरसंघमझे के० मनुष्यना संघ मध्ये कही छे, जे के० जे गाथा सांभलीने -एटलं पाहेरथी लेइए, भिक्खुणो के० मुनि, सीलगुणोववेया के० शील ते क्रिया, गुण ते ज्ञान-तेणे उववेया के० युक्त थइने इहुजयंते के० जिन प्रवचनने विषे यन करे छे. वाहारयी अर्थ लेइने सूत्र व्याख्यान करवू माटे एम कहीए. में पण तेगाथा सांभलीने, समणोमि जाओ के हुँ अमण थयो. इति-ए उत्तराध्ययनने तेरमे अध्ययनने मेले पण साधुनेज सूत्र भणवू इति त्रयोदशमी गाथार्थ ॥ १३ ॥
___ हवे जे ग्रहस्थने भणावे तेहने दोप देखाडे छे, वाचना देतारे गिहीने साधुने । पायच्छित्त चउमास || कडं निशीथरे तो शुं एवडी ॥ करवी होस निराश ॥ स० ॥१४॥
अर्थ-वाचना देतारे गुरुने साधुने एहवो पाठ कोइ लेखकना दोष थकी जणाय छे. शामाटे जे निशीथनो ताश अर्थ घेसतो नथी. माटे वाचना देतारे गिहीने साधुने । एवो पाठ माये हशे, एम गुरुनो उपदेश छे. हवे अर्थ-धाचना देतां गिहीने के० गृहस्थने वाचना देतां एटले गृहस्थने सूत्र भणावतां साधुने पायश्चित्त, चउमास के० साधुने चतुर्मास प्रायश्चित्त आवे, फयु निशीथे के० निशीथ सूत्रमा कयु छे, तो शुं एवडी करवी होस निराश के तो एवडी आशा विना होंस शी करवी ? एटले कोइ ठेकाणानी सूत्र साखनी आशा विना शी वात करवी ? यता-" से भिक्खु अणउत्थियं पा गारत्थियं वा वाएइ वायत वा साइज्जइ तस्स णं चाउम्मासियं ॥"व्याख्या-से मिक्खु के. जे मुनि अणउत्थियं वा के० अन्य तीर्थने, गारत्थियं वा के० गृहस्थने, वाएइ के० वाचना आपे, वायंत वासाइज्जइ के. वाचना आपतां सहाय दीए, तस्स णं चाउम्मासियं के० तेहने चार मासद् प्रायश्चित्त ॥ इति निशीथ सूत्रे ओगणीशमे उद्देशे अहींयां मूर्ख इंढिा गृहस्थ ते अन्य तीर्थीना गृहस्थ कहेवा जाय पण अन्य तीर्थमां वे वो आवी गया. इति चउदमी गाथार्थ
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दोसो गाथा स्तवन.
( ९७ )
rot कोइक कहेशे जे पोतानी मेले सूत्र वांचीने भणतां गो दोष? तेहने कहीए जे || " गुरुवायणावागयं ॥” एवं अनुयोगद्वार मध्ये कां छे. त्यां गुरुवाचनोपगत गुरु वाचनाए आयु. इति तथा वली जे || "आयरियउवज्झायाणं अढिण्णे गिरं अड़बड़ आयायनं वासाइनइ ||" इति - आचार्य उपाध्यायतुं अदिष्णं के० अणदीधुं, गिरं के० वाणी आइयड़ के ० ग्रहे अथवा तेहनी सहाय करे तो प्रायश्चित्त लागे. एम निशीथमूत्र मध्ये पण पोतानी मेले भणतां प्रायश्विच कर्तुं छे.
हवे पंचांगीनी बात आत्री. त्यजिय गाथा.
त्यजिय असझाइ गुरुवाचाना || लेइ योग गुणवंत ||
जे अनुयोग त्रिविध साचो लहे || करे ते कर्मनो अंत || स० ॥ १५ ॥
अर्थ - त्यजिय असम्झाइ के० सूत्र भणे ते एवी विधि भणे जे, असज्झाय तजीने गुरु वाचना छेड़ के ० गुरुनी वाचना पामीने, योग के० योग बहोने, गुणवंत के० जे गुणवंत होय ते, अनुयोग त्रिविध लहे के० ते प्राणी त्रण प्रकारनो अनुगम पामे. करं ते कर्मनो अंत के० ए रीते भणे तेहज प्राणी कर्मनो अंत करे- एटले सिद्धि पामे. अहींयां असम्झाय तजे एम कहूं. माटे असज्जायना अक्षर देखाडे -" णो कप्पड़ निगंथाण वा णिगंथीण वा चउपाविएहिं सज्जायं करिचए, तं जहा - आसाविपाडिए इंदमहपाडिए कत्तिय - पाडिवर सुगिम्हपाविए ॥" अर्थ - णो कप्पड़ इत्यादि न कल्पे निग्रंथ तथा निग्रंथीने चउपाडिवहिं सज्झायं करितए के० चार पडवाने दिवसे सज्झाय करवो. तं जहा के० तेज कहे छे. आषाढ शुदि पूनेमने अनंतर पडवो कहीए. ते आपाढी पडवो, इंदमहापडि are के इंद्र महोच्छवने पडवे, आसोनी पुनेम पछी पडवो आवे ते कहीए, कतियपाfsae के० कार्तिक शुद्ध पूनेम लगतो पडवो आवे ते कार्तिक पडवो कहीए, सुगिम्हपा डिवए के० चैत्री पूनेम पछी आवे ते कहीए, तथा० - " णो कप्पड़ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा चर्हि संज्झाई सज्झायं करितए, तं जहा- पढमा पच्छिमार मज्झछे अनुरते !!” व्याख्या - न कल्पे निग्रंथ निग्रंथीने, चउहिं संज्झाई सज्झायं करितए के चार संध्याए सज्झाय करवी, तं जहा के० तेहज देखाडे छे, पढमाए के० पहेली प्रातःकालनी संध्या, पच्छिमाए के० सांग्रनी संध्या, मज्झण्डे के० मध्यान्हनी संध्या, अट्ठरत्ते के० मध्यरातनी संध्या, इति ठाणगे चोथे ठाणे. तथा-" दसविहे अंतलिक्खिए असज्झाइए पनचे, तं जहाGarure १, दिसादा २, गजिए ३, विज्जुए ४, गंधव्त्रनगरे ५, णिग्याए ६, जक्खालित्ते ७, धूमिआ ८. महिया ९, रउग्धाए १०. व्याख्या - " दसविहे के० दश प्रकारनी, अंतलिक्खिए के० आकाश संबंधी, असज्झाइए पन्नचे के० असज्जाय कही है, जहा के० तेज कहे छे, उपाए के० उल्कापात, लोकप्रसिद्ध छे दिसादादे के हरकोड एक दिशाने विषे महा नगर चलतुं होय, ते रीतं भूमिकाए अणकरसित आकाशतलवर्ची उद्योत दे
तस्यच
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महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. खाय २, गज्जिए के० मेघनु गाजवू ३, विजुए के वीजलि ४, गंधव्वनयरे के० आकाशे गांधर्व देव विशेष तेहनां नगर देखाय. अहींयां गांधर्व नगरने ठेकाणे जवए एहवो पाठछे. त्यां, जुपए के० ज्या संध्यानी कांति अने चंद्रकांति ए युगपत्समकाले भेली थाय ते अजवाला पक्षना पडवे, वीजे अने पुनेम ए प्रण दिन-ए वेला सांजे असज्याय ५, णिग्याए के० वादलां होय अथवा न होय पण व्यंतरकृत महा गर्जारव शब्द ते निर्घात कहीए ६, जक्खालित्ते के० कोइ लक्ष आकाशे देदीप्यमान देखाय ७, धूमिआ के धूमरी वरसे ८, महिआ के० ते धूमरीमा पण धूमर अने महिकामां कांइक वर्णकृत भेद जाणवो ९, रउग्याए के० सहेजे विश्रसा परिणामे रजोदृष्टि थाय १०,इति. तथा बली-" दसबिहे ओरालिए असज्झायं पन्नत्ते, अट्ठि मंसे सोणिए असुइसामंते मुसाणसामते चंदोवरागे सरोवरागे पडणे रायबुग्गहे वस्सयस्स अंतो ओरालियसरीरे ॥" व्याख्या-दश कारनी ओरालिए के० औदारिक जे विर्यच मनुष्य संबंधी असल्झाइ, अट्ठि के हाड १, मैसे के० मांस २, सोगिए के० रुधिर ३, ग्रंथांतरे चर्म पण कयु छे. तिर्यचनी साठ हाथ प्रमाण, मनुष्यनी सो हाथ प्रमाण, ऋतुकाल स्त्रीनी दिन त्रण, पुत्री जन्मे दीन आठ, पुत्र जन्मे दिन सात, अने हांडनी जीव रहित थया पछी वार वरस लगे असज्झाइ । तथा असुइसामते के० अत्यंत दुर्गध अशुचि-विष्टा प्रमुख पासे दुकडी होय तो असल्याइ४, मुसाणं सामते के० श्मशान पासे अमझाइ ५, चंदोवरागे के चंद्रनुं ग्रहण ६, सूरोवरागे के० सूर्य ग्रहण ७, पडणे के० मर-ते अहींयां राजा प्रधान सेनापति प्रमुख महर्दिक ठेवू ८, रायवुग्गहे के० राजाना संग्राम थता होय नेवारे असल्झाय ९, उपस्सयस्स अंतो ओरालियसरीरे के० उपाश्रयमा औदारिक शरीर जे मनुष्यादिकतुं शरीर होय ते असज्झाइ १०-ए सर्व असज्झायना विशेषमकार नियुक्ति प्रमुखथी तथा गुरुपरंपराथी जणाय ॥ १५ ॥
सूत्र अरथ पहेलो बीजो कह्यो । निजुत्तीएरे मीस ॥ निरवशेष त्रीजो अंग पंचमे । एम कहे तुं जगदीश ॥स०॥१६॥
अर्थ-सूत्र अरथ पहेलो के० प्रथम सूत्रार्थ आपे, एटले गुरु, शिष्यने जेवारे अर्थ आपे, तेवारे पथ यी शब्दार्थ मात्र आपे. ते रूडी रीते आवड्या पछी, वीनो को निजुत्तिए मीस के० वीजीवार तेज सूत्रनो नियुक्ति सहित ते निक्षेपा सहित व्याख्यान करी शीखवे. निरवशेष त्रीजो के० वीजी वार अर्थ आवड्या पछी त्रीजो समस्त कहे. एटले त्रीजीवार प्रसंगे प्रसंगे दृष्टांत हेतु नय प्रमुख सर्व कहे. एटले भाष्य, टीका, चूर्णि, ए त्रीजी व्याख्यामां समाणां ए सूत्रनियुक्ति प्रमुख पंचांगी मानवी देखाडी. अंग पंचमे के० श्री भगवती सूत्रमध्ये एम कहे तुं जगदीश के०हे जगदीश? एम हूँ कहेछे. अहीयां भक्ति वचन माटे तुकार शद्ध कयो छे. यंत:-"मुत्चत्यो खलु पढमो, बीओ निज्जुत्तिमीसिओ भणियो।
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दोसी गाथा स्तवन
(९९) तइओ य निरवसेसो, एसविही होइ अणुओगो ॥१॥ अर्थ मुत्तत्थो खलु पढमो के० पहेलो सूत्रार्थ निश्चये देवो. वीओ निजत्तिमीसिओ के. वीजो नियुक्ति मिश्र ते सहित देवो. भणिो के० को छे. तइओ य निरवसेसो के जोजो निरवशेप संपूर्ण कहेवो. एसविही होइ अणुभोगो के० एविधि अनुयोग ते अर्थ कहेवानो जाणवो. इति भगवती शतक पचीशमे.
हवे कोइ ढुंढक बोल्योजे "नियुक्ति प्रमुख सूत्रथी मलती नथी; वो शुं माने? जे माटे ठाणांग मध्ये सनत्कुमारने अंतक्रिया कही; अने आवश्यक मध्ये श्रीजे देवलोके गया. ए केम मले?" तेहने उत्तर कहेछे के हे देवाणुप्रिय! नियुक्तिकार चौद पूर्वधर समुद्र सरखी बुद्धिना धणी हता; सम सरखा मंदमति न इता. ठाणांगनी टीका मध्ये 'भवांतरे सेत्स्यमानत्वात् ।।' एम कय छे. माटे मलतुंज छे. तथा तेहज भवमां अंतक्रिया मानीए तो नारकीने पण कयु -'अत्ये गइए करेजा अत्थे गइए नो करेजा ।।' ए पाठ केम मलशे? अने कहेशो जे, सूत्रज प्रमाण तो भलं, आज वर्ततां तो घणां मूत्र छे, तेम छतां तमे वत्रीज का मानोछो ? वली कहेशो जे वत्रीश मूत्री मांहोमांहे मलेछे वीजां मलतां नथी. तोय भलं पण अमे जाणीए छैए जे तमारे परस्परे मलवानुं प्रयोजन नथी. तमे केवल जिनप्रतिमाने द्वेषे वीजां मूत्र नथी मानता. पण भला वत्री तो मानोछो. तेपण तमारी मतिए जाणोछो जे ते मले छे तोते मेलवी आपो ते माटे प्रसंगोपात काइक लखीए छैए ।। समवायांगे मल्लिनाथ प्रभुजीने पांच हजार सातसें मनपर्यवज्ञानी अने श्रीज्ञातामां तो आठसें कह्या. ते केम मळे ? तथा च मूत्र-"मल्लिस्स णं अरहओ सत्तावनमणपज्जवनाणी सया होत्या।।" इति समवायांगे।। "असय मणपज्जवनाणीणं ॥" इतिश्रीज्ञातायां ए केमो समवायांगे श्री मल्लिमभुने पांचहजार नवसे अवधिज्ञानी, अने ज्ञातामांहे बेहजार अवधिज्ञानी. एकेम? २ ज्ञातामां अध्ययन पांवमे श्रीकृष्णने वत्रीश हजार स्त्रीओ कही; अने अंतगडदशांगमां प्रथमाध्ययने तो सोलहजार कही. ए केम ? ३ श्रीराजमश्नीयमांहे केशीकुमारने चार ज्ञान कयां, अने उत्तराध्ययने वत्रीशमे अध्ययने अवधिज्ञानी कह्या. ए केम? ४ भगवतीमां शतक पहेले उद्देशे बीजे विरापित संजमी जघन्यथी भवनपतिमा जाय, उत्कृटे सौधर्मे जाय एवं कां छ; अने ज्ञातामां तो अध्ययन सोलमे सुकमालिका विराधित संजमी ईशान देवलोके गइ ए केम? ५ उववाइमां तापस उत्कृष्टा ज्योतिपी लगे जाय एम कयु छे, तो श्री भगवतीमां तामलीतापस ईशानेंद्र थयो. ए केम ? ६ उववाईमां चौदपूर्वी उत्कृष्टा लांतके जाय एम.की, तो भगवतीमां कार्तिकशेठ चौदपूर्वी सौधर्मेंद्र यया. ए केम ? ७ श्री भगवती मध्ये श्रावक होय ते त्रिविध त्रिविध कर्मादाननां पञ्चक्खाण करे एम कडं तो श्री उपासकदशामध्ये आणंदे हल मोकलां राख्यां ते केम? ८ तथा उपासकदशामा कुंभार श्रावके नीम्हाडा मोकलां राख्या एकेम ? ९ वेदनीयकर्मनीजघन्य स्थिति श्रीपनवणासूत्रमा वार मुहूर्तनी कही तो उत्तराध्ययना अंतर्मुहूर्तनी कही. ए केमी १० श्री भगवतीमां शतक • धीजे उद्देशे पहेले. संघाने अधिकारे वार प्रकारनां वाल मरण.फरतो जीव अनंता नारकी,
तस्यच . ..
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(१००) महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. तिर्यच, मनुष्य अने देवताना भव करे; अनादि अनंत चार गतिमांज रझले, तेमांनाज वारमा वेहाणस मरण, तथा गीखपृष्ठ मरण ए ये कयां छे, तो गणांगे ठाणे वीजे उद्देशे चोथे ए वे मरणनी कारणे आजा करी. ए केम ? ११ भगवतीमां महाबल चौदपूर्वी ब्रह्म देवलोके गया, एम का; तो उववाइमा लांतकथी हेठाजाय नहीं.एम कडं ते केम? १२ श्रीउत्तराध्ययन छत्रीशमे पान पलांड लसण कंदे अनंतकाय कयां छ तथा पन्नवणा प्रथमपदे लसण प्रत्येके कयु छे. ए केम ? १३ श्री पनवणामां चार भाषा वोलतां आराधक कह्यो. तथा दशकालिक अध्ययन सातमे वे भापा वोलवी कही. ए केम? ४ दशवकालिक अध्ययन आठमे हाथ पग छेछ। होय, कान नाक काप्यां होय, सो वरसनी डोसी होय तेने पण ब्रह्मचारी वर्ने एम कर्जा छे अने श्री ठाणांगमां पांचमे गणे उद्देशे वीजे तो साधु पांच मकारे साध्वीने ग्रहतो अवलंबतो आज्ञा न अतिक्रमे. ए केम ? १५ उत्तराध्ययन वीजे अध्ययने रोग उपन्ये औषध न करे एवं की अने भगवतीमांतो वीजोरापाक प्रभुए लीधो. ए केम ? १६ दशवकालिके छठे अध्ययने एकभक्त भोजन कई अने कल्पसूत्रमा तो विकृष्ट तपवालाने सर्व गोचर काल कल्पे. ए फेम ! १७ कल्पसूत्रे थोडी थोडी दृष्टि थातां वहोरवा जाय एम कब्बु छ, अने दशवैकालिके अध्ययन पांचमे उद्देशे पहेले वरसतां वहोरवा न नाय. एम कडं ते केम ? १८ भगवतीमां शतक चौदमे उद्देशे सातम भात पाणीनां पञ्चक्खाण करीने आहार करे एम कथु, अने सिद्धांतमां तो व्रतभंगे महा दोप लागे एम कयु. ए केमी १९ पनवणामा अढारमा कायस्थिति पदे स्त्री वेदनी कायस्थितिना पांच आदेश कहा; ने सर्वज्ञना मतमां पाच वात शी ए फेम ? २० गणांगे पांचमे ठाणे उद्देशे वीजे राजपिड न लेबो एम कयु, अने अंतगड वर्ग छठे अध्ययन पांचमे गौतमजीए श्रीदेवीने घेर आहार लीघो. एकेम? २१ समवायांगमां ज्यां प्रभु विचरे त्यां चारे दिशाए इति न होय एम कथु छे, अने विपाकसूत्रमा तो पोते समोसरचा थका अभयसेन प्रमुख फेंम मारचा गया? २२ एम विपाकमा अध्ययन वीजे पण छे. ते फेटला लखाय ? एम श्री भगवतीमा मुनक्षत्र अने सर्वानुभूति समोसरणमां बल्या, पोताने लोहीखणवाडो थयो. ए वेम ? २३ तथा समवायांगमा उपासकनी नोंध छे, तेमां श्रावकनां चैत्य कहां छे अने उपासकमां तो नयी. ए फेम ? २४ भगवतीमां शतक आठमे उद्देशे छठे साधुने अमामुक अनेपणीक वहोरावतो धणी निर्जरा करे, अल्प पाप कर्म वांधे, एम कबुं छे अने ठाणांगे ठाणे त्रीजे उद्देशे पहेले साधुने अमामुक आपतो अल्प आयुप वांधे. ए केम ? २५ ठागांगे ठाणे पांचमे उद्देशे वीजे पांच महा नदी उतरवी ना कही, अने वली वीजा लगता सूत्रमा हा कही. ए केम ? २६ वली त्यांज वर्षाकाले रह्या तेहने ग्रामानुग्राम विचरवं न कल्पे वली कथन छे जे पांच कारणे कल्पे. ए केम ? २७ दशकालिके तथा आचारांगे
विविधे त्रिविधे प्राणातिपात पञ्चक्खे तथा समवायांग दशाश्रुतस्कंधे नदी उतरवी कही ते ' मोकली राख्या विना उत्तरे. एकेमा २८ कल्पसूत्रमावर्षाकालमां निग्रंथने नवविगइ वारे
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दोडसो गायार्नु स्तवन
(१०१) वारे छेवी न कल्पे, एटले कोइक वेला लीए एम कथु छ; अने मूगडांगना वीजा श्रुत स्कंधमां अध्ययन वीजे साधुवर्णने कई जे न कल्पे ए केम ? २९ वर्षाकालमां निग्रंथने नव विगइ वारे वारे लेवी न कल्पे तेम कल्पसूत्रे का छे, तथा भगवतो सूत्रना शतक आठमे उद्देशे नवमे कुरमाहारे नारकीर्नु आयु वांधे? ए केम ? ३० दशवकालिके अध्ययन त्रीजे लुण प्रमुख अनाचीर्ण कयु, अने आचारांगमां द्वितीयश्रुतस्कंध अध्ययन पहेले उद्देशे दशमे लुण वहोर्य होय वो पोते वावरे, सांभोगिकने बहेंची आपे. एम का ए केम? ३१ भगवती सूत्रे शतक अढारमे नींव तीखो कह्यो अने उत्तराध्ययनना चोतरीशमे अध्ययने नींव कडवो कह्यो ए केम? ३२ आचारांगना द्वितीयश्रुतस्कंधे ईर्याध्ययनमा जाणतो थको कहे जे नथी जाणतो; तथा दशकालिके त्रिविधे मृषावाद वर्ने. ए केम ? ३३ समवायांगे त्रेवीश तीर्थकरने सूर्योदयकाले केवलज्ञान उपन्युं कईं छे ने दशाश्रुतस्कंधमां नेमिस्वामिने पाछले पहोरे केवलज्ञान उपन्यु. ए केम ? ३४ वली समवायांगे तेमज ज्ञातामा मलिनाथने दीक्षादिनने पाछले पहोरे केवलज्ञान उपन्यु कयु. ए केम? ३५ उत्तराध्ययन वारमे अध्ययने जक्षे ब्राह्मणने इण्या कयु छे ने उववाइमां दश भकारनुं वैयावच्च का तो हण्या तेहने वैयावच्च कयु. ए केम ? ३६ ज्ञातामां कडं जे मल्लिनाथे त्रणसें स्त्रीओ, त्रणसें पुरुषो तथा आठ ज्ञातकुमार-ए लेखे छसें आठ साथे दीक्षा लीधी, अने ठाणांगमां सातमे ठाणे तो पोते सातमा एटले छ पुरुष साथे दीक्षा लीधी एम कडं छे ए केमी ३७ ठाणांगमा कयूं जे छ मित्र साये दीक्षा लोधी, अने ज्ञावामां केवलज्ञान उपन्या पछी छ मित्रोए दीक्षा लीधी. ए केम ? ३८ उत्तराध्ययन सोलमे अध्ययने पशु पंडगरहित वसति सेवे तो ठाणांगे पांचमे स्थानके साध्वी भेला बसे कन्यु. ए केम ? ३९ सूयगडांग सूत्रमा द्वितीय श्रुतस्कंधे पांचमे अध्ययने कघु जे दानने प्रशंसे ते पाणी वृद्धिने पामे छे, तथा निषेध करे तो सामानी वृत्ति छेद थाय माटे न बोलवू, एम कई अने भगवतीना शतक आठमे उद्देशे छठे श्रमणोपासक असंजतने आपतो एकांते पापकर्म करे, पण निर्जरा कांइ नथी. ए लेखे मूलगी ना कही ए केम ? ४० जवुद्वीपपन्नतीमा योजन पांचसेंगें नंदनवन तेहमां हजार योजननो वलकूट पहोलो मूले छे. ए केम? ४१ एम समवायांगे गजदंता उपर हजार योजन पहोला तेमां हरि तथा हरिस्सहकूट केम समाया? ए केम ? ४२ जंबुद्वीपपन्नत्तीमां ऋपभकूट मूले आठ योजन विस्तारे कह्यो, आगल एमांन पाठांतरे वार योजन कहो. सर्वज्ञना भाष्यामा पाठांतर शो ? ए केम ? ४३ जंबुद्वीपपनतीमा भरतार्द्धनी जीवा नव हजार सातसे अडतालीश ने ओगणीमा पार भाग कही अने समवायांगे नवहजार कही. एटलो फेर केम ? ४४ समवायांगे विमयादिक चारनी स्थिति जघन्ये वत्रीश सागरोपम, उत्कृष्ट तेतरीश सागरोपम कही छे, अने पनवणाना चोथा पदे जघन्ये एकतरीश, अने उत्कृष्ट तेतरीश कही ए केम ? ४५ समवायांगे ऋपभदेवजीने तथा महावीरने एक कोडाकोडीनो आंतरो को तथा दशाश्रुतधमां ऋषभदेवजी काल करी गया पछी नेव्यासी पखवाडीयां गया पछी वेतालीस हजार वर्ष अधिक नेव्यासी पख
तस्यच तथास.
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११०२) महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. वाही ओछां एक कोडाकोडी सागरोपमे वीर मोक्षे गया ग केम ? ४६. मूयगडांग सूत्रमा कयु जे आधाकर्मी आहार करतो कर्मे छेपाय पण खरो, तथा न पण पाय. एएफ गाथामां वे वात. ए केम ? ४७ वली एडज भूत्रे कर्मे न लेपाय कई; अने भगवतीमांगतक पहेले उद्देशे नवये आधाकर्मी आहार करतो सात कर्म यांचे. शिथिल होय तो गाढ करे. इत्यादि ए केम? ४८ समवायांगे तेतरीश हजार योजन कांइक अणुं चक्षुस्पर्श मूर्य आवे एम कार्दा अने जंयुद्वीपपन्नतीमां वतरीश हजार एक योजन झाझरो च स्पर्श सूर्य आवे. एकम४९ समवायांगे मेरुनी तलेटी दशहजार योजन पहोली छे एम कय छ, अने जबुद्वीपपन्नतीमा दश हजार नेत्रु माझेरी कही छे. ए केम? ५० भगवती मृत्रना शतक आठमे उद्देशे दशमे जीवने शुद्गल कहीए तथा शुद्गली कहीए. एम कडा छ ए केम? ५. समवायांगे मेरुनां सोल नाम कायां छे, तेमा आठ, प्रियदर्शन फयु छे तथा चौदमुं उत्तर का छे, अने जंबुद्दीपपन्नतीमां सोल नाम छे तेमां आठमुं शिलोचन का छे अने चौदसु उत्तम का छे. ए केम ? ५२ पनवणामांओगणीशमै पदे छाम्धने अणाहारी उक्त
समय कहा छे, ने भगवतीमा उत्कृष्टा अणाहारीनावण समय कया छे. ए केम? ५३ एमज जीवाभिगमे वे समय,भगवतीए समय त्रण. ए केम ? ५४ समवायांगे श्रमण भगवान महावीरने बेतालीश वरस झाझरो साधुपर्याय कहो, अने पर्युपणाकल्पमा वेतालीश पूरी कयां. ए केम? ५५ जीवाभिगमे रुचकद्वीपथी असंख्यातु मान का अने जीवाभिगमने लेखे ठाण वमणां गणतां एक निखर्व चार अवज पंचाशी करोड छोतेर लाख मान आवे. वली त्रिमत्ययावतार गणे तो रुचकद्वीपर्नु मान ११००८२२३४७७७६००००० थाय; अने भगवती सूत्रमा शतक छठे उद्देशे सातमे तथा अनुयोगद्वारे एकसो चोराणु आंक ल. गे तो संख्यातु गण्युं, बली पालाने माने संख्यातु तो वेगलं रा; पछी असंख्यातु आवे तो रुचकद्वीप असंख्यातो केम थयो ? ५६ समवायांगे आडतरीशमे समवाए मेरुनो बीजो कांड आहतरीश हजार योजन उंचो को तथा सोलमे समवाये प्रथम कांड एकसठ हजार योजननो उंचो कह्यो; जंबुद्वीपपन्नतीमा हेठलो कांड एकहजार योजननो बाहुल्ये कछो छे मध्य कांड प्रेसठहजार योजननो वाहुल्य कह्यो, उपरलो कांड छत्रीसहजार जोजननो वाहुल्य कलो, एम सर्व पूर्व अपरे थइ एक लाख योजन वाहुल्य छे. ए लाख योजन बाहुल्यपणे जंबुद्वीपपत्रविमा कह्यो तेवारे वीजां नदीओ, पर्वत, अने सात क्षेत्र ए सर्व केम मायां ५७ तथा कहेशो के वाहुल्य ते उंचपणुं हशे तो पूर्व अपरनो शो अर्थी तथा उंचपj कहेता पण समवायांगे नवाणु हजार योजन वे भागे वहेच्यो तेहमां प्रथम एकशठ हजार अने वीजो आडत्रीस हजारनो करो. जंबुद्वीपपन्नवीमा कांदा सहित त्रणे भागे वहेच्यो; तेमां प्रथम एकहजारनो, बीजो प्रेसठहजारनो अने श्रीजो छत्रीशहजारनो. ए सर्व केम ? ५८ समवायांगे नंदनवन विष्कंभ नवहजार नवसे योजन कयं, अने जैबुद्वीप नतीमां नवहजार नवसे चोपन योजन झाझं कg.ए केम? ५९ प्रश्नयाकरणे तया समवायांगे भवनपति वीश, चंद्र सूर्य बे, अने सोधर्मादिक दश एव वत्रीश इंद्र कह्या, अने जबुद्वीपपन्नतीमा
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दोढसो गाथा स्तवन.
(१०३) ऋषभनिर्वाणे सौधर्मादिक दश, भवनपति वीश, व्यंतर सोल, अने चंद्र सूर्य बे-एवं अडनालीश इंद्र कह्या. ए केम ? ६० ठाणांगे ठाणे बीजे इंद्र चोसठ कहा. ए केम ? ६१ उ. ववाइमां जघन्यथी सात हाथनी कायावाला मोक्षे जाय; वली कई जे जघन्यथी वत्रीश अंगुल सिद्धनी अवगाहना होय. ए लेखे वे हाथनी जघन्य थई. ए केम ? ६२ भगवती सूत्रना शतक चउदमाना उद्देशे आठमे सिद्धशिलाथी अलोक देशे उणु योजन कयु, अने उववाइमां संपूर्ण योजन कयु ए केम ? ६३ समवायांगे छहा नरकना मध्यभागथी छठा घनोदपिनो चरमान ओगणाएसीहजार योजन कह्यो जीवाभिगमे पृथ्वी उपरना घनोदपिनो चरमांत एक लाख छत्रीश हजार योजन अंतर कहो. तो जीवाभिगमे एक लाख छत्रीश इजारनुं अर्थ करतां अडसठ हजार योजन थाय. ए केम ? ६४ समवायांगे अठाशुमे समवाये रेवती नक्षत्रथी जेष्ठा लगी ओगणीश नक्षत्रना तारा अहाणुं छे; अने समवायांगमांज भिन्न भिन्न भेला करतां सचाणु थाय छे. ते एम के रेवती नक्षत्रना वत्रीश, अन्धनीना त्रण, भरणीना त्रण, कृत्तिकाना छ, रोहिणीना पांच, मृगशिरना त्रण, आद्रांनो एक, पुनर्वमुना पांच, पुण्यना त्रण, अश्लेषाना छ, मघाना सात, पूर्वाफाल्गुनीना बे, उत्तराफाल्गुनीना वे, हस्तना पांच, चित्रानो एक, स्वातिनो एक, विशाखाना पांच, अनुराधाना चार, अने जेष्ठाना त्रण, एवं सत्ताणु ए केम? ६५ पत्रवणामां पंदरमें पदे घाणेद्रियनो नव योजननो उत्कृष्टो विषय कयो, अने रायपसेणीमा चारसें तथा पांच सेंनो करो. ए फेम ? ६६ भगवती शतक छठे उद्देशे सातमें पल्योपमनुं मान का, तेम अनुयोगद्वारे पण कधू पण भगवतीमां असंख्याता खंडविना कुओभरचो. तेणे करी आरानां मान कयां. समयोजन कयुं अने अनुयोगद्वारे भगवतीउक्त ने निःप्रयोजन का सूक्ष्म अद्धापल्योपम समयोजन कछु तेणे नारकी प्रमुखना आयु मविए. इत्यादिक घणी वातो छे. ए केम? ६७ पनवणामां तेत्रीशमे पदे असुरकुमारनी जघन्यथो पोश योजन अवधि तथा धर्मादिक जघन्य अंगुलनो असंख्यातमो भाग कहो ए केम? ६८ पनवणा सूत्रमा बादर तेउकाय मनुष्य क्षेत्रमा होय तो उत्तराध्ययन ओगणीशमे अध्ययने नरकमां अनिकाय को ए केम ? ६९ वली उत्तराध्ययनना वावीशमा अध्ययनमा शौरीपुरमा धुरे श्री नेमिनाथ कहा, दीक्षा लेतां द्वारिकानगरीमाथी नीकल्या; तथा रामकृष्ण वंदना करी द्वारिकामांगया. तो शौरीपुर पूर्वमा अने द्वारिका पश्चिममां-ए केम? ७० ठाणांगे ठाणे सातमे अवीतउत्सर्पिणीमां आ भरतने विषे सात कुलगर थया, वली ठाणे दशमे कयु के दश कुलगर थया. ए केमो ७१ वली एमज आवती उत्सर्पिणीमा सातमे ठाणे कडा के सात थशे. अने दशमे ठाणे कयु के दश थशे. ए केम ? ७२ जीवाभिगमे सौधर्म ईशान देवलोक वरावर रह्या छे अने भगवती सूत्रना एकत्रीसमा शतके सौधर्म थकी ईशान देवलोक लगारेक उं. चुं छे ए केम ? ७३ भगवती सूत्रमा शतक बीजे उद्देशे वीजे असुरकुमारनो तीच्छर्योगति विषय, असंख्यावा हीपसमुद्रनो कह्यो. नंदीसर लगे गया अने जशे एम क' तथा शतक वीजे उद्देशे सातमे चमरानी सुधर्म सभाने विषे पुछयुं त्यां कडं जे मेरु पर्वतथी दक्षि
तस्यच त ।...
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( १०२ )
महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत.
astri ओछां एक कोडाकोडी सागरोपमे वीर मोक्षे गया ए केम ? ४६. सूयगडांग सूत्रमां करूं जे आषाकर्मी आहार करतो कर्मै लेपाय पण खरो, तथा न पण लेपाय. एएक गाथामां वे बात. ए केम ? ४७ बली एहज सूत्रे कर्मे न लेपाय कहुँ; अने भगवतीमां गतक पहेले उद्देशे नवमे आघाकर्मी आहार करतो सात कर्म बांधे. शिथिल होय तो गाढ करे. इत्यादि ए केम ? ४८ समवायांगे तेतरीश हजार योजन कांइक ऊर्णु चक्षुस्पर्शे सूर्य आवे एम कहुं भने जंबुद्वीपपन्नतीमां वतरीश हजार एक योजन झाझेरो चक्षुस्पर्शे सूर्य आ. ए कम ? ४९ समवायांगे मेरुनी तलेटी दशहजार योजन पहोली छे एम कहूं छे, अने जबुद्वीपपन्नतीमा दश हजार नेषु झाझेरी कहीं छे. ए केम ? ५० भगवती सूत्रनाशतक आठमे उद्देशे दशमे जीवने पुद्गल कहीए तथा पुद्गली कहीए. एम कहां छे ए केम ? ५९ समवायांगे मेरुनां सोल नाम कहां छे, तेमां आठ प्रियदर्शन कहुं छे तथा चौद उत्तर कथं छे, अने जंबुद्वीपपन्नतीमां सोल नाम छे तेमां मठमुं शिलोचन कलु छे अने चौद उत्तम कं छे. एकेम ? ५२ पद्मवणामां ओगणीशमे पदे छद्मस्थने अणाहारी उत्कृ
वे समय कला छे, ने भगवतीमां उत्कृष्टा अणाहारीना त्रण समय कह्या छे. ए केम ? ५३ एम जीवाभिगमे वे समय, भगवतीए समय त्रण. ए केम ? ५४ समवायांगे श्रमण भगवान महावीरने बेतालीश वरस झाशेरो साधुपर्याय कह्यो, अने पर्युषणाकल्पमां बेतालीश पूरां कह्यां. ए क्रेम ? ५५ जीवाभिगमे रुचकद्वीपथी असंख्यातु मान कहुं अने जीवाभिगमने लेखे ठाण चमणां गणतां एक निखर्व चार अवज पंचाशी करोड छोतेर लाख मान आवे. वली त्रिप्रत्ययावतार गणे तो रुचकद्वीपनुं मान ११००८२२३४७७७६००००० थाप अने भगवती सूत्रां शतक छठे उद्देशे सातमे तथा अनुयोगद्वारे एकसो चोराणु आंक लगे तो संख्यातु गभ्युं, वली पालाने माने संख्यातु तो वेगलं रधुं पछी असंख्यातु आवे तो रुचकद्वीप असंख्यातो केम थयो ? ५६ समवायांगे आडतरीशमे समवाए मेरुनो वीजो कांड आडतरीश हजार योजन उंचो कह्यो; तथा सोलमे समवाये प्रथम कांड एकसठ हजार योजननो उंचो कह्यो; जंबुद्वीपपन्नतीमां हेठलो कांड एकहजार योजननो बाहुल्ये कह्यो छे; मध्य कांड त्रेसठहजार योजननो बाहुल्य कह्यो, उपरलो कांड छत्रीसहजार नोजननो बाहुल्य कह्यो, एम सर्व पूर्व अपरे थइ एक लाख योजन बाहुल्य छे. ए लाख योजन बाहुल्यपणे जंबुद्वीपपन्नतिमां को वारे वीजां नदीओ, पर्वत, अने सात क्षेत्र ए सर्व केम मार्या ? ५७ तथा कहेशो के बाहुल्य ते उंचपणं हशे तो पूर्व अपरनो शो अर्थ ? तथा उंचपणुं कहेतां पण समवायांगे नव्वाणु हजार योजन वे भागे व्हेंच्यो तेहमां प्रथम एकशठ हजार अने चीजो आडत्रीस हजारनो काो. जंबुद्वीपपन्नतीमां कांदा सहित त्रणे भागे बर्हेच्यो; मां प्रथम एकहजारनो, बीजो त्रेसठहजारनो भने त्रीजो छत्रीशहजारनो. ए सर्व केम ? ५८ समवायांगे नंदनवननुं विष्कंभ नवहजार नवसे योजननुं कां, अने जंबुद्वीप (नतीमां नवहजार नवसे चोपन योजन आशुं कहुँ. ए केम ? ५९ प्रश्नध्याकरणे तथा समवायांगे भवनपति वीश, चंद्र सूर्य वे, अने सोधर्मादिक दश एव वत्रीश इंद्र कथा, अने जंबुद्वीपपन्नतीमां
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दोढसो गाथार्नु स्तवन
(१०३) ऋषभनिर्वाणे सौधर्मादिक दश, भवनपति वीश, व्यतर सोल, अने चंद्र सूर्य बे-एवं अडनालीश इंद्र कहा. ए केम ? ६० ठाणांगे ठाणे वीजे इंद्र चोसठ कह्या. ए केम ? ६१ उ. ववाइमां जघन्यथी सात हाथनी कायावाला मोक्षे जाय; वली कई जे जघन्पथी वत्रीश अंगुल सिद्धनी अवगाहना होय. ए लेखे ये हाथनी जघन्य थई. ए केम ? ६२ भगवती सूत्रना शतक चउदमाना उद्देशे आठमे सिद्धशिलाथी अलोक देशे उणु योजन का, अने उपवाइमां संपूर्ण योजन कथु ए केम ? ६३ समवायांगे छठा नरकना मध्यभागथी छठा घनोदधिनो चरमांन ओगणाएसीहजार योजन करो जीवाभिगमे पृथ्वी उपरना घनोदपिनो चरमांत एक लाख छत्रीश हजार योजन अंतर कहो. तो जीवाभिगमे एक लाख छत्रीश हजारनुं अर्थ करतां अहसठ हजार योजन थाय. ए केम ? ६४ समवायांगे अहाशुमे समवाये रेवती नक्षत्रथी जेष्ठा लगी ओगणीश नक्षत्रना तारा अठाणुं छेअने समवायांगमाज भिन्न भिन्न भेला करतां सत्ताणु थाय छे. ते एम के रेवती नक्षत्रना वत्रीश, अश्वनीना त्रण, भरणीना त्रण, कृत्तिकाना छ, रोहिणीना पांच, मृगशिरना अण, आर्द्रानो एक, पुनर्वगुना पांच, पुण्यना त्रण, अश्लेषाना छ, मघाना सात, पूर्वाफाल्गुनीना बे, उत्तराफाल्गुनीना वे, हस्तना पांच, चित्रानो एक, स्वातिनो एक, विशाखाना पांच, अनु. राधाना चार, अने जेष्ठाना त्रण, एवं सत्ताणु ए केम ? ६५ पनवणामां पंदरमें पदे घ्राणेद्रियनो नव योजननो उत्कृष्टो विषय कयो, अने रायपसेणीमां चारसे तथा पांचसेंनो कह्यो. ए केम ? ६६ भगवती शतक छठे उद्देशे सातमें पल्योपमर्नु मान कडं, तेम अनुयोगद्वारे पण काय; पण भगवतीमां असंख्याता खंडविना कुओभरचो. तेणे करी आरानां मान कयां. समयोजन को अने अनुयोगद्वारे भगवतीउक्त ने निःप्रयोजन का सूक्ष्म अद्धापल्योपम समयोजन कड्डु तेणे नारकी प्रमुखना आयु मविए. इत्यादिक घणी वातो छे. ए केम? ६७ पन्नवणामां तेत्रीशमे पदे असुरकुमारनी जघन्यथो पोश योजन अवधि तथा स.धर्मादिक जघन्य अंगुलनो असंख्यातमो भाग कह्यो ए केम? ६८ पनवणा सूत्रमा वावर देउकाय मनुष्य क्षेत्रमा होय तो उत्तराध्ययन ओगणीशमे अध्ययने नरकमा अनिकाय को ए केम? ६९ वली उत्तराध्ययनना वावीशमा अध्ययनमां शोरीपुरमा धुरे श्री नेमिनाथ कह्या दीक्षा लेता द्वारिकानगरीमाथी नीकल्या, तथा रामकृष्ण वंदना करी द्वारिकामां गया. तो शौरीपुर पूर्वमा अने द्वारिका पश्चिममां-ए केम? ७० ठाणांगे ठाणे सातमे अतीतउत्सर्पिणीमां आ भरतने विषे सात कुलगर थया, वली ठाणे दशमे कधु के दश कुलगर थया. ए केम? ७१ वली एमज आवती उत्सर्पिणीमा सातमे ठाणे कहीं के सात थशे. अने दशमे ठाणे कडं के दश थशे. ए केम ? ७२ जीवाभिगमे सौधर्म ईशान देवलोक वरावर रह्या छे अने भगवती सूत्रना एकत्रीसमा शतके सौधर्म थकी ईशान देवलोक लगारेक उं. चुं छे ए केम ? ७३ भगवती सूत्रमा शतक त्रीने उद्देशे वीजे असुरकुमारनो तीच्छयोंगति विषय, असंख्याता द्वीपसमुद्रनो कबो. नंदीसर लगे गया अने जो एम कई तथा शत. कवीने उद्देशे सातमे चमरानी सुधर्म सभाने विषे पुछयु त्यां कईं जे मेरु पर्वतथी दक्षि
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(१०४) महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. ण दिशा तीया असंख्याता द्वीपसमुद्र ओलंघीए त्यां अरुणवर द्वीपनी वाहेरनी वेदिकाथी अरुणवर समुद्र बेतालीश हजार योजने तिगिच्छकूड नामे उत्पात पर्वत आवे. इत्यादिएमां असंख्याता द्वीपसमुद्र उल्लंघी अहींयां आवे ए केम ? ७४ श्री भगवती भूत्रना शतक पहेले उद्देशे वीजे सम्यकदृष्टि नारकीने महावेदना कही. अने भगवती सूत्रना शतक अढारमे उद्देशे पांचमे समकिती नारकोने अल्पवेदना कही. ए केम ? ७५ अंतगडे कृप्णने नेमिनाथे वारमो अमम नामे तीर्थकर थइश एम कछु, अने समवायांगने विषे चोवीश तीथकरना पूर्व भवनां चोवीश नाम कयां तेमां श्रेणिक १, सुपार्थ २, उदय ३, इत्यादिक गणनाए कृष्ण वासुदेव तेरमा कह्या. ते केम ? ७६ भगवतीना शतक आठमे उद्देशे नवमे पंचेंद्रिय तिथेच मनुष्यने विकुर्वणा काल अंतमुहूर्त्तनो कयो, अने जीवाभिगमे चार मुहूर्त कह्या ए केम ? ७७ भगवती सूत्रना शतक आठमे उद्देशे दशमे जघन्य ज्ञान दर्शन चारिअनी आराधना वालो त्रीने भवे मोक्षे जाय. सात आठ भव तो न उल्लंघे. तथा शतक वारमे उद्देशे नवमे नरदेवनो आंतरो जघन्यथी सागरोपम झाझेरो, उत्कृष्टो अपार्दपुहलपरावर्त होय, नरदेवपणुं तो सम्यगदृष्टि चारित्रिया नीपजावे. ए केम ? ७८ भगवती मूत्रना शतकपांचमे उद्देशे चोये ऊंघतो थको सात आठ कर्ग वांधे, उत्तराध्ययनना अध्ययन छब्बीशमे त्रीजे पहोरे रात्रे निद्रा करे. ए केम ? ७९ उत्तराध्ययनना ओगणीशमा अध्ययने का जे, मांस पोताना शरीरमांथी नरकमा खवराव्या. जीवाभिगममां असंघयणी कया तो संघयणविना मांस क्याथी ? ए केम? ८० पनवणामां बीजे पदे-" दिग्वेणं संघयणेणं " एम कयु अने जीवाभिगमे देवता असंघयणी कह्या. ए केम ? ८१ भगवती सूत्रना शतक पांचमे उद्देशे आठमे समूर्छिम मनुष्यने अहवालीश मुहूर्त अवस्थित काल कह्यो; अने पनवणामां चोवीश मुहूर्तनो उत्कृष्टो विरह कह्यो. एटले कोइ ऊपजे पण नहीं,अने कोइ चवे पण नहीं, अने भगवतीने लेखे चोवीश मुहूर्त लगे ऊपजे एटला चवे; एम अवस्थिति का ल कह्यो, ते अंतर्मुहुर्त आउपावालाने केम घटे ? ८२ भगवती तथा समवायांगे शक्रस्तपना पाठमां फेर केम? ८३ ठाणांगमां त्रीजे ठाणे उद्देशे पहेले पांच देवलोके त्रण वर्ण कहा. कृष्ण, नील, अने रक्त. जीवामिगमे लोहित, पीत अने शुक्ल ए केम ? ८४ पनवणामां प्रथम पदे पुद्गलना भेद पांचसें त्रीश थाय छे उत्तराध्ययनमा चारसें व्यासी भेद थाय छे. ए केम ! ८५ प्रज्ञापनामां वीशमे पदे किल्विपिसा जघन्ययी सौधर्म अने उत्कृष्ट लांतके जाय. भगवतीमा किल्विपिया जघन्यथी भवनपति, उत्कृष्टा लांतके जाय. ए केम ? ८६ कल्पसूत्रमा सहरतां वीर प्रभु न जाणे, अने आचारांगमां कवू संहरता जाणे, ए केम ? ८७ आचारांगे कडं जे प्रथम देवताने धर्म कही पछी मनुष्यने कहे, अने ठाणांगमा दश अच्छेरामां अभाविया परिसा. ते शृं? ८८:उववाइमां शुभ मन वचन काया उदेरवां कमां अने भगवतीमा एजतो-कंपतो हिंसा करे कमु ए केम ? ८२ उपासकदशांग मध्ये पाणद श्रावके भगवंतने कयु जे ई पारव्रत उचरीश; एम करीने सातवत पचरयां वली
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दोसो गाथाई स्ववन. अतीचार वारे व्रतना कह्या. ए केम ? ९० इत्यादिक केटला लख्यां जाय. ए सर्व टीका नियुक्ति चूर्णि विना केवल सूत्रे मेलवी आपोतो तमे रांक सरखा शु मेलवी जाणो? कोइ पाठांतर, कोइ अपेक्षा, कोइ उत्सर्ग, कोइ अपवाद, कोइ नये, कोइ विधिवाद, कोइ चरितानुवाद प्रमुख सूत्रना गंभीर आशय समुद्र सरखी बुद्धिना धणी टीकाकार प्रमुख जाणे. ते टीका प्रमुख तो तमे एक प्रतिमा द्वेषे सर्व उथाप्यां. ए प्रसंगे सरयु.॥ १६ ॥
हवे सूत्र अनुसरीए छैए. पूर्वे भगवतीनी साखे त्रण प्रकारनो अनुयोग कह्यो इतो. वली नियुक्तिना अक्षर देखाडे छे. गाथा कहे छे.
सूत्र निजुत्तिरे बेऊ भेदे कहे ॥त्री अनुयोगहार ।। कूडा कपटीरे जे माने नहीं ॥ तेहने कवण आधार ॥ स० ॥१७॥
अर्थ-मूत्र तथा नियुक्ति-ए घेऊभेदे त्रीजो अनुयोग के. जीजा अनुयोग द्वारमो कहे छे. एटले ए भाव जे श्रीअनुयोगद्वार सूत्रने विषे चार अनुयोगद्वार कया छे. उपक्रम. १, निक्षेप २, अनुगम. ३, अने नय. ४, तेमां त्रीजु अनुगम नाम अनुयोग द्वार. तेहमां सूत्रानुगम, तथा नियुक्ति अनुंगम ए वे प्रकारनो अनुगम कह्यो छे. वथा च वसूत्र-"अनुगमे दुविहे पन्नत्ते तं जहा-सुत्ताणुगमे अणिजुत्तिअणुगमे य ॥" एनो अर्थ तो पूर्वे आवी गयो छे. वली नियुक्ति अनुगम त्रण प्रकारे कह्यो छे. तेमज निक्षेप नियुक्ति अनुगम १ सूत्र स्पर्शिक नियुक्ति अनुगम २, उपोद्घात नियुक्ति अनुगम. ३ तेमा उपोद्घात नियुक्ति अनुगम २ मूल गाथाए कसो छ.-"उद्देसे निदेसे, निग्गामे खेत्तकालपुरिसे अ । कारण पञ्चयलक्खणणए समोयारणाणुमए ॥ १॥ किं कइविह कस्स कहिं, केस कह केचिरं हवइ कालं || कइ संतरमविरहियं, भवागरिसफासणनिरुत्ति ॥२॥" व्याख्या. उद्देशे के० सामान्य नाममात्र कहीशं. जेम अध्ययन ए, नाम । निदेशे के० विशेषे कहे जेम सामायक अध्ययन. २ तथा निग्गामे के० निर्गम कहेवो. यथा सामायक क्याथी नीकल्यु ? ३. तथा क्षेत्र कहेवू. ४ तथा काल कहेवो.५ यथा सामायिक कोण क्षेत्र कोण काले नीकल्यं ? ६ महासेन वनमा वैशाख शुद ११ ने दिने पहेले पहोरे,तथा पुरिसे अके०कोण पुरुपथी नीकल्यु ? ते कहे. तथा कारण केन्शा कारणे गौतमादिक भगवंत पासे सामायक सांभले छे? ते कहे. तथा पञ्चय के० प्रत्यय कहेवो. श्ये प्रत्यये भगवते कयं ? तथा गौतमादिके सांभल्यु ? जेम केवलज्ञानी हुँ माटे कहुंछु. गणधरजीने पण प्रत्यय सर्वज्ञनो थयो माटे सांमले छे. ८ तथा लरकण के० लक्षण कहे. यथा समकित सामायिके श्रद्धा करे, ए लक्षण. श्रुत सामायिके जाणे, ए लक्षण. देशविरती सामायिके देशथी त्याग याय. सर्व विरती सामायिके सर्वथी त्याग करे. इत्यादिक लक्षण ९ नए के नय कहेवा. १० तथा समोयारणा के० समवतार कहेवो. अनुयोग भेला हता तेवारे समवतार हता. आयंरक्षितजीए अनुयोग मिल करचा पछी समवतार नथी.,११ अणुमए के० कोणने कोण सामायिक अनुमत छे ? १२ इति प्रथमगाथार्य ।। १॥ किं के० सामायिक ते शु? ते
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(१०६) श्री महामहोपाध्याय यशोविजयनी कृत. कहे. तथा द्रव्यार्थिकनये जीवगुण प्रतिपन्न ते सामायिक १३ कइविई के केटला प्रकारखं सामायिक ? यथा त्रण प्रकारे. समकित सामायिक १ श्रुत सामायिक २, चारित्र सामायिक ३, इत्यादिक कहेवू १४. कस्स के० कोण पुरुषने सामायिक होय ? तेहनो उत्तर कहे छे. जेहने आत्मा समता भावे परिणम्यो तेहने सामायिक. १५ फर्हि के० कोने विषे सामायिक, वेहमा तो क्षेत्र दिशि प्रमुख घणां द्वार कह्यां छे. १६ केसं के० कोण सामायिक द्रव्यपर्यायने कहिए? १७ कहं के० केम सामायिक पामोए ? त्यां मनुष्य क्षेत्र, जावि कुल इत्यादिक विस्तार घणो छे. १८ केचिरं हवइ कालं के कोण सामायिक केटलो काल रहे ? ते कहे. १९ कइ के० केटला जीव कोणसामायिकना समकाले नवा पामता तथा पूर्व मविपन्न पामे ? ते कहे. २० संतर के० ए त्रण सामायिकनुं अंतर कहे जे फरी पामे तो केहुं सामायिक केटले काले पामे ते कहे ? २१ अविरहियं के० एत्रण सामायिक संवत रहेको केहुं सामायिक केटला काल लगे रहे ? ते कहे. २२ भव के. केटला भवमा उत्कृष्ट केहुं सामायिक आवे? ते कहे. २३ आगरिस के० आकर्ष-एक भवमा कोण सामायिक केटली वार आवे अने जायी तथा नाना भवमां कोण सामायिक केटली वार आवे अने जाय? ते कहे. फासणा के० कोण सामायिकवंत केटल क्षेत्र फरसे ? कहे. २५ निरुचि के निरुक्ति कहेवी. यथा सम्यग्दृष्टि कहीए, अमोह कहीए. जेम शोषी, सद्भाव, दर्शनबोधि, अविपर्याय अने सुदृष्टि ए समकितनी निरुक्ति. एम चारित्रनी निरुक्ति पण कहेवी. २६ ए वेउ मूल गाथा अनुयोगद्वारमध्ये छे. तेहनो संक्षेप अर्थ कहो. एहना उत्तर सर्वे विस्तारार्थ वो आवश्यक नियुक्ति तथा टीका तथा विशेषावश्यक थकी जाणवो. पण नियुक्ति तथा टीका तथा भाष्य न माने तेहने ए वे गाथाना अर्थन ठेकाणु कीयु ? ए वे गाथाए नियुक्ति मानवी कवुल थइज छे. मूर्ख लोक कदाग्रहे न माने तो शुं थयु? पण मध्यस्थने तरत नजरमां आवे. ते माटे नियुक्ति न माने तो सर्व सूत्र न मान्या. सूत्रनो अनुयोग नियुक्तिने हाथे छे. कूडा के० ते कुति, कूडा छे, जूठा. जे माटे सर्व सूत्रना पाठमां वांकु बोले छे. कपटी के० मायावो छे. जे माटे टीका प्रमुखने जोइने सूत्रना अर्थ वैध वेसारे, अने पूछीए वे वारे कद्देशे जे अमे टीका प्रमुख न मानीए. इत्यादिक कपटना करणहार छे. जे माने नहीं के एवा जे कूडा कपटी नियुक्ति प्रमुख न माने, तेहने कवण आधार के० ते पाणीने संसार समुद्रमा पडतां कोण आधार थाशे ? कोई नहीं थाय. इति भाव. इति सप्तदशमी गायार्थ ॥ १७ ॥ बली नियुक्तिना पाठ देखाडे छे. बद्ध ते सूत्ररे अर्थ निकाचिया । निजुत्तिए अपार ॥ उपधिमांन गणणादिक किहां लहे ॥ ते विणुमार्ग विचार ॥स०॥१८||
अर्थ-बद्ध के० वांध्यां ते सूत्र जाणवा. अर्थ के० अर्थ, निकाचिमा के निकाच्या, ते निचिए के० नियुक्तिने विषे, अपार के० घणा अर्थ-एटले ए भाव जे नंदी सूत्रने
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दाढसो गाथाचं स्तवन.
(१०७) विषे ॥"णिवद्धणिकायया जिणपन्नत्ता भावा"। एवं सूत्र छे. तेहमां णिषद्ध के सूत्रे गुंथ्या जे, भाव के० अर्थ तथा, णिकायया के० ते अर्थ निकाच्या ते नियुक्तिने विषे ए अर्थ छे तो नियुक्ति केमन माने? वली ।। 'असंखिज्झाओ निज्जुतिओं' एहवा समवायांग प्रमुखमा पाठ ठाम ठाम छे. उपधिमान गणणादिक के० उपधिनुं प्रमाण, तथा गणती इत्यादिक, किहां लहे के० क्यां पामे ? विणु मार्ग विचार के० नियुक्ति विना जिनशासनना मानो विचार, एटले ए भाव जे नियुक्ति विना उपधिमान ते एवडा महोटा पहोला ते क्या पागीए? तथा गणतीए केटलां राखवां ? इत्यादिक घणी वातो मार्गनीछे ते सर्व नियुक्ति विना न लामे. इति. एटले एवं देखाइयु जे, लांवा लांवा रजोहरण राखे छे, तथा मुगटी पहेरे छे, इत्यादिक कीआ सूत्र उपर करे छे ? मुखे मुहपत्ति बांधी मार्गमां हीडे छे ते कीआ सूत्र उपर वांधे छे? उलटुं सिद्धांतमां तो न बांधवी जणाय छे. जे माटे श्री गौतमजी मृगा पुत्रने जोवा गया ते वारे राणीए कह्यु के मुख वांधो. जो वांध्यु होय तो बांधो एम | करवा कहे ? वली मूल्ने पूछीए छैए जे नाक उघाई राखो छो तेमां वायुकायनो घात याय छे.ते वारे कहे छे जे दशवकालिके ॥ मूहेण वा ।। एवो पाठ छे. आपण नक्केण वा ।। एहयो पाठ नथी. ते माटे मुखने वायरे वायुकाय हणाय पण नाकने वायरे न हणाय. एम कहे छे तेने कहीए जे, मुख का तेमां नाक आवी गयु. नहींतर मृगाराणीए कायु जे मुख वांधो; तेवारे नाक वांधो कां न कहुं ? काम तो नाशिकानुंछे. दुर्गंध आवे माटे कछु छे. ते माटे दशवकालिक मध्ये पण मुख कहेतां नाशिका आवी गइ जाणवी. हवे ते कुमविने नियुक्तिनो जवाब देवा ठेकाणु रह्य नहीं; ते वारे बुडतो फेणना वाचका भरे ए न्याये वोल्यो के नियुक्ति मानुं तो खरी. सूत्रमा कही ते ना केम कहेवाय ? पण ते वि. च्छेद गइ एम कहे छे ॥ १८ ॥ तेहने उत्तर वालवा गाथा कहे छे.
जो नियुक्ति गइ कुमति कहे ॥ सूत्र गयां नहीं केम || जेह वाचनाए आव्यु ते सवे ।। माने तो होए खेम ॥स०॥१९॥
अर्थ-जो नियुक्ति गइ एम कुमति कहे छे तेहने उत्तर कहे छे, तो सूत्र गयां नहि केम के० ते वारे सूत्र गयां कम न कहे ? जे माटे ठाणांगसूत्रमा अंतगड सूत्र तथा अनुत्तरोववाइ तथा प्रश्नव्याकरण-ए रणना अध्ययन कयां छे. ते हमणांनी वाचनाए नयी जणाता. वली श्री समवायांगसूत्रमा प्रश्नव्याकरणनी हुंडी कही छे तेमांचं प्रश्नव्याकरण मध्ये आज कांइ नथी. ते माटे जेह वाचनाए आन्यु के०जे पुस्तकारूढ वाचनाए जे गुरु परंपराए आव्या सूत्र, ते मानीए तो नियुक्ति पहेला मानीए. चारित्र क्रियाना सर्व विशेष भाव नियुक्ति मध्ये छे, ते माटे वाचनाए आव्यु ते मानीए तो खेम के. कुशल वर्ते. एटले आत्माने हित याय ॥ १९ ॥
ए रीते शास्त्र वाते समजाच्या जाण पुरुष होशे ते समजशे; बाकी तो जेहबु थाय • रोहवू कहे के.
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(१०८) महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत.
आंधा आगल दरपण दाखवो ॥ बहेरा आगल गीत ॥ मूरख आगेरे कहेवु युक्तिनुं । ए सवि एकज रीत ॥ स० ॥२०॥
अर्थ-आंघलाना मुख आगल दर्पण देखाई, 'वहेराना मुख आगल गीत गान कर अने मूर्खना आगल युक्ति कहीने समजाव. ए सर्व एकज रीति जाणवी ॥ २० ॥
मारग अरथीरे पण जे जीवछे ॥जद्रक अतिहि विनीत ॥ तेहने ए हितशीख सोहामणी। वली जे सुनय अधीत ॥ स०॥२१॥ ___ अर्थ-पण जे मार्गना अर्थी लोक छे.एटले जे लोक जाणे छे ने शुद्ध मार्ग समजीए. घलो जे लोक भद्रक छे एटले कुवासनाए वासित नथी, वली अति विनीत छे, तेहने 'ए सोहामणी के० मनोहर हितशिक्षा छे. वली जे सुनय के० भले नये करी भण्या छ एटले भद्रक अथवा समजु छे तेहने माटे कहुं छे पण अर्द्धदग्धने मारे नयी कयु ॥ इति गाथार्थ
प्रवचनसाखेरे एम एभाषिया । विगते अरथ विचार॥ तुज आगमनीरे अहिए परंपरा ।। लहिए जग जयकार || स०॥२२॥
अर्थ-प्रवचन के सिद्धांत साखे एम भाण्या, विगते के० प्रगटपणे अर्थना विचार, चमारी आगमनी परंपराए ग्रहीए, तो जगतने विषे जयकार पामीए ॥ २२ ॥ गुण तुज सघसारे प्रभु कोण गणी शके ॥ आणा गुण लव एक॥ एम में धुणारे समकित दृढ करयुं ।राखी आगम टेक ॥स०॥२३॥ __ अर्थ-हे म! तमारा सपला गुणो कोण माणी गणी शके? अनंताछे माटे न गणाय' पण तमारी आणा कबुल करवी, वढूप जे गुण-तेहनो जे लेश, ते स्तवतां थकां में समकित रद्ध कयु. एटले कदापि काले चलु नहीं. एम करीने आगमनी टेक राखी ।। इति गाथार्थ ॥२३॥
आणा ताहरीरे जो में शिरधरी ॥तो शुं कुमतिनुं जोर ।। तिहां नवि पसरे रे बल विषधरतj ॥ किंगारे ज्यहां मोर ॥सा२४।।
अर्थ-तमारी आना जो में मस्तके धरी तो कुमति कदाग्रहीतुं शुंजोर चाले? वे दृष्टांते वृद्ध करे छे त्या विषधर जे सर्प-तेनुं पल विस्तार न पामे के ज्यां मोर किंगारे के. केकारे शब्द करे ॥ इति गाथार्थ ॥ २४ ॥
पवित्र करीजेरे जीहा तुज गुणे | शिर धरीए तुज ओण || दिलथी कहीएरे प्रभुन विसारीए ।लहीए सुजशकल्याण || स०॥२५॥
अर्थ-तमारा गुण गाइने जिव्हा पवित्र करीए अने मस्तके तमारी आज्ञा घरीए.
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दोढसो गायानुं स्तवन. ( १०९ ) एटले आज्ञाए मस्तक पवित्र करे. दिलथी प्रभुने कदीए विसारीए नहीं. ए रीते हृदय पवित्र करीए. एम करतां सुजन कल्याण पामीए एटले भला यशरूप कल्याण पामीए. एमां कर्ताए पोतानुं जशोविजय एवं जे नाम-ते पण सूचव्यं ॥ २५ ॥
कलश ॥ राग धनाश्री ॥
वर्त्तमान शासननो स्वामी || चामीकरसम देहोजी || वीरजिनेश्वर में एम थुपिओ || मन धरी धर्म सनेहोजी ! एह तवन जे भणशे गणशे ॥ तस घर मंगलमालाजी ॥ समकितभाण होशे घट तेहने || परगट झाक झमालाजी ॥ १ ॥
अर्थ- वर्तमान शासनना धणी श्री वीरस्वामी, चामीकर के० सोना सरखी जेमनी काया छे एवा श्री वीरस्वामी, जिनेश्वर के० सामान्य केवलीमां ईश्वर एटले तीर्थकर मते स्तव्यो मनमां धर्मस्नेह आणी. भक्ति माटे एक वचन छे. ए स्तवन जे प्राणी भणशे भणीने गणशे; तेहने घरमां मंगलीकनी माला थशे. तेहना घटने विषे प्रगटपणे झाकअमाल करतो थको सम्यकूलरूप सूर्य प्रगट थाशे ॥ १ ॥
अरथ एहना छे अति सूक्षम ॥ ते धारो गुरु पामेजी ॥
गुरुनी सेवा करतां लहीए || अनुभव निज अभ्यासेजी ॥ जेह वहुश्रुत गुरु गीतारथ || आगमना अनुसारीजी ॥ तेहने पूछी संशय टालो ॥ ए हितशिख छे सारीजी ॥ २ ॥
अर्थ - एहना अर्थ घणा सूक्ष्म छे. ते गुरु पासे आम्नाय धारी जोज्यो. गुरुनी सेवा करतां पामीए. भुं पामीए ? ते कहे छे. अनुभव पामीए. भुं करतां ? ते कहे छे. ए तव - ननो नित्य अभ्यास करतां. जे बहुश्रुत होय, गीतार्थ होय आगमना अनुसारी होय, एटले पापभीरू, सत्यभाषी होय, तेहने पूछी संशय टालो. ए अमारी रूडी हितशिक्षा छे. इति गाथा ॥ २ ॥
इंदलपुरमा रहिय चोमासुं ॥ धर्म ध्यान सुख पायाजी || संवत सत्तर तेत्रीशा वरसे ॥ विजयदशमी मन भायाजी ॥ श्री विजयप्रसूरि सवाया ॥ विजयरतन युवरायाजी ॥ तस राजे विजनहित कांजे ॥ एम में जिनगुण गायाजी ॥३॥
अर्थ - इंदलपुर अहम्मदाबादतुं परु, त्यां चोमासुं रहीने धर्मेध्याननुं घणुं सुख पाम्या.
- संवत १७३३ मे वर्षे विजयदशमी ते आसो सुद्द दशमे मन भाया के० मनने विषे भाव्या.
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(११०) महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. हवे कवि पोताना आचार्यनी प्रशस्ति कहे छे. श्रीविजयमभरि तपगच्छनायक सवाइ यया. तेहने पाटे विजयरत्नसरि युवराज पदे वर्त्तता एटले विजयप्रभसूरि थका आचार्यपदे वर्चता भविजनना हितने काजे एम में जिनगुण गाया. इति तृतीय गाथार्थ ॥३॥
हवे पोतानी प्रशस्ति कहे छे. श्री कल्याणविजय वर वाचक ॥ तपगच्छ गयणदिणिंदाजी॥ तास शिष्य श्रीलाभविजय बुध ॥ नविजनकैरवचंदाजी ॥ तास शिष्य श्रीजितविजय बुध ॥ श्री नयविजय माणदाजी ॥ वाचक जशविजये तस शिष्ये ॥ थुपीया वीरजिणंदाजी ॥४॥
अर्थ-श्री कल्याणविजय उपाध्याय तपगच्छरूप गगनने विषे दिनेंद्र के सूर्यसरखा मोना शिष्य श्री लाभविजय थया. बुध के० पंडित थया. भव्यप्राणीरूप, कैरव के. चंद्र विकासी कमल-तेहने विषे चंद्रमा सरखा. तेमना शिष्य थे थया. एक श्री जितविजय पंडित अने वीजा श्री नयविजय ते मुनिमां इंद्र सरखा. तेमना शिष्य वाचक उपाध्याय यशोविजय थया. तेमणे वीर जिनेंद्र थुण्या ॥ ४ ॥ दोसीमूलासुत सुविवेकी । दोसी मेघा हेतेजी ॥ एह तवन में की, सुंदर ॥ सिद्धांत अक्षर संकेतजी ॥ ए जिनगुण सुरतरुनो परिमल ॥ अनुभव तो ते लशेजी ।। भमर परे जे अरथी होइने । गुरुआणा शिर वहशेजी ॥५॥
अर्थ-दोसी मूलानो पुत्र घणो विवेकी जे दोसी मेघो तेने माटे कयु. ए सुंदर तवन एटले मेघजी दोसी इंडीआ हता ते उपाध्यायजीए भतिवोध्याने शुद्ध श्रद्धा करावी-सिद्धांतने अक्षर संकेते. ए जिनेश्वरना गुणरूप मुरतरु के कल्पवृक्ष तेहनो परिमल एटळे मुगंधवानोज अनुभव ते लेशे के जे माणी भमरानी पेरे अरथी थइने गुरुनी आज्ञा मस्तके वहेगे ।। इति पंचम गाथार्य ॥ ५ ॥ ॥ इति महोपाध्यायश्रीजशोविजयविरचितं श्रीवीरजिनस्तवनं संपूर्णतामगमदिति ॥
॥ अथ प्रशस्ति ॥ सरिविजयदेवाख्यस्तपोगच्छाधिनायकः ॥ विख्यातत्रिजगत्यासीद्विद्यया गुरुसन्निभः ।। ॥१॥ तस्य पट्टोदयादौ श्रीविजयप्रभसूरिराट् ॥ आदित्य इव तेजवी सिंहवच्च पराक्रमी॥ ॥२॥ यः सत्यविजयस्तस्यांतेवासीत्यभिभाषकः ॥ क्रियोद्धारः कृतो येन माप्यानुसा गुरोरपि ॥ ३ ॥ विनेयस्तस्य कर्पूरविजयस्ताविका सुपीः ॥ कीर्तिः कर्पूरवषस्य मात सर्वत्र विश्रुता ॥ ४ ॥ क्षमादिगुणसंदर्भः क्षमाविजय इत्यभूत ॥ तस्य शिष्यो विनी
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दोदसी गावातुं स्तवन.
(१११/
नात्मा, शिष्याने कसमन्वितः ॥ ५ ॥ शब्दशासादिशास्त्रागां, वेत्ता शिष्यगणान्वितः ॥ जिनादिविजयादानस्तस्य शिष्यः सुरूपमाक् || ६ || कर्नप्रकृतिमभूविशाल तत्वविचारवित् ॥ उत्तमाद्दिजयस्तस्य शिष्योऽभूद् भूरिशिष्यकः ॥ ७ ॥ तस्य पादयुगां भोजभृंगतुल्येन चारुगा || पद्मविजयशिष्येण, स्वपरानुग्रहाय वै ॥ ८ ॥ नंदो वेदस्तथा नागचंद्राविति च वत्सरे ॥ वसंतपंचमीघत्रे, विक्रमाद् बुधवासरे || ९ || मया वीरस्तवस्यायं, कृतो बालाचवोधकः ॥ गुरुप्रसादतः सम्यग् गंभीरस्याल्पबुद्धिना ॥ १० ॥ त्रिभिर्विशेषकं ॥ श्रीविजय जिनेंद्राख्यमुरे राज्ये कृतोद्यमः ॥ स्थित्वा गच्छाधिनाथस्य, राजधन्यपुरे वरे ॥ ११ ॥ यत्किचितिथं प्रोक्तं मतिमांचादजानता ॥ तत्सर्वं विबुधैः शोध्यं, विधाय मयि सत्कृपां ॥ १२ ॥ चीरस्य शासनं यावद्, वर्तते विश्वदीपकं ॥ तावद्वालावबोधो यं तिष्ठताच्छुद्धवासनः ॥ १३॥
५
॥ इति ढकमतनिराकरणरूपा श्रीवीरजिनस्तुतिः संपूर्णा ग्रंथाग्रंथ ८३८ अक्षर ८ समग्र चालाववोध मीलने ग्रंथाग्रंथ ३०७२ अक्षर १८ सूत्र ग्रंथाग्रंथ २२८ अक्षर ५. उमयोर्मिलने ग्रंथाग्रंथ ३३०० अक्षर- २३
193
" ॥ इति महोपाध्यायश्रीमद्यशोविजयगणिविरचितं श्रीमहावीर जिनस्तुतिगर्भितं ढुंढकमतनिराकरणरूपं सार्द्धशतगाथास्तवनम् ॥
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॥ श्री पंचपरमेष्ठिभ्यो नमः ।। || श्रीमद्विजयानन्द सूरीश्वर पादपोभ्यो नमः ॥
॥अथ ॥ श्रीमद्यशोविजयजी उपाध्यायकृत साडात्रणसोगाथार्नु
स्तवन अर्थसहित प्रारंन.
॥ प्रथम अर्थकानुं मंगलाचरण ॥ पार्श्वनाथपदद्वंद्र, नत्वा सीमंधरप्रभुम् ॥ स्तवस्य वात्तिकं कुर्वे, स्वपरानुग्रहाय वै ॥१॥
॥ हवे अर्थकांनी सूचना । आ स्तवन मांडेली गाथाओना अर्थ अन्वये करी कहीशुं पण पाघरो नहीं कहेवाय माटे पद आगल पाछल जोडीने पोतानी घुद्धिए विचारी जोशो तो खरो अर्थ बेसशे.
॥ढाल पहेली ॥ ॥ ए डिकिहांराखी ॥ए देशी॥ श्रीसीमंधर साहिव आगें। वीनतडी एक कीजें ॥ मारग शुद्ध मयाकरी मुझने। मोहन मूरति दीजेरे ॥
जिनजी, वीनतडी अवधारो॥ ए आंकणी॥१॥ अर्थ-श्री के० चोत्रीश अतिशय अने आठ मातिहार्यादिक वाद्यलक्ष्मी तथा केवल ज्ञानादिक अभ्यंतरलक्ष्मी तेणेकरी युक्त एहवा सीमंधर नामे साहिव ते आगल एकज शुद्ध मार्ग ओलखवारूप अद्वितीय वीनति करीये ते माहरा ऊपरं मया के० कृपा करीने शुद्ध मार्ग जेरबत्रयरूप मोक्षमार्ग अथवा अनेक दर्शनी वितत्थसंवादी तथा विपरीत भाषण करनारा स्वदर्शनीने साचा मानवा ते अशुद्धमार्ग कहीये ते सर्व उवेखीने स्याद्वादशैलीयें जैनमार्ग ओलखवो ते शुद्ध मार्ग कही ते शुद्ध मार्ग सेवी अनेक भव्यजीव स्वसंपदा भोगी थया एहवो शुद्ध मार्ग ते हे मोहनमूरति के. वल्लभमूरति ! मुझने दीजे के० मुझने यो आपो ए वीनती करीये छै माटे हे रागद्वेपना जीतणहार जिनजी! ते अमारी बीनती अवधारो के० केवलज्ञाने करी जाणो ॥१॥
चाले सूत्र विरुद्धाचारें । भाषे सूत्र विरुद्ध ॥ एक कहें अमे ... मारग राखू । ते केम मानूं शुद्धरे ॥ जिन० वी० २॥
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( 2 )
अर्थ --- कोइक प्राणी सूत्रर्थी विरुद्ध आचारे वाले छे, तथा भाषे के० परुपणा करे छेसे पण सूत्र विरुद्ध, वली लोकने कहेशे जे अमे मार्ग राखीये छैयै, जो अमे छैयें तो मार्ग चाले छे एह बोले छे माटे हे प्रभु ते वातने अमे शुद्ध केम करी मानियें. इहां सूत्र
शुं ? ते लखे. - ११ अंग, १२ उपांग, १० पयन्ना, ६ छेद, ४ मूलमूत्र, १ नंदी, १ अनुयोगद्वार, एवं ४५ आगम जाणवा. यतः- “ एक्कारस तहा वारस । अंगुवंगाणि दसपयन्नाणी ॥ छच्छेया चमूला | नंदीअणुओगपणयाला ॥ १ ॥” तथा तेनी भाष्य, चूर्णि, नियुक्ति, वृत्ति अने मूलसूत्र ए पंचांगीने सम्मत जे पूर्वाचार्य प्रणीत धर्मरवादि प्रकरण तथा जे नंदीसूत्रगत पयन्ना अने हरिभद्रमूरि उमास्वाति वाचक प्रमुख कृत ग्रंथादिक ते सर्व मूत्र मांज आवे, केमके दुर्भिक्ष पडया ते काले मूत्र विसरचा हता ते मांहे जेटला सांभरचा ते सूत्र लख्या अने जे अर्थ सांभरया तेहना प्रकरण प्रमुख बांध्या ते पण मूत्रानुजायी हावाथी सूत्रण कहीयें तो तेथी विरुद्ध करे छे तथा वोले छे तेवाने शुद्ध केम मानुं ॥ २ ॥
आलंबन कूडां देखाडी । मुगध लोकने पाडे ॥ आणा भंग तिलक से कालुं । थापे आप निल्लाडेरे ॥ जिन० वी० ३ ॥
अर्थ- हवे ते विपरीत चालतां कोइक कहेशे जे आम कां चालो छो तेहने पाछो जबाब आपतां कूडां के० खोटां आलंबन देखाडे जे आ पंचमकाले संघयण धृति प्रमुख पूर्व पुरुष नेहवा किहां के एम कहिने मुगध के मूर्ख लोकने पाडे के० अज्ञान मार्गे पाडे छे पहला पुरुष ते आणा के० जिनाज्ञा तेहनो जे भंग तद्रूप जे कालुं तिलक ते पोतानें कपाले थापे के एटले जिनाज्ञा लोपे छे. ते वारे कोइक बोल्यो जे आज्ञा भंगनुं दूपण दीघुं ते खरं पण सर्वथा विधि तो कोइ करी शके नहीं ॥ ३॥
विधि जोतां कलियुगमां होवे । तिरथनो उच्छेद ॥ जिम चाले तिम चलवे जइयें । एह धरे मति भेदरे ॥ जिन० वी० ४ ॥
अर्थ - अने विधि जोतां तो कलियुग के पांचमो आरो जेने अन्यतिर्थी कलियुग कहे छे अने जैन पांचमो आरो कहे छे ते कलियुगमां तीर्थनो उच्छेद थाय केमके तमे अविधिनी तो ना कहो छो अने विधियें तो थाय नहीं तेथी तिर्थ विच्छेद जाय माटे जेम चाले तेम चलाया जैयें एटले झाझी चापाचिपी करीयें नहीं नरम गरम चलावियें ए रीते कोइक पोतानी मतिनो भेद घरे छे ॥ ४ ॥
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इम भाषि ते मारग लोपे । सूत्रक्रिया सवि पीसी ॥ आचरणा शुद्धि आचरिये । जोइ योगनी वीसीरे ॥ जिन० वी० ५ ॥ अर्थ - एहवां वचन बोलीने जे विधिमार्गने लोपे छे ते प्राणीये सूत्रक्रिया सर्व पी
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सी के० दली नाखी ते माटे आचरणा के क्रिया ते शुद्ध आदरीये ते श्री हरिभद्रसरिये योगनी वीस वीसी करेली छे ते मांहेली सत्तरमी वीसी माहे कयुं छे. यत:-"तित्थस्मुच्छेआइ, विणालवणं जस्स एमेव । मुत्तकिरियाइनासो, एसो असमंजसविहाणो ॥१" ॥५॥ पंचमे आरे जिम विष मारे । अविधि दोषतिमलागे ॥ इम उपदेश पदादिक देखी। विधिरसिओ जन जागेरे ॥ जिन० वी०॥६॥
अर्थ-पांचमा आरामांहे जेम विष मारे छे तेम पांचमा आरामांहे अविधि दोप पण लागे छे एटले ए भाव जे पांचमा आरामां पांच विप कह्या छे ते पण जीवने असत्य प्रवृत्तिना हेतु छे. यतः-" १ दुस्सम २ हुंडासप्पिणि, ३ दाहिणपासंमि ४ भासगहजोओ। ५ तह कण्हपक्खीजीवा, पंचविसं पंचमे अरए ॥१॥" ए गाथासूयणा सीतरीनी छे ए जिम पांच विष कह्यां ते मारे छे तिम पांचमे आरे जे अविधि दोष लागे ते पण मारेज छे. अथवा चोथे आरे जिम विष खाधु मारे तेम पांचमे आरे पण विष खाधु मारे, तेम ज अविधि दोष पण जेम चोथा आरामांहे लागे तेम पांचमे आरे पण लागे. यत:-"मारेइविसं भुत, जहा चउत्थारए तहा दुसममि । तह अविहिदोपजणीओ, धम्मोवि य दुग्गइहेज॥१॥" इति हितोपदेशमालायां एम उपदेशपदादिक ग्रंथ मांहे पाठ देखीने विधिनोरसियो जन के० लोक होय ते जागे के० विधि करवाने सावधान थाय ।। ६॥ कोइ कहे जिमबहु जन चाले। तिम चलिये सी चर्चा | मारगमहाजन चालें भाष्यो । तेहमा लहीयें अचारे ॥ जिन० वी० ७॥
अर्थ-वली केटलाक तो एम कहे छे के जेम बहु जन के० घणा लोक चाले ते रीते चालीयें केमके जे घणा करता हशे ते रुकुंज करता हो तो झाझी चर्चा शी करो छो अमे पोतानी मतियें करता हइयें तो भले चर्चा करो कारण के मार्ग तो तेहनेज कहीये के जे मार्गे महाजन के० महोटा लोकना समुदाय चाले छे तेहनी चालें चालीए तेने मार्ग कहीये इम भाष्यो के ग्रंथ मांहे कह्योछे. यत:-"महाजनो येन गतः सपंथा" इति ॥ तोते महाजननी चालें चालतां थकां लहीयें के० पामीयें अर्चा के० पूजा इति ॥ ७ ॥ एपण वोलमृषामन धरीयें। बहुजनमत आदरतां ॥छेहन आवे बहुल अनारय। मिथ्या मतमा फिरतारे॥जिन० वी० ८॥
अर्थ हवे उत्तर आपे छे के ए बोल जे कयो ते पण मृषा के जूठो चित्तमाहे धारीये तेहनो हेतु कहे छे एटले बहु जन मत आदरता के० घणा लोकनो मत आदरतां तो बहुल अनारय के० घणा जनतो अनार्य छ तेहनो छेह के० पार पामीयें नहीं मिथ्या मत मांहे फिरतां के० अनार्य छे ते सर्व मिथ्यामति छे माटे ते महे भमतां पार न पामी इति भाव ।।६।।
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थोडा आर्य अनार्यजनथी ।जेनआर्यमां थोडा | तेमां पण परिणतजन थोडा । श्रमण अलप बहु मो(मुंडारे ॥ जिन० वी० ९॥
अर्थ-थोडा आर्य अनाथ जनथी के० अनार्य लोयी आर्य लोक थोडा छे केमके वत्रीस हजार देशमाहे आर्य देश तो साडीपचवीसज छे ते चली आर्य देशमा पण जैन नाम धराये एडवा लोक थोडा छ वली जेन नाम धरावे तमांहे पण परिणत के. जैन यासनाये परिणम्या होय एडवा श्रद्धात रयाद्वादशैलीना जाण थोडावली ते परिणतजन मांडे पण श्रमण के मुनिराज ते अलप के० प्रणा थोडा अने बहु मो(मोटा के० मात्र मस्तक सुंडन कराव्यु पण गुण विनाना एडवा लोक वह जाणवा ॥५॥
भद्रवाहु गुरु वदन वचन ए।आवश्यकमां लहिये ।। आणा शुछ महाजन जाणी । तेहनी संगे रहियेरे ॥ जिन०॥ वी० ॥१०॥
अर्थ-भद्रवाहस्वामीना मुखनु ए वदयमाण वचन छे ते आवश्यकमात्रमांहे कायु के तिहाथी लहिय के० पामीथे जे आज्ञा शुद्ध तेहिज महाजन एटले जिनाज्ञा पाले तेहिन संघ पहचु जाणीने तेघा महाजननी पासें घसी. गाथा-"एग्गी य साहु एगां, य साहुणी सावओ व सट्ठी वा । आणाजुत्तो संघा, सेसी पुण अहिसंघाओ ॥१॥" इति आवश्यक पचनात्॥१०॥
अज्ञानी नवि होवे महाजन | जो पण चलवे टोल। धर्मदासगणी वचन विचारी। मन नवि कीजे भोलरे । जिन० वी० ११ ॥ अर्थ-पण जे अज्ञानीनो समुदाय हाय अने जो ते टोल के० गच्छने चलाये तोहे पण हने महाजन न कहीयें पहq धर्मदासगणीनुं वचन विचारीने भनने भोलं न करीये एटाले अशाने धमाधम न करीये. यतः-"ज नया अग्गीयत्यो" इति वचनात् ॥ ११ ॥
अज्ञानी निज छंदे चाले । तस निश्रायें विहारी ॥ अज्ञानी जे गच्छने चलवे । ते तो अनंत संसारीरे ॥ जिन० वी० १२ ॥
अर्थ-जे अमानी पुरुप ते निज छटे के० पाताना अभिप्राये चाले तथा ते अज्ञानीनी निश्राये जे विहारी के० विचरे ते पण अज्ञानीज होय तो पहवा अज्ञानी अगीतार्थ थको जे गच्छने चलाये तेतो अनत संसारी जाणवी. यत:-"ज जयद अग्गीयत्यो नं, च अग्गीयत्यनिस्सिओ जयइ। वट्टावेइय गच्छ, अणंत संसारिओ होइ ।।१।।" इत्युपदेशमालायां ॥१२॥
खंड खंड पंडित जे होवे । ते नवि कही नाणी ॥ निश्चित समय लहे तेनाणी । संमतिनी सहिनाणीरे ॥ जिन वी०.१३ ॥
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अर्थ-जे खंड खंड पंडित के० ग्रंथ ग्रंथ मांहेथी थोडी थोडी वात शीखीने पंडितपणुं जेहने होय ते पुरुपने ज्ञानी न कहीये, यतः-"जो मुत्तमत्थमुभय, समहीजंते गुरुकम्मविहिणो । नो भन्नइ सो नाणी, अहमयठाणमूढमणो ॥१॥” इति आवश्यकमाहाभाष्ये । माटे निश्चित समय के० निश्चे सिद्धांतनी वातने लहे के० जाणे ते नाणी के० ज्ञानी कहीयें एटले गुरुक्रमागत निश्चय व्यवहार सहित स्याद्वादशैली ज्ञान थयुं होय ते सिद्धांत निश्चितज्ञान कहियें ए वात संमतिनी के० संमतितर्कशाखनी सहिनाणी के० निसानी छे. गाथा-"जो निच्छय समयचू, .स व्यवहारसमयमासज्ज । गुरुपारतंतलह, नयनिउणोंगाहणा कुसलो ॥१॥" इति ॥ १३॥ जिम जिम बहुश्रुत बहुजन संमत बहु शिष्ये परवरिओ||तिम तिम जिनशासननो वयरी।जो नवि निश्चय दरीओरे।। जिन० वी०१४ ॥
अर्थ-जिम जिम बहुश्रुत के० घणो भण्यो अने बहु जन संमत के घणा लोकने मानवा योग्य थयो वली बहु शिष्ये परवरिओ के० घणा चेला चांटि करयां तिम तिम जिनशासननो वयरी के० सिद्धांतनो शत्रु जाणवो जो निश्चय ज्ञाननो दरिओ के समुद्र न होय तो. अने जे निथें ज्ञानी होय तेहने तो सर्व लेखे छे. यदुक्तं "जह जह बहुसुओसंमओअ, सीसगणसंपरिखुडो य । अविणिच्छिओ अ समए, तह तह सिद्धतपडिणीओ ॥१॥ इत्युपदेशमालायां तथा पंचवस्तुके पि च (तथा संमतावपि)॥१४॥ कोइ कहे लोचादिक कष्टें । मारग भिक्षावृत्ति ॥ ते मिथ्या नवि मारग होवे । जनमननी अनुवृत्तिरे ॥ जिन० वी० १५ ॥
अर्थ-केटलाएक तो एमज कहेछे जे लोचादिक कष्टे के० लोच कराववा उघाडे पगे तथा उघाडे माथे हिंडQ इत्यादिक कष्ट करवे करीने मारग के० मुनिमारग जाणवो वली मिक्षायें वृत्ति के० आजीविका करवी ते मार्ग छे एहवं जे कहे छे ते मिथ्या के० खोटुं कहे छे ए रीते मार्ग न होय केमके आत्मार्थ विना जन मननी अनुवृत्ति के० लोकना मननी 'अनुजायीये प्रवर्त्ततां मार्ग न होय इति भाव. गाथा-"कलुकरेइ तिव्वं, धम्म धारेइ जणाशुवित्तीए । सो पवयणमग्गस्स, वेरीभूओ अहाउँदो ॥१॥" ॥१५॥
जो कष्टे मुनि मारग पावे । बलद थाए तो सारो॥भार वहे जे तावडे भमतो । खमतो गाढ प्रहारोरे ॥ जिन० वी० १६ ॥
अर्थ-जो ए रीते प्रभुनी आज्ञा विना कष्ट करता मुनिनो मारग पामे तो तियेच वलद तथा उपलक्षणथी वीजा दोर पण लइथे ते ढोरज सारा के० भला थाय केमके वलद :पर जेटलो भार भरी तेटलो मुखे दुखे पण वहे निरवाह करे वली तावडे के० तडके भमतो थकोगाढ़ के० आकरा कोरडा मोणाभमुखना महारने खमतो के० सहन करे छे ॥१६॥
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लहे पाप अनुवंधी पापें । वलहरणी जन भिक्षा ॥ पूरव भव व्रतखंडन फल ए | पंच वस्तुनी शिक्षारे ॥ जिन० वी० १७ ॥
अर्थ-माटे ते पाणी वर्चमानकाले पण अशुभ अने अनागत काले पण अशुभ ते पापानुबंधी पाप कहीये तेणे करीने लहे के पामे वलहरणी के० वीर्यने हणे एहवी जन भिथा के० लोकनी भिक्षा पामे एटले संयम योग साधी न शके ते वलहरणी मिक्षा कहीयें ए पूरव भव के० पाछला भवे व्रतखंडन करया होय तेहनां फल छे त पापानुवंधी पापे वलहरणी भिक्षा पा एम पंचवस्तु ग्रंथ श्रीहरिभद्रसूरि कृत छे ते मांहे का छे. गाथा-"चारित्तविहीणस्स, अमिसंगपरस्स अकलुसमावस्स । अण्णाणिणो य जा पुण, सा पडिसिद्धा जिणवरेहि ॥१॥ भिक्खं अहंतिआरंमसंगया अपरिमुद्धपरिणामा । दीणा संसारफलं, पावाउ जुत्तमेयं तु ॥ २॥ इसिं काऊण सुह, निवाडीया जेहि दुक्खगहणमि । मायाए केइ पाणी, तेसि एयारिसं च होइ ॥ ३॥ चइऊण घरावासं, तस्स फलं चेव मोहपरतंता । न गिहि न पव्वइया, संसारपन्चट्टगा भणिया ॥ ४॥" १७॥
कोइ कहे अमें लिंगे तरशुं जैन लिंग छे वारु ॥ते मिथ्या नवि गुणविणुं तरि । भुजविण न तरे तारुरे ॥ जिन० वी० १८ ॥
अर्थ-हवे कोइक कहेशे जे द्रव्यलिग तेहिज प्रमाण छे एटले लिंग जे ओघो मुहपती तेथी तरी संसार पार पामीरों केमके जैननो लिंग ते वार के० सुंदर छे तेने गुरु उत्तर कहे छे के ते मिथ्या के० खोटु छे कारण के गुण विना एकळु मात्र लिंग धारण करेथी तराय नहीं तेहनो दृष्टांत:-जेम तारु पुरुप ते भुजा विना नदी प्रमुख तरी शके नहीं ॥ यदुक्त चंदनावश्यके शिष्य वचनं-" मुविहिय दुविहीयं वा, नाहं जाणामि यं खु छउमत्यो । लिंगं तु पूययामि, तिगरण मुद्धेण भावेण ॥१॥ प्रत्युत्तरमाह-जइ ते लिंगपमाणं, वंढाहि निन्हए तुमे सव्वे । एए वंदमाणस्स, लिगमवि अप्पमाणं ते ॥२॥" इत्यादि ॥१८॥ कुटलिंग जिम प्रगट विडवक । जाणी नमतां दोष ॥ निद्धंस जा णीने नमतां । तिमज कह्यो तस पोषरे । जिन० वी० १९ ॥
अर्थ-जेम विडंबक जे नाटकीआ प्रमुख तेहनो जे कुटलिंग के० खोटो वेष ते प्रगट पणे जाणीने एटले कोइक नाटकीयो साधुनो वेप लाव्यो ते खोटो वेष छे एम जाणतां थका जो तेहने नमीयें तो दोप लागे तथा लोक हांसी प्रमुख पण करे ते माटे निद्वंद्वस जे भवचनोपघातक निरपेक्षक केवल लिंगधारी पासत्यादिक जाणीने तेहने नमीयें तो तिमज के ते पूर्वोक्त नाटकीया साधुनी परे तस पोष के० ते दोपनो पोप कह्यो छे यदुक्तं-"जहै वेलंवगलिंग, जाणतस्स नमउ हवइ दोसो। निद्वंदमत्ति नाऊण, वंदमाणे धुवं दोसो ॥१॥" इति वदनावश्यक ॥ ए रीते आचार्ये लिंग अप्रमाण कमु ॥ १९ ॥
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शिष्य कहे जिम जिन प्रतिमाने | जिनवर थापी नमियें || साधुवेस थापी आतिसुंदर । तिम असाधुने नमियरे ॥ जिन० वी० २०॥
अर्थ-वारे शिष्य बोल्यो जे जिम जिनेश्वरनी प्रतिमामांहे ज्ञानादिक गुण नयी अने तेहने तीर्थकरनी बुद्धिये नमस्कार करतां महोटो लाभ थाय छे महोटी निर्जरा थाय छे. यथा आवश्यके शिष्य वचनं-" तित्थयरगुणा पडिमासु नत्थि निस्संसयं वियाणंतो। तित्थयरूत्ति नमंतो, सो पावइ निजरं विजलं ॥१॥” इति । तेम अति सुंदर एहवो साधु वेष थापी असाधुने पण नमियें एटले गुण विनानी जिम जिन प्रतिमा छे तेहने नमतां निजरा थाय तेम पासत्यादिकमां जो साधुनो गुण नथी तो पण साधुनो वेप तो छे माटे जो पोतानु मन शुद्ध छे तो तेहघाने नमतां लाभ थाय कारण के लाभ अथवा खोट ते तो पोताना अध्यवसाय आश्री छे. उक्तंच-"लिंगं जिणपन्नत्तं, एवं नमंतस्स निजरा विउला। जइवि गुणविपहिणं, पंदइ अज्झप्पसोहिए ॥१॥” इति शिष्य वचनं ॥ २०॥ भद्रबाहु गुरु बोले प्रतिमा । गुणवंती नहीं दुष्ट ॥ लिंग मांहे थे वानां दीले । ते तुं मान अदुष्टरे ॥ जिन० वी० २१ ॥
अर्थ-हवे आचार्य उत्तर आपे छे जे श्रीभद्रबाहुगुरु आवश्यकमां एम कहे छे के प्रतिमा गुणवंती नथी तेम दुष्ट पण नथी माटे तेहने गुणवंती मानियें एटले अदुष्टपणानो आरोप करियें तो थाय अने लिंगमांहे तो गुण तथा दोष ए वे वानां देखाय छे ते तुं हे अदुष्ट के० गुणवंत शिष्य मान इति गाथार्थ । हवे एनो भावार्थ कहे छे जे जिनपतिमामांहे गुण नथी तेम दोप पण नथी माटे पोताना अध्यवसायनी शुद्धिये नमतां लाभ थाय, इहां कोइ कहेशे जे परिणामे लाभ थाय छे तेवारे प्रतिमानु शुं काम छे ? तेहने फहीयें जे शुद्ध परिणामनो हेतु ते प्रतिमाज छे तेवारे ते कहेशे जे साधुनो वेप ते पण शुद्ध परिणामनो हेतु छे तेहने कहे जे साधु वेप पुरुपपणुं ते प्रतिमाने वरावर न थाय केमके प्रतिमा हजारोगमें जोइये पण सर्व एकाकार छ सावध क्रिया नथी करती तेम निरवद्य क्रिया पण नथी करती अने साधुलिंग तो कोइक स्थानकें सावध कर्म करतो देखीयें तथा कोइक स्थानके निरवध शुद्ध चारित्र पालतो देखीयें माटे वरावर न थाय अने जिनमतिमामांहे जिन गुणनो आरोप करीने परिणाम करतां निर्जरा थाय पण पासत्यादिकने वंदना करतां कोना गुण संभारीश तेवारे ते बोल्यो जे वीजा रुडा साधुना गुण आरोप करीने प्रणाम करिशुं तेहने कहे छे जे निर्गुणीने विषे गुणनो आरोप थाय नहीं अने जो गुणनो आरोप करीयें तो विपर्यास थाय अने जे विपर्यास तेतो कर्मबंधनो हेतु छे ते माटे जिहां गुण तथा दोष न होय तिहां आरोप थाय पण अन्यथा आरोप न थाय यदुक्तं वंदनावश्यके-"संतातित्थयरगुणा, तित्थयरे तेसिमं तु अयप्पं । न य सावजा किरिया, इयरेसु धुवा समणुमना॥१॥ चो० ॥ जह सावज्जा किरिया, नत्थि उ पडिमासु एवमियरावि । तयमा नत्थि
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फलं, अह होइ अहेज्य होइ ॥२॥ आचा० कामं उभयामावों, तहवि फलं अस्थि मणविसुदीए । तिए पुण मणविसुद्धीए, कारण हुँति पडिमाओ ॥३॥ जइवि य पडिमाउ गुणा, मुणिगुणसंकप्पकारणं लिंगं । उभयमवि अस्थि लिंगे, न य पडिमासूभयं अस्थि ॥४॥ नियमा जिणेमु अ गुणा, पडिमारस्सि जे मणे कुणइ । अगुणो उ वियागंतो, कं नमा मणे गुणं काउं ॥ ५॥" इत्यादि वली एहनो विचार वृहत्तिथी विचारजो ॥ २१ ॥
कोइ कहे जिन आगे मागी । मुक्ति मारग अमे लशुं॥ निरगुणने पण साहेब तारे ॥ तस भक्ते गहगहिशुरे ॥ जिन० वी० २२ ॥
अर्थ-हवे कोइक एम कहे छे जे जिनेश्वर आगे मुक्तिमार्ग अमे मागी ले° केमके निर्गुणने पण साहेव तारशे तथा तेहनी भक्तिमां गहगहिमुं के० हरप पामिशुं इति गाथार्थ. भावार्थ तो एम छे जे केटलाक एम कहे छे आ भवमां तो शक्ति नथी पण जन्मांतरे वोधिवीजनी सामग्री पामीत्यारे करिशं एहवं मनु पासे मागी लइये छीयें इति भावः ॥२२॥ 'पामी बोध न पाले मूरख । मागे बोध विचाले । लहिये तेह कहीं
कुण मूले । बोल्यु उपदेशमालेरे ॥ जिन० वी० २३ ।। ___अर्थ-तेहने उत्तर कहे छे जे आ भवमा वोघ के वोषिवीजनी सामग्री पामीने पण जे भूरख के० अज्ञानी संयम अनुष्ठान तो पालतो नथी अने विचाले के विचमां वोध मागे जे आगल पालिशुं तो तेह के ते वोषिवीज कहो कुण मूले के० शेमूले लहिये के. पामीयें एटले ए भाव जे कोइक वस्तु ठेवा जइये ते वस्तु जो पासे द्रव्य होय तो जडे अने द्रव्य न होय तो स्या मूले जडे, तेम आ भवमाहे जो संपमादिक पाल्या होय तो आवते भवे पण वोषिवीजनी सामग्री मले पण न पाल्या होय तो शे मूळे पामे अर्थात् बोधि सामश्री नज पामे, एम उपदेशमाला मध्ये कयु छे. यतः-"लद्धिल्लियं च वोहिं, अकरितोऽणागयं च पत्थितो । अबंदाई वोहिं, लब्भिहिसि कयरेण मुल्लेण ॥१॥" इत्युपदेशमालायां आवश्यकनियुक्तौ तथा चतुर्विंशतिस्तवाध्ययने पि च ॥ २३ ॥ आणा पाले साहेब तूसे | सकल आपदा कापे ॥ आणाकारी जे जन मागे । तस जसलीला आपरे ॥ जिन० वी २४ ॥
अर्थ ते माटे आज्ञा पालता थकां साहेव के० परमेश्वर तुष्टमान थाय अने समस्त आपदाने कांपे, माटे आज्ञाकारी जे जन के० लोक ते मागे एटले आ भवमांहे प्रभु आज्ञा पाले ते पाणी जे मागे तस के० ते पाणीने जशनी लीला आपे एटले प्रभु आज्ञाथी जगलीला पामे ॥ २४ ॥ ए मथम ढाल माहे एम कडं जे अमे निर्गुणी थकां प्रभु पासेथी मागी लेरों एवं वोलनारने शिखामण दीधी ।। २४ ॥
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॥ ढाळ बीजी॥ ॥ आदर जीव क्षमागुण आदर ॥ ए देशी ॥ कोइ कहे अमे गुरुथी तरसुं, जिम नावाथी लोहारे। ते मिथ्या नलहे सहवासे, काच पाचनी सोहारे ॥१॥ श्रीसीमंधर साहेब सुणजो, भरतखेत्रनी वातोरे । लहुं देव केवल रति इणे युगे, हुतो तुज गुणरातोरे ॥ श्रीसी० २॥
अर्थ-हवे वीजी दालमा जे एम कहे छे के अमे निर्गुणी थकाज गुरुयी तरी, तेमने शिखामण देवा संबंधी आ वीजी ढाल कहे छे.-कोइक एम कहे छे जे अमारामां तो गुण नयी पण अमारा गुरु गुणवंत छे तो तेथीज संसारसमुद्र तरी पार पामिशु. जेम नावा के० जिहाज तरेछे ते मांहे लोहा के० लोखंडना खीला जड्या होय ते पण तरे छे, ए दृष्टांते तरीथु, यत:-"सच्चं जंपेइ जणो, उत्तमसंगेण उत्तमो होइ । लोहो कविलग्गो, संजोगे सायरं तरह ॥१॥" इति पाठात् तेहने उत्तर जे-ए रीतना बोलनारा ते पण मिथ्या के० खोटुं कहे छे केमके सारा गुरुने सहवासे के. मात्र मेला बसवायीज न लहे के० न पामे, जेम काच ते पाच के० पानानी शोभापामे नहीं. उक्तंच-"मगि उतिपादाग्रे काचः शिरसि धार्यते । परीक्षककरे माते, काचः काचो मणिर्मणिः ॥ १॥" तथा
ओघनिर्युक्तावपि-सुचिरंपि अच्छमाणो, वेरुलिओ कायमणीययो मीसो, न उवेइ कायभावं, पाहन्नगुणेण नियएणं ॥१॥" माटे हे श्रीसीमंधर साहेब ! आ भरतखेत्रनी बातो के. चरित्र ते मुणजो के० सांभलजो. हे देव ! हे आत्मगुणरमणि इणे युगे के० आविषमकाल पंचम आरो, हुंडावसर्पिणीने विषे केवल के निकेवल जे हु रति लहुं के साता पार्छ ते तुज गुण रातो के० तमारा गुणने विषे तत्परथको एटले तमारा गुणनो रंग छे एटलीज शाता छे, बाकी मतभेद कदाग्रह देखीए तो काइपण शातानुं कारण नथी. इति भाष ।।२।।
कोइ कहे जे गच्छथी न टल्या, ते निरगुण पण साधोरे। नातिमाहे निरगुण पण गणीयें, जश नहीं नाति बाधोरे॥श्रीसी० ॥
अर्थ-हवे केटलाएक एम कहेछे के, जे गच्छथी वाहीर नीकल्या नयी अने आचार्यना संघाडामाहे रथा छे ते जो निर्गुण छे तो पण ते गच्छमा रह्या माटे साधो के० साधु कहिये. तेहलु दृष्टांत कहेछे-जेम न्यातिना सर्वलोक उत्तम होय अने ते मांहे कोइक निर्गुण होय पण वेहने जिहांलगें न्याति बाहेर करयो न होय तिहां लगे ते न्याति मांहेज गणाय छे, जश के० जे गुणरहित पुरुषनो नाति वाघो के० न्यातिनो बाघ नहीं के० नथी एटले ते पुरुपनो जिम न्यातिमाहे वाघ नथी, तेम साधु पण गच्छमाहे छे मारे रुहो जाणवो ॥३॥
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(१०) गुण अवगुण इम सरिखा करतो, ते जिनशासन वैरीरे । निरगुण जो निज छंदे चाले, तो गच्छ थाए स्वैरीरे ॥ श्रीसी० ४ ॥
अर्थ — हवे पूर्वोक्त कहेनारने शिखामण आपे छे के, जे ए रीते गुण अने अवगुणने सरखा करे ते जिनशासननो बैरी जाणवो. तेनो हेतु देखाढे छे के, ते गच्छमांहे रह्या जे निर्गुण पुरुष ते जो निज के० पोताने छंदे चाले तो गच्छ थाय स्वैरी के० ते सर्व गच्छ स्वेच्छाचारी थाय, केमके एकने होणो देखीने वीजा पण हीणाचारी थाय. इतिभाव ||४||
निरगुणनो गुरु पक्ष करे जे, तस गच्छ त्यजवो दाख्योरे ।
ते जिनवर मारगनो घातक, गच्छाचारें भाख्योरे ॥ श्रीसी० ॥५॥
अर्थ- वली जे निर्गुण होय तेनो पक्षपात जे गुरु करे तो ते गुरुनो गच्छ वीजा साधुयें त्यजवो के० छांडवो एम दाख्यो के० को छे. एटले ते गच्छमां रहेतुं नहीं अने ते गुरु जिनेश्वरना मार्गनो घात करनार जाणवो. एरीते गच्छाचारपयन्ना मध्ये कर्तुं छे.
यतः- “
गुणाणपख्खो, गणी कुसीलो कुसीलपख्खधरो । सो य अगच्छो गच्छो, संजम कांमीहिं तव्व ॥ १ ॥ जहिं नत्थि सारणा वारणा य, चोयणाय सगच्छंमि । सो य अगच्छो गच्छो संयमकांमीहिं मुत्तच्वो || २ ||" इति गच्छाचारे ॥ ५ ॥
विषमकालमा निरगुण गच्छे, कारणथी जो वसीयेंरे ।
sorest व्यवहारें चलीयें, भावे नवि उल्लसीयेरे ॥ श्रीसी० ६ ॥
अर्थ - यद्यपि विपमकालमां एटले पांचमा आरामां पोतानी मनोवल शक्तिने अभाव निर्गुण गच्छे एटले गुणरहित गच्छने विषे जो कोइ कारणे वसवुं पडे तो द्रव्यथकी एटले बाह्यथी तो ते गच्छने व्यवहारे चलिये के० प्रवृत्तिये पण भावथकी उल्लास पामियें नहीं, एटले अंतरथी हरपीयें नहीं पण जो शुद्धाचारीनी संगत मले तो निर्गुण गच्छने तुरत छोडीआपियें. यतः - " गीयत्थो गुणजुत्तो, निम्गुणगच्छंमि संवसित्ता य । नो निगुणाणपख्कं, कुज्जा सो गणहरसरिच्छो ||१||" इत्युपदेशपदे ।। ६ ।।
जिम कुवृष्टिथी नगर लोकने, घहेला देखी राजारे ।
मंत्री सहित घहेला होई बेठा, पण मनमांहे ताजारे ॥ श्रीसी० ७ ॥
अर्थ — जेम घलापणानी करनारी कुदृष्टि थइ ते कुदृष्टितुं पाणी ते नगरना सर्वलोक पान करीने घहेला थया. मात्र एक राजा अने प्रधान ए वे जणे पाणी पीधुं नहीं माटे डाद्या रह्या. पछी ते बेहुने विष सहपाचारी घहेला लोकोए मारवानो उपाय करचो, तेवारें राजा पोताना जीववाना उपायने माटे प्रधान सहित पोते घडेला थइ वेठा, पण मनमां तो ताजा
• डाह्या छे. एम जाणे छे जे सारी दृष्टि थाय तो सहु डाला थइयें. एम ए दृष्टांते इहां पण
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जाणवू जे निर्गुण गच्छमां वसे तथा तेहनी पेठे चाले तोपण मनमा तो एम जाणे जे मुविहित मले तो तेडने संगे रहुं अने शुद्धाचारी थाउं. इति भाव ॥ ७॥
इम उपदेश पदे ए भाख्यु, तिहां मारग अनुसारिरे। जाणीने भावे आदरीयें । कल्पभाष्य निरधारिरे ॥ श्रीसी० ८॥
अर्थ-ए रीते श्रीहरिभद्रमुरिकृत उपदेशपदनामा ग्रंथमां भाख्यु के-"गीयत्यो गुणजुत्तो इत्यादि" पूर्वोक्त गाथा जाणवी तथा एम कयु जे द्रव्यथकी व्यवहारे चालीय, पण भावयी उल्लास पामीयें नहीं तो पण विहां के० ते गच्छमां जो कदाचित सर्व क्रिया व्यवहारमां सावधान न होय पण जो मार्गानुसारी शुद्धमरुपक होय अने गुण पक्षपाती होय तेवा मार्गानुसारी जाणीने तेहने भावयी पण अंगीकार करीयें एहवं हत्कल्पभाष्यमां कडं छे. यत:-" सिढिलो अणायारकओ, चोयणपडिचोयणाइगुणहीणो। गुणपक्खकरो गच्छो । सीलेयब्वो वि भावेण ॥ १॥" इति ॥ ८॥
ज्ञानादिक गुणवंत परस्परं, उपगारें आदरवारे ।
पंच वस्तुमां गच्छ सुगुणने, अवर कह्यो छे त्यजवोरे॥श्रीसी०॥९॥ __ अर्थ-चली परस्पर के० माहोमांहे ज्ञानादिक गुणवंत के ज्ञान, दर्शन, चारित्र गुणवंत होय वली उपगारे के० उपकारी होय:एटले माहोमांहे कोइनो ज्ञानउपकार, कोइनो दर्शन उपकार इत्यादिक उपकारवंत होय तो आदरवो, एम श्रीहरिभद्रसूरिकृत पंचवस्तुग्रंथमां कडं छे. यत:-"मुत्तूण मिहुवयारं,अजुनगुणादिभावसंबंधं । छत्ततुल्लो वासो, अनेउ ण गच्छवासोति ॥२॥" ते माटे सुगुण जे गुणवंत होय तेणे पूर्वोक्त ज्ञानादिकना उपकारी गच्छ विना अवर के० वीजो जे गच्छ ते त्यजवो कह्यो छे ॥ ९ ॥
जे निरगुण गुण रत्नाकरने, आप सरिखा दाखेरे ॥ समकितसार रहित ते जाणो, धर्मदासगणी भाखरे ॥ श्रीसो० १०॥
अर्थ-चली जे पोते निर्गुण छतां वीजा ने गुणना रनाकर के समुद्र होय तेहने आप के० पोतासरिखा दाखे के०कहे, एटले एम कहे जे अमारामां तथा एमां शो फेर छे? एम गुणी अवगुणीने सरिखा करे तो ते प्राणी सार के प्रधान एहवो जे समकित तेथी रडित जाणवो. ए रीतें उपदेशमाला मध्ये धर्मदास गणिये कडं छे. यतः ।। "गुणहीणो गुणरयणायरेसुं जो कुणइ तुल्लमप्पाणं । सुतवस्सीणो यो हिलइ, सम्मतं कोमलं तस्स ॥१॥" ॥१०॥
कोइ कहे जे वकुस कुशीला, मूलोत्तर पडिसेवीरें । भगवईअंगे भाष्या तेथी, अंत वात नावि लेवीर ॥श्री सी० ११॥
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(१३
अर्थ-रीतें ग्रंथकारना कहेवा प्रमाणे सर्वथा गुणवंत होय तो आदरचो एम रघु. ते उपर शिष्य प्रश्न करे छे के, कोईक एम कहे छे जे वकुस कुशीला के वकुस चारित्रीया तथा कुशील चारित्रीया ए मूल उत्तरगुणना प्रतिसेवी कह्या छे. पडीसेवी के० प्रतिकूलपणे सेवचु-दोष लगाडवो एटले ए भाव जे १ पुलाक, २ वकुस, ३ कुशील, ४ निग्रंथ, ५ सनातक ए पांच निग्रंथ कह्या छे, तेमां वास चारित्रीया ते उत्तरगुणना एटले मात्र दशविध पञ्चखाणनाज प्रतिसेवी होय, तथा कुशील चारित्रीया ते मूलगुणना तथा उत्तरगुणनापतिसेवी होय, यद्यपि "मूलुत्तर पडिसेवी" इहां सामान्ये कह्या तोपण अर्थ पूर्वोक्त रीते करवो. केमके पंचनिग्रंथी प्रकरण तथा भगवतीसूत्रमा ए रीते छे ते रीते अमें पण अर्थ लख्योछे. यंदुक्तं, पंचनिग्रंथी प्रकरणे ॥ यतः-"मूलुत्तरगुणविसया, पडिसेवा सेवए कुसीलोय। उत्तरगुणेसु वसो । सेसा पडिसेवणा रहिया ॥१॥" वली भगवती अंगे भाण्या के० कह्या छे तथाच तत्पाठ-"वउसेणं पुच्छा गोयमा ! पडिसेवए होजा, अप्पडिसेवए होज्जा ? जदि पडिसेवएहोजा, किं मूलगुणपडिसेवए होज्जा, उत्तर गुणपडीसेवए होज्जा! गोयमा ! नो मूलगुणपडिसेवए होज्जा उत्तरगुणपडिसेवए होज्जा. इत्यादि तथा पडिसेवणाकुसीले जहा पुलाए. एटले पुलाकने मूलगुणपडिसेवए होज्जा उत्तरगुणपडिसेवए होज्जा. एम कई छे माटें कुशील पण भूलोत्तर गुणना पडिसेवी थया. इति भगवती सूत्रे सतक (२५) में उसे ६ को वेथी एम व्यु जे मूलगुणना प्रतिसेवी थाय तिहां लगे चारित्रीया कया तेथी अमने दोष लागवां छतां पण अमारं चारित्र काई जतुं नथी माटे वातनो अंत लेवो नहीं. भाई अमने बोलावी अंत / ल्यो छो. इति शिप्य वचनं ॥११॥
ते मिथ्या निकारण सेवा, चरणघातीनी भाषीरे॥ मुनिने तेहने संभव मात्र, संत्तमठाणु साखौरे ॥श्रीसी० १२||
अर्थ-हवे गुरु कहे छे के एम भगवतीसूत्रनी साख आपीने जेम तेम प्रतिकूल सेवा पालाने जे चारित्रं ठरावे छे ते मिथ्या के० खोढुं कहे छे, केमके निकारण सेवा के० कारण विना जे प्रतिकूलपणे सेवा अपवादरूप तेहने मुख्य करीने जे मतिसेवा करे ते पतिसेवा वो चरणघातीनी भापी के० चारित्रने घात करनारी,कहीछे. यत:-"संथरणमि असुद्ध, दोण्हविगिण्हतदिचगाणहिये । आरदिठं तेण, तं चेव हियं असंथरणे ॥१॥" इति बृहत्कल्प भाज्यो । ते प्रतिसेवा मुनिने तेहने के० ते मुनिने संभवमाने के. लागवा रूप • संभव पण उपयोगपूर्वक प्रतिसेवा करे नहीं कदाचित उपयोग पूर्वक करे तो ते अपवादें. करे, पण उत्सर्ग करे नहीं, ए पण संभवज कहीये. विहां सत्तमठाणु साखी के० ठाणानामा मकरणमा सातमे ठाणे कयु छे ते ठाणाप्रकरण मारा हाथमां पाप्त थयु नथी पण मारा
वचने जाणुं छु के ठाणापकरण छे अन्यथा इहां कोइक ठाणांगसूत्र कहे छे पण ते : मध्ये ए पाठ जडतो नयी ते माटे गुरुवचन सत्य, इति नेयं ।। १२ ।।
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(१३)
पडिसेवा वचने ते जाणो, अतिचार बहुलाईरे ॥
भाव बहुलतायें ते टाले, पंच वस्तु मुनि ध्याईरे ॥ श्रीस०१३ ||
अर्थ - हवे तिहां पंचवस्तुनी साख लखियें छैयें. गाथा - "ते उ पडि सेवणाए, अणुलोमा होति विअडणाए । अपडिसेवणाविअडणाए, इत्थं चउरो भवे भंगो ॥ १ ॥ व्याख्याते तु दोषाः प्रतिसेवनया आसेवनारूपया अनुलोमा भवत्यनुकूला भवंति विकटनयालोचनया च प्रतिसेवनायां आलोचनायां च पदद्वये चत्वारो भंगा भवति तद्यथा, प्रतिसेवनया अनुलोमा चिकटनया च १ तथा प्रतिसेवनया न विकटनया, २ तथा न प्रतिसेवनया विकटनया ३ तथा न प्रतिसेवनया न विकटनयेति ४ गाथार्थ:- " ते चेव तत्थ नवरं, पायच्छित्तंति आह समयण्णू | जम्हा सह सुजोगो, कमक्खय कारणं भणीओ ॥ २ ॥ " " व्याख्या ते एव नवरं केवल सामुदानिका अतिचारावित्यमानाः संतः तत्र कायिका दीर्घपथिकायां प्रायश्चित्तमित्येवमाहुः समयज्ञाः सिद्धांतविदः किमिति अस्मात् सदा सर्वकालमेवसुभयोगः कुसलव्यापारः कर्मक्षयकारणं भणितस्तीर्थंकरगणधरैरिति गाथार्थः । ततः किमित्याह गाथा | सुहजोगो यअयं जं, चरणाराहणनिमित्तमणुअंपि । मा होज्ज किंचि खलियं । पेहेइ तओवउत्तोवी ॥३॥ व्याख्या- सुभयोगश्चायं सामुदानिकातिचार चिंतनरूपः कथमित्याह यस्माच्चरणाराधननिमित्तं स्खलितं चारित्रपालनांर्यमणुअंपि सुक्ष्ममपि मा भूत् किं तत् स्खलितं प्रेक्ष्यते पर्यालोचयति ततः उपयुक्तोपि भिक्षाग्रहणकाले ॥ इतिगाथार्थः - आ ठेकाणे एज अर्थनी सूचक गाथा हांनविमलमूरियेंटवामां लखीछे ते कहे छे. गाथा - " सव्वावि य पडि सेवा, उक्कडभावेण दोह सा सिढिला | अइयारवाहूलत्तं, पडिसेवा विय पयसेढी ॥ १ ॥ " ए गाथा पर्ण रुडी छे. ए ठेकाणे एहवी गाथा जोइयें पण ए गाथा पंचवस्तु ग्रंथमां जडी नहीं माटे अमे लखी नहीं तथा मूलगुण उत्तरगुणना प्रतिकूलपणे सेवी होय ते पडिसेवा वचने के० प्रतिसेंवा शब्दें करी जाणो के० जाणवी, एटले मूलगुणमां तथा उत्तरगुणमां अंतिचार घर्णा लागे ते अतिचार भावनी तीव्रतायें करीनें टाले एम पंचवस्तु ग्रंथमां मुनिध्यायी के० मुनिराजे अतिचारनी बहुलता ध्यायी भावी हे ॥ १३ ॥
सहसा दोष लागे ते छुटे, संयतने ततकालेंरे ।
पच्छितें आकुट्टियें कीधुं, प्रथम अंगनी भालेंरे ॥ श्रीसी० ९४ ॥
अर्थ - सहसा के० सहसात्कारें अनाभोगथकी जे दोष लागे ते छुटे, एटले तद्भव dearer कर्म वां होय ते छुटे, संयतने के मुनिराजने तत्काले के० तेज भवमा छुटे इतिभाव. श्री आचारांगे पंचमाध्ययने चतुर्थोद्देश के गाथा - "एगया गुणसमितियस्तरीयतो कायसंफासमणुचिन्ना। एगवियां पाणां उद्दायंति, इहलोगवेदणविज्जावडी । अस्यार्थ लेशः कदाचित् गुणसमित्त के० गुणसहित अप्रमत सुनिने चालतां थकां काय फार्स के० कायस्पर्श थयाथी कोइ जीव हणाणो, तेवारे इहलोके वेदनानो जे वेद्य के० अनुभव तेहने आवडिअं के० पाम्युं एटले आ भवें भोगवंवा योग्य कर्म वंधाय तथा आकुट्टियें के० विना
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प्रयोजने कारण विना पापकर्म करयुं ते कर्म पच्छिते के० दश प्रकारचं प्रायश्चित छे तेमां हरकोड मायश्चित आवे एम प्रथम अंगनी भाले के० आचारांगनी भलामण छे, पांचमा अध्ययनना चोथा उद्देशामां "ज आउट्टीकयं कम्म, तंपरिबाय विवेगमेति इति एतद्द्वत्यैकदेश: जं आउहि इत्यादि यत्तु पुनः कर्माकुट्या कृतमागमोक्तकारणमंतरेणोपेत्य पाण्युपमईनेन विहितं तत् परिहाय परिज्ञया विवेकमेति विविच्यते अनेनेति विवेकः मायश्चित्तं दशविधं तस्यान्यतरं भेदमुपैति तद्विवेक वा अभावाख्यमुपैतीति तत् करोति येन कर्मणो अभावो भवतीति । ते कारण माटे पाप जाणीने सेवq तेहनो महादोष छे इतिभावः ॥ १४ ॥
पायच्छित्तादिक भाव न राखे, दोप करी निःसूकोरे । निबंधस सेढीथी हेठो, ते मारगथी चूकोरे ।। श्रीसी० १५॥
अर्थ-माटे ते अतिचार सेवीने पण पायच्छित्तादिक के० विशुद्ध थाय ते, गुरु आदिक पासेंथी प्रायश्चित्त प्रमुख लेवानो अभिप्राय राखेज नहीं तो ते पाणी दोप करीने पण निम्सको के निर्दयी जाणवो. यत:-"जो चयइ उत्तरगुणे, मूलगुणेवि अचिरेण सो चयइ। जह जह कुणइ पमायं, पिल्लिजइ तह फसाएहि ॥ १॥" इत्युपदेश मालायां तथा ते पाणी निदूधस के० गतधर्मा छे एटले प्रवचनरूप धर्मनी हानी थाय तेहनी अपेक्षा राखे नहीं ते जीव सेढीथी हेठो के० गुणश्रेणीथकी अधोवर्ती अथवा संयमश्रेणी थकी हेठो जाणवो. वली ते पाणी साधुना मार्गथी चुक्यो एम जाणवू. यतः-"अइयारं जो निसेवी ता पायच्छित्तन गिण्डए । अणुज्जुओय तब्भावो, निधम्मो सो गणीद्यासु ॥१॥ इति श्रीहरिभद्रमुरिकत संवोधमकरणे ॥१५॥ कोई कहे जे पातिक कोधां, पडिकमतां छूटीजेंरे ।। ते मिथ्या फल पडिकमणानु, अपुणकरणथी लौजेरे ॥श्रीसी० १६॥ __ अर्थ-चली केटलाक एम कहे छे के जे पाप करयां होय ते सर्व पापथी पडिकमतां के० पडिकमणुं करतां छुटीयें ॥ यतः-"अनाणओकयं पावं, पडिकमणाओ विसुज्झइ । इति वचनात्. पडिकमणं पापहरणं इति लोकोक्तिः एम कहे छे ते मिथ्या के० खोटुं कहे छे केमके फल पडिकमणा, के० पडिकमणानुं जे फल ते तो अपुणकरणथी लीजे के० फरी अण करवायी पामीयें एटले पापने पडिकमीने फरी पाप नहीं करे तोज पडिकमणानुं फल
पामे. इतिभाव. यत:-"पुण पावस्स अकरणे, पडिकमणं होइ भावसारं च । पुण पावाणं • करणं, नडुव्य दव्वं पडिक्कमइ ॥ १ ॥” इति वचनात् ॥ १६ ॥
मिथ्या दुक्कड देई पातिक, ते भावे जे सेवेरे ॥
आवश्यक साखे ते परगट, माया मोसने सेवेरे ॥ श्रीसी० १७॥ अर्थ-मादे जे मिथ्यादुक्कड के मिच्छामिदुक्कडं देइने वली तेहिज पापभावें करीने
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सेवे छे ते प्राणी प्रत्यक्षपणे आवश्यकनीसाखे माया मृपाने सेवे छे. शामाटे जे गुरुआदिकने राजी करवाने अर्थे मिच्छामि दुकडं दिए छे पण परमार्थे सुन्य छे. यतः-"ज दुकई ति मिच्छा, तं चेव निसेवेइ पुणो पावं । पञ्चक्खमुसावाइ, मायानियडीपसंगोय ॥१॥" इत्यावश्यके ॥१७॥
मूल पदें पडिकमणुं भाष्यु, पापतणुं अण करचुरे । सक्ति भावतणे अभ्यासें, तेजस अर्थे वरचुरे ।। श्रीसी० १८ ॥
अर्थ-मूलपदें के० उत्सर्गमार्गे अथवा प्रथमथी पडिकमणुं भाष्यु के० कलु छे. केम कमु छे ते कहे छे के जे पापत' अण कर के० पापर्नु जे न कर तेनुं नाम पडिकम' कहीयें. यतः-"जइय पडिक्कमियव्वं, अवस्स काऊण पावयं कम्मं । तं चेव न कायव्वं । तो होइ पए पडिकतो ॥१॥” इति आवश्यके. पए के० उत्सर्गपदे अथवा पए के० प्रथमथी पडिकम्या. इति. ते माटे शक्ति के० शक्तिमाफक भावे करीने अभ्यास करे एटले शक्तिभावथी अभ्यास करे ते पण जश के० जेहने अर्थं पाप अण करवाने अर्थ वर के० आदर एटले शक्ति अभ्यास करे ते पण पछे पाप न करे. इति भावः अथवा परमार्थे जश ते मोक्ष तेने अर्थे वर के० आदरयु अने कानुं नाम पण जशविजयछे ते पण सुचव्यु ॥१८॥
॥ ढाळ त्रीजी॥ ॥ तुंगीयागिरि शिखर सोहे ॥ ए देशी ॥ देव तुझ सिद्धांत मीठो, एक मने धरियें । दुष्ट आलंबन निहाली, कहो केम तरीयें ॥ देव तुझ० १॥ अर्थ-हवे त्रीजी ढाल कहे छे एने वीजी ढाल साथै ए संबंध छे जे बीजी ढालमां एम कयु के पाप न कर, ते पडिकम'. माटे त्रीजी ढालमां कहे छे के पाप शी रीतें थाय. जो हीणा आलंबन न होय तो पाप न थाय ते कहे छे. जे हे देव ! हे परमानंद विलासी! तुझ सिद्धांत के० तहारुंजे आगम स्याद्वादसैलीरूप ते मुझने अत्यंत मीटु लागे छे. इतिभाव। ते एक मने परिएं के० एकाग्र चिचें करी धरी राखीयें अने दुष्ट जे हिणा आलंबन ते निहाली के० जोइने एटले कोइकें कोई कारणे काइ विपरीत अंगीकार करयु होय ते पोते धारी राखे तो ते धारीने हे सज्जन पुरुषो तमे कहो जे केम के० केवी रीतें संसारसमुद्र तरीयें ।। १॥
दुष्ट आलंबन धरे जे, भग्न परिणामी । तेह आवश्यकें भाष्या, त्यजे मुनि नामी ॥ देव तुझ० २॥
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(१६)
अर्थ-माटे दुष्ट के० दूषणसहित जे अपवाद साधन होय ते ले कोइ चित्तमां घरं ते तो भग्नपरिणामी के० संयन क्रियायी भाग्या के परिणाम जेहना एहवा जे लिंगी हो तने आवश्यक विषे भाप्या के० क्या छे. केवा कथा के ? के मुनिनामी के मुनि नामना घणी एटले जे सुनीवर होय से सेवा लिगीने त्यजे के० छांडे ॥ २ ॥
नियतवास विहार चेईय, भक्तिनो धंधो ॥
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मूढ अज्जालाभ थापे. विगय पडिवंधो || देव० ३ ॥
अर्थ-वे दुष्ट आलंबन देखाडवा मांडे द्वार बांबे ने एक नियतवास विहार के० नित्यवासे विचर एटले नित्यवास कल्प इतिभाव. एक स्थानके रहे एम कोइक स्थाप है. बीजी चेsय भक्तिनो धंघों एटले चैत्य जे देने तथा जिनप्रतिमा तेनी भक्तिनो वंधी जे कार्य व्यग्रता ते साधुने करबो एडले जिनपूजादिक करवी. इतिभाव, वटी श्रीजी मूढ के० मूर्ख ते अजालाम थापे के० आयांना लाभ थापे के एटले साध्वी बोहोरी लावे ते साधुने पे एम थापे छे: चांथो विगय जे दूध दही प्रमुख अने कडाविगयने त्रिषे पडिबंधों के प्रतिबंध एटले विना लोपी ने एम कहे ले के विगय खातां दोप नयी. यत:- "नीआवासविहारं. चेड्यभत्तिच अज्ञोपालाभं । विगईनुअ पडिवद्धं निहोस चांडया वित्ति ॥ शा" ॥३॥ कहे उग्र विहार भागा, संगमआयरिओ |
नियतवास भजे वहु श्रुत, सुणिओ गुणदरिओ ॥ देव० ४ ॥
अर्थ- हवे उग्रविहाररूप द्वार छांते की देखा है. से कोर्डक एम कहे के के उग्रविहारी वाक्यां संगमआयरियो के संगमाचार्य नियतवासभजे के० नित्यवासीपणुभज्युं छे. ने संगमाचार्य बहुश्रुत के ज्ञानी पुरुष हता एवं अमे क्षुणियों के० आगममाई सांभल्युं के एटले गुणसमुद्र तथा बहुश्रुत एवा संगमाचार्ये नित्यवास कबुल करयां तेथी अमे पण जाणीय छैये से एक ठाम रहेतां दोष देखाना नयी एम कहींने नित्यवास यापे हे. यन:-"संगमये॒रायरिओं । मुतबस्सी तìव गीयन्यो । पेहिता गुणदोमं । नियावासं पत्रन्नोऊ || १ ||” इतिबंदनकनिर्युक्तौ ॥ ४ ॥
न जाणे तं खण जंघा, वल थोविर तहो ।
गोचरीना भाग कल्पी, बहु रह्यो जेहा ॥ देव० ५ ॥
अर्थ--ए गर्ने जे कहे थे तेने उत्तर करें ले के जे एम कहे ते पुरुष न जाणे के नयी जाणना एकले नयो गणता जे वीण के आएं युं हनु जंघावल के० जंबातुं बल पटले हिंडवानी शक्ति ही नहीं, वही थिविर के० वडपण हनुं वा तेहीं के ते संगमाचार्य हना तथा उन्णी दुर्भिक्ष बनो. विप्यने विहार कराव्यो हतो. बळी ते अप्रतिबंत्रपणे रह्या ने पण गौचरीना भाग गाममां कल्पीने रहा हना, एटले एक बरे आहार न लेता
हना.
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(१७) एवो थका बहु रयो जद्दी के जे संगमाचार्य. यत:-"ओमे सीसपवासं, अपडिवंध अजंगमत्तं च । न गणंति एग खित्ते. गणंति वासं निययवासी ॥१॥" एटले नित्यवास न करवो इतिभाव. ते संगमाचार्यतुं कथानक आवश्यकमूत्रथी जाणवू ।। ५ ।।
चैत्यपूजा मुक्ति मारग, साधुने करवी ॥ जिणे कीधी वयर मुनिवर, चैत्यवास ठवी ॥ देव०॥६॥
अर्थ-वे चैत्यपूजा के० प्रभुपूजा ते मोक्षनो मार्ग छे ते माट साधुने करवी. केमके अमे न करीयें तो ए देरासरनी संभाल कोण करे. जो मूकी दइयें तो विच्छेद जाय तेमाटे अमे असंयम अंगीकार करयुं छे. ते उपर दृष्टांत देखा छे के जिणे के. जे कारण माटे श्रीवयरस्वामी आचार्य पूजा भक्ति करी छे माटे निर्दोष छे इतिभाव. यत:-" चेहयपूया कि वयरसामिणा मुणियपुब्बसारेणं । न कया पुरियाइ तओ, मुख्कंग सावि साहुणे ॥१॥" इत्यावश्यक । एक पुप्पादिक लाव्या एटलुंज देखे छे पण आवां कारण इतां ते देखता नयी ॥६॥
तीर्थउन्नति अन्यशासन । मलिनता टाणे ॥ पूर्व अविचित पुष्प महिमा । तेह नवि जाणे ॥ देव० ॥ ७ ॥ अर्थ-जे तिहां तो तीर्थ के० जिनशासननी उन्नति यती हती वली अन्य भासन के० अन्य तीथिनी मलिनता के० मेलाश करवाने टाणे के० अवसरे ते पण पूर्व अविचित के० पूर्वे पुप्प उतारी मेला करयां हतां एवां फल हतां तेहनो महिमा के० महात्म्य दृतुं ते नविजाणे के० एहवी वातनी जेने खवर नथी तं भूले छे, ए वयरस्वामीनु चरित्र आवश्यकथी जाणवू. यतः-"ओहावणा परेसि, सतित्थउम्भावणं च वच्छल्लं । न गणति गणेमाणा, पुन्बचियपुप्फमहिम च ।। ५॥” इत्यावश्यक ॥ ७ ॥
चैत्यपूजा करत संयत । देव भोई कह्यो । शुभमने पण मार्गनाशि । महानिशीथे लह्यो ।। देव०॥८॥
अर्थ-चैत्य के० जिनपतिमा तेनी पूजा करता थकां संयत के० द्रव्यलिंगी साधु ते देवमोइ के. देवना द्रव्यनो भोगवनारो कह्यो छ, एटले संयतने पूजा करतां देव द्रव्यनी शंका रहे नहीं माटे देवद्रव्यनो भोगी कहीये जिनपूजा करूं, एवा परिणाम ते शुभ मन कहीये, पण एवी करणी करतो थको मार्ग जे जैनमार्ग तेना नाश करे के एटले उन्मार्गे प्रवर्तछे ए रीते महानिशीथमुत्रमा कडु छे. तथाच तत्सूत्र-"एवंचण गोयमा केइ अमुणियसमयसन्मावेओसनविहारीणीयवासीणो अदिट्टपरलोगपञ्चवाएसयंमती इवीरससायगारवाइमुच्छि ए रागदोसमोहाहंकारममीकाराइसु पडिवद्धो कसिणसंजमसधम्मपरम्मुहे नियनिर्तिसनिग्धिणअकल्लुणनिकिवे पावायरणेक्कनिविबुद्धी एगतेणं अइचंडरोइकराभिग्गहिओ मिच्छदिट्टीणो
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( १८ )
कयसव्वसावज्जजोगपच्चक्खाण विप्पमुक्का सेससमारंभपरिग्गडे तिचिडेणं पडिबन्नसामाइए यदबचाए न भावत्ताए नाममेतमुंडे अणगारे महव्त्रयधारी समणे विभवित्ताणं एवं मन्त्रमाणे सब्वा उपवर्ग पवत्तंति तडा किल अम्हे अरहंताणं भगवंताणं गंधमल्लपदीवसमज्जणोवलेवणविचित्तवत्थबल्ली वाडएहिं पूयासक्कारेहिं अणुढियहमव्यच्चणं पकुव्वाणा तित्युच्छपणं करेमो तंच णोणं तदृत्ति गायमा समणुजाणेज्जा से । भयवं केणंअट्टेणं एवं वृच्चड जाणं तंच गोणं तहति समजाणिज्जा' गांयमा तियत्थानुसारेण असंजयबाहुलेणं च शूलंकंमासयं धूलंकंमासव्वाआय अज्झवसायं पद्दुच्च शूलयरसुहासुद्वकम्मपयडिवंधो सव्वसावज्जविरयाणं च वयभंगो वयभंगेणं चाकमा आाकम्येणं तु उमग्गगामित्तं उमग्गगामित्तेणं च समग्गपल्लीयणं उमग्गपवत्तणं समग्गविष्पलोयणेणं च जईणं महतिआसायना तय अनंतसंसाराहिंडणं एएणं अद्वेणं गोमा पोणतं तदृत्ति- समणुजाणिज्जा ।" इत्यादिक महानिशीथे तृतीयाध्ययने अथवा मडानिशी पंचमाध्ययने पण पाठ . यथा-" से भयवं जेणं कई साहू चा साहूणी वा निग्र्गये अणगारे दव्यत्ययं कुज्जा सेणं किमालवेजा! गोयमा जेणं केई साहू वासा हूणी वा निग्गंये अणगारे दव्वत्थयं कुज्जा सेणं अजए वा असंजए वा देवभोएड़ वा देवचगेड वा जावणं उयग्गपयईप वा दुरुप्रियसीलेई वा कुसीलेई वा सछंदयारिएर्ड वा आलवेज्जा | " इत्यादि ॥८॥
पुष्टकारण विना मुनि नवि द्रव्य अधिकारी ॥
चेत्य पूजायें न पामे । फल अनधिकारी ॥ देव० ॥ ९॥
अर्थ-मार्ट कोड शासनना उद्योत प्रमुख मोहोटा पुष्ट कारण बिना मुनीश्वर ते द्रव्यअधिकारी के॰ द्रव्यस्तवना अधिकारी नवि के० न होय जे कारण माटे चैत्यपूजा करता सर्व फल न पाये केमके अनधिकारी के० जेहनां जेहने अधिकार नहीं अने ते करे तो तनुं फल न पाये अन्यथा अधिकारी तो फल पाये. यतः - 'अकसिणपवत्तगाणं, विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो । संसारपयणुकरणे, ढब्बथए कुटितो ॥ १ ॥” इति वचनात् । अने वयस्वामी तो कारण प्रवर्त्या मांटं तेने तो पूजा फलवंतन हे ॥ ९ ॥
मार्ग अनियपुत्त अजा, लाभधी लागा ।
कहे निज लाभे अतृप्ता, गोचरी भागा ॥ देव० ॥ १० ॥
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अर्थ-कोहक प्राणी निज लायें अतृप्ता के पोताने लाभ अतृप्त थका तथा अज्जा orest लागा के० आर्याने लाभे लग्न के गूद्ध छे वली गोचरी भागा के० गोचरीना आलम् छे तेहने कीटक प्रेरणा करे जे आर्यानो आण्यो आहार किम करो छां ते वारे एम कडे जे मार्ग अनियत के० अणिकापुत्रने मार्गे एटले ए भाव जे अणिकापुत्रं साध्वीनो आयो आहार की ते मार्ग असे पण लये ये जो दोष होय तो ते अरणिकापुत्र heat, मां आर्यानी आण्यो आहार निर्दोष है, परवचनं आवश्यके, यत:- "अज्जियलामे गिद्धा, सएण लाभेण जे असंतुडा । भिक्खायरियाभग्गा, अन्नियपुत्तं च वसति ||१|| ||१०|
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( १९ )
न जाणे गत शिष्य अवमे, थिविर बलहीणो ।
सुगुण परिचित संयतिकृत, पिंडविधि लोणो ॥ देव० ॥ ११ ॥
अर्थ- हवे जे एम कहे छे तेहने ठपको देतां सहने उपदेश दे छे के जे अर्णिकापुत्रो दृष्टांत आपे छे ते न जाणे के० नयी जाणता जे ते अरणिकापुत्र आर्यानो आण्यो आहार लेता पण केवा हता जे गतशिष्य के० शिष्यनो समुदाय पासे नहतो वली अमे के० दुकाल हतो एटले ए भाव जे दुकाल जाणी शिष्यने विहार कराव्यो हतो वली पोतानी पण थिविर के० वृद्धावस्था हती तथा वलहीणो के० शक्तिहीण हता, गोचरीयें फरवाने असमर्थ हता तथा आर्या जे पुष्पचूला नामे साध्वी ते पग भला गुणनी परिचयवानहती ते संयति के० साध्वी तेणे कृत के० करचो एटले आण्यो एवो जे पिंड के० आहार ते वली विधि के० विधि सहित लीणो के० लीधो छे, ते कारण तो कोइ गणता नथी अने केवल आर्या लाभ गवेषे छे. यतः- “अन्नियपुत्तायरिओ, भत्तं पाणं च पुप्फचूलाए । उवणीयं भुंजतो, तेणेव भवेण अंतगडो || १ || गयसीसगणं ओमे, भिक्खायरिया अपञ्चले थेरं नगणंति सावि सढा अज्जियलाभं गवेसंतो ||२||” तो सहावि के० सखाइ शिष्यादिक छतां पण शठ मूर्ख एम कहे छे इतिभाव ॥ ११ ॥
विगय लेवी नित्य सूजे, लष्ट पुष्ट भणे 1
अन्यथा किम दोष पहनो, उदायन न गणे ॥ देव० ॥ १२ ॥
अर्थ- हवे केइक एम कहे छे जे विगय वावरवी निरंतर कल्पे एम पोते लष्ट पुष्ट थका भणे के० कहे छे, एटले निरंतर विगय वावरतां दोष नथी एवं बोलनारने कोइक रूडा साधु ठपको आपे के भाई विगय तो साधुने निरंतर लेवी कल्पे नहीं. यतः- “विगई विगई भोओ, विगइगयं जो उ भुंजए साहू | विगई विगइसहावा, विगई विगई बला नेइ ॥ १ ॥” इति वचनात् । एम कहे तेने पाछो आवी रीते उत्तर आपे जे अन्यथा के० जो विगय वावरतां - दोष होय तो ते उदायन राजऋपियें केम गण्यो नहीं एटले ए भाव जे विगय लेतां दोष होय तो उदायन ऋषियें केम वावरी हती. यतः- “भत्तं वा पाणं वा, भुत्तूर्ण लावलवियमविसुद्धं । तो वज्जए पडिछन्नं, उदायणरिसिं च चइति ॥ १ ॥" इत्यावश्यके ॥ १२ ॥
उदायन राजर्षि तनु नवि, सीत लुक्ष सहे ।
तेह व्रजमां विगय सेवे, शुं ते न लहे ॥ देव० ॥ १३ ॥
अर्थ- हवे उत्तर कहे छे जे उदायन राजऋषिना तनु के० शरीरने विषे शीत के० टाई अने लक्ष के० लुखुं ते नवि के० नथी सहेवातुं एटले राजवी थकां दीक्षा लीघी के अने रोगीष्ट शरीर छे ते माटे सहन नथी थातुं इविभाव. माटे उदायनरुषिये व्रजमां के० श्रीगोकुलमां विगय बावरी छे एहनुं विगय वावरवानुं कारण ते मूढ न लहे के० शुं नयी
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जाणता एके कोइए कारणे विगय वावरी एटले ते ओह लेइने पोते वावरनार उनमाल थाय छे. यतः-सीयललुक्खाशुचियं, वएमु विगईगएण जावितं । हावि भणति सदा, किमासि उद्दायणोन मुणी ॥१॥ए कथाओ सर्व आवश्यक बृहत् वृत्तियें वंदनावश्यके छे ॥१३॥
लोक आलवन भरिओ, जन असंयतने । तेह जगमा काइ देखे, धरे तेह मने ॥ देव० ॥ १४ ॥
अर्थ-एम लोक के. मनुष्य लोक तो आलंबने भरयों छे. बाल, वृद्ध, सूत्र, अर्थ, द्रव्यादिक आपद प्रमुख आलंवन करे. जेम हुँ बालक छु, अथवा वृद्ध छु तेमज सूत्र भj छु, अर्थ भणुं छु, आ द्रव्य दोहिल छे अथवा आ क्षेत्र नानु छे हमणा दुर्भिक्षादिकछे तथा हुँ आजारी छु इत्यादिक निश्रापद करीने पछे आलंवन खोले. यतः-"मुत्तत्थवालबुड्ढे, अ-, सहूदन्वाइआवईओय । निस्साणपयं काउं, संथरमाणा विसीयंति ॥१॥" इत्यावश्यके एम असंयतने आलंवने जे भरयो छे तेहवा अयनायें चालवानी इच्छा करनार जनने आलंबन घणा छे ते प्राणी जगतमा जे काइ नियत वासादिक देखे ते मने के० मन मांडे घरे के० धारी राखे, अने कोइ पुछे त्यारे ते दृष्टांत देखाडे इतिभावः यत:-" आलंवणाण लोगो, भरिओ जीवस्स अज्जउकामस्स । जं जं पिच्छह लोए, तं तं आलंवणं कुणइ ॥१॥" इत्यादि ॥ १४ ॥
शिथिल आलंबन गहे मुनि, मंद संवेगी। संयतालंबन सुजस गुण, तीन संवेगी ॥ देव०॥ १५ ॥
अर्थ-ते माटे जे मंदसंवेगी के अल्प संवेगवंत मुनि होय ते शिथिल विहारीना ओर्ग ले छे जेम मथुरामां मंगुआचार्य मुगालमां पण एक ठामे रह्या प्रतिबंध तज्यो नहीं पासत्था थयातेमाटे एम करवां पण प्रभु धर्म दीठो एम जणाय छे. गाथा-"जे जत्थ जया जइया, वहुस्सुआ चरणकरणपन्भट्टा। ज ते समायरती आलंवर्ण मंदसट्टाण।।१॥” इत्यावश्यके तथा तीव्र संवेगी के० आकरा वैराग्यवंत तेतो संयवालंवन के०संयतमुनिराज तेमनुं आलंवन करे छे अमुक मुनिराजे भिक्षुक प्रतिमा वही तथा अमुक मुनिराजे उपसर्ग परिसह सहन करया तो पण तेवा सहन करु अथवा तप करुं एवी रीते करतां सुजस गुण के० भला जसनो गुण वधारे गाथा-"जे जत्थ जया जड्या, बहुस्सुआ चरणकरणमाउत्ता । जे ते समायरंती, आलंबणतीब्वसट्टाण ॥१॥” इत्यावश्यके ए दालमां घणो वंदनक नियुक्तिनो अधिकार छ पत्रीजी ढालमां एम कहाँ जे डीणा आलवन लेइने पोते हीणाचारी थाय पछी जे पोते हीणाचारी होय ते शुद्धाचारीनां छिद्र काढे ते वात चोथी ढालमां कहे छे ।। १५ ।।
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( २१ ) ॥ ढाल चोथी ॥
॥ प्रभुपासनुं मुखडुं जोवां, भवभवनां पातीक खोवां-ए देशी ॥ सुणजो सीमंधरस्वामी, वली एक कहुं सिरनामी । मारग करताने प्रेरे, दुर्जन जे दूषण हेरे ॥ १ ॥
अर्थ — हवे हे श्रीमंधर साहेब तुमे सुणजो के० अवधारजो वली के० पूर्वे कही तेथी बीजी बात एक कहुं हुं सिरनामी के मस्तकवडे तमने नमस्कार करीने जे शुद्ध मार्गना करता के० पालता एवाने प्रेरे के० उदीरे एवा जे दुर्जन के० खल पुरुष छिद्रान्वेषी छे ते दूषण ढेरे के० पारका अछता दूषण जूए ॥ १ ॥
कहे निज साखे व्रत पालो, पिण धर्मदेशना टालो । जनमेल्यानुं सुं काम, वहु बोल्युं निंदा ठाम ॥ २ ॥
अर्थ – हवे ते एम कहे छे जे पोतानी साखे व्रत पालो अने धर्म करो पण लांक भेला करीने धर्मदेशना आपवानुं शुं काम छे माटे ए वातने टालो एम उपदेश करी लोक भेला करचानुं शुं काम छे केमके घणुं बोलतां कोइ अवसरे निंदानुं स्थानक पण थाय ॥ २ ॥
एम कहेतां मारग गोपे, खोटुं दृषण आरोपे ।
जे निर्भय मारग बोले, ते को द्वीपने तोले ॥ ३ ॥
अर्थ-एवी रीतना बोलनारा ते मार्ग गोपे के० शुद्ध मार्गने ओलवे छे खोडं दूषण के० खोटा दूषणनो आरोप करे छे केमके जे प्राणी निर्भय के० कोइनो भय न राखे अने शुद्ध मार्ग भाषे ते द्वीपने तोले शास्त्रमां कह्यो छे ॥ उक्तंच - " जो सम्मं जिणमग्ग, पयासए निव्भए निरासंसो । सो भव्वाण जणाणं, दीवसमो भवसमुमि ॥ १ ॥” इति ॥ ३ ॥
अज्ञानी गारव रसिया, जे जन छे कुमतें प्रसीयां । तेहनो कुण टालणहार, विण धर्म देशनासार ॥ ४ ॥
अर्थ — जे अज्ञानि के० मिथ्या ज्ञानी होय अथवा गारवरसिया के० रुद्धिगारव, रसगारव, शातागारव मांहे मग्न थया होय वली जे प्राणी कुमतेंग्रसिया के० कदाग्रहे कुश्रद्धायें सायरा छे एटले अन्य अन्यदर्शनना आग्रहवंत छे इत्यादिकनी कुमति ते सार के० प्रधान एहवी जे धर्मदेशना ते दीघा विना तेआनी कुमतिने बीजो कोण टालणहारछे अने सार धर्मदेशना बिना कुमार्ग सुमार्गनी शी खबर पडे ॥ ४ ॥
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( २ )
गीतारथ जयणावंत, भव भीरु जेह महंत । तसवयणे लोकें तरीयें, जेम प्रवहणथी भरदरीयें ॥ ५ ॥
अर्थ -- हवे ते देशना केवा पुरुष आपे ते कहे छे जे गीतार्थ होय || गाथा - " गीयं भण्णइ सुत्तं, अत्यो तस्सेव होइ वक्खाणं । उभएण य संजुत्तो, सोगीयत्थो मुणेयव्वो ॥ १ ॥” तथा जयणावंत एटले छकायना रक्षक होय बली भवभीरु के० संसारनी बीक राखनार होय के० रखे खोडं बोली जवाय, खोडं बोलीये तो संसार वघे अने महंत के ० मोटा होय एटले गुणे गिरुआ होय तेवा उत्तम पुरुषोनां वचनथकी लोकमांथी तरीयें जेम भरसमुद्रमां प्रवहण के० जहाजथी पार पामीयें तेम गीतार्थनी देशनायें संसारसमुद्रथी तरीयें ।। बीजो तो बोली बोले, सुं कीजे निर्गुण टोले ।
भाषा कुशीलनो लेखो, जन महानिशीथें देखो ॥ ६ ॥
अर्थ- हवे जे गीतार्थ विना डाही डाही वातो करे छे तेने शीखामण आपे छे के गीतार्थ बिना जे बीजो ते तो बोलीने के० देशनाप्रमुख आपीने श्रोताने संसारसमुद्रमां वोले के बुडा के माटे एवा निर्गुण टोलाने शुं करीयें गीतार्थ विना घणुं टोलुं मल्युं होय पण ते शा कामनुं ? केमके जे अगीतार्थ छे ते घणुं वोले उन्मार्ग परुपे तो तेहने भाषा कुशीलने लेखे जाणवा. जन के० हे जन हे लोक (एम लौकिक भाषा छे तेथी एक वचन
माटे एम कहेतुं जे) हे लोको ए बात महानिशीथ सूत्रमां देखो के० जूओ. यथा"कुसी लोसन्नपासत्ये, सच्छंदे सबले तहा दिठ्ठी । एवइमे पंच, गोयमा न निरिक्खए ||१|| पंचेए सुमहापावे, जो न चजीज्ज गोयमा । सलावाइकुसीलेहिं, भमीहि सो सुमई जहा | २||" इति महानिशीथे, एमां एम कहाँ जे पासत्यादिक पांचने जे नवरजे तेमां सलाप कुशीलादिक
आवे अने ते दोषी सुमतिनीपरें ससार भमे तथा । "तहा जिन्भाकुसीले सेणं अणेगहा तंजातित कहुअ कसाय महुराई लवणाई रसाई आसायंते अदिठ्ठासुयाई इहपरलोगोभय विरुद्धाई सदोसाईं मयारजयारुचारणाई अयसंम्भक्खाणं संताभिओग्गाई वा भणते असमय धम्मदेसणावत्तणाणयजिब्भानुसीलेणेए । से भयवं किं भासाए कुसीलत्तं भवइ ? गोयमा भव से भयवं जड एवं ता धम्मदेसणं न कायव्वं गोयमा सावज्जणवज्जाणं वयणाणं जो न जाणड विसेसं बुलुंपि तस्स न खमं किमंग पुर्ण देसणं काउं" इति महानिशीथे ॥ ६ ॥ जनमेलननी नहीं ईहा, मुनि भाषे मारग नीरीहा । जो बहुजन सुणवा आवे, तो लाभ धर्मनो पावे ॥ ७ ॥
अर्थ — जनमेलन के० लोक भेला करवानी नहीं ईहा के० इच्छातो नयी पण धर्मनी प्राप्ति जाणीने लोक आवी वेसे छे तेने मुनीश्वर जैनमार्ग भाषे पण निरीहा के० आशारहितथका कहे पण कोडी मात्रनी आशा न राखे अने यश तथा माननी इच्छा न राखे.
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(२३)
ए रीते धर्मदेशना देतां कदाचित् घणा लोक सांभलवा आवे तो धर्मनो लाभ घुणो थाय घणा लोक धर्म पाये संसार तरे || ७ ||
तेहने जो मारग न भाषे, तो अंतराय फल चाखे । मुनि शक्ति नवि गोपे, वारे तेहने श्रुत कोपे ॥ ८ ॥
अर्थ- -तथा जे लोक धर्म सांभलवा आव्या तेहने धर्ममारग नभाषे के० न सभलावे तो ते मुनियें ज्ञाननो अंतराय करयो तथा विघ्न करयुं तेहनां फल चाखेके० भोगवे एटले ज्ञानावरणी कर्म वांचे. गाथा - "अन्नाणी वख्खाणं, करेइ जो तस्स होइ पाव फलं । नाणीवि जो न भासइ, सो लहए नाणविग्घं खु ॥ १ ॥” इति हितोपदेशमालायां. ते माटे सुनियां जो देशना आपवानी छती शक्ति होय तो गोपवे नहीं अथवा देशना आपतो थको थाके नहीं तथा धर्मदेशना देता थकाने जे चारे छे ना कहे छे ते प्राणीने श्रुत कोपे के० भवांतरे ज्ञानावरणी वां होय ते उदय थाय अज्ञानपणुं आवे एटले श्रुत कोपयुं ॥ ८ ॥
नवि निंदा मारग कहेतां, समपरिणामें गहगहतां । मुनि अद्दचरित मन रंगे, जोई लीजें बीजे अंगे ॥ ९ ॥
अर्थ - एटले शुद्धमार्ग के० निंदा नयी केमके देशना ते ज्ञाननो हेतु के समपरिणामें के० रागद्वेपरहितपणे एटले कोइ उपर रागद्वेष न करे अने कोइनुं नाम छेइ तेना अवरणवाद न बोले ए रीते गहगहतां के० इर्म पामी भाषें एम आद्रकुमारतुं चरित्र बीजे अंगे श्री सुयगडांगसूत्रना वीजा श्रुत स्कंधना छट्टा अध्ययने जोइ लेजो. यथा-" इमं वयं तु पाउ कुव्वं, पावाईणो गरिहसि सव्वमेव । पावाईणो पुढो पुढो किट्टयंता, सयं सयं दिडि करेंति पाउं ||१|| ते अन्नमन्नस्स गरहमाणा, अक्खतिज समणा मारणाय । सतोय अत्थी असतो अ नत्थी, गरहामो दिहिं न गरहामो किंचि ॥ २ ॥ न किंचि रूवेणभिघारयामा, सदिहिमग्गं तु करेमि पाउँ" । इत्यादिक अधिकार मनने रंगे करीने जोजो ॥ ९ ॥
कोई भाषे नंवी समजावो, श्रावकने गूढा भावो । ते जुठ कह्या लट्ठा, श्रावक सूत्रे गहियठ्ठा ॥ १० ॥
अर्थ - वली कोइ एम कहे छे जे श्रावकने गुढाभावो के सूक्ष्म अर्थ भुं समजावो छो ए नहीं समजावो जो तमे समजावशो तो सर्वने पूछता, फरशे सामा आपणां छिद्र जोशे एवी रीते जे कहे छे ते जुढं कहे छे केमके श्रावकने तो श्रीभगवतीसुत्रमध्ये "लद्धडा, गहिया, पुच्छीया, अभिगयहा, विणिछियहा" इत्यादिक पाठ को छे माटे जो श्रावकने अर्थ न समजाव्या होय तो ए पाठ केम को छे इतिभाव ॥ १० ॥
गूढ
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( २४ ) कहे कोई नवी सि जोडी, श्रुतमां नहीं कांई खोडी | ते मिथ्या उद्धत भावा, श्रुत जलधि प्रवेशें नावा ॥ ११ ॥
अर्थ- वली केटलाक असमंजस एम वोले छे के नवी सी जोडीके० नवा ग्रंथ अथवा स्तवन सज्याय जोडवानुं शुं काम छे केमके श्रुत के० सिद्धांतमां तो कांइ खोड नथी एटले सिद्धांतमां छे ते करतां तमे अधिक थ्रु कहेशो एवं कहे छे ते पण मिथ्या के० खोडं कडेछे कारणके सिद्धांतमांथी ऊद्धरीने जे ग्रंथ करचा छे ते भाव छे ते श्रुतजलधि के० श्रुतरूप समुद्रमा प्रवेश करवाने नावासरिखाछे एटले समुद्रमां जो नावा होय तो प्रवेश थाय तेमज सिद्धांतरूप समुद्रमां पण जो ए ग्रंथ प्रकरणरूपी नावडां होय तोज प्रवेश थाय ॥ ११ ॥ पूरव सूरियें कीधी, तेणे जो नवि करवी सिद्धि ।
तो सर्वे कीधो धर्म, नवी करवो जोयो मर्म ॥ १२ ॥
अर्थ -- एवं सांभली वली प्रतिवादी वोल्या के तो पूर्वांचायें जे जोडी कीधी छे तेहज भणी ते के० ते माटे जो नवी करवी सिद्धि के ० नवी जोडी न करवी एम व्रात सिद्ध थई एटले नवा प्रकरण प्रमुख जोडवा नहीं एम सिद्ध थयुं एवं बोलनारने उत्तर कहे छे के तो पूर्वे सर्व उत्तम जीवो थया तेणे सर्वे धर्म करचो छे ते माटे तमे वली धर्म शुं करवा करो छो, तमारे पण न करवो केमके पूर्वाचार्य जोडी करी छे माटे आपणे न करवी तो पूर्वे धर्म पण घणा जीवें करचो छे माटे आपणे न करवो ए मर्म के० ए भाव ॥ १२ ॥ पूरव बुधने बहु माने, निज शक्ति मारग ज्ञाने । गुरुकुलवासीने जोडी, युगति एहमां नहीं खोडी ॥ १३ ॥
अर्थ-माटे जो ग्रंथनो जोडनार आवो थइने नवा ग्रंथ जोडे तो तेमां कांइ दोष नथी पूर्व बुधने बहुमाने के० पूर्व पंडित गीतार्थ थया तेहनुं वहु मान करे जे पूर्वाचार्य आगले
ते शा हीसाबमां कुंपण तेनुं वचन खंडे नहीं तथा पोतानी शक्ति प्रमाणे योजना करे पण अधिक योजना न करे जो अधिक योजना करे तो कोइक ठेकाणे खोटुं आवी जाय माटे शक्ति प्रमाणे जोडे वली मार्गज्ञाने के० जैनमार्गनु ज्ञान चोखुं निर्मल होय तो जोडे चली गुरुकुलवासी होय ते संप्रदाय शुद्ध जाणे तेवारें यथार्थजोडाय एवा पुरुषे जोडनुं युक्त घटमान के एमां कांइ खोडी के० हाणी नयी ॥ १३ ॥
एम श्रुतनो नहीं उच्छेद, ए तो एक देशनो भेद |
अर्थ सुणि उल्लासें भवी वरते श्रुत अभ्यासें ॥ १४ ॥
अर्थ- ए रीते नवी जोडी करतां श्रुतज्ञाननो उच्छेदनयी थातो पण श्रुतवृद्धि थाय छे एतो एक देशे भेद के एटले ग्रंथ नामे भेद के पण आत्यंतिक भेद नथी वली ए ग्रंथनो जे अर्थ के भाव उल्लासें ० हर्षे सांभलीने भव्यप्राणी ते श्रुतज्ञान भणवाना अभ्यासमां तें
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(२५)
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केमके तेहना मनमांहे एम उपजे के आ ग्रंथमां आटली बात कही छे तो सिद्धांतमां तो घणा सूक्ष्मभाव काहशे तेसारु वधारे भणवानो अभ्यास करे माटे नवी जोडी करवी ते सिद्धांतनी वृद्धि करे छे पण उच्छेद करती नयी इतिभाव ॥ १४ ॥
इहां दूषण एक कहाय, जे खलने पीडा थाय ।
तो पण ए नवी छोडीजें, जो सज्जनने सुख दीजें ॥ १५ ॥
अर्थ - इहां एक दूषण कहेवाय छे ते आवी रीते के पंडितलोक जे ग्रंथ करे छे तेथी पंडितनो यशवाद बोलाय छे ते जे खललोक होय तेथी खमातुं नयी माटे ते खललोकोने पीडा थाय छे तोपण ए नवी जोडी करवी ते नव छोडीजें के० न मूकीयें जो सज्जन पुरुष सुख आपीयें तो नवा ग्रंथ जोडताज नइयें पण थाकीयें नहीं इति भाव ॥ १५ ॥ ते पुण्ये होसे तोष, तेहने पण इम नहीं दोष ।
उजमतां हीयडे हीसी, जोई लीजें पेहेली वीसी ॥ १६ ॥
अर्थ - ते नवा ग्रंथ जोडतां पुण्य थाशे ते पुण्ये करीने सज्जनलोकोने संतोष उपजशे इहां सज्जनपद बहारथी लइयें तथा तेहने पण के० ते खललोकोने पण एम दोष नथी एटले तेने पण पीडा न थाय. केवी रीते न थाय के जो उजमतांके० उद्यम करीने हीयडे डीसी के० हृदयमा हर्ष पामीने ए अर्थ प्रथम वीसीमां हरिभद्रसूरिये कहां छे ते जोइ लेजो. यतः–“इक्को य होइ दोसो, जं जायइ खलजणस्स पीडत्ति । तहवि पयट्टो इत्थं, दिÎ सुयाण अइतो || १ || तत्तो चिय जं कुसलं, ततो तेर्सिपि होइ नहु पीडा | सुद्धासया पवित्ति, सत्ये निहोसिया भणिया ॥ २ ॥" ॥ १६ ॥
कहे कोईक जूदी रीतें, मुनि भिक्षा भांजे भीतें ।
ते जुटुं शुभ मति ईहे, मुनि अंतरायथी बीहे ॥ १७ ॥
अर्थ -- वली कोइक तो जूदीज रीतें कहे छे जे देशना देवानी ना कहीये छैये तेहनो आशय ए छे जे मुनि देशना देतां अमारी भीक्षा भांगो छो कारणके तमे एवो मार्ग प्ररूपो जे थकी अमने भिक्षा कोई आपे नहीं ते भीती के० बीकने माटे देशना देवानी ना कहीयें छैये ते जुठु के० एम वोलनारा पण खोडं कहे के केमके जे यथार्थ देशना आपनार मुनि छे ते शुभ मतिने हे के० वांछे छे एटले उत्तरोत्तर शुभ अध्यवसाय राखनारा छे तो ते एहवा मुनिराज तो अंतरायथी बीहे छे के जो कोईने अंतराय पाडीभुं तो पोताने अंतराय कर्म बंधा तो एवा मुनि बीजानी भिक्षा केम भांजे इतिभाव ॥ १७ ॥
जे जन छे अति परिणामी, वली जेह नहीं परिणामी तेहने नितें समजावे, गुरुकल्प वचन मन भावे ॥ १८ ॥
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(२६)
अर्थ- माटे जे लोक अति परिणामी छे एटले एक निवें मार्गज आदरयो के ते पोतेज आ स्तवनमां आगल कहेशे जे - "भेदलव जाणतां केइ मारग तजे, होय अति परिगति परसमय स्थिति भजे ।" वली केटलाक लोक ते नहीं परिणामी के केवल व्यवहारनेज आदरे छे ते क्रिया व्यवहारमां राता पण निवें मार्ग जाणताज नथी ते पण पोतेज आ स्तवनमां आगल कहेशे - " केइ नवी भेद जाणे अपरिणतमती, शुद्धनय अतिहि गंभीर छे ते वती ।" ए वचनथी तो एम जाणीयें छैयें जे अतिपरिणति ते निश्चयवादी अने अपरिणति ते व्यवहारवादी तथा विशेषावश्यक मध्ये तो वृत्तिकारें एम लख्यु छे जे - "इह शिष्यात्रिवि - धास्तद्यथा अपरिणामा अति परिणामाः परिणामाचेति । तत्राऽविपुलमतयोऽगीतार्था अपरिणतजिनमतरहस्या अपरिणामाः, अतिपरिणामा अतिव्याप्तापवाददृष्टयोऽतिपरिणामाः, सम्यक्परिणतजिनवचनास्तु मध्यस्थवृत्तयः परिणामाः । तत्र ये अपरिणामास्ते नयानां यः खखआत्मीयआत्मीयविषयो ज्ञानमेव श्रेयः क्रिया वा श्रेय इत्यादिकस्तमश्रद्धानाः येत्वतिपरिणामाः तेपियदेवैकेन नयेन क्रियादिकं वस्तुप्रोक्तं तदेतन्मात्रं प्रमाणतया गृण्डतः ।" इत्यादिक लख्युं छे इहां तो पूर्वोक्त अर्थ पण लागे छे तथा महाभाष्योक्त अर्थ पण लागे छे वली विशेष बहुश्रुत कहे ते खरं इतिभाव - एहवा अतिपरिणामी तथा नहीं परिणामी जे लोक छे तेहने नितें क० न्यायमार्ग स्याद्वादमार्ग देखाडी गुरु समजावे छे अथवा निते के० निरंतर देशनायें करी समजावे छे ते कोण समजावे के गुरु के० गुरु समजावे छे एम वृहत्कल्पभाग्यमां वचन छे ते मनमां भावीनें कहे छे. यतः - " अइपरिणइ अपरिणइ, दुहंचि मग्गं जणो पणासंति । तम्हा देसणमाइक्खई, सुहगुरू मग्गरख्कष्ठा ॥ १ ॥ १८ ॥
खल वयण गणे कुण सूरा, जे काढे पयमां पूरा |
तुज सेवामां जो रहीयें, तो प्रभु जश लीला लहीयें ॥ १९ ॥
अर्थ- माटे देशना न देवी विगेरे खललोकनां वचनने कोण शूरवीर पुरुष गणे के०कोण गणतीमां आणे एटले शुरवीर तेने गणतीमां आणताज नथी. जे खलपुरुप छे ते पय के० दूधमांथी पण पूरा काढे छे माटे जे देशना गुणकारी छे तेहने अहितकारी कहेछे तो हे प्रभुजी तेहनां वचन लेखामा गणीयें नहीं अने तुजसेवामां रहीयें के० तमारी आज्ञा पालीयें एटले तमारी आज्ञा एवी रीतें छे जे देशना आपतां लाभज थाय छे. माटे देशना आपबी ए आज्ञा पालनरूप तमारी सेवा छे ते सेवामां जो रहियें तो जशलीला पामीये. इतिभाव ॥ १९ ॥ ए चोथी ढालने विषे खललोके गुणवंतने दूषण दीधा तेहना समाधान करचा. हवे पांचमी ढालमां खललोक निर्गुणी छतां पोताना आत्माने गुणकारी माने छे तेने दोष दीये छे ते संबंधे पांचमी ढाल कहे छें ॥ १९ ॥
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(२७)
॥ ढाळ पांचमा।। ॥राग रामग्री-मंत्री कहे एक राजसभामां-ए देशी.॥ विषमकालने जोरें केई, उव्या जड मलधारीरे। गुरु गच्छ छोडी मारग लोपी, कहे अमें उग्र विहारीरे ॥१॥ श्रीजिन तुं आलंबन जगने, तुज विण कवण आधारोरे । भगत लोकने कुमति जलधिथी, बाहिग्रहीने तारोरे॥श्रीजिन०२॥
अर्थ-विपमकालने जोरें के० पांचमो आरो तथा हुंडाअवसप्पिणीकालने जोरे केटला एक उट्या के० प्रगट थया जड के० मूर्ख वली मलधारी के० वाद्यशरीरे पण मेला अने अंतरंग पाप मेले करी मलीन थयेला माटे मेलना धरनारा कह्याएटले ए भाव जे ए ढाल पाए दुढीआ लुंका आश्री छे. वली वीजा जीवोने पण शिखामण दाखल छे. हवे ते दुढीआओने माथे गुरु नथी माटे एम कडं जे उठ्या जड मलबारी, उकंच वंगचूलिकायां श्रुत हीलना अध्ययने "विकमकालाओ पन्नरसय पणहत्तरी वासेसु गएमु कोहंडी अपरिग्गहीयवंतरी पहावाओ भारहे वासे ॥१॥ सुयहीलणा जिणपडिमाभत्तिनिसेह कारया, सच्छंदाचारा दुमेहा मलिणा दुग्गइगामिणो, बहवे मिस्कायरा समुप्पजिहितित्ति ।" एटले गुरुने तथा गच्छने छांडी मारग लोपी के० उन्मार्ग मरुपीने तथा तेमने कोइ पुछे तेने एम उत्तर आपे जे अमे उग्रविहारना करनार छीए तथा अमे अद्भुत मार्ग पाम्या छै माटे श्रीजिनके० बाह्य अभ्यंतर लक्ष्मीयुक्त एहवा हे जिनराज तुंज जगतने आलंबनके० आधार छे पण हे प्रभु तमारा विना वीजो कोण आधार छे तमे तमारा भक्तिना करनारा जे भक्त लोक छे तेहने कुमतिरूप जलधि के० समुद्र ते थकी बांहि ग्रहीने तारो के पार उतारो एटले नव नवा कदाग्रह उपजता वारो ॥२॥ ' गीतारथ विण भूला भमता, कष्ठ करे अभिमानेरे।
प्रायें गंठी लगें नवी आव्या, ते खूता अज्ञानेरे ॥श्रीजिन०३॥
अर्थ-हवे ते मूर्खलोक गीतार्थ विना भूलाज भमे छे अहंकारे करी जे पोतानो एक मत पकड्यो तेहना अभिमाने करी लोच, मिक्षा, उघाडं माथु, उघाडा पग इत्यादिक कष्ट करता फरे छे, पण पायें एम जाणीयें छैयें जे ते लोक गंठी लगे पण आव्या नथी एटले गंठीभेद प्रण नथी को तो समकितनी वात तो वेगली छे ते पाणी अज्ञानने विषेज खूता छे केमके गुरुआणा विना छे माटे इतिभाव ॥ ३ ॥
तेह कहे गुरु गच्छ गीतारथ, प्रतिबंधे शुं कीजेंरे । दर्शन ज्ञान चरित आदरियें, आपें आप तरीजेंरे ।।श्रीजिन०४॥
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(२८) अर्थ-वली ते पोतानु एकाकीपणु थापवा माटे एम कहेछे जे गुरुनो प्रतिबंध गीताथनो प्रविध तया गच्छनो प्रतिबंध राखी ते प्रतिवंधे करीये केमके प्रतिबंध तेतो दुःखनो हेतु छे माटे प्रतिबंध कोइ साथे न करवो मात्र दर्शन ज्ञान चारित्र ए रत्नत्रयी आदरीयें चीजो कोइ कोइने तारणहार नथी आपे आप तरीजे के० पोतपोतानी मेले तरोयें. यत:-"अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कुडसामलि ।" इतिवचनात् ॥ ४ ॥
नवी जाणे ते प्रथम अंगमा, आदि गुरुकुल वासोरे । कह्यो न ते विण चरण विचारो, पंचाशकनय खासोरे ॥श्रीजिन०५॥
अर्थ-हवे तेने उत्तर आपेछे के ते एम नथी जाणता जे प्रथम अंगमां श्रीआचारांग सूत्रनी आदि के० धुरे गुरुकुलवासो के० गुरुकुलवास कम्यो छे. यतः-"मूयं मे आउसंतेणं, भगवया एवमक्खाय" एम ए मूत्रमांहे का जे मूय के० सांभल्यु मे के मुधर्मास्वामी जंबूपते कहे छ के में एम सांभल्यु छे साक्षात् पण करणाघाटे नहीं आउसंतेणं के० आमृशता भगवान वीरना चरण उपासता थकां सांभल्यु ए वचने करीने सुधर्माखामीय एम बताव्यु जे गुरुकुलवासें वसवू इतिभाव न के० नहीं ते विण के० ते गुरुकुलवास विना चरण के० चारित्र एम विचारो के० चिंतन करो एटले ए भाव जे गुरुकुलवास विना चारित्र न होय एम पंशाशक मांहे श्रीहरिभद्रसूरिये खासो के उत्तम नय के०न्याय कह्यो छे. यत:-"दंसण नाणचरितं, गुरुकुलवासंमि संगयं भणियं । अगुरुकुलवासियाणं, दुप्पडिलंभं खु एयमवि ॥१॥" तथा सिद्धांतमां पण पिंडविशुद्धियें चारित्रनी शुद्धि कहेवाय छे ते पिंडविशुद्धि तो जो गुरुकुलवास होय तो थाय ते मारे गुरुकुलवास विना चारित्र नहीं. यत:-"पिंडं असोह थतो, अचरिती इत्य संसओ नत्थि । चारिचमि असते, सव्वा दिख्का निरत्थिया ॥ ११॥ इति ॥५॥
नित्से गुरुकुल वासें वसवू, उत्तराध्ययने भाष्युरे।
तेहने अपमाने वलौ तेहमां, पापश्रमणपणुं दाख्युरे ॥श्रीजिन०६॥ अर्थ-वली निरंतर गुरुकुलवासें वसवू एम श्रीउत्तराध्ययनसूत्रना अग्यारमा अध्ययने को छ. यतः-"वसे गुरुकुले निश्चं, जोगवं उवहाणवं । पियंकरे पियवाई, से सिक्ख लद्धमरोहई ॥१॥" इति वली तेहने के० ते गुरुने अपमाने के० अवज्ञा करे तो तेहने वली तेहमां के० ते उत्तराध्यनना सत्तरमा पापश्रमणिय अध्ययन मध्येज पापश्रमणपणुं देखाडयु छे एटले गुरु आदिकनी निंदा करतो होय तो तेहने पापश्रमण कहीये. यतः-"आयरियउवज्ञायाणं, सम्मं न पडिनप्पई । अप्पडिपूयए थद्धे, पावसमणेत्ति वुचई ॥ १॥" ते माटे गुरुकुले रहे. दस वैकालिक गुरु शुश्रूषा, तस निंदा फल दाख्यारे । आवंतिमां द्रहसम सद्गुरु, मुनिकुल मच्छसम भाष्यारे॥श्रीजिन०७॥
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(२९) अर्थ-बली दशवकालिक मूत्रने विपे नवमाध्ययने गुरुनी शुश्रूपा के० सेवा करवी वे सेवानां फल घणांकयां छे. काव्यम्-"आयरियग्गि मिवाहियग्गी, सुस्मसमाणो पडिजागरेजा | आलोऽयं इंगीयमेव नचा, जो छंदमारायड स पुज्जो ॥११॥" इत्यादिक आखोत्रीजो उद्देशो जाणवो घली तसनिंदा के० ते गुरुनी निंदानां फल पण ते दसवैकालिकमांडेज नवमाध्ययनना पडेला उद्देशामां कयां छे. काव्यम्-"आसोविसो बावि पर रुडो, कि जीवनासाउ परंतु कुज्जा । आयरियपाया पुण अप्पसना, अबोडियासायण नस्थि मोरुको ॥१॥" इत्यादिक सपूर्ण प्रथम उद्देशो इहां जाणवो बली आवंतिमां के आचारांगमां पांचमा अध्ययनना पांचमा उद्देशा मध्ये सद्गुरुने द्रहसमान कया छे तथा मुनिना कुल के० समूह ते मन्छसमान कया छे-तथा च तत्सूत्र-"सेवेमि तंजहा अवि हरए पडिपुग्ने चिछइ सम्मंसिभोमे उवसंतरण सारक्खमाणे से चिटइ" इत्यादिक एनी निनो बच्चेथी एकटेश लखीयें छैयें -"इह पुनः प्रथमभंगपतितेनोभयसद्भाविनाधिकारस्तथाभूतस्यैवाय इनर्णतः सच हटो निमलजलस्य मतिपूर्णा जलजैः सर्वत् रुपाभितः समे भूभागे विद्यमानोहनिर्गमप्रवेशो नित्य मेव निष्ठति न कदाचिच्छोपमुपयाति मुखोत्तारावतारसमन्वित उपशांतमपगतं रजः कालुप्यापाटकं यस्य स तथा नानाविधांस्तु यारसां गणान् संरक्षन् सह वायादोगणैरात्मानमारक्षयन-प्रतिपालयन् सारक्षन् विष्ठत्येपां क्रिया प्रकृतैव । यथा चासो दस्तयाऽऽचार्यो पीतिदर्शयति से चिट इत्यादि स आचार्यः प्रथमभंगपतितः पंचवियाचारसमन्वितो अष्टविधाचारसंपदपंतः पशिद्गुणगणाधारी हदकल्पो निर्मलजानप्रतिपूर्णः समे भूभाग इति संसक्तामिदापरहिने मुखबिहारे क्षेत्रे समो वा ज्ञानदर्शनचारित्राग्यो मोक्षमार्ग उपशमवतां तत्र तिष्ठति समध्यास्ते किं भून उपशांतमोहनीय इति किं कुर्वन् जीवनिकायान् रक्षन् स्वतः परतश्च सदुपदेशदानतो नरकादिपातादेति स्रोतोमध्यगत इत्यनेन प्रथमभंगपतितं स्थविराचार्यमाह तस्य हि श्रुतार्थदानग्रहणसद्भावात् स्रोतोमध्यगतत्वं स च कि भूतः स्यादित्याह" इत्यादि ॥७॥
गुरु दृष्टि अनुसारें रहेता, लहे प्रवाद प्रवारे। ए पण अर्थ तिहां मन धरियें, बहुगुण सुगुरु प्रसादेरे ॥श्रीजिन०८||
अर्थ-चली गुरु दृष्टि के० गुरुना मुख आगल रहेतां तथा अनुसारें के० गुरुने अनुजायी रहेतां लहे प्रवाद प्रवाद के० प्रकृष्ट जे वाद तेने प्रवाद कहिये ते प्रवादे करीने प्रवाट जाणे एटले प्रवाद ते आचार्य परंपरानो उपदेश तद्रूप प्रवाट करीने सर्वज्ञ उपदेशरूप भवादने जाणे अथवा प्रवाद जे सर्वज्ञ वाक्य तेणे करीने अथवा प्रवाद जे अन्यतिथि
ओना वाक्य ते पते परीक्षा करीने जाणे ए-रीते गुरु पासे रहेतां ज्ञान अंगीकार करे इत्यादिक ए अर्थ. पण तिहां के०ते आचारांगना पांचमा अव्यपनना छा उद्देशामा कयु छे ते मनमा धरियें तत्सूत्र-"अणाणाए एगे सोवडाणे आणाए एगे, निरुवहाणे, एयं ते मा होउ, एयं कुमलस्स देसण, तहिटीए तम्मुत्तीए तप्पुरकारे तरसन्नि तन्निवेसणे अभिभूय
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(३०) अदक्खू अणभिभूए पहू निरालंवणयाएजे महं अवहिमणे पवारण पवायं जाणिजा। सहसंमइयाए परवागरणेणं अनेसि वा अंतिए मुच्चा निहेस नाइवहेज्जा, मेहावी सुपडिहिय सन्चतो सवआए सममेव समभिण्णाय ।" इत्यादिक एहनो अर्थ टीकामां तो वहु छे पण अर्हि शब्दार्थ मात्र लिखीयें छैयें अणाणाए के प्रभुआज्ञारहित एगे के० केटलाक सोवठाणे के०धर्ममा सदा उद्यमवंत थया तथा केटलाक आणाए के० आज्ञायें निरुवहाणे के० सद अनुष्ठानना उद्यमरहित एवं के० ए बे कुमार्गने सद्मार्गना उद्यमनुं आलस जाणवू हवे फरि गुरु शिष्यने कहे छे-सुजने ए वे माहे जो एवं कुसलस्स दंसणं के० ए तीर्थकरनो दर्शन अभिपाय छे तदिहिए के० विनित शिष्ये ते आचार्यनी दृष्टीयें वर्तवु तम्मुत्तिए के० ते आचार्यनी मुक्तिये वर्तवू तप्पुरकारे के० ते आचार्यनी आज्ञा आगल करीने वर्ते तस्सन्नि के० तेओनी संज्ञा जाणे चित्तनो अभिप्राय जाणे तनिवेसणे के० सदा गुरुकुलवासे वसे एडवो शिष्य केवा गुणने पामे ते कहे छे अभिभूय के० परिसह उपसर्गने जीतीने अदक्खु के० घाति कर्मने उच्छेदे हे शिष्य वली अणमिभूए के० परिसहोपसर्गने अण जित्यो थको पहू के समर्थ होय निरालंवणयाए के० माता पिता सज्जनादिकना आलंवन रहितपणे विचरवाने कोण समय होय ते करे -जे के० जे कोइ पुरुष महं के० माहरा अभिप्राय थकी अवहिमणे के० मन वाहेर नथी निकल्यु जेहनु एटले सर्वज्ञ उपदेशे वर्ते छे इतिभाव ते सर्वज्ञ उपदेश केम जाणीये ते उपदेश कहेछे-पवारणं पवायं जाणिज्जा ए अर्थ 'लहे प्रवाद भवादे' एम कडं तिहां करयो छे ते जाणवू. हवे पूर्वोक्त जे प्रवाद ते त्रण प्रकारे जाणे ते कडे छे सहसंमुइयाए के० पोतानी मति अवध्यादिकमते अथवा परवागरणेणं के सिद्धांते करीने वा के० अथवा अधेसि के० अन्य आचार्यादिक तेहने वा अंतिए सुच्चा के समी सांमलोने यथार्थ जाणीने निसं नाइवहेज्जा के तीर्थकरना उपदेशने ओलंगे नहीं केमके जे मेहावी के पंडित मुपडिलेहिय के० भलेपकारें जोईने सव्वतो सवाए के.सर्वप्रकारें द्रव्यक्षेत्रकालमा सर्वपणे स्वदर्शन परदर्शनमतें सममेव के० सम्यक् रीते समभिण्णाय के० जाणीने निराकरण करे इत्यादिक बहु अधिकार छे ते माटे बहुगुण मुगुरुमसादे के० गुरु आदिकना पसाययी घणागुण थाय "पुज्जा जस्स पसियंति, संबुद्धा पुन्वसंथुआ । पसमा लाभइस्संति, विउलं अहियं मुयं ॥ १॥" इत्युत्तराध्ययने प्रथमाध्ययने इहां सूत्र आलावो . विषमहतो माटे अर्थ को छे ॥ ८॥
विनय वधे गुरु पासे वदतां, जे जिनशासन मूलोरं । दर्शन निर्मल उचित प्रवृत्ति, शुभरागें अनुकूलोरे |श्रीजिन०९॥
अर्थ-वली गुरु पासे वसतां विनय वधे अने जे विनय ते जिनशासनचं मूल छ । यता-"एवं धम्मस्स विणो मूलं परमो य से मुख्को" इति दसवैकालिक नवमाध्ययनना वीजा उद्देशकें कह्यो तथा "विनयफलं शुश्रूषा, गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानं । ज्ञानस्य फलं रितिः, विरतिफलं चाश्रवनिरोषः ॥१॥ आश्रवरोधाद्भवसततिक्षयः संततिक्षयान्मोतः।
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तस्मात् कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनयः ॥ २ ॥” इति प्रशमरतो. वली गुरुकुलवासें दर्शन श्रद्धा निर्मल थाय उक्तं च - " सव्वगुणमूलभूओ, भणिओ आयारपढमसूत्ते जं । गुरुकुलवासो वस्सं । वसिज्जओ तत्थ चरणत्थी || १ ||" इति धर्मरत्न वचनात् वली गुरुकुलवार्से दर्शन श्रद्धा निर्मल थाय. तथा उचित के० योग्य प्रवृत्ति थाय ते पण सुभरार्गे के० भला रागसहित प्रति करे ते पण अनुकूल के सन्मुख भावपणे करे पण वेठनी पेठे न करे ॥९॥ वैयावचे पातक त्रुटे, खतादिक गुण शक्तिरे ।
हितोपदेशे सुविहित संगे, ब्रह्मचर्यनी गुप्तिरे ॥ श्रीजिन०१० ||
अर्थ — गुरुनो वैयावच्च करतां थकां पातिक के पाप कर्म त्रुटे . यतः - “वेयावच्चेणं भंते ! जीवे किं जड़ ? वेयावच्चेणं तित्थयरनाम गोयं कम्मं निबंधः" इति उत्तराध्ययने ओगणत्री समाध्ययने कां. वली गुरु आदिक पासे रहेतां खंतादिक के० क्षमा प्रमुख गुणनी शक्ति व तथा गुरु पासे रहेतो थको हितोपदेश सांभळे तेणेकरी तथा सुविहितना सगे करीने ब्रह्मचर्यनीति के० नव वाडो भली रीतें पाले ते गुप्ति पण वधे ॥ १० ॥
मन वा मृदु बुद्धि केरा, मारग भेद न होवेरे ।
वहु गुण जाणे ए अधिकारों, धर्मरयण जो जोवेरे || श्रीजिन०११॥
अर्थ - तथा मृदु बुद्धिकेरा के० जे ऋजुमतिना धणी होय तेहना मन वाघे के० चित्त मां उल्लास बघे कारणके जे भोला लोक होय ते गुरु साथै देखीने हर्ष नामे अने गुरुथी जुदा देखीने भडकी जाय तथा मारगनो भेद न थाय अने जे एकाकी मार्ग प्ररुषे ते घणो अपवाद मरुपे अनं गीतार्थ घणो उत्सर्ग प्ररुपे एवीरीते जुदी जुदी प्ररूपणा सांभलीने लोक पण भिन्नमार्ग समजे तेथी धर्ममार्गनो भेद याय अने गुरु साथै भेला रहेतां थकां न थाय. इत्यादिक गुरुकुलवास मांहे बहु के० घणा गुण जाणे ए अधिकारों के० ए गुरुकुलवासना अधिकारने विषे धर्मरत्नग्रंथ जे प्राणी जुए ते जाणे एटले ए ग्रंथमां गुरुकुलवासें रहेतां घणा गुण छे ते विस्तारें कहां छे इतिभावः ॥ ११ ॥
नाण तणो संभागी होवे, थिर मन दर्शन चरित्तरे ।
न त्यजे गुरु कहिये ए बुध भाष्युं, आवश्यक निर्युक्तेरे || श्रीजिन०
अर्थ- वली ते जीव गुरु पासेथी ज्ञान भणे माटे नाण के० ज्ञाननो संविभागी थाय तेज दर्शनने विषे तथा चरिते के० चारित्रने विषे पण तेहनुं मन थिर रहे ते प्राणी गुरु के० ६० गुरु आदिकने कहियें के० कोइ काले न त्यजे के० न छांडे ए रीते बुध भाष्यं के० पंडित लोके कं एटले भद्रवाहस्वामी चउद पूर्वघर तेणे आवश्यक निर्युक्तिने विषे एम कहूं छे ॥ यतः - " नाणस्स होइ भागी, थिरयरओ दंसणे चरिते य । धन्ना आवकहाए, गुरुकुलवासं न मुंचति ॥ १ ॥” इति ॥ २ ॥
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(३२)
भोतप्रतें जेम वाणे हणता, पग अणफरसी सबरारे । गुरु छोडि आहारतणो खप, करता ते मुनि निवरारे ॥ श्रीजिन०१३ ||
अर्थ - तथा भौत के० चौधप्रतें जेम पिल्लं लेवाने माटे वाणे करीने हणता पण पग अणफरसीने एटछे पग फरसतां पाप लागे ते माटे सवरा के० सवरा नामे राजानी पेठे जे गुरुकुलवास छांडीने आहारनो खप करता एटले शुद्धमान आहार खोलता जे मुनि तेहने नवरा जाणवा एटले नकामा जाणवा इति गाथार्य. भावार्थ तो कथाथी जाणीवें तद्यथा कोइक सन्निवेशने विषे सवर नामे राजा ते चौधनो भक्तिवंत हतो तेना घरें बौधनो गुरु आव्यो तेणे पोताना माथा उपर अति अद्भुत शोभावंत मोरना पीछनुं छत्र धारण कर्तुं हतुं राजा घणी आदर सत्कार आपी आसने बेसाड्यो पछी तेनुं छत्र मोरना चंद्रे करी झगझगाट करतु राजानी राणीयें दीठु पछी कुतूहल पामती थकी राणीयें ते छत्र मांग्युं केमके ते देशमां मोर नहता तेथी ते नवाइ जेतुं हतुं माटे ते छत्र वौवना गुरुए आप्युं नहीं अने उठीने पोताने ठेकाणे जता रह्यो पछी राणीयें भोजन कीधुं नहीं ते वारे राजायें पुछधुं के शा वास्ते भोजन करती नथी राणी बोली के ए छत्र आवे तो भोजन करूं त्यारे राजाये ते छत्र गुरु पासे मांग्यु पण गुरुयें आप्युं नहीं फरी वारंवार माग्र्युं पण गुरु आपे नहीं पछे नेहराग अति दुर्धर छे माटे राणीना स्नेहें राजायें पोताना सुभटोने हुकम करचो जे बलात्कारें पण ए पीछनुं छत्र छेड़ आवो ते वारें सुभटो बोल्या जे ए पोते जीवतां तो छत्र आपसे नहीं माटे तमारो हुकम होयतो कांइक प्रहार करी वलात्कारें लावीयें तेवारे राजा बोल्यो जे गुरुनी आशातना न थाय माटे गुरुना पाद स्पर्श करशो नहीं पण दूर उभा रही वाण नाखीने चेष्टारहित करी छत्र छेड़ आवो पण पादस्पर्श करशो तो गुरुनी अवज्ञा थशे तेनु मोहोडं पाप लागशे ए दृष्टांते जेम शवरराज गुरुनो नाश करतो पण पादस्पर्श करतां वारतो तो एहबोज विवेक गुरुकुलवास तजीने जे शुद्धआहार गवेषे छे तेहनेपण जाणवो. यतः - "सुदुंछाइसु जत्तो, गुरुकुलचागाइणेह विन्नेओ 1 सवरससरक्खपिछत्थघायपायाछिवल्लो || १ ||" इति धर्मरत्ने ॥ १३ ॥
गुरुकुलवासें ज्ञानादिक गुण, वाचंयमने वाधेरे ।
तो आहारतो पण दूषण, खप करतां नवि वाधेरे || श्रीजिन०१४ ॥
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अर्थ - वली गुरुकुलवासे वसतां थकां ज्ञान दर्शन चारित्रना गुण ते दिन दिन मतें बघे वाचना पृच्छनादिके करी वाचंयमने के० मुनिराजने वाधे हवे पाछला वे पदनो अर्थ अन्वय करी की छैये ते ज्ञानादिक गुणनी वृद्धि थाय तो आहारनो खप करतां पण दूषण न वाघे इत्यन्वय एटले ज्ञान ध्याननी लेहेरमां बेठा थकां कोइक द्रव्यानुयोगमां अत्यंत मग्न थया छे एवामां गोचरीयं निकल्या थकां कोइक स्थानकें सूक्ष्म दोष देखीने चितवन करे जे ध्याननी
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लेहेर हनी चित्तमां अंतरवासनायें छे अने घणा घेर फरवा जइश तो ते लेहेर फरी आवशे नहीं एहवं विचारी काइक दूपणसहित आहार लीये तोपण तेहने वाध न करे एटले कर्मबंधनो हेतु न थाय. यत:-"अहाकम्माणि मुंजंति, अन्नमन्ने सकम्मुणा । उवलिचे विाणिज्जा, अणुवलितेति वा पुणो ॥१॥" इत्यादिक मुयगडांगसूत्रे अध्ययन २१ मा मध्ये कई छे. तथा "गुरुकुलवासवसंता मुणीणो वहँति नाणपमुहेहि जइ एसणाइदोसम्स । लवमवि मनिजए सुगुणं ॥१॥" इतिभाव. तथा अपवादें गाढ ग्लानादिकना कार्य अणसरते गच्छमा रह्या गुरुआणा वर्तिने असह भावे वर्त्तता ने आतुर दृष्टांते आधा कर्मादिक आहार ते पण निर्दोप जाणवो तथा चागमः-"संथरणमि असुद्धं, दुन्हवि गिन्हतदितयाणहियं । आउरदिठतेणं, तं चेव हियं असंथरणे ॥१॥" तथा ।। "जा जयमाणस्स भवे, विराहणा मुत्तविहिसमग्गस्स । सा होइ निजरफला, अज्झप्पविसोहिजुत्तस्स IR॥" उत्तराध्ययने ए रीते दूपण सहित आहार ते पण वाघ न करे ।। १४ ॥
धर्मरतन उपदेशपदादिक, जाणी गुरु आदरवोरे। गच्छ कह्यो तेहनो परिवारो, ते पण नित अनुसरवोरे ॥श्रीजिन॥
अर्थ-तथा धर्मरन अने उपदेश पद प्रमुखग्रंथ जोइने ए ग्रंथोमां गुरुकुलवासना अधिकार घणा छे माटे तेमाथी जाणीने गुरु आदरवो वली गच्छ ते कोने कहीये ते कहे छ तेहनो परिवारो के० एहवा सुविहित साधुनो परिवार तेहने गच्छ कहीये. यतः-"गुरुपरिवारो गच्छो" इत्यादिक पंचवस्तु वचनात्. माटे ते गच्छ पण निरंतर अंगीकार करवो अनुसरवो इति यतः-"गुरुगुणजुत्तो गच्छो, गच्छो संविग्गसाहुसमवाओ । मुक्खमग्गत्थिणा सो य, अणुसरियन्वो पयत्तेण ॥ १॥" इत्यादि ॥ १५ ॥
सारणवारण प्रमुख लहीने, मुक्तिमारग आराधेरे। सुभवीरय तिहां सुविहित किरिया, देखादेखें वाधेरे ॥श्रीजिन०१६॥
अर्थ-वली सारण के० विसरयुं होय ते संभारी आपे अने वारण के. पापकरणी करवाने वारे तथा प्रमुखशब्दें करी चोयणा प्रतिचोयणा पण लेवी ते पण जे गच्छमा रहे तेहने थाय पछी ते ते सारणादिक लहीने के० पामीने मुक्तिमारग आराधे के० मोक्षमार्ग साघे. यत:-"गुरुपरिवारो गच्छो, तत्यवसंताण निजरा विउला । विणयाउ तहा सारणमाईहि न दोसपडिवत्ति ॥१॥" इति पंचवस्तुके. तथा श्रीधर्मरत्न प्रकरणनी वृत्तिमध्ये कर्यु छ के सुभवीरय के० भलोवीर्योल्लास वाघे. वली सुविहित किरिया के०आत्मार्थी गीतार्थनी क्रिया व्यवहार ते देखादेखीयें वधे एटले साधुओना समूहने क्रिया तप जपादिक करतां देखीने पोताने पण करवातुं मन थाय तेहथी वधारो-याय ॥ १६ ॥
जलधी तणो संखोभ असहता, जेम नीकलता मीनारे । गच्छ सारणादिक अणसहता, तिम मुनि दुखिया दीनोरे ॥श्रीजिन.
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अर्थ-जेम जलधी के० समुद्रनो संखोम के० कल्लोल प्रमुखनी जे क्षोभना तेहने असहता के. जे वारें सही शके नहीं ते वारे जेम मीन के० मच्छ होय ते समुद्रमांथी बाहार नीकले तो दुःखी थाय तेम गच्छमा रहेता थका गुरु आदिक जे सारणादिक करे ते सहन करवी पडे अने जे वारें न सहवाय ते वारें गच्छथी बाहार निकले तो ते समुद्रमांथी निकलेला मच्छनी पेठे दुःखी थाय दीन थाय केमके गत्यंतरे दुर्गतियें जाय माटे दुःखीदीनज थाय इतिभाव. यतः-"जड जलनिहिकलोलक्खोममसहत्ता य बाहिरं पता। मीणा अमुणिय मूणीणो, सारणपमुहाइअसहंता ॥१॥ इति ओघनिर्युक्तौ । आचारांगपंचमाध्ययनचतुर्थोदेशकस्तौ पुनर्यथा “जह सायरंमि मीणा, संक्खोह सायरस असहता । णिति तो सुहकामी णिग्गयमिचा विणस्सति ॥ १ ॥ एवं गच्छसमुझे, सारणवीईहिं चोइया संता । णिति तओ मुहकामी, मीणा व जहा विणस्सति ॥ २॥"
काक नर्मदातट जेम मूकी, मृग तृष्णाजल जातारे। दुख पाम्या तेम गच्छ तजीने आपमति मुनि थातारे श्रीजिन०१८॥
अर्थ-वली दृष्टांत कहे छे-जेम नर्मदा नदीना किनारा उपर रहेनारा काकपक्षी जे फागडा ते तट के नदीनो कांगे मूकीने ते नदीना कांगथीदर पाणी जेवी झाकल देखाय पण पाणी होय नहीं ते भ्रांतिरूप पाणी तेने मृग वृष्णाजल कहीये ते जलनी भ्रांतियें दोउता एवा जे स्वेच्छाचारी थवा जाय ते कागडानी पेठे दुःख पामे ।। १८ ।।
पालविना जेम पाणी न रहे, जीवविना जेम कायारे । गीतारथविण तेम मुनि न रहे, जुठ कष्टनी मायारे श्रीजिन०१९॥
अर्थ-माटे जेम सरोवरादिकनुं पाणी ते पाल बांध्या विना रहे नहि तथा जेम जीव विना काया न रहे तेम जे मुनिराज छे ते गीतार्थ विना रहे नहीं. "गीयत्थस्स विहारो, वीओ गीयत्थमीसिओ भणिओ ॥" इत्यादि वचनात् माटे जे गीतार्थ विना जेटला कष्ट करे ते सर्व अज्ञानमां भले अने जे अज्ञान ते मिथ्यात्व छे ते माया के० कपट विना होय नहि ॥१९॥
अंधप्रतें जेम निर्मल लोचन, मारगमा लेई जायरे। तेम गीतारथ मूरख मुनिने, दृढ आलंबन थायरे ॥ श्रीजिन २०॥
अर्थ-बली दृष्टांत कहे छे जेम आंधलाने निर्मल आंखनो धणी ते कांटा प्रमुखें रहित एडवा उत्तम मार्गे लेड जइने स्थान पोहोचाडे तेम गीतार्थ जे छे ते जो कदाचिद मूर्ख मुनि होय तो तेने पण दृढ के जवरदस्त आधारभूत थाय के ॥ २१ ॥
समभापी गीतारथनाणी, आगममाहें लहियेरे।। आतमअरथी सुभमति सज्जन, कहो ते विण केम रहियेरे श्रीजिन०
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अर्थ-वली समभाषी के० स्याद्वाद वचनना भाषी होय अथवा समभाषी के० गरीबने तथा मातवरने रागद्वेषरहितपणे देशना आपे क्या गीतार्थ होय नाणी के० सम्यक्ज्ञानी होय आगम माहेथी एहवा गीतार्थ लहिये के० पामीयें छैयें वली आगमअरथी के० पोतार्नु आत्मस्वरूप साघवाने उजमाल थया वया शुभमति के० भली मतिना धणी एटले जेमां कुमति कदाग्रह होय नहीं वली सज्जन के० उत्तम गुणवंत भली शिखामणना आपनारा एहवा गीतार्थ विना इहां सर्व पद संबोधने बोलावीये हे आत्मार्थि हे शुभमति हे सज्जन तमे कहो के ते एहवा गुरुगीतार्य पुरुष विना केम रहीयें के० शी रीते रही शकीयें ॥२१
लोचन आलंबन जिनशासन, गीतारथ छे मेढीरे। ते विण मुनि चढती संयमनी, आरोहे केम सेढीरे ॥श्रीजिन०२२॥
अर्थ-वली गीतार्थ ते ज्ञानरूप लोचनना आफ्नारा माटे गीतार्थने जिनशासनने विषे लोचन कहिये तथा दुर्गतिने विषे पडता माणीने आधार थाय माटे गीतार्थने जिनशासनने विषे आलंबन कहीयें वली गीतार्थ ते मेढी वरावर छे एटले जे खेतर खलाना वचमां स्तंभ रोपीने अन्न उपर फेरवे छे तेने मेढी कहीयें उपलक्षणथी स्तंभभूत कहीयें जेहने आधारें घरमालप्रमुख रहे छे तथा यान कहीये जेहने आधारे महाअटवीनो विहामणो मार्ग होय तोपण पार पामीयें. यत:-"मेढी बालवणं खंभ, दिछी जाणं मुउत्तम । गीयत्वं गुरुगुणाइणं, सम्म जाणमु गोयमा ॥ ॥" माटे ते गीतार्थ विना मुनिराज ते संयमनी सेढी के. श्रेणी केम आरोहे एटले केम चढे अने उत्तरोचर शुभाध्यवसाय केम वधे ए संयमश्रेणीनो अधिकार ते संयमश्रेणीनुं स्तवन अमारा गुरु श्रीउत्तमविजयजीकृत छे तेथी विस्तारें जाणवू तथा पंचसंग्रहयी जाणवु ॥ २२
गीतारथनें मारग पूछी, छांडी में उन्मादोरे।। पाले किरिया ते तुज भक्ति. पामे जगजश वाधारे ॥श्रीजिन०२३।।
अर्थ-ते गीतार्थनें मार्ग पुछीने उन्माद जे स्वेच्छाचारीतुं मदोन्मत्तपणुं ते छांड, ए रीते तमारी आणासहित चाले तेज चमारी भक्ति जाणवी वे तमारी भक्ति करीने जे क्रिया पाले एटले ए भाव के तमारी ए आज्ञा छे जे ज्ञानसहित क्रिया पाले ते प्राणी जगतनेविषे जशवाद पामे ॥ २३ ॥
॥ ढाल ठी॥ ॥ रामुडानी देशी अथवा हितशिक्षा छत्रीशीनी देशी ॥ प्रथम ज्ञान ने पछे अहिंसा, दसवैकालिक साखोरे । ज्ञानवंत ते कारण भजिये, तुज आणा मन राखोरे साहेवसुणजोरे १॥
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अर्थ-हवे आगली दालमा शानसहित क्रिया करता संयमश्रेणी आरोहे एम कयु तेमां शानपूर्वक क्रिया करे तो लेखे छे माटे आ दालमा ज्ञान वर्णवे छे जे प्रथम ज्ञान होय तो पछी अहिंसा के० दया पली शके छे एम श्रीदशवकालिकसूत्रमा का छे. यत:-"पढमं नाणं तओदया एवं चिछइ सन्धसंजए" ते कारणे ज्ञानवंतने भजीये के० सेवीये पण हे परमेश्वर तमारी आज्ञा ते मन राखी के चित्तमा राखीने एटले ए भाव जे ज्ञानवंतने भनी पण साध्यमां एम राखीये जे ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः "नाणकिरियाहि मुक्खो" इति भाष्यवचनाद, माटे स्यावाद दृष्टीये ज्ञाननी सेवा करीये हे साहेब सुणजो के सांभल्यानी पेरे सांभलनो अन्यथा परमेश्वर केवल ज्ञानी छे ते तो सर्व जगतना भाव देखी रहाछे नेहने सांमलवू छे पण भक्तिवंत माणी उपचारे कहे छे के हे साहेव सांभलजो ॥१॥
द्रव्य खेत्रने काल नजाणे, भाव पुरुष पडिसेवरे ।
नवि उत्सर्ग लहे अपवादह, अगीतारथ नित मेवरे ॥सा० २॥ __ अर्थ-वली जे अगीतार्थ छे ते १ द्रव्य न जाणे २ क्षेत्र न जाणे ३ काल न जाणे ४ अने भाव पण न जाणे ५ तथा योग्यछे के अयोग्यछे एहवा पुरुषने पण न जाणे ६ तथा पडिसेव के० पापनी सेवनाने न जाणे जे एणे खवशे पाप करघु अथवा एणे परवशे पाप करयं ते अगीतार्थ न जाणे ७ वली छति शक्तियें जेम सिद्धांतमा मार्ग कह्यो तेमज कर तेहने उत्सर्ग मार्ग कहीये ते पण न जाणे ८ क्या रोगादिक कारणे अल्प दोष सेवे ते अपवादमार्गने पण न जाणे, ए (८) वावो निवमेव के निरंतरपणे जे अगीवार्य छे ते न जाणे. यतः उपदेशमालायां-"दव्वं खितं कालं, भावं पुरिसपडिसेवणाओ य । नवि जाणइ अगीओ, उस्सग्गववाइयं तं चेव ॥१॥" ॥२॥
सचित्त अचित्त मिश्र नविजाणे, कल्प अकल्प विचाररे । योग्य न जाणे निज निज ठामें, द्रव्य यथास्थित साररे ।सा०३॥ अर्थ-हवे प्रथम गाथा विस्तारतां एहिज द्वारमा मथम द्रव्यद्वार कहे छे तेमां द्रव्यथी अगीतार्य शुं न जाणे ते कहे छे सचित्त वस्तु तथा अचित्त वस्तु तथा मिश्र वस्तुने जाणे नहीं वली कल्पनी खवर न पडे जे आ वस्तु कल्पेछे वा नयी कल्पति अकल्पछे ते विचार अगीवार्थ न जाणे वली योग्यतानी खबर न पडे निज निज गमे के. पावपोताने स्थानकें योग्यता न जाणे जे आ बालने योग्य के ग्लानने योग्य इत्यादिक न जाणे ए रीतें यथास्थित के. जे द्रव्य जेम होय तेवीज रीते तेहनी अगीतार्थने खवर पडे नहीं. यथास्थित द्रव्य केQ के सार के प्रधान छे. यदुक्तं-"जहठियद न याणइ, सचित्ताचित्तमीसिय चेव । कप्पाकप्पं च तहा, जुग्गं वा जस्स जं होई ॥१॥" इत्युपदेशमालायां ।। ३ ।
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(३७) खेत्र न जाणे तेह यथास्थित, जन पद अध्वविशेषरे। ।
सुभिक्ष दुर्भिक्ष कल्प न जाणे, कालविचार अशेषरे ॥सा०४॥ __ अर्थ-हवे क्षेत्रद्वार कहे छे अगीतार्थ यथास्थित के० जेवं क्षेत्र होय वेहबु क्षेत्र नसमजे के आ भद्रकक्षेत्र छे के अभद्रक छे इति तथा जनपद के० लोकव्याप्त देशने विषे विहार करतां आवी विधियें करवु अथवा मगधादिकदेशे आवी विधियें करवू इत्यादिक न जाणे. वली अध्वविशेप के० दूर देशे अटवी प्रमुखें आवी रीते विहार करवो इत्यादिक वातो अगीतार्थ न जाणे. हवे कालद्वार कहे छे जे मुभिक्षमा कल्प न जाणे के योग्य न जाणे एटले सुभिक्षमां आ रीते विरच वली दुर्भिक्षमां पण कल्प के योग्य न जाणे जे दुर्भिक्षमां आवी वस्तु होय तोज लेवाय इत्यादिक वातो कालना विचारनी ते अशेप के समस्त प्रकारें अगीतार्थ न जाणे इतिभाव. यतः-"जहठियखित्तं न जाणइ, अद्धाणे जणवए यज भणियं । कालंपिय नवि जाणइ, मुभिख्कदुभिख्कजं कप्पं ॥१॥” इत्युपदेशमालायां ॥४॥
भाव हिह गिलाण न जाणे, गाढ अगाढह कल्परे । खसतो अखमतो जन न लहे, वस्तु अवस्तु अनल्परे ॥सा० ५॥
अर्थ-हवे भावद्वार कहे छे जे भाव के० भावना विचारने विषे हित के निरोगीने तथा गिलाण के० रोगाक्रांतने न जाणे एटले निरोगीने आ देवु तथा रोगीने आ वस्तु देवी ते वातो अगीतार्थ न जाणे अने गाढकल्प के० आकरे कारणे आ रीते करई तथा अगाढकल्प के० स्वभावे सेहेज रीतें तो आ प्रमाणे वर्तवू ए अगीतार्थ न जाणे. हवे पुरुष द्वार कहे छे खमतो के० आ पुरुष सामर्थ्यवान शरीरें कठोर छे माटे खमी शकशे तथा अखमतो के० आ पुरुपर्नु मुकुमार शरीर छे ते नहीं खमी शके एहवा जन के. पाणीने ते अगीतार्थ ओलखे नहीं. वली वस्तु के० आचार्यादिक अवस्तु के. सामान्य साधुने ते अगीतार्थ न ओलखे जे पदस्थने आम घटे तथा सामान्यने आम घटे माटे अनल्प के. इत्यादिक बहु प्रकार ते न जाणे. यतः-"भावे हिगिलाणं, नवि याणइ गाढगाढकप्पंचा सहुअसहुपुरिसरूवं, वत्थुमवत्थु च नवि जाणइ ॥ १॥” इत्युपदेशमालायां ॥ ५ ॥
जे आकुट्टी प्रमादें दरौं, पडिसेवा वलि कल्परे । नवि जाणे ते तास यथास्थित, पायच्छित विकल्परे ॥ सा०६॥
अर्थ-हवे प्रतिसेवा नामें द्वार कहे छे जे निषेध आचरण वेहने प्रतिसेवा कहीयें तेहना चार प्रकार छे तेमां प्रथम आकुट्टी के० जाणीने पाप सेवq ते पण कारण विना सेवq बीजो कंदपादिकने वशथकाजे पाप सेवे ते प्रमाद कहियें त्रीजो धावनवल्गनादिके करी जे पाप लाग्युं ते दर्प कहोयें चोथो आगमोक्त कारणे करी निषेधाचरण करयुं ते
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(३८) कल्प कहीयें ए चारे भेद पडिसेवाना जाणवा. यत:-"पडिसेवणा 'चउद्धा, आउहिपमायदप्पकप्पैमु। नवि जाणइ अग्गीओ, पच्छित्वं चेव जंतत्य ॥शा" इत्युपदेशमालायां तक्षणगाथा "आउट्टिआउविचा,दप्पो पुण होइ वग्गणाईओ। कंदप्पो इय पमाओ, कप्पो पुण कारणे भणिओ ॥१॥" इत्याचारांगवृत्तौ,ए गायानो अर्थ कहे हे आउट्टि ते जाणीने पाप कर दर्प ते धावनवल्गनाटिक सोत्कर्षपणे निपजे कंदर्प ते प्रमादवशे जाणवु अने जेबानादिकने आलंबन हेते आचर ते कारणे जाणवु ए चार प्रकारचं जे पाप ते पापनुयथास्थिव के० जेने जर्बु घटे तेवु प्रायश्चित्तनुं विकल्प जे आ प्रायश्चिचवालाने आयु तप देव इत्यादिक वातो ते अगीवार्य न जाणे ॥६॥
नयणरहित जम अनिपुणदेशें, पंथ नह जेम सत्थरे । जाणे हुं ठामे पोचावं, । पण नहीं तेह समत्थरे ॥ सा०७॥
अर्थ-जेम कोइक नयनरहित के० अंघ पुरुष होय अने वली अनिपुणदेशे के मार्गनो अजाण छे ते अंधपुरुष एवा मार्गने विष पंथन जेम सत्य के० जेम मार्गमां काइक साय नष्ट एटले भूलो पज्यो होय ते सायने आंघलोजाणे जे हुठेकाणे पोचाई पण पोचाडवाने समय न थाय. यतः-"जह नाम कोइ पुरिसो,नयणविहूणो अदेससलो य । कताराडवि भीमे, मग्गपणहस्स सत्यस्स ||१|| इच्छइ य देसियन, किसो उ सम्मत्यउ देसियचस्स । दुग्गई अयाणतो, नयणविहूणो कह देसे ॥२॥" ॥७॥
अगीतार्थ तेम जाणे गरवें, हुं चलबुं सवि गच्छरे । पण तसपासे गुणगण ग्रासे, होई गलागल मच्छरे ॥सा०८॥
अर्थ-ते पूर्वोक्त अंघपुरुषनी रीतें अगीतार्य पण तेम गर्दै के० अहंकारे करी एम जाणे जे हुं वधो गच्छ चलावू ढुं पण तेनी पासे रहेवा यका गुणगण के० गुणना जे समूह ते ग्रासे के० घसाइ जाय एटले अगीवार्यने सगे गुणनो नाश याय. यतः-"एवमग्गीयत्यो विहु, जिणवयणपर्डवचकुपरिहीणो। दव्वाई अयाणतो, उस्सग्गववाइयं चेव ॥१॥ कह सोजयड अगीमओ, कह वा कुणज अगीयनिस्साए । कह वा करेउ गच्छं, सवालषुट्टाडलं सो 3 ॥२॥"इत्युपदेशमालायां अगीतार्यने पासे वसतां मच्छ गलागल थाय के० मोहोटा मच्छ नाना मच्छने गली जाय एम धींगामस्तिनी वात याय पण मार्गनी रीत न रहे ॥८॥
पच्छित्ते अतिमात्र दिए जे, अपच्छित्ते पच्छित्तरे । आसायण तस सूत्रे वोली, आसायण मिच्छचरे ॥ सा० ९॥ अर्थ-बली अगीतार्थ होय ते वगर समजणे पच्छिचे के प्रायश्चिच जेटलु आवे ते
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( ३९ )
करतां उलटो अतिमात्र के० अधिकुं दिए के० आपे अने जेहने अपच्छित्ते के० प्रायश्चित्त न आवतुं होय तेहने पच्छित्त के० प्रायश्चित्त आपे एटले थोडा प्रायश्चित्तवालाने घणुं आपे अने मूलगुं जेने प्रायश्चित्त लागतुंज न होय तेने कहेशे जे तमने प्रायश्चित्त लाग्युं इत्यादिक असमंजस करे एम करनारने सूत्रने विषे आसायण वोली के० जिनाज्ञानी विराधना करी माटे विराधक को छे अने आसायण के० जिनाज्ञानी विराधना तेहिज मिच्छच के० मिथ्यात जाणवुं तथा ते मिथ्यात्वनिमितिओ संसार वधारे. यतः -- "सुत्ते य इमं भणियं, अपच्छिते य देइ पच्छितं । पच्छिते अइमत्तं, आसायण तस्स महई उ || १ || आसायण मिच्छत्तं, आसायणवज्जणा य सम्मत्तं । आसायणानिमित्तं कुब्बइ दीहं च संसारं ॥ २ ॥ " इत्युपदेशमालायां ॥ ९ ॥
तवसी अवहुश्रुत विचरंतो, करी दोषनी श्रेणिरे ।
नव जाणे ते कारण तेहने, केम वाधे गुण श्रेणिरे ॥ सा० १० ॥
अर्थ - तवसी के ० तपश्चर्या करतो तथा अबहुश्रुत के० अगीतार्थ थको विचरंतो के ० विहार करतो थको करी दोपनी श्रेणि के० अनेक दोपनी श्रेणीने करतो एटले अनेक अपराधपद करतो थको पण नवि जाणे के० न जाणे एटले पोताना दोपनी पोताने खबर न पढे ते कारण के० ते हेतुयें ते अगीतार्थ कष्टकरताने गुणश्रेणीनी वृद्धि केम थाय अर्थात् न थाय तेटलीज रहे. यदुक्तं - " अवहुस्सुओ तवस्सी, विहरिउकामो अजाणिऊण पहं । अवराहपयसयाई, काऊणवि जो न याणेइ ॥ १ ॥ देसियराइयसोहिय, वयाइयारे उ जो न या | अविशुद्धस्स न बढइ, गुणसेढी तचिभा ठाइ || २ ||" इत्युपदेशमालायां ॥ १०॥ मार्गमात्र जाणे जेम पंथी, अलही तास विसेसरे । लिंगाचारमात्र ते जाणे, पामे मूढ कलेशरे ॥ सा० ११ ॥
अर्थ-जेम कोइक पंथी होय तेहने कोइ डाह्यो पुरुष मार्ग बतावे तोपण विशेष मार्गनी तेने खवर न पढे केमके पोते डाह्यो नथी माटे डावो जमणोमार्ग जेम न जाणे एक सामान्य प्रकारे मार्गमात्र जाणे तास के० ते मार्गनी डावी जमणी वाजु ते अलही के० अजाणतो केश पाये तेमज लिंग के० साधुवेप ने आचार के० साधुनी क्रिया ते लिंगाचारमात्र जाणे एटले मात्र एक सूत्रनाज अक्षर मान्य करी क्रियादिक करतो पण मार्गने अजाणतो एहवो जे मूढ के मूर्ख अगीतार्थ ते क्लेशने पाये संसार वधारे. यतः - "जह दायंमिवि पहे, तस्सविसेसे पहस्सऽयाणंतो । पहिओ किलिस्सा च्चिय, तह लिंगायारसुमित्तो ॥ १ ॥ " इत्युपदेशमालायां ॥ ११ ॥
भेद लह्याविण नानापरिणति, सुनिमननी गत बोधरे । खिणराता खिणताता थाता, अंतें उपाई विरोधरे ॥ सा० १२ ॥
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(४०) अंग्र-गवरोध के ग! हे वायनान जेयकी एटले सजे होर ने चुनीवरीना मननी नानारिणति के विचित्र मकानी परिणनियांना ज मेद के प्रकार ले लामिण के० जान्याविना पटले जगून मृनिगे हार गंजा नियानी विचित्र परिणति अजाणता
का क्षण एकनांराना याय पडले अंत:करणानां ऋोपी याय नया भग एकम नावायाय पटले वादग्ण ऋोड़ीम याय एग मूतेन एम यातां यकां अयत्रा राजा गगी याय परस्सरे छीडा कर नया वाता के पी नाय कायमयी थई जाय अने अंत के वडे विराधन उपाई के उपजा एलेने मूर्ख मांहमांहे वही करे. पण ममावि न उपजावे।
पश्चरसम पामर आदरता, मणिसम वुध जन छोडिरे। लह्याविण आगनथितिनो, ते पामें बहु खाडिरे । सा० १३ ॥ अर्य-भगिनयमान जे बुधजन के दिन लोग नहन झांडीने पत्यरसम के० पयरा मुमान जे पार यूजन नहनन आदरतां अंगीकार करते पानी ने पूर्व पास रहेना या आगम्नी जे मन अपगहादिल यित्ति के मर्यादा नीन्द के० प्रकार ने अगवा या ते आहग्नारा पुत्स गी तोड ण एटछ संयमल्प शरीर आखें न रहे जर डिन यार इतियार ॥१३॥
ज्ञानभक्ति भांजी अणलहता, ज्ञानतणो उपचारर । आरासारं मारग लोपे, चरण करणना साररे ॥ सा० १४ ॥ अर्थ-पत्राने मन्त्र द्वाय ते जाननी भन्जिन को मांज एटल संडित क नया अणलहना अपवारापना दानवों के जानना जे उपगर विनय नेने अणजाणता नेपानी आरामार के पांच आरा देने अनुसार मारण लोप पनामार्गन लाप हे पटले चुनने आदग्नांबानमनिन मांजवा ज्ञानना उपवार अगरहता ने पुल होप ने पांचमा भाग प्रमाणे गरिने पाले कांता एनाज उत्मग मागे वाले अयन कालदोष
आही उग मार्ग वाकुल भी द. पण मार के प्रधान एग चरणसित्तरि क्या करणमित्तरिना नाग नेने पंचमा आगने अनुसार ने मृन बाप एगने अपने भाल्यो नगने लन्ग हे वली ए गायनो र्य पंडित लोगाने मृज के बा !! ११ ।।
उत्की तहने थे शिक्षा, उदासीन जे सारे। परुपवचन तहने ते वाले, अंग कहे आत्रा ॥ सा० १५ ॥
अर्थ-नकी उनी के उचराचारित्रिण ाय क्या हानि पखाइ होय मार के इन- होर नेग माधु नो नेत्रान प्रसाद न्वरितादिन उनी निमा गा तेबारे ने पार्श गच्छा निश्त्य डोग दे पाठो शिक्षा पारनार साधुन परतवचन के०
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माई करयुं छे बीजा
( ४१ ) कठोर वचन कहे जे मुझने सर्व लोकमां केम तिरस्कार करचो में तो ए रीते करेज छे तो धिक्कार पडो मारा जीवितने इत्यादिक वोले. एम श्रीआचारांग - मध्ये कर्तुं छे तथा च तत्पाठ: - " वयसावि एगे वुझ्या कुप्पंति माणवा उ णयमाणे य नरे महया मोहेण सुझइ ॥ | १ ||" इति एम वचनमात्रेण गच्छने छांडि एकला रही अकार्य सेवे इतिभाव ॥ १५ ॥
अमसरिखा हो जो तुम जाणो, नहीं तो स्या तुम बोलरे । एम भाषि जात्यादिक दूषण, काढे तेह नीटोलरे ॥ सा० १६ ॥
अर्थ - पछी ते मूर्ख मुनि शिक्षा आपनारने पाछा एवा जवाब आपे के जो अमसरिखा तमे होत तो जाणत एटले ए भाव जे अमारे गोचरी पाणी प्रमुख लाववां पडे ते तमने कर पडतुं होय तो तमे जाणो नहीं तो बेठा मोटाई करो एटहुँज तमारामां छे पण कांइ भलिवार नथी. जो अमारी पेठे चालो तो तमे जे अमने शिक्षा आपो ते खरी, नहीं तो तमारा बोल शा एटले तमारुं बोलवु सर्व फोकट छे एम भाषी के० एम कहीने जात्यादिकना दूषण काढे एटले एम कहे जे तमे हीणि जातिना उपन्या छो तमारुं कुल केनुं छे इत्यादिक बोले तेह निटोल के ० ते पुरुषने निटोल जाणवा पण ते सज्जन उत्तम पुरुषमां न गणाय ॥ १६ ॥
पासत्थादिक दूषण काढी, हिले ज्ञानी तेहरे |
यथा छंदता विण गुरुआणा, नवि जाणे निजरेहरे ॥ सा० १७ ॥
अर्थ - वली ते सूर्ख प्राणी शिखामणना आपनारने उलटा पासत्यादिक दूषण काढीने हिले के० हिलना करे एटले एम कहे जे तमारामां शा गुण छे तमे पासत्यावसन्ना छो एम कहीने ज्ञानी के० पंडित गीतार्थनी हिलना करे ए वे पदनो एकठो अर्थ छे एम विण गुरुआणा के० गुरुआज्ञा पाल्या विना यथाउंदता के० आपछंदे आचरण करवानी एवी जे निज के० पोतानी रेहा के० रेखा छे एटले हीणा आचरणनी मर्यादा पोतानी छे तेनी पोतानेज न जाणे के० खबर न पडे एटले ज्ञानीना अछता दूषण काढे अने पोताना छता दूषण होय ते उवेखे इतिभाव ॥ १७ ॥
ज्ञानीथी तेम अलगा रहेता, हंसथकी जेम काकरे ।
भेद विनयना बावन भाष्या, न लहे तस परिपाकरे || सा०१८||
अर्थ - ते माटे ज्ञानी के० जे गीतार्थ गुरु आदिक ते थकी अलगा रहेता थका केवा देखाय जेम राजहंस थकी कागडो जूदो देखाय तेवो ते साधु देखाय तथा विनयना बावन भेद शास्त्रमां कह्या छे तथाहि १ अरिहंत २ सिद्ध ३ नागेंद्रचंद्रादिक ते कुल ४ कोटिकादिक ते गण ५ चतुर्विधसंघ ६ क्रिया ते अस्तिवादरूप ७ संत्यादिक धर्म ८ मत्यादिक ज्ञान ९ मत्यादिक ज्ञानवंत ते ज्ञानी १० आचार्य ११ स्थविर ते सिदाता साधुने यिर करे १२
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(१२) उपाध्याय १३ केटलाक साधुना समुदायना अधिपति ते गणी ए तेरनो चार चार भेदे विनय करवो १ अनाशातना ते जात्यादिक दूषण काढीने हीलना न करे २ भक्ति ते चित. उपचाररूप ३ वहुमान ते अंतरपीति मतिबंघरूप ४ वर्ण संज्वलना ते यश बोलवा ए रीते तेरने चारे गुणतां वाचन भेद थाय इति प्रवचन सारोद्धारे पांसठमे द्वारे ए अधिकार जोजो उपलक्षणथी वावन कह्या तेमज ९१ भेद समवायांगे तथा पिस्तालीस भेद तथा दश भेद इत्यादिक अनेक भेद ग्रंथावरथी जाणवा. ते सर्वे मेदg शीखर्बु तथा ते रीते प्रवचु तेने परिपाक कहीये ते परिपाकने न लहे के० एकाकी साधु न पामे केमके एकाकी विहार करनार कोना पासेथी शिखे तथा कोनो विनय करे ॥ इतिभाव ॥ १८ ॥ सर्व उद्यमें पण तस बहु फल, पडे कष्ट अन्नाणरे । सूत्र अभिन्नतणे अनुसारें, उपदेशमाला वाणरे ॥ सा० १९ ॥
अर्थ-सर्व क्रिया अनुष्टाननो उद्यम तेनुं ने बहुफल के० घणुं फल स्वर्गादिक ते पडेकष्टअन्नागरे के० अज्ञान कष्टमां पडे एटले निर्जरा न थाय संसारपरित न थाय कोने न थाय ते कहे छे जे अविवृत्तार्थ विशिष्ट व्याख्यानरहित एहवू जे सूत्र तेहने अमिन सूत्र कहीये ते अभिन्न सूत्रने अनुसारें क्रियाप्रमुख अनुष्ठान करे ते अज्ञान कष्टमांपडे इतियोग. जे टीका प्रमुख विना विशेष प्रतिपत्ति केम थाय? अन्यथा अनुयोगचं कथन निरर्थक थाय ए उपदेशमालानी वाणी छे. यदुक्तं तत्सूत्रे-" अपरिच्छियमुयणिहसस्स, केवलमभिन्नमुत्तचारित्तस्स । सन्बुजमेणवि कयं, अनाणववे बहुं पडइ ॥१॥" अर्थ ॥ अपरिच्छिय के० नथी जाण्यो मुयणिहसस्स के० श्रुतरहस्य जेणे शेषं सुगमं ॥ १९ ॥
ते तो ऋजुभावे एकाकी, चाले तेहने जुत्तरे । वाम्य कुवासन जे अकुवासन, देशाराधक उत्तरे । सा० २० ॥
अर्थ-इवे ज्ञानीथी अलगा क्यारे थर्बु तथा शा कारणे एकाकी रहे पडे ते असिवादिक कारण घणां छे. यतः-"असिवे ओमोयरिए, रायभए खुभियउत्तमहे य । फिडियगिलाणाचेइसए, सठेवया विव आयरिए ॥१॥" एम कारणोना अर्थ विस्तारें लख्या छे पण अहीं लखतां ग्रंथ वधे माटे लखता नथी पण एक अशिवकारण लखीयें छैयें जे साधु वार वर्ष आगलथी ज्ञानादिक अतिशयें करीखवर राखेजे अमुक वर्षे अशिव थशे अने कदाचित चार वर्ष अगाउ उपयोग न रह्यो होय तो इग्यार वर्ष अगाउ, ते नहीं तो दशवर्ष अगाउ, एम यावत् एक वर्ष अगाउ पण उपयोग राखे. ते पण उपयोग न रह्यो होय तो ज्यारें अशिव जाणे ते वारे साधु त्यांथी विहार करे तेमां कोइक ग्लानसाधु होय ते विहार करी शके नहीं ते वारे पवा कारणे एकला जानी विना पण होय तेमां पण १ साधुभद्रक अने गृहस्थ मांत २ तथा साधुभांत अने गृहस्थभद्रक ३ तथा साधुभद्रक अने गृहस्थ पण भद्रक ४ तथा
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(४३) साधुमांत अने गृहस्थ पण मांत एम चोभंगीथाय इत्यादिक सर्व ओपनियुक्तिमा विस्तार छे ते जोजो. हवे अक्षरार्थ लखे छे जे साधु ऋजुभावे के भद्रक थकां पूर्वोक्तरीते एकाकीचाले के० रह्या होय तेहने जुत्त के० कोइक पूर्वोक्त रीते एकाकीपणुं युक्त छे पण अन्यथा नहीं इतिभाव. वली वे प्रकारना घट चाल्या छे एक भावित अने वीजो अभावित तेमां अमावित ते नवा घट अने भावितना वे भेद एक शुभद्रव्ये भावित वीजा अशुभद्रव्ये भावित ते वली एकेकना वे वे भेद एक वाम्य वीजो अवाम्य. जे वाम्य ते वासना टाली शकीयें अने जे अवाम्य ते वासना टाली न शकीयें तेमां कुवासना वामवा योग्य होय ते रुडा जाणवा. ए वाम्य कुवासना एटला पदनो अर्थ थयो अने जे अनुवासना के० कुवासनायें वास्याज नथी ए नवा घट के० घडा छे ते पण रुडा एम विशेपावश्यकमांछे अथवा वाम्य अवाम्य घटनी भावना नंदिसूत्रनी वृत्तिथी जाणवी. उक्तं च पयईहिं भद्दभावा, कुवासनावासियाविनो दुहा । उज्जुमइणो सुकंखा, ते देसाराहगा उचा ॥१॥" एवा देसाराधकयुक्त होय ते पूर्वोक्त कारणे एकाकीपणे गीतार्थविना रहे इतिभाव ॥ २० ॥
अज्ञानी गुरुतणे नियोगे, अथवा शुभ परिणामरे। कम्मपयडी साखे सुदृष्टी, कहियें एहनो ठामरे । सा० २१ ॥
अर्थ-वली अज्ञानी अगीतार्थने गुरुतणे नियोगे आज्ञा परवशें थकां पण ऋजुमार्गे वर्चे छे अथवा शुभ परिणामवंत छे गुणनो रुचीवंत छे तो कम्मपयडीनी साखे तेने सुदृष्टीवंत कहियें एनो स्थानक सम्यक् दृष्टी गुणठाणो जाणवो ॥ २१॥ ए गाथानो अर्थ ज्ञानविमलमूरिना करेला टवा उपरथी लख्यो छे ।। २१ ॥
जे तो हठथी गुरुने छांडि, भग्नचरण परिणामरे । सर्व उद्यमें पण तस निश्चय, कांइ न आवे ठामरे ॥ सा० २२ ॥
अर्थ-जे तो के. ने वली भन्नचरण परिणाम के जेहना चारित्रना परिणाम भाग्या छे एहवो थको हठ कदाग्रह थकी गुरुने छांडीने सर्वप्रकारे निन्हवादिकनी पेठे उद्यमें के० कष्ट उधम करे छे पण तस के० तेना कष्टप्रमुख सर्व निश्चय करीने कोइ नावे ठाम के० काइ लेखे न लागे. यत:-" आणाइ तवो आणाइ संजमो तहय दाणमाणाए । आणारहिओ धम्मो, पलालपुलुब्व पडिहाइ ॥ १॥” इति संवोधसित्तरी मध्ये कयु छे ॥ २२ ॥
आणा रुचिविण चरण निषेधे, पंचाशके हरिभदरे । व्यवहारें तो थोडं लेखे, जेह सकारें सदरे ॥ सा० २३ ॥
अर्थ-जेने परमेश्वरनी आज्ञानीज रुचि छे ते तो चारित्रने योग्य छे पण एवी आज्ञाकचिविना चरणनिषेधे के० चारित्रनी ना कही छे शामाटे जे आज्ञारुचि नयी वो बीजो कष्ट
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अनुष्ठान कोनी आज्ञायें करे छे. यतः - " आणारुइस्स चरणं, तभंगे जाण किं न भग्गति । आण च अइकंतो, कस्साएसा कुणइ सेसं ॥१॥” इति ते जे आज्ञासहित करे छे ते चारित्र अने आशाविना पंचाशकने विषे हरिभद्रसूरि चारित्रने निषेधे छे व्यवहारें तो के० शुद्ध समाचारीसहित व्यवहार पाले तो पोतानी शक्ति प्रमाणें थोडंक करे तोपण लेखामां छे एटले आशासहित थोडुं करे ते लेखे छे शामाटे जे थोडं पण अनुष्ठान ते सकारें के० सत्य करे अने सह के० शब्द ते आगम कहियें केमके चार प्रमाण कहां छे तेमां आगमप्रमाणने शब्दममाण करी बोलान्युं छे माटे आगम सत्कारे तो थोडो व्यवहार पण प्रमाण छे अने बीजुं घणुं कष्ट ते निष्फल हे ॥ २३ ॥
शिष्य कहे जो गुरु अज्ञानी, भणतां गुणनिधि जाणीरे ।
जो
'सुवासना तो किम त्यजतां, तेने अवगुण जाणीरे ॥ सा० २४ ॥
अर्थ- हवे इहां शिष्य कहे छे के जो गुरु अज्ञानी छे तोपण तेहने भजतां के० सेवतां rai गुणनिधि जावो. जो सुवासना छे तो केवा प्रकारे तेहने अवगुणी जाणीने त्यजीयें ॥ आ गायानो अर्थ ज्ञानविमलमुरिना ट्वामांयी लख्यो छे ॥ २४ ॥
गुरु बोले शुभ वासना कहियें, पन्नवणिज्ज स्वभावरे ।
ते आयत्तपणे छे आयें, जश मने भद्रक भावरे ॥ सा० २५ ॥
अर्थ- गुरु कहे हे शिष्य जे शुभ वासना ते पनवणिज्ज स्वभाव के एटले जे समजाव्यो समजे एवो जेनो स्वभाव छे तो एवो जे होय ते तो आयें के प्रथम गुरूने आयत्तपणे के० शवर्तियें होय वली जश म़ने के० जेहना मनने विषे भद्रकभाव छे ते शिष्य आज्ञारुचि जाणीयें || आ गायानो अर्थ ज्ञानविमलमूरिना टवा उपरथी लख्यो छे ॥ २५ ॥
सूधुं मानी सुधुं थातां, चउभंगी आचाररे ।
गुरु कहर्णे तेहमां फल जाणी लहीयें सुजश अपाररे ॥ सा० २६ ॥
अर्थ- एक मृधुं माने अने भ्रूधुं करे, बीजो मृधुं माने अने अमृधुं करे, त्रीजो असधुं माने अने मूधुं करे, चोयो अमृधुं माने अने असधुं करे इत्यादिक शब्दे चउमंगी आचारांगादिक मूत्रमां कही छे तेमां अशुद्धना वे भांगा त्याज्य छे अने शुद्धना वे, भांगा ते ग्राथ के ते भांगामां फल होय एम जाणीने गुरुसेवामां रहीयें तो अपार के० घणो सुजश लहीयें ॥ आ गायानो अर्थ ज्ञानविमलमूरिना टवा उपरथी लख्यो के ॥ २६ ॥
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॥ ढाल सातमी॥ ॥राजगीतानी देशी अथवा मुरति महिनानी ॥ कोइ कहे गुरु गच्छ गीतारथ सारथ शुद्ध, मानु पण नवि दिसे जोतां कोई विबुद्ध । निपुण सहाय विना कह्यो सूत्रं एक विहार,
तेहथी एकाकी रहेतां नहीं दोष लगार ॥ १ ॥ अर्थ-पूर्व ढालमां गीतार्थ वर्णव्या हवे एवा गीतार्थ गुरु पासे बस ते आ ढालमां कहे छे. कोइक आगमना रहस्यने अजाणतो थको आगमनुं शरण करी बोले छे जे गुरु के० गुरु आदिक गच्छ के०सुविहितनो समुदाय वली गीतार्थनो सारथ के समुदाय "संघसार्थों तु देहिनां" इति सामान्य कांड वचनात, एवा शुद्ध के० पचित्र ते गुरु,गच्छ,गीतार्थ सर्वने मानु के० अंगीकार करुं हुं पण ते जोतां थकां कोई विवुद्ध के० कोइ डाया पंडित नवि दिसे के० देखाता नथी अमारी नजरमां कोइ आवता नथी निपुण सहाय के० डायानी सखाइ न मले तो ते विना सूत्रे के० उत्तराध्ययनसूत्रने विषे कयु छ जे एक विहार के. एकला विहार करीये. उक्तंच काव्यम्-"नवा लमिज निउणं सहाय, गुणाहियं वा गुणो समंवा । इकोवि पावाइविबज्जयतो, विहरिज कामेसु असज्जमाणो ॥१॥" एम ते सूत्रमा एकाकी विहारनी आज्ञा छे माटे एकाकी रहेतां थकां लगार दोष नयी ॥१॥
अणदेखता आपमां ते सवि गुणनो योग, किम जाणे परमां व्रत गुणनो मूल वियोग । छेद दोष ताई नवी कह्या प्रवचने मुनि दुःशील,
दोष लवें पण थिर परिणामी बकुस कुशील ॥२॥ अर्थ-हवे तेने उचर आपेछे जे एम कहेछे ते पाणी आपमां के० पोवामां सर्व गुणनो योग के संयोगने अणदेखतोथको एटले ए भाव जे पोते सर्वगुणी तो थयो नथी तो पोते दोपर्वत थको केवी रीते परमां के० चीजामां व्रत गुणनो मूल वियोग के० व्रतनो गुण मलयी नथी ए शीरीतें जाण्यु केमके गुरु आदिका तो कांइक गुण हशेज तो दोषनो लेश देखीने गुरुने मूकाय नहीं. गाथा-"इयभावियपरमत्या, मज्झत्था नियगुरु नमुंचंति । सन्चगुणसंपओगे, अप्पाणमिवि अपिच्छंता ॥१॥” इति धर्मरत्न प्रकरणे तथा छेद दोषतांड के दश प्रकारना प्रायश्चित्तमा सातमो छेद दोष लागे तिहां लगें प्रवचने के. सिद्धांतने विष मुनिने दुशील के०कुशीलिया हीणा नयी कह्या. यतः-"छेयस्स, जाव दाणं, वाव एगपि नो अइकमइ । एग अइकमतो, अइक्कमे पंच मूलेणं ॥१॥” इति वचनाद, अने थोडो दोष देखीने
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·(18)
गुरुने नहीं आदरे तो सर्वनो त्यागं करवो पडशे ते कहे छे. जे पांच प्रकारना निग्रंथ अने चउद प्रकारनी अभ्यंतर गंठी तथा नव प्रकारनी बाह्यग्रंठी तेथी भूकाणा ते निग्रंथ कहीयें. यतः- “गथो मिच्छचाई, घणाइओ अंतरो य वज्झो य । दुविहाओ तओ जे, निम्गयंति ते हुति निग्गंथा ॥१॥ मिच्छतं वेयतियं, हासाई छक्यं च नायव्वं । कोहाईणं चलकं, चउदस अभितरा गंथी ||२|| धणधन्नखित्तकुवयं, वत्थु दुपय कणय रूप चउचरणा । नव वाहिरया गंथी, एवं ते हुंति पुण पंच ॥३॥” सुगमं नवरं चउचरणा के० चतुष्पद इति १ पुलाग २ बकुस ३ कुशील ४ निग्रंथ ५ सनातक एनां लक्षण भगवतिसूत्रना शतक २५ में उद्देशे छ जोजो ए पांच का तेमां १ पुलाग २ निग्रंथ ३ सनातक ए त्रण तो प्रतिसेवा रहित जाणवा अने बस तथा कुशील ए बेहुने प्रतिसेवा छे. गाथा - "मूलत्तरगुणविसया, पडिसेवा सेवए कुंसीलोय | उत्तरगुणे वउसो, सेसा पडिसेंबणा रहिया ॥ ४ ॥" तेमां पण निग्रंथ तथा संनातक तो श्रेणीविच्छेदगइ तेमां गया तथा पुलाग लब्धि पण विच्छेदगइ ते माटे ए त्रण जंबूस्वामी साथे विछेद गयां ते हेतुयें वकुस तथा कुशील ए बेहुयी तीर्थ चाले छे. यतः“निगंथसिणायाणं, पुलाग सहियाण तिण्ह वुच्छेओ । समणा बक्कुसकुसीला, जा तित्थं ताव डोहित || ५| " जे माटे ते छठ्ठा सातमा गुणठाणावंत होय ते अंतरमुहूर्ते अवश्य परावर्त्त थाय ते वारे छट्ठे गुणठाणे आवे तिहां अवश्य प्रमच दोषनो लव मात्र देखीने गुरुनो त्याग केम थाय? अने ते त्याग करीश तो जगतमां आजना कार्ले निर्दोष कोइ नहीं लाये. ते माटे लवमात्र दोष लागते पण वक्कुस तथा कुशील ए बेहु जातिना मुनि ते थिरपरिणामी एटले तेहना परिणाम अति उन्मार्गे नयी चालता अथवा थिरपरिणामी के० ए वे मुनि थिरपरि - नामे छे एटले पंचमआराना छेडा लगे एहिज छे माटे नछंडाए इतिभाव एहनो विस्तार धर्मरत्न ग्रंथनी वृत्तिथी जाणवो ॥ २ ॥
ज्ञानाविक गुण पण गुरुवादिक मांहे जोय, सर्व प्रकारें निर्गुण नवि आदरवो होय |
ते छांडे गीतारथ जे जाणे विधि सर्व, ग्लानौषध दृष्टांते मूढ धरे मन गर्व ॥ ३ ॥
अर्थ - ते माटे ज्ञानादिक के० ज्ञान दर्शन चारित्र मांहेलो हरकोई उत्कृष्ट गुण पण गुरु आदिकमां जोइयें पण सर्वप्रकारें के० सर्वथा निर्गुण होय तो न आदरीयें माटे जे गीतार्थ डोय तथा जे प्राणी उत्सर्ग अपवाद प्रमुखनी सर्व विधि जाणता होय वे छांडे के० गच्छने पण निर्गुण जाणीने छांडे ते उपर दृष्टांत कहे छे-ग्लानौषध के० जेम रोगीने औषध ते जिहां लगे रोग तिहां लगें औषध तेम जिहां लगे अगीतार्थ तिहां लगे औषध सदृश गच्छ अने ज्यारे निरोगी सदृशगीतार्थ थयो त्यारे औषधरूप गच्छनुं काम नहीं ते माटे मूढ के० जे मूर्ख छे ते अहंकार मनमां धरीने गच्छ बाहिर निकले छे इहां कोई बीजीरीते
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ए दृष्टांत जोडे छे, जेम ग्लानने औषध आपे अने आहार न आपे माटे रोगीने छाड्यो न कहेवाय पण सामो रोगीने उपकार करयो कहेवाय तेमज गीतार्थ गच्छ छांडे ते छांड्यो न कहीये पण उलटो गच्छने उपकार करयो एम कहीये. यतः-" नाणाइगुणविउ, जो चयइ गुरुगणं च गीयत्यो । अनुकंपेइ तमेव य, आउरभेसज्जवित्तीए ॥ १॥" इति वचनाव ए वे व्याख्या छे माटे जे गीतार्थनी सृष्टीमां ठरे ते खरं इतिभाव ॥३॥
ते कारण गीतारथने छ एक विहार, अगीतार्थने सर्व प्रकारे ते नहीं सार । पाप वरजतो काम असजतो भाष्यो जेह,
उत्तराध्ययने गीतारथ एकाकी तेह ।। ४ ॥ अर्थ-ते कारण के० पूर्वे कयु ते कारणे गीतार्थनेज एकाकी विहारनी आज्ञा छे. यतः" गीयत्योय विहारो, वीओ गीयत्थनिस्सिओ भणिओ । इत्तो तइयविहारो, नाणुमायो जिणंदेहि ॥१॥" इति आवश्यक निर्युक्तौ अने अगीतारथ के० मूर्खने सर्वथा जे एकलो विहार करवो ते सार के प्रधान नथी रुडो नथी इविभाव. तथा पापने वर्जतो कामने असजतो एटले कामक्रीडामा जे तत्पर नहीं भाष्यो जेह के उत्तराध्ययन नामें सिद्धांतमा ले भाष्यो छे के गीतार्थ होय गुणी होय ते एकाकी रहे वे काव्य पूर्वे लख्युं छे "न वालमिज निउणं सहाय" इत्यादिक विचारी जोजो ॥ ४॥
पाप तणो परिवर्जनने वलि काम असंग, अज्ञानीने नवी हुए ते नवि जाणे भंग । अज्ञानी सुं करशे शुं बहशे शुभ पाप,
दशवकालिक वयणे पंचाशक आलाप ॥५॥ अर्थ-जे एकाकी होय ते पापर्नु वर्जन कम करे ? वली काम के० कंदर्पना संगनी जे त्याग करवो ते एकाकी मूर्खने केम होय ! माटे ए विचार अज्ञानीने न होय ते अज्ञानीने तेना भांगानी खबर न पडे के आ अवसरे शुद्धज लेवू के आ अवसरे अशुद्ध आहार होय तोपण लइये इत्यादि भांगानी खवर न पडे वली अज्ञानी पुरुष हो ते जीव अजीवादिक जाण्या विना शुं करशे एटले संयमानुष्ठान शुं करशे तथा शुभ पाप के० पुण्य अने पाप ते मते अज्ञानी शुं जाणशे ते दशवकालिक वयणे के० दशवकालिकसूत्रना वचन थकी यदुक्तं ॥ "अन्नाणी किं काहि किंवा नाही छेय पावर्ग" इत्यादि चतुर्थाध्ययने वथा पंचाशक ग्रंथमा पण एवोज आलाप के० आलावो के एटले वचन छे॥५॥
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(c) एक विहारे देखो आचारे संवाद, बहु क्रोधादिक दृषण वली अज्ञान प्रमाद । वलिय विशेषे वार्यों छे अव्यक्त विहार,
पंखीपोत दृष्टांते जाणो प्रवचनसार ॥६॥ अर्थ-वली एकाकी विहार करे तेहनो आचारें के० आचारांगने विषे संवाद क. वचन छे ते कहे छे जे ते आचारांगना पांचमा अध्ययनना प्रथम उद्देशाने विषे देखो के. जुओ एक विहारीने बहु क्रोष आदि शब्दें मान प्रमुख पण लेवा. यथा-"इह मेगेसि एगचरिया भवति बहुकोहे बहुमाणे बहुमाए बहुलोमे बहुरते वहुनडे बहुसठे बहुसंकप्पे आसवसकी पलिओवछो" एमां विषम पदनो अर्थ लखियें छैयें-बहुरते के बहुपाप बहुनडे के० नाकियानी पेठे भोगने अर्थे वहुवेषना करनारा तथा बहुसठे के० अनेक प्रकारे शठ तथा बहु संकल्प उपजे आसव के आश्रय जे हिंसा प्रमुख तेहनो सक्कि के० सक्त एटले संगी अने पलिओवछने के० पलित एटले कमें करी अवच्छन एटले ढाक्यो इति. वली वीजा दोष कहे छे-अज्ञान ममाद थाय एटले ए भाव जे एज आलावे पद छे "उछियवादं पवय माणे मा मे केइ अदक्खु अन्नाणपमायदोसेण" इति. उठियवाद पवयमाणे के० अमें संयमचारित्रमा उजमाल यया छै एम वोलवा मा मे केइ अदक्खु के० आश्रवमा मवतां थका जाणे मुझने कोइ देखतुं नयी एम अन्नाणपमायदोसेणं के० अज्ञान प्रमाद दोषे सहित मवर्चे तेने बली विशेषे करीने आचारांगमां अव्यक्त विहार वारयो छे अव्यक्त के वय पण पूरी नहीं अने श्रुत पण पूरु नहीं तेहने अव्यक्त कहीये आचारांगपंचमाध्ययनने उद्देशे चोथे कटु छे. यथा-"गामाणुगामं दुइज्झमाणस्स दुज्जातं दुपरकतं भवति अवियत्तस्स भिक्खुणों" एहनो अर्थ-गामाणुगाम दुइज्झमाणस्स के एक गामथी बीजे गाम एकाकी विचरवा ने दुजातं के दुष्ट गमन छे अहंन्नकमुनिनी पेठे दुपरकत के दुष्टपर आकांतछे थुलिभद्रना ईविंत सिंह गुफावासि मुनिने जेम कोश्यायें आक्रम्या तेम सर्व मुनिने न होय ते माटे विशेषण करे छे अवियत्तस्स भिक्खुणो के० अव्यक्त भिक्षुने एटले अव्यक्त भिक्षु वे मकारना छे एक श्रुत अन्यक बीजो बय अन्यक्त जे आचारमकल्प न भण्या होय अने गच्छयां रखा होय ते श्रुत अव्यक्त कहीये तथा गच्छथी निकल्या ते नवमां पूर्वनी त्रीजी वस्तु न भण्या होय ते गच्छ निरगत अव्यक्त कहीयें गच्छमा रह्या थका सोल वर्षना थाय विहां लगे वय अव्यक्त कहीयें अने जे गच्छ निरगत ते त्रीस वर्षना थाय त्यां लगे वय अव्यक्त कहीयें इति इहां चोभंगी छे १ श्रुत अव्यक्त अने वय अव्यक्त होय ते तो एकाकी विहार फरेज नहीं केमके संयमात्म विराधना थाय माटे न करे २ श्रुत अव्यक्त अने वय व्यक्त ते पण अगीतार्थ माटे संयमात्म विराधना थाय माटे तेमने एकाकी विहार न कल्पे३ श्रुत व्यक अने वयथी अव्यक्त तेहने पण न कल्पे बालपणाथकी कुलिंगी तथा गृहस्थने पराभव→ स्थानक होय ते माटे ४ श्रुत व्यक क्या वय व्यक्त वेहने पण एकलमल्ल प्रविमा
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(४९)
प्रमुख कारणे एकाकीपणे विचरवानी आज्ञा छे पण कारणविना नहीं इत्यादिक बहु वात छे ते आचारांगतिथी जाणवी. एटलाज माटे आ स्तवननी मूलगाथामां विशेष पद मूक्युं छे माटे अव्यक्तने तो विशेषें करी सर्वथा वारयो तथा व्यक्तने पण कारणविना वारयोछे तो अव्यक्तने वारघो तेनुं शुं कहेनुं ते पंखी पोत दृष्टांतें करी जाणवुं जेम पंखीनो पोत के० बालक तेने पांख आवी न होय अने उडवा जाय तो वीजा ढंकप्रमुख जनावर तेने उपद्रव करे तेम अव्यक्त अगीतार्थ वालक होय तेने परदर्शनी उपद्रव करे जाणो प्रवचनसार के० ए जैनागमनो सार जाणो. यतः काव्यं - "जहा दिया पोयमपक्खजायं, सवासयापविउमणं मणागं । तमचाइयातरुणपमत्तजाई, ढंकाइअव्वत्तगमंहरेज्जा ॥१॥” माटे जेम पंखी पोकाना बालकने सूना सूकता नथी तेम मूर्खने गीतार्थ एकला न मूके इतिभावः || ६ |
एकाकीने स्त्री रिपु श्वानतणो उपघात,
भिक्षानी नवी शुद्धि महा व्रतनो पण घात | एकाकी सच्छंदपणे नवि पामे धर्म,
afa पामे पृच्छादिक विण ते प्रवचन मर्म ॥ ७ ॥
अर्थ - जे एकाकी विहार करे तेने खीनो तथा रिपु के० शत्रुनो अने श्वान के० कुत रानो उपघात थाय तथा भिक्षा पण दोषसहित लीये तो तेने कोण निषेध करे माटे भिक्षानी शुद्धि पण न रहे तथा महाव्रतनो पण अनुक्रमें घात थाय. गाथा - "दुपसाणसावय, इत्यी भिक्खाइदोसदुल्ललिओ । वयगाइ धम्मभाई, तम्हा रम्मो न एगागी ॥१॥” इति पिंड निर्युat तथा “एगागियस्त दोसा, इत्थी साणे तहेच पडिणीए । भिक्खविसोहिमहव्वय, तम्हा स विइज्जए गमणं ॥ १ ॥” इति धर्मरत्न वृत्तौ जे एकाकी विहार करे ते स्वच्छंदपणे विचरे पोताने मते उपज्युं ते खरं पण गुरुआज्ञानी अपेक्षा न रहे ते माटे जे स्वमति कल्पनावंत
धर्म न पाये. यतः - इकस्स को धम्मो, सच्छंदगईमईपयारस्स । " इत्युपदेशमालायां तथा जे एकाकी होय ते पृच्छा के० वांचना पृच्छनादिक ते पण गुरुविना न पाये अने ते विना प्रवचन के सिद्धांत तेनो मर्भ जे रहस्य ते केम पामे. यतः- “कची सूत्तत्यागमपडि-, पुच्छण चोयणा व इकस्स । विणओ वेयावर्थ, आराहणया य मरणंते ॥१॥ " इत्युपदेशमालायां ॥७॥
सुमति ग्रुपतिः पण न धरे एकाकी निःशंक, भाव परावर्त्ते आलंबन धरे सपंक ।
जुदा. जुदा थातां थविर कल्पनो भेद,
store मन लोकना थाए धर्म उच्छेद ॥ ८ ॥
अर्थ - सुमति के० इर्यासमिति प्रमुख पांचसमिति तथा मनादि त्रण गुप्ति ते पण न घरे
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( ५ )
• न पामी शके केमके जे एकाकी बिहार करनार होय ते निःशंक होय कोइनी शंका लाखे एटले अकार्य करवानुं चित्त थाय तो कोइनी शंका नघरे सुखे अकार्य करे. गाथा"पिल्लिज्जे सणमिक्को, पइन्नपमयाजणाउ निश्च भयं । काउमणोवि अकजं, न तरह काऊण बहुमझे ॥१॥" इत्युपदेशमालायां तथा चित्तना अभिप्राय ते भाव कही में ते भावनुं जे परावर्त्त . के ० पलटावधुं तेणेकरी जेवा पोताना अभिप्राय थाय तेनुं कांइक आलंबन पामीने तत्काल ते आलंबन घरे के० अंगीकार करे ते आलंबन केनुं होय ते कहे छे सपंक के० मेलुं होय एटले ए भाव जे चितना अध्यवसाय तो क्षणे क्षणे पलटाय के ते चित्तना अभिप्राय कोइक अवसरें हीणा थाय अने निमित्त पण तेवुंज मले ते वारें पोते पण तेवोज थाय. यतः -- "एगदिवसेण बहुआ, सुहाय असहाय जीव परिणामा । इक्को असुहपरिणओ, चडन आलंबणं लड़ें ||१||" आलबन हिणु पामीने चइज्ज के० संयमने छांडे इत्युपदेशमालायां वली एक जणे एकलो विहार कीधो एटले बीजाने पण एकला विचरवानुं मन थाय तेमज श्रीनो तथा चोथो इत्यादिक जुदा जुदा थातां एटले अवस्था न रहे तथा थिविर कल्पनो भेद थाय एटले आपमतें कोइक क्रिया एक रीते करे कोइक बीजी रीते करे एम भिन्नभिन्न थाय तेथी लोकनां मन डोलाय जे अमुक साधु करे छे ते खरुं छे के अमुक साधु करे छे ते खरु के इत्यादिक विकल्प लोकने उपजे तेथी धर्मनो उच्छेद थाय कोइ उपर प्रतित रहे नहीं ते वारें लोकलगो धर्म मूकी आपे. गाथा - " सम्वनिणप्पडिकुठं, अणवत्या थेरकप्पभेओ य । " इत्युपदेशमालायां ॥ ८ ॥
टोले पण जो भोलें अंध प्रवाह निपांत,
आणा विण नवि संघ छे अस्थि तणो संघात ।
तो गीतारथ उद्धरे जेम हरी जलथी वेद, अगीतारथ नाव जाणे ते सवि विधिनो भेद ॥ ९ ॥
अर्थ- वली टोले पण जो भोलें के० कदाचित टोलुं होय ने जो भोलुं होय तेमां कोइ गीतार्थ न होय तो ते टोलामां वसवुं ते पण अंध प्रवाह निपांत के० आंधलानीज श्रेणीमां पडलुं ययुं एम जाणवुं कारणके आणा बिना संघ न कहीये पण अस्थितणो संघात केव्हाढकानो समूह जाणवो. यतः - एगो साहू एगा य, साहुणी सावओ व सट्ठी वा । आणाजुत्तो संघो, सेसो पुण अहिसंघाय || १ ||” एम संबोधसित्तरीमां कहां छे. ते माटे जे गीतार्थ होय तेज संसारसमुद्रमांची भव्य जीवने उद्धरे के० उद्धार करे जेम हरी जलथी वेद के० जे रीते श्रीकृष्णे समुद्रमांथी वेद उद्धरया ए दृष्टांते तेनी कथा कहे छे-शंख नामे दैत्य उपज्योते ब्रह्मापासे वेद भणवा बेठो एवामां ब्रह्माने वगाएं आन्युं 'ते बगाएं छ महीने पुरुं थयुं त्या ब्रह्मानुं मुख मोकल देखी शंख दैत्यें विचारयुं जे वेद भणतां क्यारे पार iti मा ब्रह्माना पेटमा प्रवेश करी वेद लेइ जाउँ एम विचारी पेटमां पेसीने वेद लेइ
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( ५१ ) गयो ने समुद्रमां पातालमां जइ पेठो पछी श्रीकृष्णप्रमुखें विचारयुं जे ब्रह्मा तो भूतसरिखा केम देखाय छे एम विचार करतां श्रीकृष्णे जाण्युं जे शंखदैत्य चारे वेद लइ गयो छे हवे हुँ लेइ आवुं एम विचार करी मत्स्यावतार धरी शंखासुरना भवनमां गयो त्यां बालक रूप धरी तेनी स्त्री पासे बेठो ते खीयें जाण्युं जे आपणे मनोहर बालक पाम्या पछी तेने रमाडवा बेठी एटलामां शंखासुरना पेटमां चारे वेद वातो करवा लाग्या जे आपणी वाहार करवा ठाकोरजी आव्या छे ते वात सांगली शंखासुरे जाण्युं जे अनर्थ थयो पछी खोने क जे बालक मूकी धो पण स्त्रीयें न मूक्युं त्यारें बालकने मारवा दोड्यो तेथी स्त्रीयें बालकने मूकी दीधुं पछी ते बालकें ते दैत्यसाथ युद्ध करी मच्छरूपें थइ दैत्यने मारी तेना पेटमाथी चारे वेद लइ श्रीकृष्ण पाणीमांथी बहार आव्या ते माटे प्रथम मच्छावतार लीधो ए अधिकार शिवमार्गना शासने दशावतार ग्रंथ मध्ये कां छे इहां दृष्टांते लख्युं छं बली ने अगीतार्थ होय ते उत्सर्ग अपवादादिक सर्व विधिओना भेद न जाणे माटे अगीतार्थने एकलो विहार न होय इतिभावः ॥ ९ ॥
कारणथी एकाकीपणं पण भाष्युं तास, विषमकालमां तो पण रुडो भेलो बास ।
पंचकल्प भाष्यें भण्युं आतम रक्षण एम, शालि एरंड तणे एम भांगे लहिए खेम ॥ १० ॥
अर्थ- वली कोइ कशे जे श्रीउत्तराध्ययन मध्ये एकाकीपणानी हा केम कही यथा"इक्कोवि पावाई विवज्जयंतो, विहरिज्ज कामेसु असज्जमाणो ।” इति वचनात् . तेने उत्तर जे गीतार्थ होय तास के० तेने कोइक कारणथी एकाकीपणुं पण भाष्यु के० कनुं छे यथा तिहांज काव्यम् - " न वा लभिज्जा निउर्णसहायं, गुणाहियं वा गुणओ सभं वा ।" इति वचनात्. तोपण विषमकालमा के० आ पांचमा आरामां हुंडाअवसर्पिणी कालमां रुडो मेलो वास के० भेला वसवुं तेज रुई पण एकाकी बसवुं रुहुं नहीं एम पंचकल्प भाष्यने विषे कर्तुं छे. आतमरक्षण एम के० जे संगमरूप आत्मा तेनी रक्षा ते एमज थाय अथवा आत्मा ने शरीर अभेद छे माटे आतम के० शरीरनी रक्षा पण एम के० एमज भेला वसतां थकां होय. इहां शालि तथा एरंडनी चोभंगी छे १ शालिनो वृक्ष अने शालिनी वाडी २ शालिनो वृक्ष अने एरंडनी वाडी ३ एरंडनो वृक्ष अने शालिनी वाडी ४ एरंडंनो वृक्ष अने एरंडनी वाडी ए चोभंगीमांथी शालि. तथा एरंडना त्रण भांगे वसतां तो खेम के कल्याण छे इति अक्षरार्थ. भावार्थ तो एछे जे शालिसरिखा गीतार्थ एटले आचार्य अने एरंडसरिखा मूर्ख तेनी चोभंगी देखाडे छे - १ गीतार्थ आचार्य अने जे गीतार्थनो परिवार ते वाडी पण गीतार्थनी २ गीतार्थ आचार्य अने मूर्खपरिवारनी वाडी ३ मूर्ख आचार्य अने गीतार्थना परिवारनी वाडी एत्रण भांगालगे कोइक रीते आज्ञा के पण मूर्ख आचार्य अने सूर्ख परिवार ए मांगों तो
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सर्वथाज निषेध छे. यतः-जत्य य पंच कुसीला, गणिवायगथविरपवचनिग्गया। तेण एरंडसमाणं, चउत्थभंगीए नायवो ॥१॥" इति ॥ १० ॥
एकाकी पासत्यो सच्छंदो गतयोग, ठाणवासी उसन्नो बहु दृषण संयोग । गच्छवासी अणुओगो गुरु सेवी वलि होय,
अनियतवासी आउ तो वहुगुण एम जोय ॥ ११ ॥ अर्थ-१ एकाकी केवल धर्मधुरहित ते २ पासत्यो ज्ञानादिक पावत्ति ३ स्वच्छंदो गुरुआज्ञा विकल एटला माटे गतयोग कहिये ४ ठाणवासी के० स्थानकवासी एकत्रविहारी नित्यवासीत्यर्थ: ५ अवसन ते आवश्यकादि शिथिल मन परिणामी ते उसनो ए पांच पद ते बहुदूषण संयोगी होय ते क्यारे कोइकने एक पद क्यारे वे पद क्यारे त्रण पद क्यारे चार पद अथवा पांच पदना संयोगी थाय जेम एक पदस्थानक वधे तेम दोष वृद्धि पण जाणवी एवं २६ मेद थाय इत्यादिक अनेक प्रकारे दोषद्धि थाय, यता--"एगागी पासत्यो, सच्छंदो ठाणवासिय उसनो । दुगमाई संयोगा, जह वहुआ तह गुरुति ॥१॥" इत्युपदेशमालायां एना द्विकादि संयोग करतां २६ भेद थाय तेमा द्विक संयोगी १० तथा त्रिकसंयोगी १० चतुःसंयोगी ५ पंचसंयोगी १ एव २६ भांगा दोषष्टद्धिना जाणवा तेमज २६ गुणदिना जाणवा ते देखाडे छे-१ गच्छगत २ अनुयोगी ३ गुरुसेवी ४ अनियतवासी ५ आयुक्त एना पण एमज छवीस भेद गुणद्धिना थाय जेम जेम गुण वधे तेम तेम विशेष आराधक थाय अने दोषद्धिये विराधकपणुं वधे तथा गुणवृद्धियें आराधकपणुं वधे तेमां दोषदिना २६ भांगा लखियें छैये.
विकसंयोगी १० भांगा १ एकाकी-पासत्यो २ एकाकी-सच्छंदो ३ एकाकी-गणवासी ४ एकाकी-उसनो ५ पासत्यो सच्छंदो ६ पासत्थो-ठाणवासी ७ पासत्यो-उसनी ८ सच्छंदो-गणवासी ९ सच्छंदो-उसनो १० ठाणवासी-उसनो
त्रिकसंयोगी मांगा १० लखे छे १ एकाकी-पासत्यो सच्छंदो २ एकाकी-पासत्योठाणवासी ३ एकाकी-पासत्यो उसनो ४ एकाकी-सच्छंदो-ठाणवासी ५ एकाक्री-सच्छंदो -उसनो ६ एकाकी-पासत्यो-उसनो ७ पासत्यो सच्छंदो-ठाणवासी ८ पासत्थो-सच्छंदो -उसनो ९ पासत्यो-ठाणवासी-उसलो १० सच्छंदो-ठाणवासी-उसनो
चसंयोगी भांगा ५ लखे छे १ एकाकी-पासत्यो सच्छंदो-ठाणवासी २ एकाकीपासत्यो-सच्छंदो-उसनो ३ एकाकी-पासत्थो-ठाणवासी-उसन्नो ४ एकाकी-सच्छंदोगणवासी-उसनो ५ पासत्यो सच्छंदो-ठाणवासी-उसनो
तथा पंचसंयोगी १ मांगो ययो एवं २६ थाय ते द्विकसंयोगीथी त्रिकसंयोगी दूषणे भारी तेथी चतु:संयोगी दूषणे भारी चतुसंयोगीथी पंचसंयोगी दूषणे भारी हवे दोषने व्य
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तिरेके गुणद्धिपणो देखाडे छे १ गच्छवासी के० गच्छमां बसे २ अणुओगी के० अर्थ धारे ३ गुरुसेवी के० गुरु आदिकनी सेवा करे ४ अनियतवासी के० उपविहारी ५ आयुक्त ते आउत्तो के० उपयोगी होय ए पांच पदमां जेम जेम एकेका पदनी वृद्धि थाय तेम तेम बहुगुण होय अने विशेष आराधक याय. यत:-"१ गच्छगओ २ अणुओगी ३, गुरुसेवी ४ अनिओ गुणाउत्तो, संजोएण पयाणं, संयमआराहगा भणिया ।। १ ॥" इत्युपदेश मालायां ॥ ११ ॥
दोषहाणी गुण वृद्धि जयणा भाषे सूरि, ते शुभ परिवारें हुये विघन टले सवि दृरि । देव फले जो आंगणे तुझ करुणा सुर वेलि,
शुभ परिवारें लहियें तो सुख जस रंगरेलि ॥ १२ ॥ अर्थ-एम दोपनी हाणी थाय तथा गुणनी वृद्धि याय अने जयणा के जतना थाय एटले बहु लाभ अल्पदो प्रवृत्ति थाय ते एहवा गुण क्यारे आवे तेहनो उत्तर भाषे सरि के० आचार्य भाषे छे के ते शुभपरिवारे हुए के० एवा गुण तो परिवार शुभ होय तिवारे आवे तथा विघ्न सर्व दूर टले ते माटे हे देव तुझ के० तमारी करुगारूप जे सुर वेली के० कल्पवृक्षनी वेलडी ते आंगणे फले के मारा आत्मरूप जे आंगणु विहां जो सफली थाय तो ते शुभपरिवार पामियें एटलाज माटे उपदेशमालाना कर्तायें कहुं छे. यतः-"सिंहगुरु सुसीसाण, भई गुरुवयणसहइंताणं । वयरो किर दाही वायणत्ति न विकोवियं वयणं ॥॥" ते माटे शुभपरिवार पामवो दुष्कर छे ते शुभपरिवारे करी मुखयशनी रंगरेल पामियें एटले सेहेजानंदस्वरूपना रंगनी रेल तेहनो प्रवाह पामीयें ए सातमी ढालमां कडं जे हे देव तमारी करुणारूप मुरवेली जो फले तो मुखयश पामिये ते माटे हवे आठमी ढालमां करुणा विशेष जे दया तेहन्तुं स्वरूप कहे छे ॥ १२ ॥
॥ ढाळ पाठमी॥ ॥ प्रभु चित्त धरीने अवधारो मुझ वात-ए देशी ॥ कोइ कहे सिद्धांतमांजी, धर्म अहिंसा सार । आदरिये ते एकलीजी, त्यजीयें बहु उपचार | मनमोहन जीनजी, तुजवयणे मुजरंग ॥१॥
अर्थ-पली कोइक एम कहे'छे के सिद्धांतमूत्रने विषे एम कडंछे जे धर्म अहिंसा के. दया धर्म तेज सार के प्रधान छ “नत्यि अहिंसा समो धम्मो” इति वचनाव, माटे एकली अहिंसाज आदरीयें वीजा बहु के० अनेक उपचार के० उपायने त्यजीयें के० मृकी दइयें
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एम कहे छे माटे हे मनमोहन जिनजी अथवा मनने मोहना उपजावणहार एवा जे जिनेश्वर तेनो संवोधन करिये जे हे मनमोहन जिनजी तुजवयणे के तमारा वचनने विषे मुझने रंग छे रीझ छे ॥१॥ नवि जाणे ते सर्व त्यजीने, एक अहिंसा रंग। केवल लौकिक नीति होवे, लोकोत्तर पंथ भंग ।। मन० २॥
अर्थ-तेहने उत्तर आपे छे के ते अज्ञानी नयी जाणता नथी समजता जे सर्व पूजा प्रभावना सामिवत्सल प्रमुख करणी त्यजीने मात्र एक अहिंसाने विषेज रंग के० रीझकरे छे तेथी केवल लौकिक के० व्यवहार नीति करीने एटले लौकिक व्यवहारमा एक दया दया पोकारे ते सारी लागे पण लोकोत्तर मार्ग जे जिनमार्ग तेहनो भंग थाय छे एटछे एकली दयामां जिनशासन नथी पण जिन आज्ञामां शासन पवनै छे एकली दयायें तो पडिक्मणा सह प्रमुख पण न करी शके तो पूजा प्रभावनानी वात तो वेगली रही इति भावः ॥२॥
वनमां वसतो बाल तपखी, गुरु निश्राविण साध । एक अहिंसायें ते राचे, न लहे मर्म अगाध ॥ मन०३॥
अर्थ-एक तो वाल तपस्वी जे अज्ञान तपस्वी ते पण वनमां वसतो एटले घोर कष्टनो करणहार तथा वीजो गुरुनिश्राविण के० गुरुआणाविना ए बेहु एक अहिंसायें ते राचे के. एक अहिंसा मुखे कडे एटले वाह्यजीवनी रक्षा करवी एटलामांज रीझछे पण ते अहिंसानो अगाध के ऊंडो मर्म छे ते मूढ न जाणे एटले स्वआत्मा हणाय ते हिंसा अने खात्मा न हणाय ते अहिंसा एहवा मर्मनी तेने खबर नथी ॥ ३ ।
जीवादिक जेम बाल तपस्वी, अणजाणतो मूढ । गुरुलघुभाव तथा अणलहेतो, गुरुवर्जित मुनि गूढ ॥ मन०४ ।।
अर्थ-हवे कोइ कहेशे जे वालतपस्वी तथा साधु ए थे वरावर केम थाय तेने कहे के के जेम पालनपखी ते जीव अजीव पुन्य पाप प्रमुखलु यथार्थ स्वरूप ते मूढ अजाणतोके० अणसमजतो थको जेम ते होय तथा के० तेमज गुरुलघुभाव अणलहेतो के० हलका भारे लाम खोटने अणजाणवो जे आईं प्रायश्चित्त करशुं ते करतां बीजी करणीमां यद्यपि मायश्चित छे तोपण लाभ घणोछे इत्यादिक वातोयी अणसमजु छ जे माटे गुरुवर्जित मुनि के. गुरुयेकरी रहित एहवा जे मुनि ते गूढ के० गुप्त रहस्य जे होयं तेवा गुरु अने लघु भावने न लहे इतिभावः ए रीतें गूढ शब्द गुरु लघुभावने जोडीयें ॥ ४ ॥
भाव मोचक परिणाम सरिखो, तेहनो शुभ उद्देश । . आणारहितपणे जाणोजे, जोइ पद उपदेश ॥ मन० ५॥
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अर्थ-भावमोचक परिणाम के० बौद्धादिकना परिणाम सरिखो छे एटले बौद्धादिक एम माने छे के जे दुःखी होय तेने मारीयें तो दोष न लागे कारणके तेने मारता नयी पण उलटो दुःखथी मूकावियें छैयें ए रीते मार्छ कृत्य करीने तेने रुडं माने छे ते सरिखो तेहनो के० ते ढुंढकादिक अज्ञानीनो शुभ उद्देश के० शुद्ध प्रवर्तन जाणवो एटले यद्यपि तेओनी अहिंसा द्रव्यथी छे पण परिणामे हिसाज जाणवी तिहां हेतु कहे छे जे आणारहित पणे जाणी जे एटले आज्ञारहित माटे. यत:-" आणाइ तवो आणाइ, संयमो तह य दाण माणाए । आणारहिओ धम्मो, पलालपुल्लन्च पडिहाइ ॥१॥” इति वचनात् ए अर्थ उपदेशपदग्रंथमा जोइने जाणी जे के० जाणीयें. यतः-"ज अनाणी मूढो, जं च अगीयत्थ. निस्सिओ विहरे । सो सुगयकम्मसरिसो, पावपवघे विलिप्पंति ॥ १॥" ॥ ५॥ .
एक वचन झालीने छांडे, बीजा लौकिक नोति । सकल वचन निज ठामे जोडे, ए लोकोत्तर नीति ॥ मन०६॥ अर्थ-ए गाथानो अन्वय करी अर्थ करे छे. जे एक लौकिक वचन झालीने वीजा सर्व नीतिनां वचन छांडे छे इत्यन्वयः ते लौकिक वचन ए जे कोइने न हणवो ते उपर आगमना पाठ देखाडे छे जे “सव्वे पाणा सव्वे भूमा सव्वे जीवा सव्वे सत्तान हंतव्वा" इत्याटिक •आगमनुं एहवु वचन छे अने यद्यपि लोक पण पौढमार्गे एम कहे छे जे कोइने न मारवो ते माटे ए वचनने लौकिकवचन कहीये ते लौकिकवचन पकडीने वीजां सर्वे नीतिवचन के० लौकिकथी वीजा जे लोकोचरवचन दान देवपूजा साहमीवत्सल प्रमुख ते नीतिवचन कहीयें ते सर्व छांडि देछे पण ते सर्व खोई करे छे केमके जे सकल वचन निजठाम जोडे के० समस्त सिद्धांतना वचन जे छ तेने ठेकाणे जोडे ते.लोकोचरनीति जाणवी सकल वचन ए पद बीजीवार जोड, एटले ए भाव जे गुणठाणा माफक सहु सहुनी हद प्रमाणे समस्त सिद्धांतना वचन जोडे जे आ वचन ते मुनिराजनेज आश्री छे अने आ वचन ते गृहस्थने आश्री छे ते अपेक्षाओ जैनशासनमा घणी छे ते पोतपोतातानी अपेक्षा प्रमाणे जोडे ए लोकोत्तरनीति ते जिनशासननी नीति छे ॥६॥
जिनशासनं छे एक क्रियामां, अन्य क्रियामां संबंध | जेम भाषी जे त्रिविध अहिंसा, हेतु खरूप अनुबंध ॥मन०७॥
अर्थ-तथा जिनशासन ते एक क्रियामा अन्य क्रिया संबंध छे जे माटे जे हिसा तेज अहिंसा अने,जे अहिंसा तेज हिंसा अने जे तपस्या तेज जो निस्पृहीपणुं नथी वो अतपस्या छे भोगी छे अने भोगी छतां निस्पृहिपणु छे. तो, तेज तपस्वी छे इत्यादिक जिनशासनमा एकांत नयी स्याद्वाद छे. यवा-" अविषायाऽपि हि हिंसां, हिंसाफलभाजनं भवत्येकः । कृखाप्यपरो हिंसां, हिंसाफलभाजनं न स्यात् ॥१॥" इति अहिंसाष्टक वचनात् . ते वली हिंसा तथा अहिंसा अनेक मेदें आंगली गाथामां. देखाडे छे जेम भाषी जे के० जिनशासन
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मां कही जे त्रिविधे अहिंसा के० त्रण प्रकारनी अंहिंसा ते देखाडे छे-१ हेतु अहिंसा २ स्वरूप अहिंसा ३ अनुबंध अहिंसा ए विवरीने देखाडे हे ॥ ७ ॥
हेतु अहिंसा जयणारूपें, जंतु अघात खरूप ।
फलरूपे जें तेह परिणामे, ते अनुबंध स्वरूप || मन० ८ ॥
अर्थ - तेमां पहेलो हेतु अहिंसा ते यतना करो केमके जे जीवयतना करवी ते अहिंसा नो हेतु छे माटे हेतु अहिंसा कहीयें, बीजी जे जंतु अघात के० जीवने मारवो नहीं प्राणवियोग न करबो तेहनुं नाम स्वरूप अहिंसा कहीयें, त्रीजी स्वर्गापवर्गादिक फलरूपे जे अहिंसा परिणमे ते अनुबंध अहिंसालुं स्वरूप जाणवु ॥ ८ ॥
हेतु स्वरूप अहिंसा आपे, शुभ फल विणं अनुबंध |
दृढ अज्ञान थकी ते आपे, हिंसानो अनुबंध || मन० ९ ॥
अर्थ- हवे त्रणे अहिंसानां फल कहे छे. जे हेतु अहिंसा तथा स्वरूप अहिंसा ए वे अहिंसा ते शुभ फल के० पुण्यफल आपे विण अनुबंध के अनुबंध विना एटले हेतु तथा स्वरूप आ हेतुथी पुण्य वंधाय ते देवता प्रमुखनो भव पामे पण आगलें संलग्न पुण्य परंपरा. न चाले माटे पापानुबंधी पुण्य बंधाय जेम अहिंसाना त्रण भेद तेम हिंसाना पण त्रण भेद के ते कहे छे–१ हेतुहिंसा २ स्वरूपहिसा ३ अनुबंधहिंसा ए त्रणमां हिंसानुं अनुबंध के० फल ते पण जे हिंसालुंज आपे तेनो हेतु कहे छे के दृढ अज्ञानथकी के० आकरे अज्ञाने करीने एटले ए भाव जे हेतुथी जोइयें तो अहिंसा तथा स्वरूपथी जोइये तोपण अहिंसा अने अनुaa जोये तो हिंसा के तो ते हिंसाथी पण संसार वधे अने अज्ञान अहिंसाथी पण संसार घे ते माटे मां अनुबंध अहिंसा होय ते आदरवी इतिभावः ॥ ९ ॥
निन्हव प्रमुखतणी जेम किरिया, जेह अहिंसारूप । सुरदुरगति देइ ते पाडे, दुत्तर भवजल कूप ॥ मन० १० ॥
अर्थ — जेम जमाली प्रमुख निन्हत्र सर्वजैनलिंगे हता तथा क्रिया पण जैननी करता हता ते श्रीभगवतीमां जमालीतुं महासंयम वखायुं. पण जे अहिंसारूप के० ते क्रिया सर्व हेतुअहिंसा तथा स्वरूप अहिंसारूप हती पण ते सुरगतिदेइ के० देवतानी दुर्गति एटले किल्बिपिया प्रमुख देवतानी दुर्गति आपीने पछी पाडे के० नाखे दुत्तर भवजल कूप के० दुर्खे तराय एव संसाररूप जलनो कूबो तेमां नांखे इति ॥ १० ॥
दुर्व्वल नग्न मास उपवासी, जो छे माया रंग ।
तोपण गरभ अनंता लेशे, बोले बीजुं अंग ॥ मन० ११ ॥
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(40)
अर्थ - ते उपर साख देखाढं ले. जेम कोइक शरीरें दुर्बल थयो होय तथा नम के० नागो रहेता होय अने मासखमणनुं पारणं करतो होय एवो होय अने माया रंग के० मायावंत होय एटले अज्ञान कष्ट करे छे एवो के तोपण अनंतीवार गर्भमां उपजशे एटले अनंता भव करगे एम वीजुं अंग जे सुयडांगमूत्र ते वोले छे. यतः - "जड़ वि य णिगणे किसे चरे, जइ विय भुंजिय मासमंतसो । जे इह मायावि मज्जई, आगंता गन्भा य णंतसो ॥१॥ इति द्वितीयाध्ययने एटले एनी दया कोइ लेखामां न आवे ॥ ११ ॥
निंदित आचारें जिनशासन, जेहने हीले लोक ।
माया पेहेली तस अज्ञाने, सर्व अहिंसा फोक ॥ मन० १२ ॥
अर्थ - ते निंदित आचारें लोक जिनशासन हीले एटले जे एकली दया माने छे अने अज्ञान कष्ट करे छे ते प्राणीने पूर्वाचार्यना जीतनी खवर नथी के जीत व्यवहारें लोकनिंदा न करे, अने पोतानी मतिये प्रवर्त्ते तेना आचरणनी लोक निंदा करे ते वारे जिनशासननी पण निंदा थाय, के जुओ आवा लोक जिनशासनमां छे माटे जिनशासन पण दुर्गच्छा करवा योग्य छे त्यारे जिनशासननी हीनतानुं कारण थाय माटे तस के० ते प्राणीने अज्ञान थयुं ने अज्ञाने करीने माया पहेली के० प्रथम माया थईज अने ज्यां माया ठेरी त्यां सर्व अहिंसा ते फोक के० खोटी निष्फल जाणवी. जे माटे अज्ञानीनी दया ते हिंसाज जाणवी. यतः - "मासे मासे य जो वालो, कुसग्गेणं तु भुंजए। न सो सुअक्खायस्स धम्मल्स, कलं अग्as सोलसिं || ||" इत्युत्तराध्ययनवचनात् ॥ १२ ॥
स्वरूपथी निरवद्य तथा जे, छे किरिया सावद्य ।
ज्ञानशक्तिथी तेह अहिंसा, दिए अनुबंधे सद्य ॥ मन० १३ ॥
०
अर्थ - आगली गाथामां दया पाले ने फल हिंसालुं आपे एम कयुं. हवे जे कथंचित् हिंसा थाय ते पण अहिंसालुं फल आपे ते कहे छे. जे स्वरूपथी के० परमार्थे तो निरवद्य छे, निप्पाप छे अने क्रिया सावध के० क्रिया देखीति यद्यपि सावद्य के तोपण ते जे स्वरूपथी हिंसा छे ते ज्ञानशक्तियें करी दिए अनुबंधे के० अनुबंधे आपे अहिंसा के० दया सब के तत्काल एटले ए भाव जे स्वरूप हिंसा जे दानविहार प्रमुख ते मुनि प्रमुखनी छे ते अनुबंधे अहिंसा फल आपे. यतः भगवत्यां - " अणगारस्सणं भंते ! भाविअप्पणी पुरओ दुहओ जुगमायाए पेहाए रीयं रीयमाणस्स पायस्स अहे कुकुडपोए वा वट्टपोए वा कुलिंगच्छाए वा परियावज्जेज्जा, तस्सणं भंते ! किं इरियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जति ? । गोयमा ! जो संपराइया किरिया कज्जर, इरियावहिया किरिया कज्जइ । सेकेण एवं च ? जहा सत्तमसए संबुदुडेसए जाव अठ्ठो निक्खित्तो ॥ १ ॥” इति अढारमा शतकना आठमा उद्देशामां के ॥ १३ ॥
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(५८)
जिनपूजा अपवाद पदादिक, शीलत्रतादिक जेम ।
पुण्य अनुत्तर मुनिने आपी, दिए शिवपद बहु खेम ॥ मन०१४ ॥
अर्थ- वली जेम पूर्वे मुनिने हिसा स्वरूपथी हवी ते अनुबंधे अहिंसा कही तेमज जिन पूजा तथा अपवाद पदादिकें वर्चता मुनि वली शीलव्रतादिक जेम सुनिने अनुत्तर के० उत्कृष्ट पुण्य आपीने एटले ए जिनपूजादि करणी यद्यपि किश्चित मात्र स्वरूपथी सावध छे अने शीलत्रतादिक ते स्वरूपथी निरवद्य छे पण ए बेहु भेदवालाने अनुबंधे अहिंसालुंज फल आपे ते माटे एम कहुं जे अनुत्तर पुण्य आपीने दिए के० आपे शिवपद के० मोक्षपद जे बहु खेम के० घणुं क्षेम छे जिहां एटले परंपरायें सर्वसिद्धनुं देनार छे ॥ १४ ॥ एह भेद विण एक अहिंसा, नवि होवे थिर थंभ |
यावत योग क्रिया छे तावत, बोल्यो छे आरंभ ॥ मन० १५ ॥
अर्थ-ए प्रकारे १ हेतु २ स्वरूप ३ अनुबंध ए त्रण भेदे हिंसा तथा ए त्रण भेदे अहिंसा ते जाण्या विना एकलीज अहिंसा सामान्य प्रकारें माने ते नवि होवे के० न होय थिरथंभ के० थिरभावे एटले एकली अहिंसा ठेरे नहीं, शामाटे के याचत योग क्रिया छे के० ज्यां लगे मन वचन कायाना योगनी क्रिया ते चलन क्रिया छे तावत के० तिहांलगें बोल्यो छे के० को छे आरंभ के कर्मबंध एटले पोतपोताना गुणठाणानी मर्यादा माफक तेरमा गुणवाणा लगे कर्मबंध छे अन्यथा इरियापथिकवंघ वे समयनी स्थितिनो केम को छे ते माटे एकली अहिंसा कहेवी ते काम न आवे पण तेना भेद समजे तो सर्व ठेकाणे जोडे ॥ १५ ॥
लागे पण लगवे नहि हिंसा, मुनि ए माया वाणी ।
शुभ किरिया लागी जे आवे, तेमां तो नहि हाणी ॥ मन० १९६ ॥
छे
अर्थ - इहां कोइक एम कहे छे जे मुनि के० मुनिराजने विहारादिक करतां हिसा लागे पण लगाने नहीं एटले हाथे करी जाणीने हिंसा करे नहीं एम कहे छे ते माया वाणी के० कपटतुं वचन के एटले मारी माता बंध्या तेनी परे माया गाली बात बोले छे पण शुभ किरिया जे बिहार पडिलेहण नदी उतरवी इत्यादिक करतां जे हिंसा लागी आवे छे ते पोतानी मेलेज लागे छे एम केम कहेवाय. केमके जे नदी उतरवी विहार करवो ते अजाग्यो थतो नयी ते तो पोते जाणेज छे जे नदी प्रमुख उतरतां हिंसा थशे तोपण उतरे छेनी आज्ञा छे ते माटे जे हिंसा शुभ किरिया करतां लागी आवे छे तेमां हाणी के दोष लागतो नथी ॥ १६ ॥
हिंसा मात्र विना जो मुनिने, होय अहिंसक भावे । सूक्ष्म एकेंद्रिनें होवे, तो ते शुद्ध स्वभाव || मन० १७ ॥
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(५९)
अर्थ - हिंसामात्र विना के० एक हिंसाज देखीति न करी एटले देखीतो कोइ जीव न मारो एटला मात्रधीज जो मुनिने के साधुने होय अहिंसकभाव के अहिंसकपणुं थाय तो सूक्ष्म एकेंद्रिने के० लोकव्यापी पांच थावरना सूक्ष्म एकेंद्रि जीवोने पण शुद्ध स्वभाव होवो जोइयें केमके सूक्ष्म एकेंद्रि जीव ते हिंसा नाम मात्र पण नथी करता माटे ते तमारे लेखे अहिंसक धया अने जे अहिंसकभावें परिणम्यो ने तो शुद्ध स्वभावी निरावण थाय पण ते एकेंद्रि तो कोइ निरावर्णी थता देखाता नथी ते माटे मात्र हिंसाने अणकरवेज अहिंसक न थाय. जमालीनी परें "अविधायापि हि यो हिंसा, हिंसाफल भाजनं भवत्येकः " इति अहिंसाष्टक वचनात् ॥ १७ ॥
भावें जे अहिंसा माने, ते सवि जोडे ठाम ।
उत्सर्गे अपवादें वाणी, जिननी जाणे जाम ॥ मन० १८ ॥
अर्थ-ते माटे जे पाणी द्रव्य भाव प्रमुख भेदे करी अनेक प्रकारनी अहिंसा हे तेमां पण भावें के० परिणामें जे प्राणी अहिंसा माने ते के० तं प्राणी सवि जोडे ठाम के० सर्व जिनवाणी पोतपोताने ठेकाणे जोडे ते प्राणीथी आगमवचन एक पण दुपाय नहीं ते भावथी अहिंसा मानीने सर्व आलावा ठेकाणे क्यारे जोडे जाम के० ज्यारे उत्सर्गे अपवादे वाणी के० उत्सर्ग वचन तथा अपवाद वचन ए हुये करीने जिनेश्वरनी वाणी जाणे एटले ए भाव जे उत्सर्ग मार्गे अहिंसा मुनिराजने कही आचारांग प्रमुखने विषे तथा साध्वी प्रमुख पाणीमां वहेती जाणे तो काढे तथा एक महिना मध्ये त्रे नदी उतरवी इत्यादिक अपवाद आज्ञा पण मधुयें करी है तो ए सर्व उत्सर्ग अपवाद भाव जाणे ते सर्व वचन ठामे जोड़े पण मूर्ख भुं जाणे ॥ को
कहे उत्सर्गे आणा, छांटो छे अपवाद ।
ते मिथ्या अणपामें अर्थे, साधारण विधिवाद ॥ मन० १९ ॥
अर्थ - इहां कोइक एम कड़े छे जे उत्सर्ग मार्गे चालबुं तेज आज्ञा हे पण अपवाद ते छांदोछे एटले पोतानी मति कल्पना छे पण जिनाज्ञा नथी एम कहे छे ते मिध्या के० खोडं छे अणपायें अर्थों के० अर्थ जाण्या विना एम कछे तेनुं कारणके जे विधिवाद होय ते साधारणज होय एटले एम जाणवुं जे उत्सर्ग ने अपवाद ए वन्ने विधिवाद छे ते सर्व जीवने साधारण छे पण एक जीव आश्रयी नथी कथुं, ते माटे अपवाद पण आज्ञा के पण छांट एटले स्वमति कल्पना नथी ॥ १९ ॥
मुख्यपणे जेम भावे आणा, तेम तस कारण तेह |
कार्य इच्छतो कारण इच्छे, ए छे शुभ मति रेह ॥ मन० २० ॥
अर्थ - वली एक कहे छे के जंबूद्वीपपन्नतिनी वृत्ति मध्ये एम कर्तुं छे के जे अपवाद ते कारण अने उत्सर्ग ते कार्य ते माटे कहे हे जे मुख्यपणे जेम भावे आणा के० उत्सर्गे
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आशा छे एटले भाव ते कार्य कहीयें अने जे कार्य ते उत्सर्ग कहीये ते माटे जेम उत्समें आज्ञा छे तेम वस कारण तेह के० तेमज ते उत्सर्गनुं जे कारण ते अपवाद छे तेनी पण आज्ञा छे केमके कार्यने इच्छतो थको कारण पण इच्छे अने जो कारण ठेरे वो कार्य पण रें जो कारण,नहीं वो कार्य किहांयी आवे ए रीते माने तेनेज शुभ मतिनी रेखा जाणवी. अथवा ए गाथानो अर्थ वीजी रीते करीयें छैये जे इहां इंढक लोक एम कडे छे जे अयारे तो भावनिक्षेप ते वंदना करवा योग्य छे पण नाम तथा स्थापना अने द्रव्य एत्रण निक्षेपा वंदना योग्य नथी एम कहे छे तेने शीखामण देछे जे मुख्यपणे जेम भावे आणा के. भाव निक्षेपे आना छे एटले भाव निक्षेपो वांदवा योग्य छे, तेम तस कारण के० तेमज ते भावनां कारण जे नामादि त्रण निक्षेपा ते पण वांदवा योग्य छे. केमके जे कार्यने इच्छशे ते कारणने इच्छशे अने कारण मान्या विना कार्यने पामशे नहीं एज शुभ मतिनी रेखा छे एटले जे भाव निक्षेपो मानशे वेने नाम स्थापनादिक पण मानवा जोडयें जो नामादिक नहीं माने तो भाव निक्षेपो पण नहीं मनायो एम थयुं ॥ २० ॥
कल्पें वचन कडं अपवादें, ते आणानुं मूल । मिश्रपक्ष तो मुनिने न घटे, तेह नहीं अनुकूल ॥मन० २१ ॥
अर्थ-पंचकल्पमांहे हएq वचन का छे के अपवाद मार्ग ते जिनाबार्नु मूल छे. यतः"अववाओ ववहारो, आणामूलं जो भवे तित्य।" इति वचनात. माटे मुनिने तो ते मिश्र पक्ष घटे नहीं रुडो नथी ते अनुकूल नथी केमके गुणस्थानादिक क्रियायें मिश्र पक्षता नथी अहिण आगली गाथामा देखाडे छे ॥ २१ ॥
अपुनर्बंधकथी मांडीने, जाव चरम गुणठाण । भाव अपेक्षायें जिन आणा, मारग भाषे जाण ॥ मन० २२ ।।
अर्थ-फरी बंधनयी न करवो तेने अपुनबंधक कहीये ते अपुनर्वधक जे चोधु गुणठाणु तिहांयी मांडिने जाव चरम के० छेला अयोगी केवली चउदमा गुणठाणा लगे इहां अपुनबंधक शब्दं चोधु गुणठाणु जाणीयें छैये जे कारणे अंत: कोडाकोडीनी स्थिति करीने कदापि फरी मिथ्यास गुणगणे आवे तोपण सितेर कोडाकोडीनी स्थिति फरी न बांधे ते माटे अपुनर्बधक कहीयें क्या उपाध्यायजीये पण सवासो गाथाना स्तवन मध्ये एवी गाथा कही छे के, “जे जे अंशेरे निरूपाधिकपणु, ते ते जाणोरे धर्म । सम्यकदृष्टीरे गुणठाणा थकी, जाव लहे शिव शर्म ॥ १॥" ए गायाने अनुमाने पण एमज जणाय छे पछी तो अपुन
धकनो अर्थ बहुश्रुत कहे ते प्रमाण तथा उपाध्यायजीयें स्वकृत अध्यात्मसार ग्रंथमां पण क[छे जे 'अपुनर्वधका यावत् गुणस्थानं चतुर्दश इत्यादियी स्पष्ट जणाय छे के चोथा गुगठाणाथी चउदमा लगें जिन आणा के० जिनेश्वरनी आज्ञा छे अने जाणपुरुप ते एनेज मार्ग कहे छे ते सर्वमाव भावनी अपेक्षायें जाणवा अन्यथा चोथा गुणठाणा प्रमुखने विषे तो महा विभावमां बेटो के पण भावनी अपेक्षायें जिन आणा छे. इति भावः ॥ २२ ॥
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एक अहिंसामां जे आणा, भाषे पूव सूरि । ते एकांत मति नवि ग्रहिये, तिहां नयविधि छे भूरि मन०२३॥
अर्थ-तथा शास्त्रमा एकली अहिंसामां आज्ञा छे जेम 'सव्वे जीवा न हतन्या.' इति आचारांगादिक वचनथी एम पूर्वाचार्य यधपि कहेछ तथापि ए पाठ एकांत मति के. एकांत पक्षे नवि अहिये के० अंगीकार न करीये तेमण ते अहिंसा पण स्याद्वाद मते अंगीकार करीयें जेम मुनिराज नव कोटि पञ्चक्खाण करीने नदी उतरे छे अने पञ्चक्खाण करती वखते नदी मोकली तो राखी नथी तो ते पञ्चक्खाण स्याद्वादेछे पण एकांते नथी एम जाणवू. ते माटे इहां नयविधि छे भूरि के० ते अहिंसाने विषे नयनो विधि घणो छे ते तो जे नयनी वात समजे ते जाणे एटले अहिंसा ते अनेक प्रकारनी छे ॥ २४ ॥
आतमभाव हिंसनथी हिंसा, सघला ए पाप स्थान | तेहथकी विपरित अहिंसा, तास विरहनुं ध्यान ॥ मन० २४॥ अर्थ-वली तेज वात देखाढे छे आतमभाव हिंसनथी के. जे करणी करता पोतानो आत्मभाव हणाणो तो तेमां हिंसा के० हिंसा लागे तथा आत्मभाव हणातां यका अढारे पापस्थानक लागे अने तेह थकी के० ते आत्मभाव हणाया थकी विपरीत के० आत्मभाव जिहां न हणाय ते अहिंसा के० दया कहीये तास के० ते पापस्थानकना विरहनुं ध्यान एवी ए भाव अहिंसा छे ए पद अहिंसातुं विशेपण छे ।। २४ ।।
तस उपाय जे जे आगममां, बहुविध छे व्यवहार । ते निःशेप अहिंसा कहिये, कारण फल उपचार ॥ मन० २५॥
अर्थ-तस के० ते आत्मभाव न हणवाना उपाय के० प्रकार जे जे आगममां के० सिद्धांतमां कया छे एवा व्ययवहार ते बहुविध छे के० अनेक भकारना छे. दान, देवपूजा, पडिक्कमणा, पोसह इत्यादि अनेक छे अने जो उपरनी मूलगाथानो पाठ विहुविध होय तो एम अर्थ करीये जे उत्सर्ग तथा अपवाद ए वे प्रकाररूप व्यवहार छे ते निःशेप के० समस्त जेटला आत्मा न हणवाना प्रकार छे ते अहिंसा कहिये एटले ए भाव जे अपवाद पण आत्मा न इणवान कारण छे तथा दान देवपूजा प्रमुख पण आत्मा न हणवाना फारण छे तेने अहिंसा कहीयें एम स्तवन करनारे ठेराव्युं ते वारे अपवाद ते छांदो छे अने उत्सर्ग ते आना छे ए रीते पूर्व प्रविवादियें कडं हतुं ते दूर करS इति भावः । इहां कोई कहेशे जे ए अपवाद ममुख अनेक आत्माने न हणवाना कारणने अहिंसा केवीरीते कहीयें तेने कहे छे के कारणने विषे फल उपचार के कार्यनो उपचार करीयें छैयें यथा'तंदुलान् वर्पति पर्जन्यः" इति न्यायात् ॥ २५ ॥
जीव अजीव विषय छे हिंसा, नैगमनय मत्त जुत्त । संग्रह व्यवहारें षटकायें, प्रति जीवें रूज सत्त ॥ मन० २६ ॥
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(६२) अर्थ-हवे पूर्व का हतुं जे अहिंसामां नयना प्रकार घणा छे ते देखाडे छे तेमा प्रथम नैगमनयआश्री जीवने विषे तथा अजीवने विषे हिंसा कहे छे ते नैगमनय एम कहे छे जे जेम लोकमां अमुके जीव हण्यो तेमज अमुके अजीव घटने हण्यो घटनो विनाश करयो इत्यादिक हिंसा शब्द सघले प्रवर्ने छे. तथा संग्रहनय अने व्यवहारनय ए बेहु नयने मते छकायने विषे हिंसा भाने पण जे अजीवनी हिंसा तेने हिंसा मानता नथी. इहां संग्रहनयना बे भेद छे एक देशग्राहीसंग्रह बीजो सर्वग्राहीसंग्रह तेमां सर्वग्राहीसंग्रह तो नैगमनयमां भल्यो माटे देशग्राहीसंग्रह इहां लीपो छे. हिसा शब्द अजीवमा प्रवर्ततो लीधो नथी ते माटे देशग्राहीसंग्रह तथा व्यवहारनय तो जे रीते लोक माने ते रीते माने माटे लोक पण छकायने हिंसा माने छे तेम ए बे नयवादी पण कहे छे. तथा ऋजुसूत्र नयवालो भतिजी के जीव जीव मते भिन्न भिन्न हिंसा माने छे एम ओपनियुक्तिनी वृत्ति मध्ये का छेते आगल एज गाथामां कहे छे. तथाच तद्देशः"तत्र नैगमस्य जीवेष्वजीवेषु हिंसातथा च वक्तारो लोके दृष्टाः यदुत जीवोनेन हिसितो विनाशितः, तथा घटोनेन हिसितो विनाशिवः, ततश्च सर्वत्र हिंसाशद्वानुवर्जनात् जीवेष्वजीवेषु च हिंसा नैगमस्य अहिंसाप्येवमेवेति । संग्रहव्यवहारयोः पसु जीवनिकायेषु हिंसा, संग्रहश्चात्र देशग्राही द्रष्टव्यः, सामान्यरूपश्च नैगमातंर्भावी, व्यवहारथ स्थूल विशेष ग्राही लोकव्यवहरणशीलश्चायं तथा च-लोको बाहुल्येन पट्स्वेव जीवनिकायेषु हिंसामिच्छतीति। ऋजुसूत्रश्च प्रत्येकं प्रत्येकं जीवे जीवे हिंसां व्यतिरिक्तामिच्छतीति" हवेशद्धार्थ लखीय छैयें. जीव अजीवने विषे नैगमनयने मते हिंसा कहेवी ए जुत्त के० युक्त छे अने संग्रह तथा व्यवहारनयने मते छकायने विषेज हिंसा माने छे तथा ऋणुसूत्रने मते जीव जीव मते हिंसा जुदी जुदी मानवी ॥२६॥
आतमरूप शब्दनय तिने, माने एम अहिंस।
ओघवृत्ति जोइने लहियें, सुख जश लील प्रशंस ॥ मन० २७॥ अर्थ-आत्मरूप के० आत्मा तेज स्वरूप छे माटे हिंसा अथवा अहिंसा ते आत्मारूप माने छे शब्दनय तिने के० शब्द छे प्रधान जेने एवा त्रण नय १ शब्द २ समभिरूढ ३ एवंभूत ए त्रण नय माने छे जे पोतानो आत्मा प्रमादी थयो त्यारे आत्मा ते हिंसा अने तेज आत्मा जेवारे अममादी थयो तेवारें आत्मा तेज अहिंसा. यतः-" आया चेव अहिंसा, आया हिंसति निच्छओ एसो । जो होइ अप्पमत्तो, अहिंसओ हिंसओ इयरो ॥१॥" इति ओपनियुक्ति वचनात्. पाछला त्रण नय निश्चयना धरना छे माटे ओपनियुक्तिनी वृत्तिनो पाठ पण एम छे. यया-"शब्दसमभिरुढवभूताश्च नया आत्मैवाहिंसा आत्मैवहिंसा इति" हिंसा सात नये फलावी तेमज अहिंसा के० अहिंसा पण फलावियें. "अहिंसाप्येवमेवेति" ओपनियुक्तिवृत्तिवचनात्. ए हिंसाना तथा अहिंसाना सात प्रकार ते ओपनियुक्तिनी वृत्ति जोडने सुख जशनी लीला तथा रुडी प्रशंसा ते लहिये के० पामियें एटले यथार्थ जाणवाथी एटला वानां पामियें ॥ २७ ॥
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( ६३ ) || ढाल नवमी ॥
॥ चैत्री पुनम अनुक्रमे - ए देशी. ।। कोइक सूत्रज आदरे, अर्थ न माने सार; जिनजी । आपमति अवलुं करे, भूला तेह गमार; जिनजी | झवणें मन राखीयें ॥ १ ॥
अर्थ - आठमी ढालने अंते सात नयें करी हिंसा फलावी ते नयें करी हिंसा तो तेवारे समजाय जेवारे सूत्रोनी टीका चूर्णि तथा भाष्य अने नियुक्ति मानीये तो समजाय पण केवल सूत्रनो मूलपाठ वांचवाथी न समजाय केमके जे सूत्र होय ते सूचना मात्र होय माटे जे अर्थने नथी मानता तेने शिक्षा देवा सारु नवमी ढालने आठमी ढाल साथै संबंध करी कहे छे जे कोइक के० जे ढुंढक लुंपाक नाम न देवा योग्य माटे कोइक एवं नाम कनुं ते सूत्र आदरे के० केवल सूत्रज माने छे इहां एवकार ते नृत्यादिक निषेध वाचक छे तथा अर्थ के ० टीका प्रमुख ते नथी मानता जिनजी के० हे रागद्वेषना जीतणहार हे वीतराग ते केवा छे आपमति के० स्वच्छंदे चालणहार छे पण आगमानुयायी चालता नथी अवलं करे के० जेट कार्य करे तेटलं अवलुं करे छे माटे ते मूर्ख गमार भ्रूला भमे छे कारणके सूत्र तो गणधरना रच्या अने अर्थ तो तीर्थंकरनो कह्यो यतः - " अत्यं भासह भरडा, सुतं गुंत्थति गणहरा निउणं । ” इति वचनात्. ते माटे अर्थनी ना कहेतां तीर्थकरनी आशातना करे छे माटे अवलुं करे छे माटे हे प्रभु तमारे वचने मन राखीयें ॥ १ ॥
प्रतिमा लोपे पापीआ, योग अने उपधान; जि० । वास न सिर धरे, मायावी अज्ञान ॥ जि० तुझ० २ ॥
अर्थ - वली ते लोक प्रतिमाने लोपेछे एटले प्रतिमा थापेछे पण केवा छे जे पापीआ के० पापी छे शामाटे जे श्रीसमवायांग तथा भगवती तथा ज्ञाता अने उपासक राजमश्रेणि जीवाभिगम जंबूद्वीपपन्नति प्रमुखने विषे साक्षात् प्रतिमा कही छे तेने लोपी उत्सूत्र बोले छे अने जे उत्सूत्र बोलवु ते श्रीभगवतीसूत्रमां पाप कही वोलान्युं छे ते माटे पापीया कह्या. ते प्रतिमानो अधिकार तो उपाध्यायजीयें हुंडीना स्तवन मध्ये कह्यो छे माटे इहां नयी को. वली योग वहेवा तेने लोपे छे कारण के श्रीनं दिसूत्र तथा अनुयोगद्वारसूत्र अने उत्तराध्ययन ठाणांग प्रमुख सूत्रने विषे योग पण कह्या छे ते पण उत्सूत्र वोली लोपे छे. उपलक्षणची श्रावकने सूत्र भणावे ते पण निशीथ तथा ठाणांग सुयगडांग व्यवहार उपासक ममुखमां ना कही छे ते वातो पण हुंडीना स्तवनमां आणी छे तेथी अहीं नयी कहेता माटे पापी छे. वली उपधान लोपे छे केमके श्रीमहानिशीथ प्रमुख सूत्रमां उपधान कह्या छे ते लोप्या माटे पापी
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कया वली गुरुनो वास मस्तकने विष न धरे एटले ए भाव जे समवायांगसूत्र तथा श्रीअनुयोगद्वारमूत्र प्रमुखने लेखे तथा आवश्यक नियुक्ति प्रमाण छे तेमां गुरुनो वास कहोछे ते लोप्यो माटे पापी कहिये. वली मायावीछे कपटे करी लोकने भरममां नाखेछे अक्षरार्थ मरडवो ते वक्रता अने जे वक्रता ते माया वली अज्ञाने भरया छे केमके व्याकरणादिक भण्या विना सूत्र बांचे छे ते न घटे. यतः-"अह केरिसकं पुणाई सचं तु भासियव्वं जं ते दव्वेहि पज्जवेहिं य गुणेहि कम्मेहि वहुविहेहि सिप्पेहिं आगमेहि य, नामक्खाय निवाय उवसग्ग तद्धिय समास संघिपद हेउ जोगिय उणादि किरिया विहाण धातु सर.विभत्ति वन जुत्त । तिकालं दशविहंपि सच्चं जह भणिय तहय कम्मुणा होइ दुवालस विहाई होइ भासावयणं पिय होइ सोलसविह" इत्यादि प्रश्न व्याकरणमूत्र मध्ये पाठ छे माटे जे जाणे ते ज्ञानी अन्यया अज्ञानी कहियें ॥२॥
आचरणा तेहनी नवी, कति कहिये देव; जि० । नित त्रुटे छे सांधता, गुरुविण तेहनी टेव ॥ जि. तुझ०३॥
अर्थ- ते ढुंढीआनी आचरणा जे वाशक्रिया ते सर्व नवीन छे, मुख वांधी बाहेर निकलq डांडो राखबोज नहीं वीपाकसूत्रने विरोधी तथा भगवती दशवकालिक प्रश्न व्याकरणादिकमूत्र थकी विरोधी आचरणा तेहनी केति के० केटली कहीयें एटले घणी छे माटे हे देव हे आत्माराम हे परमानंदविलासी वली तेने निरंतर सांधतां थकां त्रुटे छे एटले लोक उखाणो छे जे नव सांधे ने तेर त्रुटे ते उखाणो एने घरे छे. वली पूजामां हिंसा ववावे अने पोतें मरे ते वारे शें करीयें क्या पोवाने वांदवा आवे तया दीक्षामहोत्सव करे तेमां हिंसा थाय के न याय इत्यादिक वह अधिकार छ पण केटलो लखाय. एम एक वात सांधवा गयो एटले ठामठामयी त्रुटी गयुं जे माटे गुरु विना तेनी खराव टेव पडी गइछे. जो गुरु परंपरागत होय तो कांइ अटके नहीं क्यारे खलाय नहीं संप्रदाय विना ठाम ठाम अटके छ एटले ए भाव जे नगुरा छे ज्यारे निकल्यो त्यारे माथे कोइपण गुरु नहोतो॥३॥
वृत्ति प्रमुख जोइ करी, भाषे आगम आप; जि० । तेहज मूढा ओलवे, जेम कुपुत्र निज वाप ॥ जि० तुझ०४॥
अर्थ-वृत्ति के टीका अने प्रमुखशब्दं चूर्णिनियुक्ति आदि लेवा ते जोइ करीने आप कं० पोते आगमने भाषे एटले वृत्ति प्रमुख छानी राखी तेना भाव जोइ आगमनो अर्थ ठीक साडे पछी लोक आगल एकलु मूत्र वांचे. एम ते अन्नानी टीका प्रमुखने ओलवे कोइ पूछे जे टीका नियुक्ति मानो छो ते वारें कहेगे जे नयी मानता. जेम कुपुत्र होय ते पोताना वापने ओलवे एटले बाप होए सादो अने पोते होए छेल पछी कोइ पूछे जे आ समारा शा सगा छे ते वारे आडो अवलो जवाव आपे तेम टीका प्रमुखनो उपकार अने तेनेन न माने ॥४॥
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(६५)
वृत्त्यादिक अणमानता, सूत्र विराधे दिन; जि० ।
सूत्र अरथ तदुभय थकी, प्रत्यनीक कह्या तीन ॥ जि० तुझ० ५ ॥
अर्थ - वली हत्त्यादिक के० वृत्ति चूर्णि भाप्यने अनुसारें प्रकरण चरित्रादिकने अणमानताथका ते दीन के० भावदया करवा योग्य मुत्रनेज विराधे छे, मूत्रनीज आशातना करे छे. समवायांगमूत्रे तथा नंदिमत्रे कां छे - "आयारेणं परित्ता वायणा संक्खेज्जा अणुओगद्वारा संखेज्जा वेढा संखेज्जा मिळोगा संखेज्जाओ निज्जुत्सीओ संखेज्जाओ पडिवत्तीओ संखेज्जाओ संगहणीओ" इत्यादिक कयां छे तेमाने नहीं तेवारें मृत्रने विराधेज छे. वली १ सूत्र प्रत्यनीक २ अर्थ प्रत्यनीक ३ तदुभय प्रत्यनीक ए श्री ठाणांगमृत्रे कथा छे. यतः- “सुयं पच नओ पडिणीया पनना तंजा - मुत्तपडिणीए अत्थपडिणिए तदुभयपडिणीए " ए त्रीजा टाणाना चोथा उद्देगें कां छे. एमज भगवतीमुत्रना आठमा गतकना आठमा उहेगामां क , तो अर्थ प्रत्यनीक ते नियुक्त्यादिक जे नथी मानता तेने कहीयें तेशिवाय अर्थ प्रत्यनीक तथा तदुभय प्रत्यनीक ने वीजा कोने कहींय ते बतावो ॥ ५ ॥
अक्षर अर्थज एकला, जो आदरता खेम; जि० ।
भगवइ अंगे भापिओ, त्रिविध अर्थ तो केम ॥ जि० तुझ० ६ ॥ अर्थ- जो केवल एकलो अक्षरार्थ मानीयें एटले जेटलं मत्र तेटलोज गब्दार्थ आदरीयें मानीय अने नेम मानता तमने खेम के० कुशल हे तो भगवतीमृत्रमां त्रिविध के० त्रण प्रकारे व्याख्यान अर्थ कडेवो को ले ते केम घटे तथा अनुयोगद्वारे वे प्रकारे अनुगम को छे “मुत्तागमे य निज्जुत्तिअणुगमे य" तथा "निज्जुत्तिअणुगमे तिविहे पत्ते तंजानिक्खेवनिज्जुतिअणुगमे उवग्धायनिज्जुत्ति अणुगमे" इत्यादिक तथा 'उडेसे निडेसे निग्गमे कालपुरिसे 'ए गाथा अनुयोगद्वारमां छे तेना अर्थ केम करशो. इति भावः ॥६॥ सूत्र अरथ पहेलो वीजो, निज्जुत्तीये मीस; जि० ।
निरविशेष श्रीजो वली, इम भाषे जगदीश ॥ जि० तुझ० ७ ॥
अर्थ-तेज त्रण प्रकारनुं व्याख्यान देखाडे छे. प्रथम मुत्रनो गव्दार्थ शिष्यने देवो, जेम नमी के० नमस्कार थाओ अरिहंताणं के०अरिहंत राग द्वेषरूप शत्रु हण्या माटे. ते शब्दार्थ सारी रीते आवड्यो ते वारे वीजो के बीजीवार अर्थ कहे ते निज्जुत्तियें मीस के० नियुक्ति सहित अर्थ कहे हे शिप्य ते अरिहंत चार प्रकारना छे. नाम, स्थापना, द्रव्य अने भाव भेदें. यतः -" नामजिणा जिणनामा, ठवणजिणा पुण जिणंदपडिमाओ । दव्वजिणा जिणजीवा, भावजिणा समवसरणत्था ॥ १ ॥ " इत्यादिक एम बीजी वार अर्थ आवड्यो पछी त्रीजी वार फरी एज पदनो अर्थ निरविशेष के० समस्त रीते कहे एटले प्रसंगे प्रसंगे सर्व कहे नैगमादिक नय पण शक्ति होय तो फलावे तेना साधन कहे. उदाहरण जे अरिहंतने नमस्कारनुं फल कहे इन्यादिक एटले ए भाव जे प्रथम अर्थमां टीका, चूर्णि अने वीजा
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(६६)
अर्थमा नियुक्ति तथा त्रीजा अर्यमा भाप्य आव्यु एम हे जगदीश तुं भाप के भगवतीना शतक २५ माना त्रीजा उद्देशामा कई छ-" मृत्यों खलु पढमा, बीओ निजुत्तिमिसओ भणिय । तइयो य निरविससी, एसविहि होड अणुओगी ॥१॥" ए गाथा नंदिमृत्र मध्यं पण छे ने माटे अर्थ प्रयाण करे तो खम थाय ।। ७ ॥
छाया नर चालें चले, रहे थिति तस जेम; जि० । सूत्र अरथ चाले चले, रहे थिति तस तम ॥ जि. तुझ०८॥
अर्थ-जम नर के० पुरुपनी छाया त जे वारें पुरुप चाले ते वार नेनो छांयडा पण चालं अने रहे के० पुरुप उभो रहे ने वारे तस के० ते छायानी पण स्थिति के० रहेg थाय जम ए तेम मृत्र अने अर्थमां पण एमज भाववं. मृत्रनी चाल अर्थ चले चाले रहे के० मृत्र रहे ते वारे तस के० ते अर्थनु पण थिति के० रहे थाय ॥ ८ ॥
अर्थ कह विधि वारणा, उभय सूत्र जेम ठाण; जि० तम प्रमाण सामान्यथी, नवि प्रमाण अप्रमाण ॥ जि. तुझ० ९॥
अर्थ-बली अर्थ के टीका प्रमुख होय तेज समजावे अने विधि के० विविवाढ तथा वारणा के निषेध मृत्र तथा उभय मृत्र के विधिमूत्र तथा निपंधमत्र ए बहु मूत्र जम ठाण के. ठाणांगमूत्र मध्ये कयां छे. यथा-"नो कप्पड निग्गंयाण वा निग्गंधीण वा इमाओउडि हायोगणियायाजिताओ पंच महण्णवायो महानईओ, अंतोमासस्स दुखुचो वा तिग्युत्तो वा उत्तरिए संत्तरित्तए वा, तंजहा गंगा जउणा सरऊ एरावती मही" इति ए रीत निषेध करीने बली लगनाज भूत्रमा आनाकरी. यथा-"पंचहि ठाणेहि कप्पति तंजहा भयसि वा दुन्मिकबसि वा पन्चाईज चणकोई उनगंसि वा एज्जमाणसि महता वा अणारिएहिं।" इति एवं मृत्र कयां एक विधि, एक निषेध ए बेमां कयुं मत्र प्रमाण करिये अनेकयुं मंत्र अप्रमाण करिये इहां एक अप्रमाण न थाय इतिभावः हवे पछवाडाना वेपदनों अर्थ कहछ तम के.
गैन नंम ठाणांग मध्ये बहु मृत्र देखाड्या नेम सामान्य प्रमाण जे मूत्र छे ते मूत्रथी नत्रि प्रमाण अप्रमाण के० इहां सामान्य पद छे ते माटे जाणीये छैये ज विशेप पढ़ वाहाग्यी लावीय तबार एम अर्य थाय जे विशेप प्रमाण ते टीका प्रमुख ते नवि अप्रमाण क. अप्रमाण नथी पटले ए भाव जे प्रमाण वे प्रकारना एक सामान्य प्रमाण वीजु विशेप - माण तमां सामान्य प्रमाण ते मूत्र कहीये जमां सामान्यपणे मृचना मात्रै कयु होय अने विशेप प्रमाण ने अर्थ टीका प्रमुखने कहींय जमां विस्तारीने कयु छ ए वे प्रमाण छे तेमां सामान्य प्रमाण खरं अने विशेप प्रमाण खोटुं एम न कहवाय, सामान्य प्रमाणधी विशेष ममाण ते अप्रमाण कम थाय. इतिभावः ॥९॥
अंध पंगु जेम व मले, चाले इच्छित ठाण; जि० । सूत्र अरथ तेम जाणीय, कल्प भाप्यनी वाण || जि. तुझ० १०॥
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अर्थ-जेम अंघ लोचनहीन अने पंगु के चरणहीन ए वे मलीने चाले इच्छित ठाण के. वांच्छित स्थानकने विषे चाले तेम सूत्र तथा अर्थ जे टीका प्रमुख मलीने यथार्थ स्थानके अर्थ जोडी शकीय एम कल्पभाष्यनी वाणी छे ॥१०॥ . विधि उद्यम भय वर्णना, उत्सर्गह अपवाद; जि०।
तदुभय अर्थे जाणीयें, सूत्र भेद अविवाद ॥ जि० तुझ० ११ ॥
अर्थ-वली १ विधिसूत्र २ उग्रममत्र ३ भयसूत्र ४ वर्णवस्त्र ५ उत्सर्गसूत्र ६ अपवादमूत्र ७ तदुभयमत्र ए सर्व मूत्रना भेदनी खवर अर्थथी जणाय नहीं तो शी खवर पडे जे आ सूत्र ते शी अपेक्षानुं छे. यथा-"संपत्ते भिक्खु कालंमि, असंभतो अमुच्छिओ। इम्मेण कम्मजोगेणं, भत्तं पाणं गवेसए ॥१॥" ए दशवैकालिकना पांचमा अध्ययने कई इत्यादिक विधिमत्र कहीयें तथा "दुमपचए पंडयए, जहा निवडइरागणाणअचए । एवं मणुाण जीवियं, समय गोयम ! मा पमायए॥१॥"इत्युत्तराध्ययनना दशमाध्ययने का इत्यादिक उद्यम सूत्र कहीयें अने नरकने विपे मांस रुधिरादिक वर्णवी कहेवा. यथा-"उत्तराध्ययनना मृगापुत्र अध्ययनमा तथा सुयगडांगना नरक विभत्ति अध्ययनमा ते परमार्थे मांसादिक नथी पण भयमूत्र छे. यतः-"नरएस मंसरुहिराइ,वज पसिद्धिमित्तेण । भयहेउं इहरा तेसि,विउवियभावओन तयं ॥११॥" इत्यादिक भयसूत्रवर्णवसूत्र यथा'
ऋथिमिय समिद्धा' इत्यादिक उववाइ जाताधर्म प्रमुखने विपे पायें सूत्र छे ते वर्णव सूत्र छे. बली "इच्चेसि छन्हें जीवनिकायाणं नेव सयं दंड समारंभेजा' इत्यादिक छ जीव निकायना रक्षक प्रमुख आचारांगादिक सूत्रने विषे ते उत्सर्गसूत्र जाणवू तथा छेद ग्रंथ ते पायें अपवाद सूत्र छे अथवा "न वा लभिजा निवणं सहाय,गुणाहियं वा गुणओ समं वा । इक्कोवि पावाइं विवज्जयंतो,विहरेज काम्मेसु असज्ज माणो ॥१॥" इत्यादिक अपवादसूत्रो जाणवां तथा जेमा उत्सर्ग अने अपवाद साथे कहेवाय ते तदुभय सूत्र कहीयें जेम “अट्टज्माणाभावे, सम्म अहिआसियचओ वाहि । तब्भावमि अ विहिणा, पडियारपवत्तणं नेय॥१॥"इत्यादिक अनेक प्रकारनाखसमय परसमय निश्चय व्यवहार ज्ञान क्रियादिक नानामकारें नय मतना प्रकाशक सूत्रना जे भेद ते अविवादपणे के जेमा झगडो न उठे ए रीते स्वस्थानकें अर्थथी जोडाय ॥ ११ ॥
एह भेद जाण्या विना, कंखा मोह लहंत; जि०। भंगंतर प्रमुखे करी, भाष्यु भगवई तंत ॥ जि. तुझ० १२ ॥
अर्थ-तो ए पूर्वोक्त मेद जाण्या विना भगतर प्रमुखे करीने कंखामोह के० मिथ्यात्व मोहनीने लहंत के. वेदे एम भगवतीसूत्रमा तत के निचे भाप्यु छे एटले ए भाव जे सूत्र तो विविध आश्यना होय ते आशयनी जेवारें मालम पडे तेवारें मनमा शंका उपजे के आ खरु के आ खलं एवी शंका थाय अने जे शंका ते मिथ्याखमोहनी याय तथा चोक्तं भगवत्यगे प्रथम शतके तृतीय उद्देशके "अत्थिणं भंते ! समणा निग्गंथा कखामोहनीज कम्म
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(६८) वेदंति हेता अत्यि। कहणं भंते !समणाणिग्गंथा कखामोहनीज्ज कम्म वेदति ? गोयमा! तेहि वेहिं नाणंतरेहिं दंसणंतरेहि चरितंतरेहि लिंगंतरेहि पवयणंतरेहिं पावयणंतरेहि कप्पंतरेहि मग्गतरेहि मतंतरेहि भंगतरेहि जयंतरेहि णियमंतरेहिं पमाणतरेडिं संकिया कंखिया वितिगिच्छिया भेयसमावन्ना कलुसमावन्ना एवं खलु समणा निग्गंया कंखामोहणिज्न कम्मं वेदंति" इति एनो समाधान भगवतीनी वृत्तिथी जोइ लेजो ते माटे टीका प्रमुख अर्थ जाण्याथीज सर्व समाधान थाय आम्नाय पामिये पण केवल सूत्रेज न पामियें इहां भगतरममुखे कयु ते 'मध्य ग्रहणे आयतयोर्ग्रहण' इति न्यायात् । 'गाणंतरेहि' इत्यादि पदो पण लेवा ॥ १२ ।।
परिवासितवारी करी, लेपन अशन अशेष; जि०। कारणथी अति आदस्था, पंचकल्प उपदेश । जि० तुझ० १३ ॥
अर्थ-परिवासित के० रात्रे वासी राखq ते वारी करी के वारीने एटले मुनिने संनिघिमात्रे पण राख ते रात्रे न घटे एहवं अं ते कहे छे लेपन के० विलेपन अथवा कुसुमवासित तेल प्रमुख अने अशन के० आहार तथा अशेप शन्हें प्रमुख लेवा ते वारीने वली कारणथी अति के. अत्यंत कारणे आदरयां के० ते मुनियें अंगीकार करयां एटले वासी राखवानी मुनिने आज्ञा करी ते पंचकल्प ग्रंथनो उपदेश छे. उपलक्षणथी निशीथने विषे पण कहाँ छे. यतः-" ननु ओपधादिसंनिधिः क्रियते न वा? उच्यते उत्सर्गेण न कल्पते कारणेतु भवत्यपि तथाहि-वोच्छिन्नमंडवं नामजस्थ दुजोयणभ्यंतरओ गामघोसाइ नत्थि तत्थ तुरिए कजे न लब्भइ अओ तत्थ वोच्छिन्नमंडवे ओसहगणो परिवासिजई" इति निशीथे ते माटे ए कारणादिक प्रकार ते टीका प्रमुख विना जणाय नहीं ॥ १३ ॥
वर्षागमन निवारीओ, कारणे भाष्यु तेह; जि० । ठाणांगे श्रमणीत[, अवलंबादिक जेह । जि० तुझ० १४॥
अर्थ-वर्षागमन के चोमासाने काले विहार करवा निवारयुं छे. श्रीगणांगना पांचमा ठगणाना वीजा उद्देशा मध्ये यत:-"णो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा पढमपाउसमि गामाणुगाम इजित्तए" इति तथा कारणे भाष्यु तेह के तेज वर्षाकालमां कारणयी विहार करवानी आज्ञा करी ते पण ठाणांगसूत्रना पांचमा ठाणाना बीना उद्देशामां कधुं छे. यतः-"पंचहिं ठाणेहिं कप्पइ तंजहा-भयंसि वा दुभिक्खंसि वा जाव महता वा अणारिएहि" इति तथा तत्रैव "वासावास पन्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गयाण वा निग्गंथीण वागामाणुगाम दुइज्जित ए । पंचर्हि ठाणेहि कप्पइ तनहा-णाणठयाए दसणठयाए चरित्तठयाए आयरियउवज्झाए वा से विसुभेज्जा आयरियज्वज्झायाणं वा वहिता वेयावञ्चकरणयाए" इति वली एज श्रीगणांगने विषे श्रमणी के साध्वीने अवलंवन के आलंबे तो प्रभुनी आझा अतिक्रमे नहीं. यत:"पंचहि ठाणेहि समणे निग्गथे निग्गंथि गिन्हमाणेवा अवलंबमाणे वा णाइकमइ । तंजहा• अभयरे पसजाइए वा पक्खिजाइए वा ओहाएज्जातत्थ निगथे निग्गथि गिन्ह
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माणेवा अवलंबमाणेवाणाइकमइ । निगथे निगर्थि दुग्गंसिवा विसमंसि वापक्खलमाणि वा पवडमाणिवा गिन्हमाणेवा अवलंवमाणेवाणाइक्कमइ । निग्गथे निग्गंथि सेयंसिवा पंकसि वा पणगंसिवा उदगंसि वा उक्कसमाणि वा उज्जमाणिवा गिन्हमाणेवा अवलंवमाणे वाणाइक्कमइ। निग्गंथेनिग्गंथिंणावं आरुहमाणे वा ओरुहमाणे वा जाव णाइक्कमइ । खेत्तइत्वं जक्खइठं जाव भत्तपाणपडियाइक्खितं निग्गंथे निग्गंथि गिन्हमाणे वाअवलंवमाणे वा णाइकमई" । इत्यादि ए उपलक्षणथी साधु साध्वी एक स्थानके भेला वसे एवा पण आलावा श्रीठाणांगमध्ये छे ते केटला लखाय अने वली नवमे ठाणे ब्रह्मचेरा कह्या तेमा स्त्रीना अंगोपांग जोवा नहीं तथा भीतने आंतरे वसवू नहीं एम का ते वाव तो प्रसिद्ध छे माटे प्रतिपक्षीआलावो उपाध्यायजीयें संभारयो नहीं तेथी अमे पण लख्यो नहीं तो वृत्त्यादिक विना केम वध बेसे इतिभावः ॥२४॥
आधाकर्मादिक नहीं, बंधतणो एकंत; जि० । सुयगडे ते कम घटे, विण वृत्यादिक तंत ॥ जि० तुझ० १५ ॥ अर्थ-आषाकर्मी आहार करवो ते नहीं के० नथी कह्यो वैधतणो एकत के० कर्मबंधनो एकांत नथी एटले ए भाव जे श्रीमुयडांगसूत्र मध्ये आषाकर्मी आहार करतां कर्म बंधाय पण खरं अने वली नवंधाय एम पण कडं ते केम घटे. यतः-"आहाकम्माणि भुजंति, अन्नमन्ने सकम्मुणा । उवलित्ते वियाणज्जा, अणुवलिते ति वा पुणो ॥१॥ एएहिं दोहिं ठाणेहि ववहारो ण विज्जइ, एएहिं दोहि ठाणेहिं । अणायारंतु जाणए ॥२॥" ए मुयगडांगना २१ मा अध्ययने छे माटे एवी वातो ते टीका प्रमुख विना सूत्र केम स्पष्ट थाय.
विहरमान गणधर पिता, जिन जनकादिक जेह; जि० । क्रम वली आवश्यकतणो, सूत्र मात्र नहीं तेह ॥ज.तुझ०१६॥
अर्थ-वली विहरमान के विचरता वीस तीर्थंकर तथा तेओना गणधर अने तेओना पिता उपलक्षणथी माता लंछन नगरी विजय परिवार केवली प्रमुख ते सूत्रमा जडे नहीं. अथवा जेम वीस विहरमानना गणधर तेमज उपलक्षणथी ऋपभादिकना गणधर पण सर्व सूत्रमा नथी तथा गणधरोना पिता प्रमुख सूत्रमात्रे नथी तथा जिन के. चोवीस तीर्थकरना जनकादि के० मातापिता उपलक्षणथी वीजो पण परिवार ते सर्व सूत्रमा नथी ते आवश्यकादिक माने तोज जडे वली आवश्यक जे उभयटक पडिकमणुं करतेहनो जे क्रम के अनुक्रम ते जे अमुक पछी अमुक कहे, इत्यादिक सूत्रमात्रे नहीं के. मात्र एकला सूत्रमा न लाभे एवी घणी वातो छे ते केटली लखाय पण प्रकरण नियुक्त्यादिक माने तो पार पडे, नहीं तो गोथाज खाय ॥१६॥
अर्थ विना केम पामिये, भाव सकल अनिबद्ध; जि०। गुरुमुख वाणि धारतां, होवे सर्व सुबद्ध ॥ जि. तुझ० १७ ॥
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( ७० )
अर्थ - वली अर्थ के ० टीका प्रमुख विना केम पामियें सकल के० समस्त अनिबद्ध के० अणीबंद्ध ते घुरथी ते छेडा लगें सर्व वात केम जडे सूत्रमां तो लगारेक नाम मात्र कहे संपूर्ण तो टीका प्रमुखमा लाभे अथवा अनिवद्ध के० सूत्रमां नयी बंधाणा एवा भाव तो घणा रह्या छे, अत्यंत थावरमांथी आवी जेम मरुदेवाजी मोक्षे गयां इत्यादिक वगर बांध्या पांचसो आदेश छे ते सर्व केवल सूत्रेंज केवी रीते गम्यमान थाय ते माटे गुरु आदिकना सुखी वाणी सांभलीयें जे संप्रदायिक होय ते धारतां थकां होवे, सर्व सुबद्ध के सर्व सुवद्ध थाय सुयुक्तिवंत थाय ॥ १७ ॥
७
पुस्तक अर्थ परंपरा, सघली जेहने हाथ; जि० ।
सुविहित अणमानता, केम रहेसे निज आथ ॥ जि० तुझ० १८ ॥
अर्थ-पुस्तक जे अंगोपांगादिक अक्षर न्यासरूप अर्थ टीका प्रमुख जे गुरु संप्रदायनी परंपरा ते सर्व जेने हाथे के श्वा जे सुविहित शुद्ध मार्गना प्ररुपनार तेहने अणमानतां एटले अंगीकार करचा विना केम रहेशे ? निज आथ के० पोतानी समक्रितरूप जे लक्ष्मी ते शी रीते रहेशे ॥ १८ ॥
सदगुरु पासे शिखतां, अर्थ न मांहे विरोधः जि० ।
हेतु वाद आगमत्रतें, जाणे जेह सुवोध || जि० तुझ० १९ ॥
अर्थ-ते माटे स्वच्छंदपणुं टालीने सद्गुरु पासे विनयादिकें करीने सूत्रना अर्थ जे टीका मुख ते धारवा तेमां कांइ विरोध नथी पण ते मूर्खलोक एम जाणे छे जे सूत्रमां विरोध नथी अने अर्थमा विरोध छे ते खोडुं छे. गुरुमुखे शीखतां थकां कांइ विरोध छेन नहीं तथा ए रीते गुरु पार्से धारतां हेतुवाद कहेतां कारण निमित्तवाद एहवो आगम जे सिद्धांत तेने जाणे जे थकी सुवोध के० भलो वोध थाय ॥ १९ ॥
अर्थं मत भेदादिके, जेह विरोध गणंत; जि० ।
ते सूत्रे पण देखशे, जो होशे एकंत ॥ जि० तुझ० २० ॥
अर्थ - वली अर्थ के ० टीका प्रमुखने विषे मतभेदादिकें के० कोइ मतभेदें कोइ वाचनांतर भेदे भेदपशुं देखीने जे विरोध गणे छे अने कहे छे जे टीका प्रमुख विरोधी छे मलती नयी तो केम मानीयें तेहने कहे छे के जे प्राणी टीका प्रमुखमां विरोघपणुं जोशे ते सूत्रमां पण विरोधपणुं देखशे जो एकांते निश्चये करी जोशे तो सूत्रमां पण घणो विरोध छे ते केम नयी जोता. इति भावः ॥ २० ॥
संहरता जाणे नहीं, वीर कहे एम कल्प; जि० ।
संहरता पण नाणनो, प्रथम अंग छे जल्प | जि० तुझ० २१ ॥
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अर्थ-हवे तेज सूत्रना विरोधीपणाने देखाडे छे जे देवानंदानी कुखथी लेइने त्रिसलादेवीने कुखे संहरता के० संहरचा ते संहरतां वीरखामी जाण्यु नहीं एम श्रीकल्पसूत्रमा कबु छे. यथा-"साहरिजिस्सामित्ति जाणइ, साहरिजमाणे न जाणइ, साहरिएमिचि जाणह" इति पागत्. तथा वीरखामीने हरणगमेषीय संहरया ते अवसरे प्रथम अंग जे श्रीआचारांग तेमां ज्ञाननो जल्प के० शब्द छे एटले ए भाव जे संहरता थकां प्रभुयें जाण्यु एम कडं छे तथा च तत्सूत्र-"साहरिजस्सामित्ति जाणइ, साहरिएमित्ति जाणइ, साहरिज्जमाणेवि जाणइ । समणाउसो" इति पंचदशे भावनाध्ययने इति विरोधः ॥ २१ ॥
ऋषभकूट अडजोयणो, जंबूपन्नत्ति सार; जि०। बार वली पाठांतरें, मूल कहे विस्तार ॥ जि० तुझ० २२ ॥ अर्थ-वली ऋषभकूटर्नु आठ योजन मूल विस्तार छे एम जंबूद्वीप पनत्तिसूत्रमा कबु छे. यत:-"एत्थणं उसमकूडे नगकूडे पनते अजोयणाई उहूं उच्चत्तण दो जोयणाई उव्वेहेणं मूले अह जोयणाई विक्खमेणं मज्झे छ जोयणाई विक्खमेण उपरिचत्तारिजोयणाई विक्खमेणं" इत्यादिक जंबूद्वीप पन्नतिनो पाठ छे सार के प्रधान एहवी जंबूद्वीप पनति कहे छे गाथानो अर्थ अन्वय करी करिये एटले एक पाठ तो ए कयो वली एज जंबूद्वीप पन्नत्तिमां पागंतरे वीजो पाठ छे तेमां वार जोजन मूलें विस्तार कह्यो छे ते केम मले एकज सूत्रमा वे पाठ शा? सर्वज्ञना ज्ञानमां फेर नथीतो संदिग्ध वचन केम होय इतिभावः तथाच तत्पाठः "मूले वार जोयणाई विक्खंभेणं मज्ज्ञ अह जोयणाई विक्खंभेणं उपरि चत्वारि जोयणाई विक्खभेणं" इत्यादिक पाठ जोजो केवल सूत्र मेलवी आपजो ॥२२॥
सत्तावन सय मल्लिने, मन नाणी समवाय; जि० । आठ सया ज्ञाता कहे, ए तो अवर उपाय | जि. तुझ० २३ ॥ अर्थ-श्रीमल्लिनाथस्वामीने सत्तावनसो मनपर्यव ज्ञानी श्रीसमवायांगसूत्र मध्ये कया छे यत:-"मल्लिस्सण अरहओ सत्तावन मणपज्जवभाणी सया होत्था इति ।" श्रीज्ञातास्त्र मध्ये मल्लिनाथस्वामीनेज आठसो मनपर्यव ज्ञानी कह्या छे. यथा-"अहसया मणपज्जवनाणीण" एम श्रीसमवायांगसूत्र तथा ज्ञातासूत्र मल्युं नहीं ए विरोध ए तो अवरउपाय के० ए मेलववानो उपाय तो अन्यज छे ते तो गीतार्थज्ञानी जाणे ॥ २३ ॥
उत्तराध्ययने स्थिति कही, अंतरमुहूर्त जघन्य; जि० । वेदनीयनी बार ते, पन्नवणामा अन्य ॥ जि० तुझ० २४ ॥
अर्थ-तथा श्रीउत्तराध्ययनसूत्र मध्ये वेदनी कर्मनी स्थिति जघन्य अंतरमुहूर्त कही छे. यता"उदहिसरिनामाणं तीसई कोडाकोडीओ उक्कोसियाठिई होइ, अंतोमुहुच जहनिया ॥१॥
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आवरणिनाणं दुहपि, वेयणिज्जे तहेव या अंतराए य कम्ममि, ठिई एसा वियाहिया||२||" इत्युत्तराध्ययन अध्ययन ३३ मा मध्ये कयुं छे. वली तेज वेदनी कर्मनी वार मुहूर्त जधन्य स्थिति श्रीपनवणामूत्र मध्ये कही छे. यथा-"सायावेयणिज्जस्स इरियावहियवंधगं पडुच्च जहन्नमणुकोसेणं दो समया, संपराइयवंधगं पडुच्च जहन्नेणं वारसमुहुत्ता उक्कोसेणं पणरस सागरोवमकोडाकोडीओ।" इत्यादिक पनवणा मध्ये कर् तो वे उत्तराध्ययननी साथे मल्यु नहीं मारे विरोध ते तो अन्य के० जुदीज वात छे ॥२४॥
अनुयोगदारें कह्या, जघन निखेपा चार; जि० । जीवादिक तो नवि घटे, द्रव्य भेद आधार जितुझ०२५||
अर्थ-वली श्रीअनुयोगद्वारसूत्रने विष एम को छे के जे वस्तुना जेटला निक्षेपा करवानी तारी बुद्धि थाय ते वस्तुना तेटला निक्षेपातु तिहां करजे पण कदाचित घणा निक्षेपा तुं न जाणे विहां पण चार निखेपा तो अवश्य करजे एटले एम आव्यु जे जघन्यथी चार निक्षेपा तो सर्वत्र करवा पण चारथी ओछा वो होयज नहीं १ नाम २ स्थापना ३ द्रव्य ४ भाव ए चार अवश्य करवा. यत:-"जत्य यजंजाणिज्जा, निक्खे निक्खे निरवसेस। जत्यवि य न जाणिजा, चउक्कय निक्खेवे तत्थ ॥१॥" इत्यनुयोगद्वारसूत्रे. तेवारे जिवादिक गन्दना निक्षेपा नवि घटे के० घटे नहीं शामाटे जे द्रव्य निक्षेपो भेद आधार के० भिन्न आधारें थाय खेमके जे भावनुं कारण ते द्रव्य ते वारे जीवनो द्रव्य निक्षेपो केम थाय जे भाव जीव थवानुं कारण होय ते द्रव्यजीव कहेवाय ते तो ज्ञानादिक गुणे हीण तो जीव होय नहीं-"दवं पज्जवविजुत्त, दवविजुयाय पन्जवा नत्थि ।" इति वचनात् ते माटे मंडूकनी जटाना भारनी पेठे समस्त धर्म रहित कोइ पदार्थज नथी तो ए द्रव्यनिक्षेप जीवादिकमां शून्य छे आदि शब्दयी वीजा पण जीवादिक लीजीये जेम द्रव्यदेव मनिराजने कहिये तेम द्रव्यजीव कोने कहेशो तेना समाधान तो पंचांगी प्रमुखथी नीकले अत्रार्थे तत्वार्थ चि जोजो ॥ २५ ॥
एम वहुवचन नयंतरें, कोइ वाचना भेद; जि०।। एम अर्थे पण जाणीयें, नवि धरीयें मन खेद ॥जिन्तुझ०२६॥
अर्थ-ए रीते बहु के० घणा सइकडोगमे वचनविरोध अल्पबुद्धिवालाने लागे एवा पाठ मूत्र मध्ये छे ते कोइ स्थानकें नयभेद भेटें व्याख्या होय अने कोइ स्थानकें वाचनाभेद के. वल्लभी तथा मथुरी ए वे वाचना थइ तेथी भेद थयो एम उपलक्षणथी मतांवर प्रमुख लिपि दोप पण लइये एवी रीते जेम मूत्रमा भेद छे तेमज अर्थ के० टीका प्रमुखने विषे पण नयांतरे करी वाचनांतरे करी कोइ स्थानके भेद आवे ते माटे टीका प्रमुख देखीने मनमा खेद न धरी भूत्र तथा अर्थ वरावर छे ॥२६॥
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अरथकारथी आजना, अधिका शुभ मति कोण; जि० ॥ तोले अमियतणे नहि, आवे कहिये लुण । जि० तुझ२७॥
अर्थ-अर्थकार के जे नियुक्तिकार टीकाकार ते थकी आजना जे आधुनिकमां अपिका शुभमतिना धणी कोण थया एटले ए भाव जे समुद्र जेवी बुद्धिना धणी टीकाकार तथा चौदपूर्वना धणी नियुक्तिकार तेथी शुभमति कोण थया एटले शुभमति नहिज थया इति भावः लोकमां उखाणोछे जे खांडना खानार ते रीतना ए शुभमति जाणवा पण कोइ काले लुण जे निमक ते अमृतने तोले आवे नहीं ।। २७ ।।
राजा सरिखं सूत्र छे, मंत्री सरिखो अर्थः जि० । एमां एक हेलीओ, दिये संसार अनर्थ ॥जि० तुझ०२८॥
अर्थ-ते माटे राजा सरिखं के० चक्रवर्ति वरावर सूत्र छे अने मंत्री सरिखो अर्थ छे एटले राजानो आशय मंत्री जाणे तेम सूत्रनो आशय अर्थकार कहे वीजो कोइ सूत्रनो आशय जाणे नहीं एमां के० ए वेहुमांथी एके हेलीओ के० एकने निंदतां थकां दिये संसार अनर्य के० संसारनो अनर्थ आपे भव परंपरा वधारे ॥ २८ ॥
जे समतोलें आचरे, सूत्र अर्थसुं प्रीति; जि० । ते तुझ करुणायें वरे, सुखजश निर्मल नीति | जि० तुझ०२९॥
अर्थ-माटे जे आत्मार्थी प्राणी ते सूत्र तथा अर्थ बेहुने समतोलें सरिखी रीतें अंगोकार करे प्रीति राखे अवज्ञा न करे तन्मय करी जाणे ते प्राणी हे प्रभु तमारी करुणाके० दयायें करीने सुख ते निरावाधपणुं अने जशकीर्ति तथा निर्मल जे नीति के. न्याय ते वरे के० पामे ।। २९ ॥
॥ दाल दशमी॥
हवे दशमी ढाल कहे छे तेने नवनी ढाल साथै ए संबंध छे जे पूर्व ढालमा सूत्र तथा अर्थमां एकनी हीलना करे तो तेने संसार वधे एम का ते सूत्र तथा अर्थ तो ज्ञान खरूप छे वास्ते ए दशमी ढालमा ज्ञाननुं वर्णन करे छे.
॥ आप छंदे छवीला छल वरे-ए देशी ।। ज्ञानविना जे जीवनेरे, क्रियामा छे दोषरे । कर्मवंध छे तेहथीरे, नहि सम सुख संतोषरे ॥१॥
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(७४)
प्रभु तुझवाणी मीठडीरे, मुझमन सेहेज सुहायरे । अमीयसमी मन धारतारे, पाप ताप सवि जायरे । प्रभु तुझवाणी मीठडीरे ए आंकणी० ॥ २ ॥
अर्थ - ज्ञानविना जे जीव केवल क्रियारुचिछे तेमां घणा दोपनी उत्पत्ति छे ते अज्ञान क्रियायी कर्मबंधन थाय छे, पण सममुख संतोष के० समताना सुख जेमां परभावनी ईहा नहीं एड्वो जे संतोष ते अज्ञानी क्रिया करतो होय तेहने थतो नथी. यतः--" नाणगुणेहि विहिणा, किरिया संसारवğणी भणिया । धम्मरुहपहवमित्ता, नाणसमेया सया हुज्जा ॥१॥" ए योगनी वीसी मध्ये कां छे माटे हे स्वामी तमारी वाणी घणीज मीठी लागे छे मारा मनमां सेहेज सोहाय छे पण कोइना वलात्कारथी नहीं ते अमृतसरिखी तमारी वाणीने मनमां धारतां थकां पापरूप ताप के० उग्रता ते सर्व मटी जाय ने शीतलता थाय ॥ २ ॥
लोकपंति किरिया करेरे, मन मेले अन्नाणरे ।
भवइच्छाना जोरथीरे, विण शिवसुख विन्नारे ॥ प्रभु० मुझ० ३||
अर्थ - लोकपंति के० लोकनी हारमां लोकानुजायी क्रिया करे मन मेले के० शुद्ध अध्यवसाय विना अन्नाण के० अज्ञानी जीव ते भव जे संसार तेनी इच्छाना जोर थकी एटले बहुल संसारी जीव छे शिवसुखना विज्ञान बिना एटले जे क्रिया करे ते पण ज्ञान विना जश मान प्रतिष्ठाने अर्थे करे ॥ ३ ॥
कामकुंभसम धर्मनुंरे, मूल करी एम तुच्छरे ।
जनरंजन केवल लहेरे, न लहे शिवतरु गुच्छरे ॥ प्रभु० मुझ०४ ॥
अर्थ- कामकुंभ सरिखो मोक्षसुखनो आपनार एवो जे धर्म तेनुं यश मानादिक तुच्छ मूल करीने ते भाणी केवल जनरंजन के० लोक रीझे एटलुंज फल पामे पण अज्ञान क्रियायी मोक्षरूप जे वृक्ष तेनो गुच्छ के० गुच्छो उपलक्षणथी फल लइयें ते न पामे ||४||
करुणा न करे होननीरे, विण पणिहाण सनेहरे | द्वेप धरतां तेहरे, हेठा आवे तेहरे | प्रभु० मुझ० ५ ॥
अर्थ- हवे पोडशकयां पांच गुण आशय विशेष देखाड्या छे यथा तृतीय पोडशके - “ १ प्रणिधि २ प्रवृत्ति ३ विजय ४ सिद्धि ५ विनियोगभेदतः प्रायः । धर्मज्ञैराख्यातः, शुभाशयः पंचधाऽत्रं विधौ ||१||" आ पांच भेद अन्वय रीतें श्रीहरिभद्रमूरिये देखाड्या छे ते श्री अनोविजय उपाध्यायजी व्यतिरेकें देखाडे छे तेमां प्रथम प्रणिधाननामा आशय कहे छे जे हीन के पोताथकी हीण गुणी छे एटले हीण गुणठाणे वर्त्ते तेहनी करुणा न करे
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( ७५ ) विण पणिहाण स्नेह के मणिधाननामा आशय विशेषना स्नेह विना हीननी करुणा न करे वली हीनगुणी उपर द्वेष करतां थकां जे एमां शा गुण छे इत्यादिक द्वेष धरतां ते पोतेज ठा आवे ॥ ५ ॥
एक काजमा नवि धरेरे, विण प्रवृत्ति थिर भावरे ।
जिहां हिां मोहोढुं घालतांरे, धारे ढोर खभावरे || प्रभु० मुझ०६||
अर्थ- हवे प्रवृत्तिनामा आशय वखाणे छे विण प्रवृत्ति के० प्रवृत्तिनामागुण विना एक कामां के ० एक जे धर्मकार्य मांड्युं तेमां नवि घरे के० न राखे थिर भाव के० थिरता भाव एटले एक कामां थिर नहीं अने प्रारंभित कार्यमां तेवो प्रयत्न नहीं एम पण समजवु जिहां हिां मुख घालतो एटले जे धर्मस्थानक मांडयुं छे ते सूकीने अकाले फल वांछे अने ahi ho did तत्वथी आर्त्तध्यान छे ते वारे जिहां तिहां मोहोडं घालतां ढोरनो स्वभाव धरे छे जे खावा मूक्युं होय ते मूकीने वीजामां मुख घाले ॥ ६ ॥
विना विघन जय साधुनेर, नवि अविछिन्न प्रयाणरे ।
किरियाथी शिवपुरी होयरे, केम जाणे अन्नाणरे || प्रभु० मुझ०७ ॥
अर्थ- हवे त्रीजो विजय बतावे छे विघन के० अंतराय तेनो जय के० जीतनुं ते विघ्न जयनामा गुण विना साधुने मात्र क्रियायें करी अविच्छिन्न प्रयाण केम थाय एटले मोक्षमार्ग अविच्छिन्नपणे केम सधाये माटे विजय विना साधुने क्रियाथी अविच्छिन्न प्रयाणे शिवपुर न होय ए वातो अज्ञानी केम जाणे हवे विघ्न तथा विननो जय देखाडे छे ॥७॥
शीत ताप मुख विघन छेरे, बाहेर अंतर व्याधिरे ।
मिथ्यादर्शन एहनीरे, मात्रा मृदु मध्याधिरे ॥ प्रभु० मुझ० ८ ॥
अर्थ - विना भेद त्रण छे १ हीन विघ्न २ मध्यम विघ्न ३ उत्कृष्टुं विघ्न एमां हीन विघ्न ते जेम धर्म करतां शीत के० टाढ वाए तथा ताप के० तडको लागे ते धर्ममां विघ्न छे तथा वाद्य व्याधि के० रोग ज्वरकास श्वास प्रमुख जे शरीरना रोग ते मध्यम विघ्न कहिये जे माटे वाहाड तथा तडका करतां शरीरना रोग ते विशेष विघ्न करे तथा श्रीजुं उत्कृष्टुं विघ्न ते अंतरव्याधि मिथ्यादर्शन के० मिथ्यात्व मोहनीय ए उत्कृष्टुं धर्ममां विघ्न के जे माटे धर्म करतां जो मिथ्यादर्शननो उदय थइ जाय तो धर्ममां महोदुं विघ्न थाय आ विघ्न पूर्वे जेविन कां ते करतां आकरुं विघ्न छे माटे उत्कृष्टुं विघ्न कथं जेम मार्गमां चालतां जघन्य मध्यम अने उत्कृष्टुं ए त्रण विघ्न छे मार्गमां कांटा लागे ते जघन्य विघ्न, मार्गमां ज्वर ममुख ते मध्यमविघ्न, मार्गमां दिग्मूढ थाय ते उत्कृष्टुं विघ्न तेम धर्ममां पण पूर्वोक्त त्रण विघ्न जाणवां तेनी मात्रा के० प्रमाण कहे छे मृदु के हीन मध्य के० मध्यम अने अधि के० उत्कृष्टुं एम अनुक्रमे जोडवां. ए विनो देखाड्यां हवे विघ्नजय अनुक्रमें देखाडे हे ॥८॥
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( ७६ )
आसन अशन जयादिकेंरे, गुरुयोगें जय तासरे । विधन जोर ए नवि टलेरे, वगर ज्ञान अभ्यासरे ॥ प्रभु० मुझ०९ ॥
अर्थ - आसन के० वीरासनादिके करी पूर्वोक्त शीत तापादिक विघ्ननो जय करे तथा गुरुयोगें करी पूर्वोक्त मिथ्यादर्शनरूप विघ्ननो जय करे केमके गुरुयोगें समकित पामेज ए विघ्ननुं जोर ते ज्ञानाभ्यास विना टले नहीं माटे ज्ञानाभ्यासें परिणाम दृढ राखे शीत ताप
मुखम चले नहीं अने ज्वर प्रमुखमां कृतकर्म अहियासे एटले एम जाणे जे मारां उदये आव्यां कर्म भोगनुं हुं तथा मिथ्यात्वनुं जोर छते ज्ञाने ( जाणे ) सम्यक् जिनवचन भावे ||९|| विनय अधिक गुण साधुनोरे, मध्यमनो उपगाररे ।
सिद्धिविना होवे नहीं, कृपा हीननी साररे ॥ प्रभु० मुझ० १० ॥
अर्थ- हवे सिद्धिनामा आशय वखाणे छे जे पोता थकी अधिक गुणवंता साधुनो विनय ते सिद्धिनामा आशय विशेष आव्या विना होय नहीं तथा मध्यम के० मध्यम गुणवंता होय तेने उपकार करे ते पण सिद्धियोग बिना होय नहीं अने हीननी के० पोताथी हीनगुणी तेनी सार के प्रधान कृपा के० दया ते पण सिद्धियोग विना न होय ॥ १० ॥
विण विनियोग न संभवेरे, परने धर्मे योगरे ।
तेह विना जनमांतरेरे, नहि संतति संयोगरे || प्रभु० मुझ० ११ ॥ अर्थ- हवे विनियोगनामा पांचमो आशय वखाणे छे विनियोगनामागुण विना परजी
धर्मे जोड ते योग न संभवे के० न होय ते बिना के० तेह विनियोग विना जनमांतरें के० परभवने विषे संतति के० परंपरानो संयोग ते नहीं के० न होय एटले सिद्धनुं कार्य ते विनियोग छे ते यावत् सर्वसंवर थाय तिहां लगे धर्म परंपरा छूटे नहीं अने जो विनियोग नामागुण न थयो होय तो त्रूटी जाय ए सर्व गुण ते ज्ञानविना न होय ॥ ११ ॥
किरियामां खेदे करीरे, दृढता मननी नाहिरे ।
मुख्य हेतु ते धर्मनोरे, जेम पाणी कृषिमांहिरे ॥ प्रभु मुझ०॥
अर्थ- हवे परमेश्वरनी वाणी मीठी छे ते वाणी स्तवनाद्वारें प्रभुनी स्तवना करे ते प्रभुनी स्तवना तो प्रभुजीतुं ध्यान करियें एटले ते वीतरागनी स्तवनाज थइ ते प्रभूनुं ध्यान वे भेदे छे एक सालंबन वीजुं निरालंबन तेमां सालंवन ते चक्षु प्रमुख करी जिनप्रतिमादिकनुं आलंबन करीने समवसरणस्थ जिनस्खरूपन्तुं ध्यान करवुं ते तथा वीतरागना शुद्ध निरावर्ण , आत्मप्रदेश समुदायने केवल ज्ञानादिक स्वभावनुं ध्यान करवुं ते निरालंबन ध्यान कहियें. 'शुद्ध परमात्मगुण ध्यानं निरालंबनं' इति वचनात्. हवे इहां तो सालंबन ध्याननी बात छे . सालंबन केम थाय ते कहे छे जे जुदा जुदा जीवनी अपेक्षायें आठ चिचनो त्याग करेथके
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(७७) ध्यान थाय ते आठ चित्तना नाम कहे छे. यदुक्तं चतुर्दशे पोडशके-"१ खेदोर द्वेग ३ क्षेपो ४ स्थान ५ भ्रांत्य ६ न्यमु ७ द्रुगा ८ संगैः । युक्तानि हि चित्तानि प्रवंधतो वर्जयेन्मतिमान् ॥१॥" आ आठ चित्तने दोषे करीने ध्यान करी शके नहीं तेमां प्रथम खेदनामा दोष कहे छे खेद के० थाक जेम पंथे हिंडतां थाके तेनी पेरे खेद दोषे करी क्रियामां मननी दृढता के० एकाग्रपणुं ते न होय एटले क्रियामा प्रणिधान न रहे अने जे मणिधान ते धर्म नो मुख्य हेतु छे जेम करशण (खेती)मां पाणी ते मुख्य हेतु छे तेम क्रियामां प्रणिधान ते मुख्य हेतु छे ।। १२ ।।
वेठा पण जे उपजेरे, किरियामां उद्वेगरे । योगद्वेषथी ते क्रियारे, राजवेठसम वेगरे ॥ प्रभु० मुज०१३॥
अर्थ-हवे उद्वेगनामा वीजो दोप वखाणे छे खेदविना पण वेठां थका उद्वेग थाय वेनी पेरे उद्वेगदोपमां पण जाण. वेठां थकां पण जे क्रिया करे तेमां उद्वेग उपजे तो ते क्रिया करतां ते प्राणीने मुख जे चिचनी प्रसन्नता ते केम उपजे जे वारे क्रियामां उद्वेग थयो ते वारे द्वेप उपनो ते द्वेपथी राजानी वेठनी पेठे कथंचित् क्रिया करे वेग के० उतावलो करे एवी रीतें राजवेठनी पेठे करे तेने जन्मांतरे योगीना कुलने विषे जन्म पण न होय ए अर्थ पोडशकमां जोइ लेवो ॥ १३ ॥
भ्रमथी जेह न सांभरेरे, कांइ अकृत कृत काजरे । तेहथी शुभ किरियाथकार, अर्थ विरोधीअकाजरे॥प्रभु० मुज०१४॥
अर्थ-हवे यद्यपि पोडशकमां भ्रांतिनामा पांचमो दोष कह्यो छे तथापि उपाध्यायजीयें इहां त्रीजो भ्रांतिनामा दोप वर्णव्यो छेएम अनानुपूर्वी पण व्याख्यानतुं अंग छे हवे म्रांतिनो अर्थ कहे छे भ्रांति के० वस्तु अन्य होय विहां अन्य जाणे जेम शुक्तिका (छीप)ने विषे रजतनी भ्रांति थाय तद्वत् भ्रमे करी जे वस्तु सांभरे नहीं जे में धर्मकृत्य कर्यु अथवा नथी कर्यु उपलक्षणथी में पाठ उच्चों के नथी उच्चर्यों इत्यादि ते शुभ "क्रिया थकी पण अर्थ विरोधी ए जे अकाज के० इष्टफलरूप जे कार्य ते न थाय तेने अकाज कहिये ॥ १४ ॥
शांत वाहिता विण होवेरे, जे योगे उत्थानरे। त्याग योगछे तेहथीरे, अणछंडातुंध्यानरे । प्रभु० मुज०१५ ॥
अर्थ-हवे उत्थाननामा चोथो दोप वर्णवे छे उत्थान के चित्तनी अप्रशांतता तथा मन प्रमुखनी उत्सुकता थकी जेम कोइक पुरुष मदिरा प्रमुखें करी मदावष्टब्ध थयो होय तेनी पेठे जे योगने उत्थानदोषे करीने शांतवाहिर्ता विण होय के शांतवाहिता न होय एटले जे क्रिया करे तेमा उद्वेग रहे पण ठरण न होय ते क्रिया केवी छे के त्यागयोग के. त्यागवा योग्य छे पण तेहथी के० ते त्यागयोग क्रियाथी अणछंडातुं ध्यान के० छंडातुं
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(७८) जातुं नयी एवं ध्यान छे जेम कोइक माणीयें दीक्षा लीधी होय अने सर्वथा मूलोत्तरगुण निर्वाह करवा असमर्थ छे ते पाणीने विधिपूर्वक जेम श्रावकाचार ग्रहवानो उपदेश आपीयेते लिंग त्यजवायोग्य छे पण लोकनी निंदा प्रमुखे अणछंडातुं छे उक्तं च उपदेशमालायां-"जइ न तरसि धारेज, मूलगुणभरं सउचरगुणं च । मुत्तूर्णतो विभूमि, मुसावगत्तं वरतरागं ॥१॥"
विचे विचे बीजा काजमारे, जाए मन ते खेपरे ।
ऊखणतां जिम शालिनुरे, फल नहीं तिहां निर्लेपरे ॥प्रभु मुज०१६||
अर्थ-हवे पांचमो क्षेपनामा दोष कहे छे. जे क्रिया मांडी होय ते क्रियामां बच्चे बच्चे वीजा कार्यमां मन जाय ते खेप कहियें ऊखणतां के वारंवार उपाडेली एवी जे शालि तेनुं निर्लेप के० चोक्टुं फल नहीं के० न थाय एटले ए भाव जे एकवार शालि उखेडीने वाचे तो फल थाय पण वारंवार उखेडीने वावे तो फल न थाय तेम इहां वारंवार मारंभित क्रिया मूकीने अन्य क्रियामा मन जाय ते फल न पामे ॥ १६ ॥
एकज ठामें रंगथीरे, किरियामां आसंगरे । तेहज गुणठाणे थितिरे, तेहथी फल नहीं चंगरे ॥प्रभुमुज०१७॥
अर्थ-हवे आसंगनामा छटो दोष कहे छे. आसंग के जे क्रिया करतो होय तेमा इद मेवसुंदर एडवो जे रंग ते आसंगनामा दोष कहीयें जो पण ते अनुष्ठान शास्त्रोक्त छे तोपण तेमां रंगनुं जे घर छे ते दोपरूप छे वेहज गुणठाणे थिति के० तेवेने तेवेज गुणगणे रहे पण आगल गुणठाणो वधे नहीं जेम श्रीमहावीर उपर गौतमखामीने भक्तिराग हतो तेथी तेज गुणठाणे स्थिति रही पण मोहनीकर्मर्नु उन्मूलन करीने केवलज्ञानरूप ने फल ते चंग के० मनोहर न थयु माटे आसंग ते दोषता जाणवी ए अर्थ पोडशकवृत्तिमां जोजो ॥१७॥
मांडी किरिया अवगणोरे, बीजे ठामे हर्षरे। इष्ट अर्थमां जाणीये रे, अंगारानो वर्षरे ॥ प्रभु० मुज० १८॥
अर्थ-हवे अन्यमुद्दनामा सातमो दोष कहे छे. जे प्रारमित कार्यथकी अन्य स्थानकें हवे ते अन्यमुद् दोप जे मांडी किरिया के जे क्रिया करे छे ते अवगणी के० तेनो आदर मूकीने वीजे ठगमें हर्ष के. वीजी क्रियामा हर्ष राखे एटले चैत्यवंदन करतो होय ने सामायकमां हर्ष करे ते माणीने इष्ट अर्थ के० वांछित अर्थमां अंगारानो वर्ष के अंगारानो वरसाद वरसे छे एटले मांडेली क्रियामां जे अनादर छे ते सर्वदोपर्नु मूल छे ॥२८॥
रोग होए समजणविनारे, पोडा भंग सुरूपरे । शुद्ध क्रिया उच्छेदथीरे, तेह वंध्य फल रूपरे ॥प्रभु० मुज०१९।। अर्थ-हवे आठमो रोगनामा दोष कहे छे ते पीडा भंग सुरूप के० पीडा मुरूप अथवा
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(108)
भंग सुरूप एम समजणविना जे पद छे ते शुद्ध क्रियाने जोडीयें तेवारे एवो अर्थ थाय ने समजणविना शुद्ध क्रियानो उच्छेद करे पण अशुद्ध क्रिया करे खरो तेवारे शुद्ध क्रियाने पीडा थयी अथवा शुद्ध क्रियानो भंग थयो ए वे अर्थ रोगना थया एटले रोग दोषयके शुद्ध क्रियानो उच्छेद ते विनाश करे ते वंध्यफल के० ते अशुद्ध क्रिया वांशिया फलरूप थाय ॥ १९ ॥
मानहानीथी दुःख दिएरे, अंगविना जेम भोगरे । शांतोदात्तपणाविनारे, तेम किरियानो योगरे ॥ प्रभु० मुझ०२० ॥
अर्थ - ए उपर कह्या आठे दोष रहित जे होय तेने शांतादिक गुण आवे माटे एक शांत वीजो उदाच ए वे गुण वखाणे छे ते मानी पुरुषने जेम माननी हाणी थाय एटले दुःख उपजे तथा अंगविना के० अंगोपांगे हीन होय अने भोगनी सामग्री स्त्री प्रमुख मली होय ते जे चित्तने दुःख आपे अथवा जेम भोगनी सामग्री मली होय तोपण मान हानीथी के० प्रमाणहीन अधिका ओछा भोगवे तो दुःख आपे तथा अंगविना पण दुःख थाय तेम शांत अने उदात्त ए वे गुण आव्या विना क्रियानो योग पण एवो जाणवो ॥ २० ॥ शांत ते कषाय अभावथीरे, जे उदात्त ते गंभीररे । .
किरिया दोष त्यजी लहेरे, ते सुखजश भर धीररे ॥ प्रभु० मुझ० २१॥ अर्थ - शांत ते कहिये जे कपायनो अभाव भने उदात्त ते गंभीर होय एवा प्राणी जे होय ते क्रियामां लागता दोप त्यजीने लहे के० पामे ते धीर के० धीरपुरुष सुखनो अने यशनो भर के० समूह पामे ॥ २१ ॥
॥ ढाळ ग्यारमी ॥
हवे दशमा ढालमा शांत तथा उदात्त गुण वखाण्या ते शांत उदात्त गुण तो धर्मरूप छे ते धर्मरूप रत्ननी योग्यता कोने होय ते दुहामां कहे छे.
॥ दोहा ॥ एकवीस गुण परिणमे. जास चित्त नितमेव ।
धरम रतननी योग्यता, तास कहे तुं देव ॥ १ ॥
अर्थ - जेना चित्तमां नितमेव के० निरंतर एकवीस गुण परिणम्या होय ते जीवने धर्म जे देशविरति सर्व विरतिरूप रत्न तेनी योग्यता होय एम हे देव तमे कहो छो जे एकवीस गुणद्रव्य श्रावकना छे ते संक्षेपे कहे छे - विस्तारें आगल कहेशे .
१ खुद्द नहीं २ वलि रूपनिधि, ३ सोम्म ४ जनप्रियज धन्य । ५ क्रूर नहीं ६ भीरुवली, ७ असठ ८ सार दखिन्न ॥ २ ॥
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(८०) अर्थ-१ क्षुद्र मति न होय एटले गंभीर होय २ रूपनो निधान होय एटले पंचेंद्रिय स्पष्ट होय ३ सोम्म एटले सौम्य होय ते स्वभावें अपापकर्मी होय ४ जनमियज के लोकने वल्लभ होय ते सदा सर्वदा सदाचारी होय धन्य के० प्रशंसा करवा योग्य छे ५ क्रूर नहीं के० अक्लिष्टचित्त होय एटले संक्लेशपरिणामी न होय ६ आलोक परलोकना अपायथी भीर के० वीहीतो रहे ७ असठ एटले परने ठगे नहीं ८ सार के प्रधान दखिम के० दाक्षिण्य गुणवंत होय एटले परनी प्रार्थनानो भंग न करे ॥ २॥
९ लज्जालुओ १० दयालुओ, ११ सोमदिहि मजथ्थ । १२ गुणरागी १३ सतकथ १४ सुपख्ख १५ दीरघदरशि अथ्थ ॥३॥
अर्थ-९ लज्जालुओ के० स्वकुलादिकनी लज्जावंत एटले अकार्यवर्जक १० दयालुओ के० प्राणीमात्रनी अनुकंपावंत ११ सोम्यदृष्टि ते यथावस्थित विचारनी दृष्टि छे अने दूर देशत्यागी ते सौम्यदृष्टि कहिये तेज मज्झत्य के० मध्यस्थ राग द्वेष रहित एटले सौम्यदृष्टि अने मध्यस्थ ए पदे एकज गुण कहिये १२ गुणरागी ते गुणी जीवनो पक्षपाती होय १३ सतकथ ते भली कथानो कहेनार एटले धर्मकथा वाहाली छे जेने १४ सुपक्ख के० सुशील अनुकूल परिवारयुक्त होय १५ दीरघदरसी के० अनागतकाल विचारीने परिणामे सुंदर कार्यकारी होय अत्य के० ए अर्थ छे.
१६ विशेषज्ञ १७ वृद्धानुगत, १८ विनयवंत १९ कृतजाण | २० परहितकारी २१ लब्धलख्ख, गुण एकवीस प्रमाण ॥४॥
अर्थ-१६ विशेषज्ञ के० पक्षपात रहितपणे गुणदोष विशेपनो जाण १७ वृद्धानुगत के० परिणतमति पुरुषने सेवनारो होय १८ विनयवंत के० गुणाधिक पुरुपने विषे गौरवकों १९ कृतजाण के० कर्या गुणनो जाण २० परहितकारी के० निर्लोभीथको परोपकार करे एटले जे दाक्षिण्य गुण ते परनो पार्यो उपकार करे अने परहितकारी ते पोताथी उपकार करे एटलं आठमा गुणथी वीसमा गुणमा विशेष जाणवू २१ लब्धलक्ष गुण ते धर्माधिकारी तेहनो भावार्थ-'लन्धमिव लब्धं लक्ष्य शिक्षणीयं धर्मानुष्ठानं येन स लब्धलक्ष्यः मुशिक्ष:मुशिक्षणीयः' इति ए एकवीस गुणसंपन्न जे जीव ते धर्मरत्नने योग्य होय ॥४॥
खुद नहीं ते जेह मने, अति गंभीर उदार ।
न करे जन उतावलो, निज परनो उपगार ॥५॥ अर्थ-हवे ए एकवीस गुण अर्थ विस्तारें कहे छे खुद्द नहीं ते के० अक्षुद्र तेने कहिये जेनुं मन अति गंभीर होय उदार होय तुच्छ न होय केमके जे उतावलो मनुष्य होय ते पोताने तथा परने उपकार करी शके नहीं एटले गंभीर होय ते पोताने तथा परने उपकार करे पण उतावलो होय ते न करी शके ए प्रथम अक्षुद्र गुण ॥ ५॥
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(८१)
शुभ संघयणी रूपनिधि, पूरण अंग उपंग | ते समरथ सेजें धरे, धर्म प्रभावन चंग ॥ ६॥
अर्थ- शुभ के० उत्तम संघयणवंत होय रूपनुं निधान होय संपूर्ण अंगोपांग होय पंचेंद्रिय पूर्ण होय ते धर्मकरणी करवाने सेहेजे समर्थ होय, ते धर्मनी प्रभावना करे. इहां नंदिखेण तथा हरिकेशी प्रमुख साथे विरोध न गणवो केमके ते पण संपूर्ण अवयववंत हता तथा आ वचन ते प्रायिक छे. जो विशेष वीजा गुणयुक्त होय तो रूपनुं प्रयोजन नयी ॥६॥ पाप कर्मे वरते नहीं, प्रकृति सोम्य जग मित्त | सेवनीक होवे सुखे, परने प्रशम निमित्त ॥ ७ ॥
अर्थ - पाप कर्म ते आक्रोश वध हिंसा चोरी प्रमुखने विषे न प्रवर्त्ते आजीविका प्रमुख कारण टालीने सेहेजे सौम्यभाव अवीहामणो सर्व जगतने विषे मित्रता होय एवा पुरुषने सुखे लोक सेवी शके परने प्रशम के० समतानुं कारण होय ए बीजो गुण थयो ॥ ७ ॥ जन विरुद्ध सेवे नहीं, जनप्रिय धर्मे सूर |
मलिन भाव मनथी तजी, करी शके अक्रूर ॥ ८ ॥
अर्थ- जन गन्दे लोक कहियें ते लोकमां इहलोक तथा परलोक अने उभयलोक पण आवे एटले ए भाव जे इहलोक विरुद्ध न सेवे. - यदुक्तं " सव्चस्स चेव निंदा, विसेसओ तहय गुणसमिद्धाणं । उजुधम्मकरणहसणं, रीढा जणपूयणिज्जाणं ॥ १ ॥ बहुजणविरुद्ध संगो, देसाचारलंघणं तह य । उव्वणभोगो य तहा, 'दाणाइवि पयडमनेओ || २ || साहुवसमि तोसो सड़ सामत्थंम अपडिआरो अ । एमाइयाई इत्थं, लोगविरुद्धाई नेयाई || ३ || " तथा परलोक विरुद्ध जे खर कर्मादि ते पन्नर कर्मादिक तथा उभयलोक विरुद्ध द्यूतादिक सात व्यसन न सेवे तोज जनप्रिय के० लोकने प्रिय तथा धर्मे मूर के० धर्मनो अधिकारी होय ए चोथो गुण को मलिनभाव मनथी तजीने धर्म करी गके एटलं धर्मपद बहारथी ले ते अक्रूर कहियें केमके. लोकप्रिय तथा अक्रूरगुणनुं लक्षण धर्मरत्नमकरण मध्ये एमज बखायुं छे. यथा - " इह परलोयविरुद्धं, न सेवए दाणविणयशीलडो । लोयप्पिओ जणाणं, जणेइ धम्मंमि वहुमाणं ॥ १ ॥ कूरो किलिहभावो, सम्मं धम्मं न साहिलं तरह । इह सो न इत्थ जोगो, जोगो पुण होइ अक्कूरो || २ ||" ए गाथाने अनुसारें अर्थ करयो छे वली बुद्धि अविरुद्धपणे जे तो विशेष करजो ए पांचमो गुण ॥ ८ ॥
इह परलोक अपायथी, वीहे भीरुक जेह ।
अपयशथी वली धर्मनो अधिकारी छे तेह ॥ ९ ॥
{.
अर्थ - आलोक तथा परलोक्ना अपायथी के० कष्टथी वीहे तथा अपयशथी बीहे वे भीरुक कहिये ते पुरुष धर्मनो अधिकारी जाणवो ए छठ्ठी गुण कह्यो ॥ ९ ॥ -
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(८२) असठ न वचे परंप्रतें, लहे कीर्चि विश्वास । भाव सार उद्यम करे, धर्म ठाम ते खास ॥१०॥
अर्थ-असठ के० मायावी नहीं एवो गुणवंत ते परने वचे के० ठगे नहीं तिवारे लोकमां कीर्ति पामे प्रशंसवा योग्य होय अने लोक पण तेनो विश्वास करे वली भाव सार के० पोतानुं चिच रीमवे पण परतुं चित्त रीझववा माटे उद्यम न करे तथा चोक्त-"भूयांसो भूरिलोकस्य, चमत्कारकरा नराः । रंजयंति सचित्तं ये, भूतले ते तु पंचपाः ॥१॥" इत्यादिक तथा धर्मामने विषे खास के० रुडो उद्यम करे ए सातमो गुण ॥ १० ॥
निज कार्य छोडी करी, करे अन्य उपकार ।
सुदखिन्न जन सर्वने, उपादेय व्यवहार ॥ ११ ॥ अर्थ-वली जे पोतार्नु कार्य छोडी एटले पडतुं मूकीने पण परउपकार करे जे जे इहलोक परलोकने विषे हितकारी छे तेवा उपकार करे पण पाप हेतुयें न प्रवते ते सुदाशिण्यनामा आठमो गुण कहिये ते जन० सर्व लोकने उपादेय व्यवहार के आदेय वाक्य (जेतुं कहेवू वघा माने एवों) होय व्यवहार ते वाक्य व्यवहार ॥ ११ ॥
अंगीकृत न त्यजे त्यजे, लज्जालुओ अकाज ।
धरे दयालु धर्मनी, दया मूलनी लाज ॥१२॥ अर्थ-धर्म कार्य जे अंगीकार कय होय ते न त्यजे अने अकाल के०जे अकार्य होय ते त्यजे तेने लज्जालु नामें नवमो गुण कहिये तथा दसमो दयालु तेने कहिये जे दया मूलधर्म छे तेनी लाज घरे एटले दया मूल धर्म न लोपे ॥ १२ ॥
धर्म मर्म अवितत्य लहे, सोमदिष्टि मज्झत्थ ।
गुणसंयोग करे सदा, वरजे दोष अणत्थ ॥ १३॥ अर्थ-हवे मध्यस्थ सोमदृष्टिनामा अग्यारमो गुण वखाणे छे मध्यस्थ ते कोइ दर्शन उपर पक्षपात नथी तथा सोमदिही के द्वेष रहित दृष्टि दर्शन छ जेने ते मध्यस्थ सोमदृष्टि कहिये तथा धर्मनो जे मर्म ते अवितत्य के यथार्थ लहे जाणे एटळे सद्गुण निर्गुण अल्पगुण बहुगुण तथा सर्व पाखंडी निरुपित जे धर्म के कनक परीक्षक पुरुषनी पेठे जाणे अने जे ज्ञानादिक गुण तेनो सदा संबंध करतो रहे तथा अनर्थना करनारा दोष ते सर्व वर्जे ते
अग्यारमो गुण ॥ १३ ॥ __ . गुण रागी गुण संग्रहे, इसे न गुण अनंत ।
अवेखे निर्यण सदा, बहु माने गुणवंत ॥१४॥
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अर्थ-गुणनो रागी होय धर्म उपर राग धरे तथा गुणनो संग्रह फरे नवा गुण अंगे आणे गुण अनंत के० घणा गुणवंतने दूसे न के० दुःखवे नहीं एटले ए भाव जे गुण घणा होय अने कदाचित् कोइक दोप होय तोपण तेने दुःखवे नहीं. यत:-"भूरिगुणा विरल चिय, इकगुणो वि हुजणो न सवत्य । निदोसाण वि भई, पसंसिमो थोवदोसेवि ॥॥" इत्यादि तथा निर्गुणने उवेखे के० दुखवे नहीं तेमज स्तवे पण नहीं अने गुणवंत जे देशविरति सर्व विरतिवंत तेनो बहुमान करे जे धन्य एनो अवतार इत्यादिक गुणरागीनामा ते वारमो गुण थयो ।॥ १४ ॥
अशुभ कथा कलुषित मति, नासे रतन विवेक ।
धर्मार्थी सतकथा हुए, धर्मनिदान विवेक ॥ १५ ॥ अर्थ-अशुभ कया जे स्त्रीआदिकनी कथा तेणे करीने कल्लुपित मति ययी छे जेहनी ते माणीने विवेकरूप रन सदसद्वस्तुनु जे परिज्ञान तद्रूप रन नासे ते माटे धर्मार्थीथको सत्कथक होय तीर्थंकर गणधर महर्षि ममुखना चरित्र कहे जे धर्मार्थी ते धर्मनो अर्थीयको ए सत्कथाज धर्म निदान छे विवेक के विभाग छे जे अशुभ कथानो त्याग अने शुभकथा करवी ए तेरमो गुण ॥ १५ ॥
धर्मशील अनुकूल यश, सदाचार परिवार ।
धर्म सुपक्ख विघने रहित, करी शके तेसार ॥ १६ ॥ अर्थ-हवे सुपक्षयुक्तनामा चउदमो गुण कहे छे ते जेनो परिवार ते धर्मशील के० धर्म करवाना आचारवाली छे अनुकूल के० धर्ममा विघ्न न करे तेवो तथा यशवंत अने सदाचारी परिवार होय एवो मुपक्स के० मुपक्ष गुणवंत विघ्ने रहित होय ते पुरुष सार के० प्रधान एवो जे धर्म ते भते करी शके ॥ १६ ॥
मांडे सवि परिणाम हित, दीरघदर्शी काम ।
लहे गुण दोष वस्तुना, विशेषज्ञ गुणधाम ॥१७॥ अर्थ-हवे दीर्घदर्शीनामा पन्चरमो गुण कहे छे ते जे काम के कार्य मांडे ते परिणामे हितकारीज होय उपलक्षणयी तेमां लाभ घणो होय अने क्लेश अल्प होय बहु लोकने पर्शसनीक होय. यत:-" आढवइ दीहदसी, सयलं परिणामसुंदरं कजं । बहुलाममप्पकेस, सलाहणिज्ज बहुजणाणं ॥१॥" इति धर्मरनमकरणे. हवे विशेषज्ञनामा सोलमो गुण वखाणे छे जे लहे के० जाणे वस्तुना गुण दोष एटले ए अर्थ जे पक्षपात विना वस्तुना गुण दोष सर्वने जाणे जो पक्षपात होय तो गुणमां दोप काढे अने दोषमां गुण काढे पण मध्यस्थ बुदिने यथास्थित भासे एवो विशेषज्ञ ते गुणर्नु धाम के० घर होय ॥ १७ ॥
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( ८४ )
वृद्धानुगत सुसंगते, होवे परिणत बुद्धि । विनयवंत नियमा करे, ज्ञानादिकनी शुद्धि ॥ १८ ॥
अर्थ- हवे वृद्धानुगतनामा सन्तरमो गुण कहे छे ते जे परिणत बुद्धिवान् परिपक्क बुद्धिनो धणी होय ते पापना आचारने विषे नज प्रवर्त्ते अने गुणवंत जे वृद्ध होय तेने अनुगत के० अनुजायीयें प्रवर्त्ते एटले बृद्धनी संगत करवी ते सुसंगत कहियें ते मुसंगते करी पोते पण परिणत बुद्धिवालो थाय परिषेक बुद्धिवान् याय. यतः - " बुडो परिणयबुद्धी, पावायारे पवचई नेव । बुट्टाणुगोवि एव, संसग्गिकया गुणा जेण ॥ १॥” इति । ह्वे विनयनामा अढारमो गुण कहे छे ते विनयवंत प्राणी नियमा के० नियें ज्ञानादिकनी शुद्धि करे एटले ए भाव जे सर्व ज्ञानादिक गुणनुं तथा मोक्षनुं मूल ते विनय छे माटे विनयगुण जोइये. यतः- “चिणओ सव्वगुणाणं, मूलं सन्नाणदंसणाईणं । सुक्खस्स य ते मूलं, तेण विणओ इह पथ ॥१॥" ॥ १८ ॥
गुण जोडे गुरु आदरें, तत्त्वबुद्धि कृतजाण । परहितकारी परमतें, थापे मार्ग सुजाण ॥ १९ ॥
अर्थ - हवे कृतज्ञनामा ओगणीसमो गुण कहे छे ते जे गुणने विषे तथा धर्मने विषे वीजाने जोढे तथा धर्म गुरु उपर घणो आदर करे तथा जेने तत्व ग्रहणनी बुद्धि होय तेने कृतजाण के० कृतज्ञ कहियें. हवे वीसमो परहितकारी नामा गुण कहेछे जे पर मर्ते धर्ममार्ग थापे अने सुजाण के ० डाह्या होय वली जेने धर्ममार्ग जाण्यो छे एटले गीतार्थ छे केमके जो अगीतार्थ होय अने ते परने हित करवा चाहे तोपण अहित थाय. यतः - " किं इत्तोकनुयरं, जं संगमनायसमयसम्भावो । अन्नं तु देसणाए, कठ्ठयरागंमि पाडेइ ॥ १॥" ॥१९॥
शीखे लखे सुखें सकल, लब्धलक्ष शुभकाज । एम एकवीस पुणे वर्यो, लहे धर्मनुं राज ॥ २० ॥
अर्थ - हवे लब्धलक्षनामा एकवीसमो गुण कहे छे ते जे शीखे के० थोडा कलाकमां आगमादिक भणे तथा लखे के० जाणे सुखें के० अनायासें बगरमयासें सकल के० समस्त शुभकाज जे धर्मना कार्य तेने लब्धलक्ष कहियें. यतः - "लक्खेइ लद्धलक्खों, सुहेण सयलंपि धम्मकरणिज्ज । क्खो सुसासणिज्जो, तुरियं च सुसिक्खिओ होइ ॥ १॥” इति धर्मरत्नप्रकरणे. एरीते एकवीस गुणे करी विराजित होय ते धर्मनुं राज्य लहे के० पामे. इति ॥ २० ॥ पूरण गुण उत्तम कह्यो, मध्यम पादें हीन ।
अर्द्धहीन जघन्य जन, अपर दरिद्री दीन ॥ २१ ॥
अर्थ - ए पूर्ण एकवीसगुणे सहित होय ते उत्तम कहियें अने पादें के० चोथे भागें हीन -
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( ८५ )
होय ते मध्यम कहिये तथा अर्द्धगुणे हीन होय ते जघन्य कहियें अपर के० ए अर्द्ध थकी हीनगुणी होय ने दरिद्री दीन जाणत्रा केमके दरिद्री होय ते पोताना उदर भरवानी चिंतायें व्याकुलपणे करी ग्नना क्रयविक्रयनी चिंता न करी शके तेम हीनगुणो ते धर्मरत्ननो मनोरथ पण न करी शके. यतः - पायद्ध गुणविहिणा, एएस मज्झिमाध्वरा नेया । इत्तो परेण टीणा. पाया मुणेयव्वा ॥१॥ ॥ २१ ॥
अरजे वरजी पापने. ह धर्म सामान्य |
प्रभु तुझ भक्ति जगलहे, तह होए जन मान्य ॥ २२ ॥
अर्थ- जे पापने वर्जिने ए सामान्य धर्म जे श्रावकधर्म तेने अरजे के० उपार्जे ते प्राणी हे प्रभु नागरी भक्ति करीने जगलहे के जग प्रतिष्ठा पाये पडले गवा गुणवंत होय तेतारी भक्ति करें नया ने प्राणी सर्व लोकने मान्य होय ।। २२ ।।
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॥ दाल वारमी ॥
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एकवीस गुणे सहिन होय ते भाववाचकपणुं पामे माने भावभावना गुण वर्णवाने वामी कहे है.
॥ चोपानी देशी ॥
एकवीस गुण जेणे लह्या, जे निज मर्यादामा रह्या । नेह भावावना लहे. तस लक्षण ए तुं प्रभु कहे ॥१॥
अर्थ-ए एकवीस गुणने जे पाम्या होय वली जे पोतानी मर्यादामां रह्या होय आचार: मां होय तेज माणी भाववाचकपणुं पाये गुटले ए भाव जे पूर्व द्रव्यभावक थयीने, उत्तरकाले भावावक थाय ते भावश्रावकना लक्षण ए प्रमाणे हे प्रभु वीतराग परमेश्वरु तसे कां ने प्रमाणे आगल कहिये ये ॥ १ ॥
कृत व्रत कर्मा शोलाधार, गुणवंतो ने ऋजु व्यवहार | गुरु सेवीने प्रवचन दक्ष, श्रावक भावें ए प्रत्यक्ष ॥ २ ॥
अर्थ- हां मार्गानुसारीना पांत्रीस गुण ज्ञानविमलमुरीयें लख्या छे पण विशेष शादिकमां प्रयोजन नथी तथा एतुं मूल धर्मरत्नमकरणमां कहां छे तेमां पण नथी कथा माटे, अमे लख्या नथी १ कर्यु ले व्रतरूप कार्य जेणे तं कृतव्रतकर्मा कहियें २ शीलवंत होय ३ विवक्षित गुणवंत होय ४ ऋजु व्यवहार एटले सरल मन होय ५ गुरुनी शुश्रूषा एटले सेवा करे ६ प्रवचन के० आगममां कुशल होय डाद्यो होय ए छ लक्षण जेमां होय तेः
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प्रत्यक्षपणे भावभावक कहिये. यतः-"कयवयकम्मो तह, शीलवंच गुणवंच उजुवबहारी । गुरुमुस्मुसो पयवणकुसलो बलु सावगो भावे ॥१॥" ॥२॥
श्रवण जाणणा ग्रहण उदार, पडिसेवा ए चार प्रकार । प्रथम भेदना मन धारी, अर्थ तास इम अवतारीयें ॥३॥ अर्थ-हवे उपरना छ लक्षणमांयी मथम कृतव्रतका नामें लक्षणना चार भेद छ-१ अवण के० सांभल→ २ जाणणा के० जाणवु ३ ग्रहण के० अंगीकार कर उदार के विस्वारपणे ४ पडिसेवा के० सम्यक् पालघु ए वार मेद जे कृतव्रतकर्मा नाम तेना अवधारीये नाम के तेना अर्थ एम अववारीये के० उनारी ॥३॥
वहुमाने निसुणे गीयस्थ, पासे भंगादिक बहु अत्य । जाणगुरु पासें व्रत आहे, पाले उपसर्गादिक सहे ॥४॥
अर्थ-दहा बहुमान कयु पण विनय नया बहुमान बने ठेवां. यन:-"विणय बहुमाणसारं, गीयत्याओ करेंड बयसवणं । " इति वचनात् . गीयत्य पामे के० गीतार्य पासयी जे निमुणे के० मांभळे ते विनय क्या बहुमान सहित सांभळे इटां चोभंगी कह -१ कोडक धर्तमां बंदनादिक वाय विनय तो होय पण गुरुकर्मा के० भारीकर्मी मा बहुमान अंतरमीति न होय २ कोइकमा बहुमान होय पण विनय कग्वानी शक्ति न होय ते ग्लानादिक जाणत्रा ३ कोडक आसन्नसिद्धिया जीवमा विनय नया बहुमान बेहु होय ४ कोइक आकरा पापकर्मीमां विनय वयाबहुमान एक न होय इहां ब्रत सांभलवाने कयु. पण उपलक्षणयी मर्वे भाबमामले मृत्रने गीत अन तेनुं व्याख्यान ते अर्थ अने जमत्र नया अर्थसहित ते गीतार्य. यतः-"गीयं भन्नड़ मृत,अत्यातस्सव होड वक्खाणं गीपण यअत्येण य.संजुत्ता होइ गीयत्यो ॥श पटले गीतार्य पासे सांगलीने ए पहेलो भेद भंगादिक बहुअर्थ जाणे के वतना भांगा प्रमुख बहु अर्थ समजे जेम पञ्चक्खाणना ४९भांगाने त्रिकालना गणिये ते वारे १४७भांगा याय बली व्रताश्री गणिये ते वारे एकवते ६ वेव्रते ४८ त्रण व्रते ३४२ इत्यादिकयावद बार ते १३८४१२८७२०० मांगा थाय. यत्र गाया-"तेरस कोडिसयाई. चुलसीकोडीउ पारसय लक्खासगसीइ सहसदो सय. सन्चग्गं छक्कभंगीए ॥१॥" नवभगीयें एक ते ९ वे व्रते ९९ यावत् वार व्रते ९९९९९९९९९९९९ अने एकवीस मंगी करिये ते वारे वारे व्रते १२८५५००२६३१०४९२१५ थाय. ४९ मंगेवारेने २४४१४०६२४९९९९९९९९९९ ९९ मांगा थाय.१४७मांगाबारे व्रते ११०४४३४६०७७१९६११५३३३५६९५७६९५ मांगा याय. सर्व अक्षर संचारणायें जाणवा. इत्यादिक मांगानुजान करे,आदि शब्द प्रवना अविचार जाणे, ए वीजा मेद विस्तारे धर्मरनपकरणयी जाणवो. पछी गुरु पासेयी ब्र अंगीकार करे. आणंदादिक श्रावकनी पेठे इलर ते चौमासा प्रमुखना अथवा यावकयिक ते भावजीवना एत्रीजी मेट ययो, अने पाले के० सम्यक् पाले तया उपसर्गादिक आवे
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ते सर्व कामदेव श्रावकनी पेठे सहे, ए चोयो भेद . कहो. ए कृतव्रतकर्माना चार भेद वखाण्या ॥४॥
सेवे आयतणा उद्देश, परगृह तजे अणुब्भडवेस। वचन विकार त्यजे शिशुलील, मधुर भणे ए षट विधशील ॥५॥
अर्थ-हवे वीजा शीलवतनामा लक्षणना छ भेद कहेछे. सेवे आयतणा के साधर्मिकने मलवानुं स्थान सेवे. यत:-"जत्थ साहम्मिया वहवे, सीलवता बहुमुया । चरित्तायारसंपन्ना, आययणं तं वियाणाहि ॥१॥" तेवो उद्देश के० स्थानक सेवे पण मिलनी पाली प्रमुख सेवे नहीं, ए पहेलो भेद. वली परगृह तजे के० पारका घरमा पेसतो नफरे, केमके काइ वस्तु खोवाय त्यारे तेना उपर शंका आवे पण कारणे कोइना घरमां जाय ते वात जूदी छे, ए बीजो भेद. तथा अणुब्भडवेस के० उद्भट वेप न पहेरे जे थकी लांठीआ ठोलीआ आदमीमां गणाय ते न करे, ए त्रीजो भेद. वली वचनविकार त्यजे के० जे थकी रागद्वेष वघे एवा विकारनां वचन वोले नहीं, ए चोथो मेद. अने शिशुलील के. वालक्रीडा, जुगहुँ रमवू इत्यादिक त्यजे, ए पांचमो भेद. वली मधुर भणे के० मीटुवोले गमेतेवु कार्य पडे तोपण हे सौम्य, हे सुंदर, आ काम करशो एम कहे ए छ भेद शीलवंतनामा गुणना जाणवा ॥ ५ ॥ हवे एज छ भेद विस्तारी देखाडे छे.
आयतन सेवे गुण पोष, परगृह गमने वाधे दोष । उद्भट वेष न शोभा लाग । वचन विकारें जागे राग ॥६॥
अर्थ-आयतन के. जे साधर्मिनां स्थानक ते सेवतांथका गुणनी पुष्टि थाय गाथा-"आययण सेवणाओ, दोसा छिज्जवि वइगुणोहो।" इतिवचनात्. पली परगृहगमने के० पारके घेर जात वाधे दोप के दोप वधे. यता-"परगिह गमणपि कलंकपंकमूलं मुसीलाणं ।" इवि वचनात्. वली उद्भट वेप ते शोभालायक नहीं. गाथा-"सहइ पसंतो धम्मी, उन्भडवेसो न सुंदरो तस्स । " इति वचनात्. सहइ के० शोमे पसंत पम्मी के०प्रशांत धर्मी उद्भटवेष तेने मुंदर नयी इति. तथा वचनना विकारे करीने राग जागे माटे विकारनां वचन कहे नहीं. यतः-"सपियारजंपियाई, नृणमुईरंति रागगि।" इति वाक्यात्. ते माटे न कहे. यत:मुणमाणस्स कह, मुठ्ठयरं जलइ माणसे मयणो। समणेण सावरण वि न सा कहा होइ कहियन्वा ॥१॥" इति वचनात् ॥६॥
मोहतणो शिशुलीला लिंग, अनर्थ दंड अछे ए चंग । कठिन वचननुं जल्पन जेह, धर्मिने नहि सम्मत तेह ॥७॥ अर्थ-जे शिशुलीला के० बालक्रीडा ते मोहवणो के मोह लिंग छे वली केवी के अनर्थ दंड छे ते जीवने चंग के मनोहर लागे छे. यतः-" बालिसजणकीला विहु,
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· (ice)
मूलं मोहस्स. त्थदंडाओ ।" इति वचनात्. हवे. छट्ठो भेद कहे छे ते कठिन वचननुं जे बोल ते घम्म जीवने सम्मत के० मान्य नहीं. यतः - "परुसवयणाभियोगो न सम्मओ सुद्ध धम्माणं ॥” इति वचनात्. ए छ भेदे करी बीजो शीलवंतनामा भेद संपूर्ण थयो ||७|| उद्यम करे सदा सज्झाय, करण विनयमां सर्व उपाय । 'अनभिनिवेशी रुचि जिन आण, घरे पंचगुण एह प्रमाण ॥ ८ ॥
अर्थ- हवे गुणवंतनामा भावभावकनुं त्रीजुं लक्षण कहे छे तेमां यद्यपि औदार्य धैर्य गांभीर्य प्रिय बोलवु इत्यादिक अनेक गुण छे तोपण पांचगुणे करी गुणवंत गीतार्थ कह्याछे १ सज्झाय के० भणवा वांचवा पृच्छनादिकनो उद्यम करे २ करण के० अनुष्ठान क्रिया करे ३ विनयमां के० गुरु आदिक आवे अभ्युत्थानादिक करे सदा उजमालथको जे जे विनयना प्रकार छे ते ते सर्व करे ४ अनभिनिवेशी के० कदाग्रही न होय इहलोक साधवामां कदाग्रह न करे ५ रुचि के० आकरी श्रद्धा जिनआण के० जैनागमने विषे होय ए पांचगुण घरे ते गुणवंत कहिये ते प्रमाण के० मान्य छे ॥ ८ ॥
सझायें धारे वैराग, तप नियमादिक करणे राग ।
विनय प्रयुजे गुणनिधितणो, जेम मन वाधे आदर घणो ॥ ९ ॥
अर्थ- हवे ए पांचेनां फल कहे छे. प्रथम सज्झाय करतां जीवने वैराग वधे तथा अनुठानमां सावधान थको जीव तप तथा नियममां उद्यमवंत होय जे तप ते वारभेदे प्रसिद्ध छे अने' नियम 'ते साधुने विश्रामण उत्तरपारणलोच कराव्यो होय तेने घृतप्रमुखतुं दान देनुं. यतः - "पहसंतगिलाणेसु य, आगमगाहिसु तह य कयलोए । उत्तरपारणगंमि य, दार्ण सुबहुफलं होइ ॥ १ ॥ " इति तथा गुरुवंदना चैत्यवंदना पूजा प्रमुख पण ए गुणमां लेवां ३ तथा गुणनो निघान जे पुरुष तेनो विनय प्रयुंजे के० करे. गुणवंत आवे ते वारे उभो थाय, सामो जाय, मस्तके अंजली करे, आसन आपे, गुरु वेठा पछी बेसे, सेवा करे, जाय त्यारे बोलावा जाय इत्यादिक विनय करे ते विनयवंत देखीने तेना उपर गुरुनो घणो आदर ad आम्नायादिक गुरु ने आपे ॥ ९ ॥
अनभिनिवेशी अवितत्थ गणे, गीतारथ भाषीत जे सुणे । सद्दहणायें सुणवा चाह, समकितनो मोटो उच्छाह ॥ १० ॥
अर्थ - अनभिनिवेशी जे होय तेने अवितत्थ के० यथार्थ माने अने गीतार्थ जे वोले गीतार्थ कहे ते यथार्थ जाणे तथा गीतार्थ पासे सांभळे श्रद्धापूर्वक सांभलवाने बांछे उपलक्षणी श्रद्धायें इच्छापूर्वक अनुष्ठान करे एवी श्रद्धा विना समकितनी शुद्धि क्यांथी थाय. यतः-- "सवणकरणेसु इच्छा, होइ रुई सहहाणसंजुत्ता । एईइ विणा कत्तो; मुद्धी सम्मत्तरयणस्स ॥ १ ॥” इति ए समकेतनो मोहोटो उच्छाह के० हर्ष छे ॥ १० ॥
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(८१) अवितथ कथन अवंचक क्रिया, पातिक प्रकटन मैत्रीप्रिया। वोध वीज सद्भावें सार, चार भेद ए ऋजु ववहार ॥ ११ ॥ अर्थ-हचे भावभावकनुं चोथु ऋजुन्यवहारनामा लक्षण चार भेदे करी कहे छे. १ अविवथ कथन ते यथार्थ बोले धर्म व्यवहारमा परने ठगवाने माटे धर्मने अधर्म न कहे अधर्मने धर्म न कहे क्रय विक्रय व्यवहारमा लेवे देवे जूटुं न बोले तथा साक्षी व्यवहारमा राजदरवारे पण खोटी साहेदी न पूरे तथा धर्मनी हांसी थाय एवु पण न वोले ए प्रथम भेद.२ अवंचकक्रिया के० वीजाने कष्ट उपजे एवी क्रिया न करे सारी वस्तुमां खराब वस्तु भेली न आपे अथवा ताकडी प्रमुख तोलमां अधिकुं ओर्छ आपी लेइने परने ठगे नहीं तथा आ भवमा पण वंचनक्रिया ते केवल पापज छे एम देखतो परने उगवाथी निवर्ने यद्यपि अवचकक्रिया ते पोतानो आत्मा ठगाय नहीं ईहां योगअवंचक क्रियाअवंचक फलअवंचक इत्यादिक पूर्वना टवामां अर्थ लख्यो छे पण धर्मरत ग्रंथमां ए रीते नथी माटे अमे नथी लख्यो. ३ कोडक पाप करतो होय तेने प्रकटन के० अपाय कही देखाडे जे हे भद्रे पाप करतां अनर्थ थाय इत्यादिक कहे पण तेने उवखे नहीं. ४ मैत्रीमिया के० निष्कपटपणे मित्राइ करे ते साचे भावे करे पण खोटे भावे न करे माटे एम कई जे सार वोषवीज पामे. ए चार में करी ऋजु के० सरलतानो व्यवहार कहिये अने ए चारे वोलयी विपरीत करे तो बोधवीज जाय एम धर्मरनप्रकरणमां का छे ॥ ११ ॥
गुरु सेवी चटविह सेवना, कारण संपादन भावना। सेवे अवसरे गुरुने तेह, ध्यानयोगनो न करे छेह ॥१२॥
अर्थ-हवे भावभावकनुं पांचसु लक्षण गुरुशुश्रूपा नामे कहे छे ते गुरुसेवा चउविह के. चार प्रकारे छे. १ गुरुनी सेवना करे २ कारण के० वीजा पासे गुरुनी सेवा करावे ३ संपादन के० गुर्वादिकने औपधादिकनुं देवू करे ४ भावना के० गुर्वादिकनो बहुमान करे तथा गुरुना परिवारनो बहुमान करे इहां गुरु ते धर्मगुरु लेवा पण मातापितादिक गुरु न लेवा. यत:-"धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मप्रवकः । सत्वेभ्यो धर्मशास्त्राणां देशको गुरुरुच्यते ॥१॥" हवे ए चारे मेदनो अर्थ कहे छे. १ अवसर पामीने गुरुनी सेवा करे पण वगर अवसरें न करे ते कहे छे जे ध्यान के० धर्मेध्यानादिक योग ते प्रत्युपेक्षणा आवश्यकादिक तेनो न करे छेह के छेद न करे एटले जीर्णशेठनी पेठे व्याघात न करे ॥१२॥
तिहां प्रवावे परप्रतें, गुरुगुण भाषे निज पर छतें । संपादे औषध मुख वली, गुरुभावें चाले अविचली ॥१३॥
अर्य-२ वली ते परमतें के. वीजाने गुरुसेवाने विष प्रपवे तेना आगल गुरुगुण भापी के० वर्णन करीने एटले ए भाव जे पोते गुर्षादिकमा गुण वर्णन करे तेथी मादी
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(९०) होय ते पण गुरुसेवामा प्रवः इतिभावः ३ तथा निज के० पोताथी अने पर छतें के० परयकी संपादे के आपे अपाचे औषधमुखवली के० औषधप्रमुख तेमां एक द्रव्य वे औषध अथवा वाह्यउपयोगी ते औषध अने अनेक द्रव्यसंयोग अथवा शरीरमा भोगववा योग्य ते भैषज वली प्रमुखशब्दं जे संयमोपकारि वस्तु जोइये ते आपे अथवा अपावे ४ गुरुभावें चाले के० गुरुने अभिप्रायें चाले गुरुनो बहुमान करे तथा गुरुने अनुजायी चाले अविचली के० अविचल थको ॥ १३ ॥
सूत्र अर्थ उस्सग्गववाय, भावे व्यवहारे सोपाय । निपुणपणुं पाम्यो छे जेह, प्रवचनदक्ष कहिजे तेह ॥ १४ ॥
अर्थ-हवे भावावकर्नु प्रवचनदक्षनामा छटुं लक्षण वखाणे छे ते छ भेदे छे ते माटे श्रावक पण छ मेदे जाणवो ते कहे छे १ सूत्रने विषे कुशल २ अर्थने विषे कुशल ३ उत्सगने विषे ते सामान्य सूत्रने विषे कुशल ४ अववाय के. अपवाद एटले विशेष मूत्रने विषे कुशल ५ भावें के० विधिपूर्वक धर्मानुष्ठानने विषे कुशल ६ व्यवहारें के० गीतार्थनी आचरणारूप जे जीतव्यवहार तेने विषे कुशल सोपाय के० उद्यम सहित निपुणपणुं के कुशलपणु पाम्यो छे एवो जे पुरुप तेने प्रवचनदक्ष कहियें ॥ १४ ॥
उचित सूत्र गुरु पासें भणे, अर्थ सुतीर्थे तेहनो सुणे। विषय विभाग लहे अविवाद, वली उत्सर्ग तथा अपवाद ॥१५॥
अर्थ-ईवे ए छ भेद विस्तारी कहे छे. १ उचित सूत्र के श्रावकने योग्य सूत्र चौसरणादिक प्रवचनमाताथी मांडीने छ जीवणीया अध्ययनपर्यंत भणे. उक्तंच-"पवयणमाई छजीवणियंता उमओवि इयरस्स ॥अस्यार्थः-ग्रहण शिक्षा वत्र प्रकृता, उभयतः सूत्रतो अर्थतथेतरस्य श्रावकस्येति ।" ए रीते सूत्र भणे उपलक्षणथी पंचसंग्रह कर्मपयडीप्रमुख ग्रंथना समूह ते पोतानी बुद्धिने अनुसारे भणे. २ अर्थ के० ते सूत्रनो अर्थ ते मुतीय के० संविज्ञ गुरु' पासेयी सांभले ३-४ इवे उत्सर्ग तथा अपवाद ए वे मेद साये कहे छे. अविवाद के० विवाद रहितपणे विषयविभाग लहे के० पोतपोताने ठेकाणे जाणे उत्सर्गने उत्सर्ग ठामे जाणे अपवादने अपवादठामे जाणे पण एकलो उत्सर्गज न आलंबे अथवा एकलो अपवादज ' न आलंवे जे अवसरे जे करवं घटे ते करे एटळे लामालाभ जोइ कार्य करे, ए सर्व चार भेद कह्या ॥ १५॥
पक्षभाव विधिमाहे धरे, देशकाल मुख जेम अनुसरे। जाणे गीतारथ व्यवहार, तेम सवि प्रवचन कुशल उदार ॥१६॥
अर्थ-५ देववंदनादिक विधिने विषे पक्षभाव के० बहुमान होय तथा बीजो कोइ . विपि करतो होय तेहनो पण वहुमान करे विधि सामग्रीना अभावे पण विधि आराघवानो
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( ९१ )
मनोरथ मूके नहीं इत्यादिक उपलक्षणथी जाणवुं. ६ हवे व्यवहारकुशलनामा छठ्ठो भेद खाणे छे ते जेम देशकाल प्रमुख होय तेने अनुसरे. एटले ए भाव. जे देश ते सुस्थित दुस्थितादि तथा काल ते सुकाल दुष्कालादिक प्रमुखशब्दे द्रव्य सुलभ दुर्लभादि भावथी हृष्ट लानादिक ते सर्वने पोतपोतानी हदे जाणे गीतार्थनो व्यवहार सर्व पोते जाणे एटले ए भाव जे उत्सर्ग अपवादना जाण जे गीतार्थ तेणे आचरयो जे व्यवहार ते पोतानी मते दुखवे नहीं पण ते सर्व व्यवहार तेमज अंगीकार करे. ए छ प्रकारनो प्रवचनकुशल ते उदार के १० प्रधान कहियें. ए छ लक्षण भावश्रावकनां जाणवां ॥ १६ ॥
किरियागत ए षटविध लिंग, भाषे तुं जिनराज अभंग ।
ए विधि श्रावक जे आचरे, सुख जश लीला ते आदरे ॥१७॥
अर्थ- पटविध लिंग के० ए छकारना लिंग ते किरियागत के० क्रियाथी ओलखाय जे धूम्री अनि ओलखाय तेनी पेठे एम हे जिनराज सामान्य केवलीमां राजा सरिखा तुं भाषे के० कहे छे अभंग के० समस्तपणे ए विधि जे श्रावक आचरे ते सुख तथा यश तेनी जे लीला तेने आदरे के० पाये ॥ १७ ॥
॥ ढाल तेरमी ॥
इहां शिप्य प्रश्न पूछे छे जे हे स्वामी वीजा वली कांइ लिंग छे के तमे ए छ लिंग क्रियागत कलां तेटलांज छे. तेने गुरु उत्तर आपे छे जे भावगत लिंग जूदां छे ते तेरमी ढालमां कहे छे ए संबंधे आवी ढाल ते कहे छे.
॥ छठ्ठी भावना मन धरो-ए देशी ॥
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भाव श्रावकनां भावियें, हवे सत्तर भाव गत तेहोरे । नेहोरे, प्रभु तुझ वचने अविचल होजो ए ॥ १ ॥
अर्थ-हवे भाव श्रावकना लिंग गणत्रीयें सत्तर छे ते भावगत छे ते कहियें छैयें, माटे
हे प्रभु हे स्वयंबुद्ध तारा वचनने विषे चले नहीं एवो मुझने स्नेह होजो ॥ १ ॥
इत्थी चंचल चित्तथो, जे वाट नरकनी मोटीरे । खोटीरे, छांडे ए गुण धुरें गणो ए ॥ २ ॥
अर्थ - यतः १ इथि २ दिय ३ त्थ ४ संसार ५ विसय ६ आरंभ ७ गेह ८ दंसणओ, ९ गडरिगाइपवाहे । १० पुरस्सरं आगमपवित्ती ॥ १ ॥ ११ दाणाइ जहासत्ती, पवत्तगं १२ विहि १३ अरतदुद्वेय । १४ मज्झत्थ १५ मसंबद्धे, १६ परत्थकामोवभोगी य ॥ २ ॥
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( ९२ )
१७ वेसा इव गिहवासं, पालइ सत्तरसपयनिबद्धं तु । भावगयभावसावगलखणमेयं समासे || ३ ||" ए सतर गुण कह्या तेमां पहेलं लक्षण कहे छे उहां इच्छा चंचल चित्तथी एवं लिपिदोषे घणी मतोमा लखायुं छे तेथी पूर्व टवाकारें इच्छा एवो अर्थ करयो छे पण
निर्मूल के माटे वेख्यो छे अत्रायें धर्मरत्न ग्रंथ जोड़ने निश्चय करवो. इत्थी के स्त्री केवी छे जे चित्ती चंचल के० चपल छे एटले अन्य अन्य पुरुषनी इच्छा करनारी छे वली वाट नरकनी मोटी के० मोटी नरकनी वाट छे एटले नरके जवानो मार्ग हे ते खोटीरे के० sita छे माटे खीने एवी जाणीने मूके ए गुण घुरें गणो के पहेलो संख्यामां गणो ॥२॥. इंद्रिय चपल तुरंगने, जे रुंधे ज्ञाननी राशेरे । पासेंरे, ते बीजो गुण श्रावक धरे ए ॥ ३ ॥
अर्थ - हवे इंद्रिय जे पांच शास्त्रोक्त स्वरूप तद्रूप जे चपल के० शीघ्रगामीपणा माटे दुर्गतिने सन्मुख चालता एहवा जे तुरंग के० घोडा तेने जे ज्ञानरूप रारों के० रासडीयें करीने रुंधे के० रोकी राखे ए बीजो गुण ते श्रावक पोता पासे घरे. यतः - " इंदियचवलतुरंगे, दुग्गइमग्गाणुधाविरे निश्चं । भावियभवस्सरूवो, रुंभइ सन्नाणरस्सीहिं ॥ १ ॥ " ॥ ३ ॥ क्लेशणुं कारण घणुं, जे अर्थ असारज जाणेरे । आणेरे, ते त्रीजो गुण निज संनिधि ए ॥ ४ ॥
अर्थ-जे घणुं के० अत्यंत क्लेशनुं कारण एवो जे अर्थ के० द्रव्य तेने असारज जाणे ए जो गुण निजसंनिधि के० पोतानी पासे आणे के० लावे । ४ ॥
भवविडंबनामय अछे, वली दुःखरूपी दुःख हेतोरे । चेतोरे, एम चोथो गुण अंगी करे ए ॥ ५ ॥
अर्थ-भव के० जे संसार ते केवो छे जे विटंबनामयी छे वली जन्म, जरा, मरण, रोग, शोकादिक दु खरूपी छे वली जन्मांतरे नरकादिक दुःखनो हेतु छे एम दुःखनीज परंपरा आपे ते चेतो के० जाणो ए चोथो गुण श्रावक अंगीकार करे ॥ ५ ॥
खोण सुख विषय विषोपमा, एम जाणी नवी बहु इहेरे । बीहेरे, तेथी पंचम गुण वर्गों ए ॥ ६ ॥
:
अर्थ- हवे विषय केवा छे जे क्षणिक सुख छे ते पण विषोपमा के० कालकूट सरिखा
छे परिणामे दारुण छे एवा विषय जाणीने तेने वहु के० अत्यंतपणे नवी इहे के० न वांछे अने ते विषयने असार जाणे छे माटे तेथी वीहे के० वीतो रहे ए पंचमगुणने वरयोथको शोभे ॥ ६ ॥
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( ९३ ) तीवारंभ तजे सदा, गुण छठानो संभागीरे ।
रागीरे, निरारंभ जननो घणुं ए ॥ ७ ॥ अर्थ-हवे तीव्रारंभ के० घणा पाणीने पीडाकारी जे ग्वर कर्मादिक व्यापार तेने सदा तजे कदाचित् करे तो मगोकयको करे पण नि गोकथको न करे ते छहा गुणनो संभागी के० भजनारो याय यद्यपि पण अणचालते कांडक आरंभ पोते सशोकथको करे छे पण रागी तो निरारंभ के० आरंभरहित जे जन के० लोक ते मुनिराजनो होय घणो के० अत्यंत होय ॥ ७॥
माने सत्तम गुण बर्यो, जन पास सदृश गृहवासारे। अभ्यासोरे, मोह जितवानो करे ए ॥८॥
अर्थ-डवे सातमो गेहनामा गुण वखाणे छे ते सातमो गुण वरयोथको माने के जाणे ते जन के० प्राणी घरवासने पास सदृश के बंधन सरिखो माने जेम पक्षी पासमा पड्यो उडी न शके अने पोताना आत्माने दुःखी माने एम गृह मातापितादिक संबंधे दीक्षा लेड न शके पण दुःख माने अने ते पाणी अभ्यास तो मोहने जितवानोज करे ।। ८ ।।
अट्टम ईसण गुणभयों, बहु भांतें करे गुरु भक्तिरे । शक्तिरे, निज सद्दहणानी फोरवे ए ॥ ९ ॥
अर्थ-आठमो दर्शननामा गुणे भर्यो यको गुरु जे धर्माचार्य जेनाथी समकित पाम्यो ते गुरुनी भक्ति बहुभांत करे अने पोतानी श्रद्धानी शक्ति फोरवे एटले ए भाव जे आस्तिक्यभाव सहिन अने अतिचाररहित दर्शनने धरतो शक्तियें प्रभावना तथा वर्णवाद बुद्धिवंत करे. यत:-" अन्थिक्कभावकलिओ, पभावणावन्नवायमाईहिं । गुरुभत्तिजुओ धीमं, धरेइ इय देसणं विमलं ॥१॥" ॥९॥
लोकसन्नाहवि परिहरे, जाणे गाडरिओ परवाहोरे । लाहोरे, एम नवमा गुणनो संपजे ए ॥ १० ॥
अर्थ-हवे गाडरीक प्रवाहनामा नवमो भेद बखाणे छे ते लोकसन्नाह के अविचारित रमणीक तेने परिहरे के० त्यजे अने लोकनी चाल ते गाडरिआ प्रवाह जेवी छे जेम एक गाडरनी पछवाडे वीजु गाडर चाले उपलक्षणयकी कीडीनो मंकोडानो प्रवाह पण कडेवो ते जेम अविचारित छे तेम लोकमवाह पण तेवो छे ते माटे वर्जे एम नवमा गुणनो लाहो नीपजे ॥ १० ॥
आगमनें आगल करे, ते विण कुण मारग साखीरे । भापीरे, एम किरिया दशमा गुण थकीए ॥ ११ ॥
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( ९४ )
अर्थ- हवे दशमो आगमनामा भेद वखाणे छे जे कार्य करे ते आगमने आगल करीने. करे एम विचारेजे आगम विना जे परलोक साधवानो मार्ग तेनो कोण साखी एटले वीतरागना आगममांज एवा मार्ग होय भाषी के० एवं कहीने ए रीतनी क्रिया करे एटले ए भाव जे देववंदन गुरुवंदन प्रत्याख्यान प्रतिक्रमणादिरूप क्रिया जिनागम तथ्य जाणीने आगमोक्त क्रिया करे ए देववंदनादिक क्रियानो विस्तार धर्मरत्नमां जोड़ लेवो ए दशमा गुण थकी क्रिया पामे ॥ ११ ॥
आप अबाधायें करे, दानादिक चार शक्तिरे । व्यक्तिरे, एम आवे गुण इग्यारमो ए ॥ १२ ॥
अर्थ- हवे दानादिक यथाशक्तियें करे ए अग्यारमो भेद कहे हे आप अबाधायें के० पोताने पीडा न उपजे तेम दानादिक चारे करे जो द्रव्यपात्र होय तो देतो थको थाकेज नहीं अने जो अल्प द्रव्यवान होय तो अति उदार न थाय. उक्तंच - " लाभोचियदाणे, लाभोचियभोगणे । लाभोचियपरिभावे, लाभोचियनिहिकरे सिया ॥१॥ " इत्यादिक एम थोडे काळे घणुं आप शके तेमज गील तप भावनाने विषे पण यथाशक्ति प्रवर्तें एम व्यक्ति के० प्रगटपणे अग्यारमो गुण श्रावकने आवे ॥ १२ ॥
चिंतामणि सरिखो लही, नवि मुग्ध हस्यो पण लाजेरे । गाजरे, निज धर्मे ए गुण बारमो ए ॥ १३ ॥
अर्थ-वे निहीक नामा वारमो गुण कहे छे. चिंतामणिरत्न सरिखो पोतानो धर्म लड़ी के० पामीने जे मुग्ध के० मूर्ख लोक तेणे हस्यो थको पण नचि लाजे के० न लाजे एटले धरणी करतो लाजे नहीं गाजेरे के उत्सुक होय हर्पवंत होय निज धर्मों के० पोताना affar arrat गुण जाणवो यद्यपि धर्मरत्नग्रंथमां चिंतामणिरत्नसरिखी क्रिया करतो न लाजे एम कर्तुं छे तो इहां चिंतामणिरत्नसरिखो धर्म कह्यो तेमां कांह विरुद्ध नयी केमके क्रिया ने धर्म कांह जूदां नयी ॥ १३ ॥
धन भवनाविक भावमां, जेम नवि रागी नवि द्वेषीरे । समपेषी रे, ते बिलसे गुण तेरमे ए ॥ १४ ॥
अर्थ- वे तेरमो अरक्तद्विष्ट नामा भेद बखाणे छे. शरीरनी स्थिति हेतु छे धन भवन आदि शब्दयी वजन, आहार, घर, क्षेत्र, कलत्र, वस्त्र, शस्त्र, यान, वाहनं इत्यादिक लेवां. ते पदार्थमां रहतो थको पण नवि रागी नवि द्वेषी के० राग द्वेष रहितनी पेठे होय एटले मंद आदर होय अन्यथा राग द्वेष रहित तो उपले गुणठाणे होय ते इहां केम घटे अने समपेषी के० मध्यभावनो जोनारो होय जे माटे भावभावक एम भावे. यतः - "नय अत्थि कोइ सयणो, न शरीरं नैव भोगउवभोगा । जीवो अन्नभवगई, गच्छ सव्वंपि सुत्तूर्णं ॥१॥"
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( ९५ )
इत्यादि अविनित लोक उपर द्वेष पण न करे ते श्रावक तेरमा गुणने विलंसे ॥ १४ ॥ राग द्वेष मध्यस्थनो, समगुण चउदमे न बाधेरे । साधेरे, ते हठ छांडी मारग भलो ए ॥ १५ ॥
. अर्थ- हवे चउदमो मध्यस्थ नामा गुण वखाणे छे. राग द्वेष मध्यस्थनो के०राग द्वेषमां तणाय नहीं तेमां मध्यस्थपणुं राखे ए राग द्वेष मध्यस्थनो समगुण कहिये एटले ए भाव जे परमार्थ विचार करे जे में मत लीधो ते केम मुकुं अथवा अमुक मारो मत खंडेछे तेने खंड एवा राग द्वेष न करे ते प्राणी चौदमा गुणने विषे वाधा न पामे एटले समगुणी पीडाय नहीं ते पाणी पोतानो हठ के० कदाग्रह छांडीने भलो मार्ग साधे एटले परने तथा पोताने eिa dive थको कदाग्रह सूकी मध्यस्थ गीतार्थ गुरुने वचने प्रदेशी राजानी पेठे प्रवर्त्तं एटले तेरमा गुणमां धन भवनादिकमां मंद आदर होय अने चौदमा गुणमां धर्ममां कदाग्रह मुके सम्यक् अंगीकार करे ॥ १५ ॥
क्षणभंगुरता भावतो, गुण पन्नरमे सेवंतोरे । संतोरे, न धनादि संगति करे ए ॥ १६ ॥
अर्थ- हवे असंबंध नामा पनरमो भेद वखाणे छे. क्षणभंगुरता भावतो के० सर्व पदार्थ क्षणभंगुर छे अनित्य छे तन मन स्वजन जीवित द्रव्य प्रमुख ए सर्व अनित्य छे एम विचारतो पंनरंमा गुणने विषे संतो के० सज्जन पुरुषोने सेतो के० सेवे न धनादि संगति करे के० धन प्रमुखनी संगत न करे एम विचारे. यतः - “ चिच्चा दुपयं चउप्पयं च खित्तं गीहं धणधन्नं च सव्वं । स कम्मप्पवीओ अवसो पयाइ, परं भवं सुंदर पावगं वा ॥१॥" ॥ १६ ॥ भाव विरति सेवे मनें, भागादिक पर अनुरोधेरे । बोधेरे, एम उसे गुण सोलमें ए ॥ १७ ॥
अर्थ - हवे सोलमो परार्थकाम भोगोपभोगी नामा भेद कहे छे. भव जे संसारने विषे विरक्त मन थको भोगादिकने सेवे ते पण परअनुरोधे के० परना दाक्षिण्यादिर्के सेवे बोधेरे के० एवाउदासीन ज्ञाने करी सोलमो गुण उल्लास पाये ॥ १७ ॥
आज काल ए छांडिस, एम वेश्यापरें निसनेहोरे । गेहोरे, पर माने गुण सत्तरमें ए ॥ १८ ॥
अर्थ- हवे सत्तरमो वेश्यानी पेठे घरवास पाले ए भेद बखाणे छे. जे ए घरवास छे ते आज छांडियुं अथवा काले छांडिभुं एम वेश्यानी पेठे निस्नेही रहे जेम वेश्या निर्धन देखी विचारे जे हवे आज अथवा काले छाहुं हुं एम विचारे तेम गृहस्थ पण आस्था प्रमुख विना घरमां बसे पण घरने पर करी माने ए सत्तरमे गुणे देशविरतिना अनेक भेद छे मारे नानाभिप्रायवंत होय ते माटे पुनरुक्त दोष कोइ भेदमां न जाणो ॥ १८ ॥
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ए गुणवृंदे जे भर्या, ते श्रावक कहिये भारे ।
पावरे, सुजशपूर तुझ भक्तिथी ए ॥ १९ ॥ अर्थ-ए गुणना ईद के० समूह तेणे करी जे भरया छे ते भावें के भावथी श्रावक कहिये. यतः-" इय सत्तरसगुणजुचो, जिणागमे भावसावगो भणियो।" इति वचनात्. ते पावे के० पामे मुजश पूर के० भला जशनो पूर पामे तुझ भक्तिथी के० हे वीतराग हे चिदानंदस्वरूपी वारी भक्ति थकी पामे एटले तारी:आज्ञायें भाषश्रावकपणुं पालवू ते तारी भकिज छे ।। १९ ॥
॥ ढाळ चजदमी॥
तेरमी ढाल मध्ये भावश्रावकलक्षण का ते भावश्रावक जे होय ते द्रन्यसाधु कहिये अने जे द्रव्यसाधु होय ते भाव साधुपणुं पामे ते माटे हवे भावसाधुनां लक्षण चउदमी डालमां कहे छे. ते भावसाधुपणुं लहे, जे भावभावक सार; तेहनां लक्षण सात छ। सवि जाणे हो तुं गुणभंडार, साहेवजी साची ताहरी वाणी ॥१॥
अर्थ-जे सार के प्रधानभाव श्रावक पूर्व कह्या ते भाव साधुपणु पामे तेनां वली सात लक्षण छे ते हे ज्ञान दर्शन चारित्र वीर्य मुख दान लाभ भोग उपभोगादिक गुणना भंडार एवा हे परमेश्वर तमे सर्व जाणो छो केवलज्ञान केवलदर्शने करी पढ्द्रव्य भासन थाय छे ते माटे हे साहेवजी तमारी वाणी ते साची छे सत्य छे एटले ए भाव जे आचार्य परंपरा तया जीताचार तथा प्रकरणादिकमां जे भाव कहा छे ते तमारीज वाणी छे पण कोइनी कल्पित नयी ॥१॥ किरिया मारग अनुसारणी, श्रद्धा प्रवर अविवाद, रुजुभावे पन्नवणिज्जता । किरियामां हो नित्ये अप्रमाद ॥ सा० ॥२॥
अर्य-हवे सात लक्षण कहे छे सर्व क्रिया प्रत्युपेक्षणादि ते मार्गानुसारणी जे मोक्षमार्गने अनुजायी चेष्टा होय ते प्रथम लक्षण त्या धर्मने विषे श्रद्धा के० करवानी इच्छा प्रवर के प्रधान अविवाद के विवादरहित ते वीजुं लक्षण अने पनवणिज्जता के० प्रज्ञापनीयपणु एटले परुपणा करवी ते ऋजुभाने के सरल भावें एटले तेनी परुपणा ते असदभिनिवेश कदागहें न होय ए त्रीजु लक्षण वली क्रिया जे शुभहित अनुष्ठान तेने विषे निरंतर अपमादी होय पण शिथिल न होय ए चोथु लक्षण ॥२॥
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(६७)
निज शक्ति सारं काजनो, आरंभ गुण अनुराग; आराधना 'गुरु आणनी । जेहथी लहिये हो भवजल ताग ।। सा० ॥३॥ __ अर्थ-तथा पोतानी शक्ति प्रमाणे तप संयमादिक कार्यनो प्रारंभ करे पण शक्तिने ओलंघी तपस्या प्रमुख न करे ए पांचमुं लक्षण अने गुण अनुराग के० गुणीनो पक्षपात होय ए छटुं लक्षण तथा गुरुआज्ञानु आराधq तथा गुरुना आदेशे वर्तवु गुरुनी आणाथी संसारसमुद्रनो पार लहिये के० पामियें ए सातमु लक्षण ॥ ३ ॥
मार्ग समयनी थिति तथा, संविज्ञ बुधनी नीति । ए दोई अनुसारें क्रिया, जे पाले होते न लहे नीति सा ॥
अर्थ-हवे उपर कहेला सात भेदमांथी मार्गानुसारिणी क्रिया नामें प्रथम भेद वखाणे के मार्ग के० समयनी स्थिति एटले आगमनी मर्यादा ते आगम केने कहियें. उक्तंच"आगमोह्याप्तवचनमाप्तं दोपक्षयाद्विदुः। वीतरागोऽनृतं वाक्यं, न ब्रूया त्वसंभवात् ॥१॥" ते आगमनी स्थिति उत्सर्ग अपवादरूप शुद्ध संयमनो उपाय ते मार्ग कहियें अथवा जे संविज्ञ वुधनी नीति के० संविज्ञ जे मोक्षाभिलापी अने बुध ते गीतार्थ इहां बहुपद अधिक कहिये ते वारे एम कहेवु जे संविज्ञ वहुगीतार्थनी नीति के जे आचरण क्रियारूप तेने पण मार्ग कहियें ए दोई के० वे अर्थ मार्गना कह्या तेवा मार्गने अनुसारिणी जे क्रिया आगमनी अ‘वाघायें संविज्ञ व्यवहाररूप ते मार्गानुसारिणी क्रिया कहियें एवी क्रिया जे पाले तेने भीवि
के संसारनी वीक न लहे के० कदापि न पामे. इति गाथार्य हवे संविज्ञ गीतार्थनी नीति 'एना पदच्छेद करियें छैयें संविज्ञ पद कयु ते 'असंविज्ञपणुं टालवा माटे'का तो ते घणा असंविज्ञ मलीने जे आचरथो होय वोपण प्रमाण न थाय यद्यवहार:-"ज जीयमसोहिकर, पासत्यपमत्तसंजयाईहिं । बहुएहि वि आयरियं, न पमाणं मुद्धचरणाणं ॥१॥" इहां बहु • गीतार्थ पद मूक्यु तेतुं कारण ए जे एक गीतार्थे आचर्यु होय ते कदाचित् अनाभोगें अनव बोधादिक कारणे विपरीतपणे आचर्यु होय ते पण प्रमाण न थाय ते माटे बहु गीतार्थपद मृत्यु तो ते वहु गीतार्थ जे आचरे ते अवितथ होय इहां कोई प्रश्न करे जे आगममार्ग कहेवो ते तो युक्त छे पण बहुजनाचरण कहे, युक्त नथी केमके घणा लोकोयें तो लौकिक मार्ग आचरयो होय माटे आगम ते तो प्रमाण पण घणा लोकोनुं आचरण प्रमाण नहीं वली आगम ते ज्येष्ठ छे बहुजन आचरण ते अनुज्येष्ठ छे अने लौकिकमांपण ज्येष्ठने मूकी
अनुज्येष्ठ पूजन युक्त नथी तेमज आगम तो केवली पण अप्रमाण नकरे. यव:-"आहाम,ओवउत्तो, मुअनाणीजइवि गिग्रहइ असुद्धं । तं केवलीविझुंजइ, अपमाणं मुझं भवे इहरा ॥१॥" 'तथा.पागम छतां जो आचरणा-प्रमाण करियें तो आगमनी लघुता थाय हवे गुरु उत्तर कहे छे जे संविज्ञ गीतार्थ छे ते आगमनी अपेक्षा विना आचरेज नहीं ते शुं आचरे नहीं तथा शुं आचरे ते कहे छे.. यत:-" दोसा जेण निरुज्झति, जेण खिज्जति पुन्धकम्माई।
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( ९८ )
सो सो मुक्खाबाओ, रोगावस्थासु समणं व ॥ १||" इत्यादिक आगम बचन संभारी द्रव्य क्षेत्र काल भाव पुरुपादिक उचित जोड़ संयमने वृद्धिकारीज आचरे ते वीजा संविज्ञ गीतार्थ पण अंगीकार करे ते मार्ग कहिये अने वीजा वहु लोके आचर्यु ते तो असंविज्ञ अगीतार्य मांट अप्रमाण छे वली आचरणा प्रमाण करतां आगम तो अत्यंत प्रतिष्ठा पाये छे श्रीठाणांग मूत्रमां पांच प्रकारना व्यवहार प्ररुप्या छे. उक्तं च- "पंचविहे वबहारे पन्नते तंजहा - आगमREETरे सुयवहारे आणाववहारे धारणाबवहारे जीयववहारे" इहां जीत अने आचरणा ते एक अर्थ छे ते माटे आचरणा मानतां अत्यंतपणे आगम मान्युं तो आगम अविरोध जे आचरणा ते प्रमाणज छे ॥ ४ ॥
सूत्रे नयुं पण अन्यथा, जूर्दुज बहुगुण जाण ।
संविज्ञ विबुधे आचर्य, कांड़ दिजे हो कालादि प्रमाण || सा० ||५||
अर्थ- वली एज बात कहे ते मुत्रे भण्यं के० आगमने विषे कां छे तोपण अन्यथा के० हेरफेर करीने बहुगुण जाण के० तेमां घणो गुण जाणीने संविज्ञ गीतार्थ लोके जे आचरण तेवी केटली बातो दीसे छे पण ते शुं जाणी आचर्यु ते कडे छे जे कालादि प्रमाण के० दुःखमादि काल प्रमुखतुं प्रमाण विचारीने आचर्यु ॥ ५ ॥
कल्पनुं धर झोलिका, जाजने दवरक दान |
तिथि पजूसणनी पालटी, जोजन विधि हो इत्यादि प्रमाण ॥ सा० ६ ॥
अर्थ - वली तेज देखाडे हे कल्पनुं धरयुं के० पूर्वे कल्प जे कपडो ते कारणे ओढता तथा गोचरी प्रमुखने विषे बालीने खंधे मूकी चालता ए आगमना आचार हतो अने हवे तां गोचरी प्रमुखने विषे पांगरीने जानुं तथा चोलपट्ट प्रमुख पण समजवा पूर्वे कुणीयें राखता हमणा कंदोरे राखियें यें तथा पूर्वे झोलिका के० झांली मुठीयें झाला ग्रंथी कुणीयें कडी बांधता अने हमणां हाथमां झालिये छे उपलक्षणथी उपग्रहक कटासं संथारीओ दंडासणादिक लेवां तथा तरपणी प्रमुखने विषे दोरा लेवा एम सीकी दोरानो झोलीना आधार विशेष इत्यादिक वली पात्रे लेप देवा तथा पजूसणनी तिथि जे पांचम तेनी चोथ करी उपलक्षणथी चोमासा पुनमनां टाली चउदगना करयां तथा भोजनविधि प्रमुख शास्त्रोक्त बिना पण आचरित प्रमाण के भोजनविधि ते मांडलीयें बेसवुं वेंची देवं इत्यादिक तथा च व्यवहार भाये - "सत्यपरिना छक्काय संयमो पिंड उत्तरज्झाए । रुक्खे 'बस हे गोवे, जोहे सोही य क्खरिणी ॥१॥" एनो लेगथी अर्थ करे छे जे पूर्वे शास्त्रपरिज्ञा अध्ययन सूत्रार्थ भणे के॰ साधुने उठावणा करता हता अने हमणां दशवैकालिकनुं चोथुं अध्ययन भणे थके ठाणा थाय छे तथा पूर्वे पिंडेपणाध्ययन भण्या पछी उत्तराध्ययन भणावता हमणां वगर भणे पण भणावि छैये तिहां दृष्टांत कहे छे पूर्वे कल्पवृक्ष हता हमणां आंबा प्रमुखे काम चालेछे पूर्व अतुल्य बल धवल हृपभ हता हमणां धुसरेंज काम चाले छे पूर्वै गोप जे करपणी
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( ९९ ) ते चक्रवर्त्तिने तेज दिवसे धान्य नीपजावी देता हता आज ते विना पण काम चाले छे तथा पूर्वे सहस्त्रयोधी हता हमणा अल्प पराक्रमी सुभटोयी पण शत्रुनो पराजय करी राज्य पाले छे तेम साधु हमणां जीतव्यवहारे पण संयम पाछे छे तथा पटमासतुं प्रायश्चित्त होय तेने हमणां पांच उपवास कला छे तथा पूर्वे महोटी पुष्करिणीओ हती हमणां नानी छे तेथी काम चाले छे इत्यादिक दृष्टांत जीतव्यवहार पण जाणवो अथवा किं बहुना "जं सव्वहा न सुत्ते, पडिसिद्धं नेव जीववहहेउ । तं सव्वंपि पमाणं, चारितघणाणं भणिधं च ॥ १॥ अवलंचिऊण कज्जं, जं किंचि समायरंति गीयत्था । थोवावराहबहुगुणं, सव्वेसिं तं पमाणं तु ॥ २ ॥ |” इत्यादिक जेम आर्यरक्षितजीयें आचर्यु ते दुर्बलिका पुष्पमित्रजीयें अंगीकार कर्तुं तेमज सुविहीते जे आचर्यु ते सर्व कबूल करे ॥ ६ ॥ ।
व्यवहार पांचे जाषीया, अनुक्रमें जेह प्रधान |
आज तो तेमां जीत छे, ते तजियें हो केम वगर निदान ॥ सा० ||७||
अर्थ - ते माटेज कहे छे जे पांच व्यवहार कह्या छे तथा अनुक्रमें जे प्रधान होय ते आदरवो. यदुक्तं - "कइविणं भंते ! वबहारे पणत्ते! गोयमा ! पंचविहे वबहारे पन्नते तंजहा - आगमे सुए आणा धारणा जीए, जहा से तत्थ आगमे सिया आगमेणं ववहारं पठवेज्जा | गोय से तत्थ आगमे सिया, जहा से तत्थ सुए सिया सुएणं ववहारं पठवेज्जा २ | णोय से तत्थ सुए सिया, जहा से तत्थ आणा सिया आणाए बवहारं पठ्ठवेज्जा ३ । गोय से तत्थ आणा सिया, जहा से तन्थ धारणा सिया धारणाए ववहारं पठवेज्जा ४ | णोय से तत्थ धारणा सिया, जहा से तत्थ जीए सिया जीणं ववहारं पट्टवेज्जा ५ । इच्चेतेहिं पंचहिं बवहारं पठवेज्जा तंजहा - आगमेणं सुरणं आणाए धारणाए जीएणं । जहा जहा से आगमे सुए आणा धारणा जीए तहा तहा बवहारं पढवेज्जा | से किमाहु भंते ! आगमवलिया समणा निग्गंथा इचेयं पंचविहं बवहारं जदा जदा जिहिं तहा तहा तर्हि तर्हि अणिसितोवस्सयं समं ववहारमाणे णिग्गंथे आणाए आराहए भव" इति भगवतिसूत्रे शतक आठमे उद्देशे आठमें कहुं छे. आज तो वे पांच व्यवहारमां जीतव्यवहार मुख्य छे जीतव्यवहारेज काम चालेछे ते जीत व्यवहार वगर निदान के० कोइ पण कारण विना म त्यजियें एटले जीवव्यवहार जे आचार्ये बांध्यो ते प्रमाण हे ॥ ७ ॥
श्रावक ममत्व अशुद्ध वली, उपकरण वसति आहार |
सुख शील जे जन ते आचरे, नवि धरियें हो चित्त लगार ॥ सा० ८ ॥
अर्थ- हवे एवी आचरणा ते अप्रमाण छे केमके सिद्धांतमां ना कही छे जे श्रावकनुं ममत्व न करवुं. यतः- “गामे वा कुले वा नगरे वा देसे वा ममत्तं भावं न कहिंचि कुज्जा" इत्यादि श्रावनुं ममत्व करे ते अप्रमाण छे तथा अशुद्धमान उपगरण वसति आहार प्रमुख लेवानी आगममां ना कही छे अने जो लीये तो ते आचार अप्रमाणं छे. यतः आगमे - " पिंड सिज्जं च वत्थं च चखत्थं पाय मेव य । अकप्पियं न इच्छिज्जा, पडिगा हेज्ज कप्पियं ॥१॥",
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(१००) इति उपलक्षणयी बस्न पात्रादिक पण एम जाणवा माटे मुखशील लोके जे आचर्य एटले. पोताना शरीरनी शोमाने अर्थे जे आचरया ते अप्रमाण वाकी दुर्भिक्षादिक कारणे तो काइ, अशुद्ध लीयें तोपण निर्दोप छे. यतः पिंडनियुक्तौ-"एसो आहारविही, जह भणिओ सन्च, भावदंसीडि । धम्मावस्सगजोगा । जेण न हायंति तं कुजा ॥१॥" तथा "कारणपडिसेवा. पुण, भावेणासेवणचि दहव्वा । आणाइतीड भावे, सो सुद्धो मुक्खहेउत्ति ॥२॥” इत्यादि. वली उच्चवाइसूत्रे शुद्धसणीए एवा अभिग्रह मुनियें करया तेथी जाणीये छैये जे पूर्व अशुद्ध पण कोइक कारणे लेता दीसे छे ए अपवाद तो प्रमाण छे पण मुशील लोके जे आचर्यु-ते चित्तमा लगार पण न धरियें एटले ए भाव जे दुप्पसह आचार्य लगें तो चारित्र सिद्धांतमां, सांभलियें छैये अने जो मार्गानुसारी क्रिया कही ते रीते यत्न करता होय तेने चारित्रीया. न मानियें तो एथी वीजा चारित्रीया तो देखाता नथी ते वारे चारित्र विच्छेद गयो एम ठयु तो ते चारित्र विना तीर्थ पण विच्छेद गयु एम ठयु एम करतां तो आगम विरुद्ध थाय छे. यतः व्यवहारभाष्ये-"जो भणइ नत्थि धम्मी, नय सामाइयं न चेव य वयाई। सो समण. संघवझो, कायन्यो समणसंपेण ॥१॥" इत्यादि वचने तो मार्गानुसारी क्रियानो करनार ते भावसाधु छे एम ठर्यु ए प्रथम क्रियानामा भेद थयो ॥८॥
विधि सेवना अवितृप्ति शुन्न, देशना खलित विशुद्धि । श्रद्धा धर्म इच्छा घणी, चउ नेदें हो एम जाणे सुबुद्धि ||सा० ॥९॥ अर्थ-हवे वीजुं लिंग श्रद्धामवरनामा कहे छे तेना भेद चार छे ते कहे छे-१ विधिसेवना २ अविवृप्ति के. अतृप्ति ३ शुभदेशना के० शुद्ध देशना ४ खलित परिशुद्धिनामा, चो) लिंग. ते श्रद्धापवरनो अर्थ कहे छे श्रद्धा के० धर्मनी इच्छा घणी के० अत्यंत होय. पण वालकने रत्न ग्रहवानी अभिलापानी पेठे सामान्यपणे विपयप्रति भास मात्र न होयते एम उपर कहेला चार भेदे ए लिंग होय ते मुबुद्धि के बुद्धिवंत होय ते जाणे ॥९॥
दृढ रागाछे शुजनोज्यमां; जेम सेवतायें विरुद्ध ।
आपदामा रसजाणने, तेम मुनिने हो चरण ते शुध्ध।सा० ॥१०॥ अर्थ-हवे ए श्रद्धापवरना चार भेदमा प्रथम विषिसेवना नामे भेद ओलखावे के जे शक्तिवत होय ते श्रद्धावंत थको विधि प्रधान शक्तिवंत प्रत्युपेक्षणादिक क्रिया करे अने जे शक्तिरहित होय ते द्रव्य क्षेत्र काल तथा भावे करी जो तादृश क्रिया करी न शके तोपण प्रतिबंध ते विधि अनुष्ठानने विषेज होय. यतः-"विहिसारं चिय सेवइ, सद्धालू सत्तिम अणुठाणं । दव्वाइदोसनिहओवि, पक्खवायं वहइ तमि ॥१॥" इहां कोड पूछे जे शक्तिरहितजे होय ते अनुष्ठान न करे अने विधि अनुष्ठानमा पक्षपाति केम होय तेने-अन्वय सहित, गाथाना अर्थथी कहे छे. जेम कोइक पुरुष होय ते दुकाल अथवा दरिद्रपणुं पाम्यो वो ते- - पुरुष गवार अरणीपत्र तथा वृक्षनी छाल प्रमुख खाइने दिवस व्यविक्रमे पण तेवा भोजनमा
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(१०१:) लपटाय नहीं केमके पोते उत्तम आहारनो स्वाद जाणे हे तेथी तेनो राग तो उत्तम भोजनमांज होय छे जे उत्तम भोजन क्यारे मलगे ने मल तो वावरिये एवो अत्यंत राग होय. हवे अक्षरार्थ कहे के जे शुभ भोज्यमा दृढ राग छे तथा रसना जाण ते कम जे पूर्व पटरसा वावरवा छे ने स्वादनो जाण छ ने आपढामां के० दुकालादिक आपदामां विरुद्ध सेवतो एटले कुधान्य खातो थका पण नेनो गग मुधान्यमां होय ए दृष्टांने मुनिने पण चारित्रनी शुद्धि जाणवी एटले यद्यपि द्रव्य क्षेत्रादिक कारण पामीन विरुद्ध सेवे तोपण शुद्ध चारित्रना रसिओ के नेथी भावचारित्रने ओलंगे नहीं तेने भावथी चारित्रीयाज संगमाचार्यनी पेठे कहिये इत्यादिक बहु वक्तव्यता छ इति प्रथम भेटः ॥१०॥
जेम तृप्ति जग पामे नहीं. धनहीन लेतो रत्न | तप विनय यावच्च प्रमुख, तेम करतो हो मुनिवर वहु यत्न । सा०११ ।।
अर्थ-हवं अतृप्तिनामा वीजु लक्षण कई छ म धनहीन के० दरिद्री होय तेने रत्ननो. ढगलो मल्यो नेवारें ने रन लेतां जगनमा वृप्ति के० गतोप पामेज नहीं तेम मुनि पण तप विनय वैयावच तथा प्रमुख गजान चारित्र तेहने विषे वणो यत्न करे यत्न करतो याकेज नहीं तृप्ति पामेज नहीं तमां नप करतांथकां तो निर्जरा थाय तथा सन दीपे ते प्रसिद्ध छ तया विनयनो अधिकार उत्तराध्ययनना पहेला अध्ययनथी जाणो अने वैयावच पण निर्जराने अर्थे अनेक प्रकारचें करे ने प्रश्न व्याकरणमृत्रधी जोजो तथा ज्ञान भणतां पण नवनत्रो वैराग उपजे. यतः-"जह जह मुयमवगाड, अइसयरसपसरसंजुयमउच्वं । तह तह पल्हाड मुणी, नवनवसंवेगसद्धाए ॥१॥" इत्यादि तथा चारित्रमा पण विशुद्ध विशुद्धतरसंयम स्थानक पामवाने सर्व अनुष्ठान करे उत्तरोत्तर संयम कंडक आगेहतां अप्रमादपणे केवलनानना लाभमणी थाय. यतः-"जोगे जोगे जिणसासणंमि, दुक्खक्खया पति । इकिमि अणंता, बटुंता केवली नाया ॥१॥" इत्यादि बीजो भेढ करो ॥ ११ ॥
गुरुनी अनुज्ञा लेइने, जाणतो पात्र कुपात्र । तेम देशनाशुद्धि दिए, जेम दीपे हो निज संयम गात्र|सा०॥१२॥
अर्थ-वे शुद्ध देशनानामा त्रीजुं लक्षण कहे छे गुरुनी अनुज्ञा के० आज्ञा लेइ-तेमज शुद्ध देशना आपे ते पण पात्र कुपात्रने जागनो यका जेम संयमरूप गात्र के शरीर ते? दीपे.के. गोमे निज के० पोनार्नु संयमरूप गात्र गोभे इत्यक्षरार्थ. एटले ए भाव जे सद-, गुरु पासेथी-सिद्धांतनो सार जाणी गीतार्थ यया होय तोपण गुरुनी आना लेइने-पण पो- . तानी मेले नहीं. पोते धन्ययको मध्यस्थपणे सद्भूत देशना आपे पण पात्र कुपात्राओलखीने देगना आपे ते पात्रना त्रण भेद छे. १ वाल २ मध्यम ३ बुद्ध. यत:-"वालः पश्यति। लिंग, मध्यमवुद्धिर्विचारयेत् वृत्तं । आगम तत्वं तु बुद्धः, परीक्षते सर्व यत्नेन ॥१॥n. इत्यादिक-तेनी देगनानो विवि वीजा पोडशकयकी जाणवी डहां विस्तार थाय माटे नयी:
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(१०२) लखता ते मारे जे पात्रने जेम उपगार थाय तेम ते पात्रने देशना आपे अन्यथा संसार वधारे इत्यादिक त्रीजु लक्षण. ए त्रीजा लक्षणमा पात्रापात्र विचार प्रमुखनी चर्चा घणी छे ते धर्मरन ग्रंथथी जोजो जेम पोता संयमगात्र शोभे ॥ १२ ॥
जे कदाचित लागे व्रतें, अतिचार पंक कलंक । आलोयणे ते शोधतां, मुनि धरे होश्रद्धा निःशंक | सा०॥ १३॥ अर्य-हवे खलित परिशुद्धिनामा चोधु लक्षण कहे छे ते जे कदाचित व्रत पालतांथका कोइ अतिचाररूप पंक के. कचरो तद्रूप कलंक जो व्रतने विषे अनाभोगे करी अतिचार लागे ते पण १ प्रमाद २ दर्प ३ कल्प ए त्रण रीते लागे अने चोथो आकुट्टिये तो माय चारित्रीयाने संभवेज नहीं ते आकुट्टि प्रमुखनु स्वरूप कहे छे. यत:-" आउट्टिया उ तिव्वा, दप्पो पुण होइ वग्गणाईओ। विगहाइओ पमाओ, कप्पो पुण कारणे करणं ॥१॥" उपलक्षगयी अनेक प्रकारनी प्रतिसेवा छे ते सर्व एमां समाय ते प्रायश्चित्तादिक लेइने शुद्ध थाय ए रीते करतो मुनिराज निशंकपणे श्रद्धा धारे ए चोथो मेद थयो ॥ १३ ॥
श्रद्धा थकी जे सर्व लहे, गंजीर आगम नाव । गुरुवचने पन्नवणिज ते, आराधक हो होवे सरल खन्नाव सा०१४॥
अर्थ-हवे वीजा लक्षणनो उपसंहार करतां श्रीजु लक्षण कहे छे आखी गायानो अर्थ भेलो लखिये छैये १ विधि २ उद्यम ३ भय ४ वर्णव ५ उत्सर्ग ६ अपवाद ७ तदुभय इत्यादिक आगमना जे गंभीर भाव छे ते श्रद्धाथकी सर्व जाणे जो ए सर्व भाव न जाणे तो जमालीनी पेठे मिथ्यात्वी थइ जाय ए वीजा लक्षणनो उपसंहार थयो. हवे त्रीजु लक्षण कहे छे जे एवा मावनो जाण होय ते गुरुने वचने पन्नवणिज के० प्रज्ञापनीय एटले परुपवा योग्य पदार्थनो सरल स्वभावे उपदेश करतो थको आराधक होय ए त्रीजु लक्षण ॥
षटकाय घात प्रमत्तने, पडिलेहणादिक योग । जाणीपमादीनवि होए, किरियामा होमुनि शुनसंयोग||सा०१५॥
अर्थ-हवे क्रियाने विषे अप्रमादनामा चोथु लक्षण कहे के प्रमत्त के प्रमादोने पडिछेहणादिक योगवंतने पृथिव्यादिक छकायनो घात थाय छे एटले ए भाव जे उपयोगविना प्रमादी यको पडिलेहणादिक करतो छकायनो विराधक थाय अने उपयोग करे तो आराधक याय. यतः-"पहिलेहणं कुणतो, मिहो कहं कुणइ जणवयकहं वा । देई व पच्चक्खाणं, वाएइ सय पडिच्छइ वा ॥१॥ पुढवीबाउकाए, तेऊ वाऊ वणस्सइतसाणं । पहिछेहणापमत्तो, छन्हंपि विराहो होई ॥२॥ पुढवीआरकाए, तेऊ वाऊ वणस्सइतसाणं । पडिछेहणाबाउत्तो, छन्दपि आराहओ होइ ॥३॥" इत्युत्तराध्ययनना छवीसमें अध्ययने माटे एवं जाणी पदिलेहणादिक योगमा प्रमादी न होय प्रमाद करतां जैन दिक्षावंत पण आर्य
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( १०३ )
भंगुनी पेठे संसार भमे माटे क्रियामां मुनिराज ते शुभ संयोग के० भला योगवंत होय भली क्रियानी संयोग करे आगममां अनेक प्रकारनी क्रिया कहीछे ते सर्व भली रीते करे ए चोथुं लिंग ॥ १५ ॥
जेम गुरु आर्य महागिरि, तेम उजमे बलवंत ।
बल अविपय नवी उजमें, शिवभूति हो जेम तरु हीलंत ॥ सा० ॥ १६ ॥
अर्थ- हवे शक्ति अनुष्ठाननामा पांचमुं लक्षण कडेछे ते जेम गुरु श्रीआर्य महागिरिजीयें उद्यम करचो ते वळवंत धको उजमं० के० उजमाल थाय एटले ए भाव जे संघयण धृति ममाणे निरवाही शके ते क्रियानेज मुसाधु प्रारंभे पण प्रतिज्ञा भंग थाय तेनुं प्रारंभ नहीं वल अनि ० जे क्रियामां पोतानुं वल न चाले नेमा उद्यम न करे अने करे तो उलटी खोट आये. यतः - "सो हु तवो कायव्वी, जेण मणी मंगुलं न चिंतेई । जेण न इंदियहाणी जेण य जोगा न हायंति ॥ १ ॥” इति जेम शिवभूतियें शक्ति उल्लंघन करी गुरुवचन लोपीने गुरुनी निंदा करवा लाग्यो ते रीते उत्तम साधु न करे इहां आर्यमहागिरि तथा विभूतिनो अधिकार धर्मरत्न ग्रंथमां लख्यो छे तेथी जाणवो ॥ १६ ॥
गुणवंतनी संगति करे, चित्त धरत राग अनुराग ।
गुणलेश पण परनुं थुणे, निज देखे हो अवगुण वडभाग ॥ सा० ॥१७॥
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अर्थ- हवे छहं गुणानुरागनामा भावसाधुनुं लिंग कडे ले जे एवा चारित्रीया होय ते गुणवंतनीज संगत करे अने पोताना चित्तने विषे गुणनोज अनुराग के० राग धरे. यतःवयसमणधम्मसंयमयावचं च वंभगुत्तीओ । नाणाइतियं तवकोहनिग्गहाईचरणमेयं ॥ १ ॥ " ए चरणसित्तरी कही तथा fishesोही समई, भावणपडिमा य इंद्रियनिरोहो । पडिहत्तीओ, अभिग्गहा चेव करणं तु ॥ १॥" ए करर्णासत्तरी इत्यादिक गुणनो राग घरे अने श्रीकृष्णे जेम काला कुतराना दांत वखाण्या तेनी पेठे बीजामां गुणनो लेश होय ते पण स्तंवे तथा निज के० पोताना अवगुण देखे वडभाग के० मोहोटा भागनो घणी जेम वे श्रावक काला देहेरामां पेठा तेम पोताना अवगुण देखे || १७ ॥
गुरु चरण सेवा रत होइ, आराधतो गुरु आए ।
आचार सर्वना मूल गुरु, ते जाणे हो चतुर सुजाण ॥ सा० ॥ १८ ॥
अर्थ- हवे गुरुआणा आराधननामा सातसुं लक्षण कछे इहां कोई पूछे जे भावसाधुनां लिंग शाखांतरमां तो छ कहां छे. यतः - " मग्गाणुसारी सद्धो, पन्नवणिज्जो किरियावरो चैव । गुणरागी सकारंभ संगओ तहय चारिती ॥ १ ॥" ए छ गुण कया छे तो तमे सातमो गुण क्यांथी कहो छो तेने उत्तर कहे छे जे चौदसें चुमालीस प्रकरणरूप प्रसादने विषे सूत्रधार सरिखा श्रीहरिभद्रसूरि तेणे उपदेशपदनामा ग्रंथने विषे सातसुं लिंग पण कहुं छे. तथा च
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(२०४) "तत्सूत्र-"एयं च अस्थि लक्खणमिमस्स निसेस मेव धनस्स | तह गुरुयाणासंपाढणचगमग इह लिंग ॥१॥" इत्यलं विस्तरेण माटे सात कहियें छैये हवे सातमा लक्षण स्वरूप कहे छे गुरु जे छत्रीस छत्रीसी गुणे विराजमान तेना चरणनी सेवाने विषेरक्त होय तथा गुरु आदिकनी आज्ञा आराघतो थको वली ते साधु एम जाणे जे सर्व आचारर्नु मूल ते गुरु छे गुरुथी सर्व प्रगट थाय ते चतुरसुजाण एम जाणे ए सातमो गुण कह्यो ।। १८ ॥ ए सात गुण लक्षण वर्यो, जे जावसाधु उदार | ते घरे सुखजश संपदा, तुजचरणे हो जश नक्ति अपार ॥ सा०॥१३॥
अर्थ-ए सात लक्षणने गुणे करी वरयो थको एवो जे भावसाघु उदार के प्रधान वे "मुख जशनी संपदांने वरे के० पामे एटले उत्कृष्ट जे मोक्षमुख तेने तो ते बरे जे हे सर्वज्ञ केवलज्ञान भास्कर तमारा चरणने विषे जश के जेने अपार भक्ति होय ते बरे ॥ १९ ॥
॥ ढाल पनरमी॥
चौदमी ढालमा प्रथमथी मांडीने जेटली वात लखी छ 'ते'सर्व धर्मरनमूत्र वृत्तियी लेखी छे पण ते ग्रंथमा विस्तार घणो छे ते जोइ लेजो ए चउदमी ढालमां साधुनां लक्षण ‘कयां ते लक्षण कहेतां मुनिराज उपर बहुमान उपर्नु ते बहुमानना हर्षे करी पत्नरमी ढाल मध्ये साधुना गुण वर्णन करे छे ए संबंधे पनरमी ढाल कहे छे.
॥ आज मारे एकादशीरे, नणदल मौन करी मुख रहीयें-ए देशी.॥ धन्य ते मुनिवरारे, जे चाले समजावें | "नवसायर लीलाए उतरे, संयम किरिया नावें ॥ धन्य०१॥
अर्थ-जे मुनिमा प्रधान सरिखा समभावे चालनारा राग द्वेष रहितपणे विचरे ते मुनि'राजने धन्य छे ते मुनि संयम जे चारित्र तेनी जे क्रिया तद्रूप नावें के नावायें करीने भवसायर के० संसारसमुद्रनो लीलायें के० सेहेजमां पार उतरे छे ।।१।।
लोग पंक तजी उपर बेठा, पंकज परें जे न्यारा॥ 'सिंहपरें निज विक्रम शूरा, त्रिभुवन जन आगारा || धन्य०२॥
अर्थ-भोग जे पंचेंद्रीना विपय तद्रूप जे पंक के० कचरो ते तजीने उपर बेठा के अलगा रह्या अने पंकज के कमलनी पेठे जे न्यारा छे एटले कमल, ते कचराथी उपनो अने कचराथी न्यारो रहे तेम मुनिराज पण भोगरूप कचरामा उपना अने ते भोग छांडीने अलगा रहा इतिभावः वली सिंहनी पेठे पोतानो विक्रम के० पराक्रम फोरववाने शूरवीर छेवली स्वर्ग मृत्यु ने पातालरूप जे त्रणभुवनना लोकने आधाररूप छे ॥२॥
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(१०५) ज्ञानवंत ज्ञानीशुं मळता, तन मन वचने साचा । द्रव्य नाव सुधा जे नापे, साची जिननी वाचा ॥ धन्य० ३॥ .
अर्थ-हवे स्यावाद शैली देखाडतां धकां मुनिराजनुं वर्णन करे छे. पोते ज्ञानवंत छे तथा ज्ञानी पुरुप साये मळी रहे छे पण खेद धरता नथी. वली तन के० काया अने मन तथा वचने करी साचा छे पण जूठी प्रवृत्ति नथी. वली जे मुनि द्रव्यथी तथा भावथी सुधा भाषे के० सत्य बोले एटले द्रव्य ते पट् द्रव्यादिक अने भाव ते तेना पर्याय अथवा द्रव्यथी बाब वस्तु अने भावधी अभ्यंतर वस्तु ते सत्य कहे. इत्यादिक अनेक मकारे ते जिनेश्वरनी वाणी कहिये तेने साची कडे एटले शुद्ध परुपक होय. इतिभावः ॥३॥
मूल उत्तर गुण संग्रह करता, तजता भिक्षा दोषो। ' पग पग व्रत दृषण परिहरता, करता संयम पोपो ॥ धन्य०४॥
अर्थ-मूलगुण जे पंच महाव्रतादिक अने उत्तरगुण पिंडविशुद्धयादिक तेनो संग्रह करता के० राखता. बली भिक्षा जे गोचरी तेना तालीश दोप तेने तजता के० छांडता. पग पग के०क्षणे क्षणे व्रतनां दुपण जे अतिचार तेने परिहरताथका ए रीते संयमने पोषे के० पुष्ट करता रहे छे ॥४॥
मोह प्रतें हणता नित आगम, भणता सद्गुरु पासें । दृपम काले पण गुणवंता, वरते शुभ अभ्यासें ॥ धन्य० ५॥
अर्थ-तथा शुभ अध्यवसाय करी मोहरूप शत्रुने हणता तथा नित के निरंतर आ. गम के सिद्धांनने सद्गुरु पासथी भणता एवा विपम काळे पंचम आरे पण गुणवंता पुरुप छे ते रुढे अभ्यासे वर्तेछे एटले पूर्वाद्धमां जान कर्तुं अने पश्चिमाईमा क्रिया कही ।।५।।
छटुं गुणठाणं भव अडवी, उलंघण जेणे लहिउँ । तस सोभाग सकल मुख एके, केम करि जाए कहिउं ॥ धन्य०६।।
अर्थ-प्रमत्तनामा छठे गुणठाणुं ते केवु छ ? जे भवअटवी उलंघण के० संसाररूप 'अटवीनो पार पमाडनारुं छे ते जेणे लहिरं के० पुरुषे पाम्यु. यत:-"भवाटवीलंघनतुल्यमेतत, प्रमत्तनाम क्रिययासमेतम् । गुणगणस्थानमसंख्यद्धया, प्रमादहानैः प्रवरं प्रमाप्त्या ॥१॥" ते मुनिराजनुं समस्त सौभाग्य ते एके मुखे शी रीते कयु जाय ॥६॥
गुणठाणानी परिणति जेहनी, न छीपे भव जंजाले। रहे शेलडी ढांकी राखी, केतो काल परालें ॥ धन्य०७॥ अर्थ-जे पुरुपने गुणठाणानी परिणति थइ होय एटले गुणगणुं परगम्यु होय वेनी
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( १०६ ) परिणति भव जंजाळ के० संसार विटंबनामां छीपे नहीं के० छानी रहे नहीं. ते पुरुष संसारमां रह्योथको पण उदासीनज देखाय केनी पेठे जेम शेलडीने पराले करी ढांकी राखी होय ते केटलोक काळ रहे. आगळ जतां अंकुरा फूटे त्यारे प्रगट थाय पण छानी न रहे ॥८॥ तेहवा गुण धरवा अणधीरा, जो पण सूधुं भाषी ।
जिनशासन शोभावे ते पण, सुधा संवेग पाखी ॥ धन्य० ८ ॥ अर्थ-ते मुनिराजना पूर्वोक्त गुण धरवाने जे अणधीरा के० असमर्थ होय एटले एवा गुण जे साधु घरी शके नहीं तोपण सूधुं भाषी के शुद्ध परुपक होय अने देशना प्रमुख गुणे करीने जिनशासनने शोभावे तेने पण सुधा के शुद्ध संवेगपक्षी कहीयें यतः - "संविग्गपवित्रयाणं, लक्खणमेयं समासओ भणिअं । ओसन्नचरणकरणावि, जेण कम्मं विसोर्हति ॥ १॥ सुद्धं साधम्मं, कह निंदर य निययमायारं । सुतवस्सियाण पुरओ, होइ सव्वोमराइणिओ ||२||" इत्युपदेशमालायां ॥ ८ ॥
सहहणा अनुमोदन कारण, गुणथी संयम किरिया ।
व्यवहारें रहिया ते फरसे, जे निश्चय नय दरिया ॥ धन्य० ९ ॥
अर्थ - सद्दहणा के० तत्वश्रद्धा अनुमोदन के० गुणवंतनी प्रशंसा करवी तथा कारण के० मोक्ष साध्यनां साधन इत्यादिक गुणथी के० पूर्वोक्त गुणे करीने जे व्यवहारमार्गे रह्या एवा जे पुरुष तेणे फरसे के० संयमक्रिया फरसीज एम जाणवुं केमके ते निश्चयनयरूप मतना समुद्र छे. यतः - " सद्दहणानाणणणु मोयणकारणगुणा परेसिं जे || णिच्छयववहारविऊ, तेसिं किरिया भवे भावा ॥१॥” इति संमतिवृत्तौ ॥ ९ ॥
दुःकरकारथकी पण अधिका, ज्ञान गुणे इम तेहो ।
धर्मदास गणी वचने लहियें, जेहने प्रवचन नेहो ॥ धन्य० १० ॥
अर्थ - दुःकरकारथकी के० दुख थाय एवा कष्टना करनारा होय अने अल्प आगमना घणी होय तो शा काम आवे तथा कष्टादिक थोडं ओलुं होय अने ज्ञानी पुरुष होय तो ते ज्ञान गुणे करी कष्टना करनारथी अधिका कह्या छे एम धर्मदास गणीए उपदेशमाला मध्ये क छे यतः - " नाणाहिओ वरतरं, हीणोचि हु पवयणं पभावंतो । नय दुकरं करंतो सुछुवि अप्पागमो पुरिसो ॥१॥" ॥ इति वचनात्. ते धर्मदासगणी केवा . जेने प्रवचन के० आगमने विषे घणो स्नेह हतो ॥ १० ॥
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सुविहित गच्छ किरियानो धोरी, श्री हरिभद्र कहाय ।
एह भाव धरतो ते कारण, मुझ मन तेह सुहाय ॥ धन्य० ११ ॥ अर्थ-सुविहित के० भला आचारवंत गच्छ के जेहनो वली क्रियावंतमां घोरी समान एवा श्री हरिभद्रसूरि ९४४४ ग्रंथना कर्त्ता शाखकारे कला छे ते एह भाव के ए संवेग
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(१०७) पक्षीना भावने धरनार हता ते कारणे मारा चित्तमां पण ने सुहाय छ गमे छे एटले ते संवेगपक्षी शुद्धपरुपफ यथाशक्तिये क्रियावंत हता माटे मारा मनमां ने घणा गमछे ॥११॥
संयमठाण विचारी जोता, जो न लहे निज साखें । । तो जुहूं वोलीने दुरमती, शुं साधे गुण पाखे || धन्य० १२ ।।
अर्थ-चली मंयमठाण के संयमनां स्थानक असंख्याता छे ते विचारी जोतां के विचारतां जो पोतानी साखें न लहे के न देखे संयमनी बात तो मोहोटी छे ते आगमने मेटे जुए तो पोतामां क्यांधी देख वो जुठं वोलीने संयम विना संयमी नाम धरावीने दुरमति के० हे दुष्टमतिना धणी गुणपाखे के० गुण विना शुं साये छे टाली महेनत क्या करे हे. यन:-"अमंजए संजयमण्णमाणे, पावसमणेनि बुचट" । इत्युत्तराध्ययन वचनात् ॥१२॥
नवि माया धर्मे नवि कहे, परजननी अनुवृत्ति । धर्म वचन आगममां कहिये, कपट रहित मन वृत्ति ॥ धन्य०१३॥
अर्थ-नवि मायाधर्मे के० धर्मने विपे माया नथी एटलं माया करतां धर्म न होय बलो परजननी अनुवृत्ति के० परना अनुजायीपणे अथवा परने आवर्जनअर्थ नवि क. कधमंदगना प्रमुख धर्मवचन न कहg एम आगम जे उपदेशमाला तेमा कहिय के० वक्रोक्तिये कहिये ये एटले ऋणु छे. यतः-"धम्ममि नत्यि माया, नय कवडं आणुवत्तिभणियं वा। फुडपागडमकुडिल्लं, धम्मवयणमुजुयं जाण ॥१॥" इत्युपटेशमालायां. ते धर्मवचन कई छे जे कपटरहिन सरल मननी वृत्ति होय ए रीने धर्मवचन कहे ॥ १३ ॥
संयम विण संयतता थापे, पाप श्रमण ते भाष्यो। उत्तराध्ययने सरल स्वभावे, शुद्ध परुपक दाख्यो । धन्य० १४ ॥
अर्थ-चली पोतामां संयम न होय अने संयमता यापे एटले साधुपणुं ठेरावे जे अमे साधु छैये ते मुनिने पाप साधु को हे तेमाटे सरल के. रुजुखभावनो धणी ते रुजुस्वभावे करीने शुद्ध प्ररुपक कया छे एटले सरल स्वभावी होय ते शुद्ध कहे माटे होय तेवुज कहवं. यत:-"सम्ममाणि पाणाणि, चीयाणि हरियाणि य । असंजए संजयमन्त्रमाणे, पावसमणे ति बुच्चड ।। १ ।।" इत्युनराध्ययने सतरमे अध्ययने ॥ १४ ॥
एक वाल पण किरियानये ते, ज्ञान नये नवि वाला । सेवा योग्य सुसंयतने ते, वोले उपदेश माला ॥ धन्य० १५॥
अर्थ-एक बाल के० कोडक वाल छे पण किरियानयें के क्रियामा शिथिल छे एटले क्रियानये चाल छे पण जाननयनी अपेक्षायें तो वाल नथी के० गीतार्थ शुद्ध भापी छे ते गीतार्थ मुसंयत के० भला क्रियावंत साधुने पण सेक्वा योग्य छे एटले क्रियावंत मुनि ते
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(१०८) क्रिया रहित गीतार्थनो वैयावच्च करे एम उपदेशमाला मध्ये कधूछे. यतः-"हीणस्सवि मुद्धपरुवगस्स, नाणाहियस्स कायव्वं । जणचित्तग्गहणत्य, करिति लिंगावसेसेवि ॥१॥॥१५॥
किरियानये पण एक बालते, जे लिंगी मुनि रागी । ज्ञानयोगमा जस मन वरते, ते किरिया सोभागी ॥ धन्य० १६ ॥ अर्थ-जे क्रियानयनी अपेक्षायें बाल छे एटले क्रियावंत नथी शिथिल क्रियावंत छे एवा ने लिंगी के. केवल साधु लिंग मात्र राखे छे पण जो मुनि रागी के० गुणवंत मुनिना रागी छे एटले पोते गुणवंत नयी पण गुणीना रागी छे ते पोते पण ज्ञानी थाय ते माटे कहे छे जे ज्ञानयोगमा जस मन वरते के० ए रीते जेतुं मन ज्ञानयोगमां वर्ते छे तेनी अल्प क्रिया पण सोभागी के० सोभाग्यवंत जाणवी. इहां अल्प क्रिया एवो अर्थ करियें तो पूर्वापर संबंध मलें एटले ए भाव जे पोते अल्प क्रियावंत होय पण सुनिनो रागी छे तो ए रीते ज्ञानयोगमा वर्चतां अल्पक्रिया पण सौभाग्यवंती जाणवी ॥ १६ ।।
बालादिक अनुकूल क्रियाथी, आपें.इच्छा योगी । अध्यात्म मुख योग अभ्यासें, केम नवि कहियें योगी ॥धन्य० १७॥
अर्थ-आ के पोते इच्छायोगीथको रहे एटले योग त्रण मकारना कह्या छे १ इच्छा योग २ शास्त्रयोग ३ सामर्थ्ययोग तथा पुनः "१ श्रद्धानाविकलो २ वाक्याविकलं ३ शक्त्यनतिक्रम" इति योगनिर्णये. ए त्रण योगमा प्रथम इच्छायोग ते श्रद्धा अविकलथकां आ के० पोते श्रद्धावंत अने क्रियावंत होय तो ते क्रियाथी वालादिक अनुकूल के बालजीव मार्गना रागी थाय एटलामां एवडो गुण छे तो अध्यात्ममुख के० अध्यात्मममुख योगसाधनना ग्रंथोनो अभ्यास करे एटले अहोरात्री अध्यात्ममां मान रहे ते पुरुषने योगीश्वर केम न कहियें एटले श्रद्धावंतथको क्रिया करतो बालजीवने उपकारी थाय छे अने साधु कहेवाय छे तो अध्यात्ममां मग्न रहेतां साधुसुनिने योगी केम न कहीयें ॥ १७ ॥
उचित क्रिया निज शक्ति छाडि, जे अति वेगे चढतो। ते भवथिति परिपाक थया विण, जगा दिसे पडतो॥धन्य०१८॥ अर्थ-वली अध्यात्ममार्ग पण पोतानी उचित शक्तिये क्रिया करतो साधे अने यथाशक्ति क्रिया मूकीने शक्ति उल्लंघन करे तो तेने गुण न थाय माटे जेटली पोतानी शक्ति होय तेटलीज क्रिया करवी एजें नाम उचित क्रिया कहिये ते रीते न करे अने जे अति वेगे चढतो के शक्तियी अधिक करे एटले ए भाव जे शक्तिने अभावें उपवास करे छठ प्रमुख करे अथवा आवापना लेवे इत्यादिक काम करतो ते प्राणी पण भवस्थिति परिपाक थया विना जगतमां पडता देखीयें छैये एटले ए भाव जे शक्ति उलंघन करीने अधिक क
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( १०९ )
रवा जाय अने भवस्थिति पाकी नथी तेथी तेने शुकमालिका प्रमुखनी पेठे परिणाम टकेज नहीं परिणाम पडताज होय. इतिभावः ॥ १८ ॥
माचे मोटाइमां जे मुनि, चलवे डाकडमाला ।
शुद्ध परुपण गुण विण न घटे, तस भव अरहटमाला ॥ धन्य० १९ ॥
अर्थ- वली जे मुनि पोतानी मोटा मां माचे के० रीझ पाये एटले थोडी क्रिया प्रमुख आवडी होय तेमां मग्न रहे जे असे समजु छैयें तथा डाकडमाल चलावे एटले लोकमां आडंबर घणो देखाठे पण शुद्ध परुपक गुण विना तेनी भव के० संसाररूप अरहटनी माला ते घटे नहीं ओछी धाय नहीं एटले शुद्धपरुपक गुण विना संसार ओछो न थाय ॥ १९ ॥ निज गण संचे मन नवि खंचे, ग्रंथ भणी जन वंचे । लुंचे केश न मुंचे माया, तो व्रत न रहे पंचे ॥ धन्य० २० ॥
अर्थ - निजगण के० पोतानो जे गच्छ समुदाय तेने संचे के० भेला करे जे अमारा श्रावक श्राविका साधु साध्वी इत्यादिक उपर ममत्व करे मन नवी खंचे के० पोतानुं मन aणी वृत्तियी खेंची राखेज नहीं ग्रंथभणी के द्रव्यने अर्थे जनवंचे के० लोकने ठगे अथवा ग्रंथ के० सिद्धांतशास्त्र भणी के० अध्ययन करीने लोकने ठगे उत्सूत्र परुपणा करी लोकने दुर्गतियें लेड जाय ए रीते जे लुंचे केश के० मस्तके केशनुं लोच करे अने न मुंचे माया के० कपट के नहीं तो ते प्राणीना पांच महाव्रतमां एके न रहे ॥ २० ॥
योग ग्रंथना भाव न जाणे, जाणे तो न प्रकाशे ।
फोकट मोटाइ मन राखे, तस गुण दरें नासे ॥ धन्य० २१ ॥
अर्थ - जे की आत्मस्वरूप सधाय एवा जे योग ग्रंथ के० परमार्थना शास्त्र तेना भाव के० रहस्यने न जाणे के० ओलखे नहीं समजे नहीं अने कदाचित् जाणे तो प्रकाशे नहीं भव्यजीवने ते ग्रंथोनी वातो कहे नहीं कारण के जो तेवी वातो कहे तो पोताने तेमज करवृं पढे वली फोकट मोटाइ के० मिथ्या अभिमान राखे जे अमे मोटा छैयें अमारा जेवो कोइ नथी एवो अहंकार राखे तस गुण के० ते प्राणीमां जो कोइ गुण होय तो ते पण दूर नाशी जाय. एम छता गुण पण जाय तो अणछतानुं कहेवुज ॥ २१ ॥
मेले वेशें महियल म्हाले, बक परें नींचो चाले ।
ज्ञान विना जग धंधे घाले, ते केम मारग चाले ॥ धन्य० २२ ॥
अर्थ-मेले वेरों के० वस्त्रादिक मलिन राखे अने महियल के० पृथ्वीने विषे म्हाले मलपतां फरे वली बगलानी पेठे नीचुं जोइने चाले जेथी लोक जाणे ईर्ष्या जूवे छे एवा
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(१९०) होय अने जो ज्ञानी होय तो सर्व लेखे छे पण ज्ञान विना एटले अनानीथका जगतने धंधे के० क्लेशमां घालता फरे एवी कप्रक्रिया करनारनां वचन लोक माने अने ते पोते तो ज्ञान विनानोछे माटे अशुद्ध प्ररुपे ते वारे लोकने पण अज्ञान उपदेश लागे माटे जगतने.कदाग्रह रूप क्लेशमा नात्युंज. इतिभाव. तो एवा अज्ञानीथकी जैनमार्ग केम चाले यत:-"मासेमासे य जो वालो, कुसग्गेणं तु झुंजए । न सो मुअक्खायधम्मस्स, कलिं अग्घड सोलसि ॥१॥" वया "अन्नाणी किं काहि" इत्यादि उत्तराध्ययन नवम अध्ययन वचनात् ।। २२ ॥
पर परिणति पोतानी माने, वरते आरत ध्याने। बंध मोक्ष कारण न पीछाने, ते पहिले गुणठाणे ॥ धन्य० २३॥ अर्थ-पर परिणति के पारकी समजण ते पोवानी करी माने एटले पर अज्ञानीनी मते चाले अथवा पर परिणति के पुद्गल शरीर वस्त्रपात्रादिकना जे परिणमन ते अज्ञाने करीने तन्मयपणे परिणमतो सर्व पोतानीज परिणति माने अथवा पर जे स्वव्यतिरिक्त लोकनां घर वेना के परिणमन के० घर व्यापारचं चितवq ते पोवार्नु करी माने अने तेथी आर्तध्याननो विकल्प करे यतः-"सयं गेहं परिचन्ज, परगेहंसि वावडे ।" इत्युत्तराध्ययन वचनात्. माटे पोतानुं पर मुकी परघरनी चिता करे तो पापश्रमण कयोछे इतिभावः। अने बंध मोल कारण के बंधनां कारण जे मिथ्याल अविरति कपाय योग प्रमाद प्रमुख जे बंधना हेतु ते न पीछाने के० न जाणे मोक्षनां कारण जे कपायादिकनो अभाव अथवा ज्ञानक्रिया प्रमुख एटले 'नाणकिरिया मुक्खो' इति वचनात् ।। इत्यादिक मोक्षना हेतु छे ते पण न पीछाने के० न जाणे एवा अज्ञानी पाणी ते गमे तेटला कष्टादिक करे वोपण अज्ञानी छे माटे पहेले गुणठाणे जाणवा. यदुक्तं " नाणेण विणा चरणं, पढमगुणहाणपुहिकरं ।" इत्युपदेशमालावृत्तौ ॥ २३ ॥
किरिया लव पण जे ज्ञानीनो, दृष्टि थिरादिक लागे। तेथी सुजश लहिजें साहिब, सीमंधर तुझ रागे ॥ धन्य० २४ ॥
अर्थ-ते मारे ज्ञानीनो के ज्ञानवंतनो क्रियानो लव के एक अंशमात्र पण जे पांचमी थिरानामा दृष्टि तिहां लागतो होय एटले सम्यक्त सहित होय आदि शब्दयी कांता प्रभा परा ए प्रण दृष्टि लड़ये तेथी के० ते ज्ञानसहित क्रियाना अंशथी हे साहेव मुजश लहिजे के० भलो जश पामियें मोक्षरूप उत्कृष्टो जश पामिये पण ते हे श्रीमंधर परमात्मा तुझ रागे के तारे स्नेहे करीने पामियें ॥ २४ ॥
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: (१११ ) ॥ ढाल सोलमी ॥
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ए पनरमी ढालनी कोइक गाथामां ज्ञाननी मुख्यता करी कोइक गाथामां चारित्रनी मुख्यता करी तथा कोइक गाथामां बेहुनो स्याद्वाद को ते सांभली कोइक शिष्यने व्यामोह उपजे जे वारे स्थितपक्ष ते शो हशे ते शंका टालवाने सोलमी ढालमां स्याद्वाद मार्गनो स्थितपक्ष देखाडे छे ॥
॥ सफल संसार अवतार ए हुं गणुं ॥ ए देशी ॥
स्वामी सीमंधरा तुं भले ध्याइयें, आपणो आतमा जेम प्रकट पाइयें । द्रव्यगुणपज्जवा तुझ यथा निर्मला, तेम मुझ शक्तिथी जइवि भव सामला १
अर्थ - हे, सीमंधरसाहेव तुझने मनमां ध्याइयें एज भले के० भलुंछे जेम तमारा ध्यानथी आपणो के० पोतानो आत्मा ते प्रगट पामिये तमारा ध्यानथी ज्ञानी थइयें ते ज्ञाने पोतानो आत्मा आवरणरहित थयो तेवारे आत्मभाव पाम्याज इति भावः । तेवारे यथा के० जेम १ द्रव्य २ गुण ३ पर्याय ते तुझ के० तमारा निर्मल छे ए त्रणनां लक्षण कहे छे. यथा “गुणाणमासओ दव्वं, एगदव्वस्सिया गुणा । लक्खणं पज्जवाणंतु, उभओ निस्सिया भवे || १ ||" इत्युत्तराध्ययने २८ मोक्षमार्गाध्ययने. अथवा गुणपर्यायनुं भाजन ते द्रव्य सहभावी धर्म ते गुण क्रमभावी ते पर्याय इत्यादिक व्याख्यान ग्रंथांतरथी जाणवुं. ए रीते जेम तमारुं आत्मद्रव्य असंख्यात प्रदेशरूप तथा तमारा ज्ञान दर्शन चारित्रादिक अनंत गुण तेमां समय समय उत्पाद व्ययपणानुं परणमनुं तथा अनंत अगुरु लघु प्रसुख जे पर्याय ते सर्व निर्मल थया निरावरण थया ते रीते मारे पण शक्तिथी के० ( यद्यपि व्यक्तिथी नथी तोपण ) शक्तिये छे ते 'जइवि के० यद्यपि भवके० संसारने विषे सामला के० मेला छे एटले आवरण सहित छे एटलो फेर छे ॥ १ ॥
चार छे चेतनानी दशा अवितथा, बहुशयन शयन जागरण चोथी तथा । मिच्छ अविरत सुयत तेरमें तेहनी, आदि गुणठाणे नयचक्र मांहे मुणी ॥ २ ॥
अर्थ - ते माटे चेतनानी अवस्था वर्णवे छे चेतनानी अवितथा के० साचीदशा चार छे ते देखा छे १ वहु शयन के० घोर निद्रारूप ते पहेली २ शयन के० चक्षु मिचवारूप वीजी ३ जागरण के० कांइक जागवारूप त्रीजी ४ चोथी तथा के० पूर्वे कही तेमज एटले बहु जागरणरूप इतिभावः । हवे ए चार अवस्थाने गुणठाणे फलावे के आदि गुणठाणे ए पद सर्वत्र जोडियें एटले बहु शयननी आदि मिच्छ के० मिथ्यात्व गुणठाणो अने बीजी
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(११२) शयन अवस्थानी आदि ते अविरति सम्यक्दृष्टि गुणठाणो तथा त्रीजी जागरण अवस्थानी आदि ते सुयत के० अप्रमत्त सातमो गुणठाणो ४ वहु जागरण अवस्थानी आदि ते सयोगी केवलीनामा तेरमो गुणठाणो छे तेहनी के० ते अवस्थाना आदि गुणठाणा ते प्रथम धुर गुणठाणा ए रीते जोडजो एटले ए अर्थ जे बहुशयन दशा ते १-२-३ गुणठाणे कहेवी अने शयन दशा ते ४-५-६ ए त्रण गुणठाणे कहेवी अने जागरण दशा ते७-८-९-१०-११ -१२ ए छ गुणठाणे कहेवी अने बहु जागरण ते १३-१४ ए वे गुणठाणे कहेवी ए रीते अमने मुज्यो तेवो अर्थ लख्यो वली जे बहुश्रुत होय जेणे नयचक्र ग्रंथ जोयी यथार्थ कखं स्तवनकर्चाए तो नयचक्रमां मुणी के० नयचक्रमा गुणठाणानी आदि जाणी एम कयु वे नयचक्र ग्रंथ हमणां अमारी पासे नयी माटे विचारजो ॥२॥
भाव संयोगजा कर्म उदयागता, करम नवि जीव नवि मूलते नवि छता। खडीयथी भित्तिमां जेम होए श्वेतता, भित्ति नवि खडीय नवितेह भ्रमसंगता ॥३॥ अर्थ-भावपदार्थ जे संयोग संबंधयी उपना कर्मने उदये आव्या ते भाव कर्म नथी जीव नथी मूलथी ते छतापणे नथी जेम मिचि के० भीतमाहे खडीय के० खडीथी श्वेतवा धवलता थाय छे वो ते धवलवामां भीत नथी अने खडी पण नथी अन्योन्ये भिन्न छे पण भ्रमे करी संगती जैक्यता मलति थाय छे ॥३॥ आ गाथानो अर्थ ज्ञानविमलसरिना टवा उपरथी लख्यो छे ॥३॥
देह नवि वचन नवि जीव नवि चित्तछे, कर्म नवि राग नवि द्वेष न विचित्तछे। पुद्गली भाव पुद्गलपणे परिणमें, द्रव्य नवि जूउं जूउं एक होवे किमे ॥४॥
अर्थ-देह के शरीर नथी औक्यतापणे वचन वाचिक योग नयी जीव नयी चित्त नथी कर्म नयी राग नथी द्वेष नथी विचित्त छे के० विचित्रता अनेक जाति छे ए सर्व पुगलिक भाव छे ते पुद्गलपणे परिणमे.केमके पुदलनु अनेक प्रकारे परिणमन धर्म के 'पूरणगलणधर्माणः' पुगलनु र लक्षण छे ते माटे जीवादिक जे द्रव्य छे ते सर्वथकी जूदोजूदो छे ते एक केम होय ? उपचारे एक कहियें ॥ ४ ॥ आ गाथानो अर्थ ज्ञानविमल सूरिना टवाथी लख्यो छे ॥४॥
पंथी जन लुंटतां चोरने जेम भणे, वाटे को लुटिये
तेमज मूढो गिणे । एक क्षेत्रे मल्या अणुतणी . . देखतो, विकृतिए जीवनी प्रकृति उवेखतो ॥५॥
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( ११३ )
अर्थ - जे पंथी लोकने लुटतांथकां चोरने कोइ के० कोइक पुरुष एम कहे जे लुंटे छे पण ते चोर वाटने लुंटता नथी पण वाटे के० वाट जे मार्ग तेने विष रह्या जे लोक ते लुटाय छे पण लक्षणे एम कहे छे जे वाट लुंटी. तेमज मूंढो के० मूर्ख ते शरीर तथा आत्मा प्रमुखने एक करी गणे छे शा माटे जे एक क्षेत्रे मल्या के० जे क्षेत्रे आत्मा तेज आकाश प्रदेशे मल्या परस्पर संबंध थयो एंवा जे अणुतणी के० परमाणुनी विकृति के विकारने देखतो के० देखीने मूर्ख एम गणे छे. अने जीवनी प्रकृति जे खभाव तेने उवेखतो के० लेखांमां अणगणतो थको जीव तथा शरीरादिकने एकपणे गणे छे पण एम जाणतां नथी जे पुद्गल ने जड छे अचेतन छे, अने आत्मा तो ज्ञानस्वरुपी छे ते एक केम थाय. इतिभावः ॥ ५ ॥
देहं कर्मादि सविकाज पुहलतणां, जीवना तेह व्यवहार माने घणां । सयल गुणठाण जीअठाण संयोगथी, शुद्ध परिणाम विण जीव कारय नथी ॥ ६ ॥
१०
अर्थ - ते मा देह के० शरीर तथा ज्ञानावरणादि कर्म अने आदि शब्दयी घरवार प्रमुख ए सर्व पुद्गलनां कार्य के पुद्गलथी नीपनां छे ते पुद्गलनां कार्यने जीवनां कार्य कही बोलावे छे ते व्यवहार माने घणां के० ते व्यवहार नयथी जीवनां कार्य कहीयें पण निवय नये तो सर्व पुद्गलस्वरूप छे. सयल गुणठाण के समस्त मिध्यालादिक गुणस्थानक तथा जी ठाण के समस्त एकेंद्रियादिक जीवस्थानक इत्यादिक सर्व प्रकार ते संयोगथी के० पुंगल कर्माटिकना संयोगथी जाणवा पण ए आत्मस्वरूप नहीं केमके शुद्ध परिणाम के० समस्त उपाधि रहित जेना प्रदेशने विषे एक अणुमात्र पण भेल नथी एवं जे शुद्ध स्वरूप विना जीव कारय नथी के० जीवरूप कार्य नथी ॥ ६ ॥
नाणदंसण चरण शुद्ध परिणाम जे, तंत जोता न छे जीवथी भिन्न ते । रत्न जेंम ज्योतिथी काज कारण पणे, रहित एम एकता सहज नाणी मुणे ॥ ७ ॥
अर्थ - ज्ञान दर्शनं तथा चारित्र इत्यादिक अनंत जे शुद्ध आत्माना परिणाम छे ते तंत नियतपणाथी जोड़ तो कांइ जीव थकी भिन्न नथी केमके ज्ञानादिक गुण जो भिन्न होय तो आत्मा निर्गुण जडपणे मानवो जोइयें ते तो नथी माटे जीवयी ज्ञानादिक गुण भिन्न नथी, जेम स्फटिक रत्न प्रमुख पोतानी ज्योतिथी भिन्न नथी. शा माटे जे काज कारणपणे कहेतां कां पूरवनुं नथी केमके जो रत्नथी ज्योति यह एम कहियें तो ज्योति विना रत्न हतुंज नहीं माटे रत्नथी ज्योति थइ एम कहेवाय नहीं. तथा ज्योतिथी रन थयुं एम पण
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न कहेवाय केमके रन विना ज्योति पण क्या हती ते माटे कार्य कारणपणे रहित छे. एम के० ए रीते आत्मा तथा आत्मगुण ते भिन्न नथी सहज के सहज स्वभावे अभेद छे बैक्यता छे ए वात नाणी मुणे के० जे ज्ञानी होय ते जाणे पण मूर्ख समजे नहीं ॥७॥
अंश पण नवि घटे पूरण द्रव्यना, द्रव्य पण केम कहुं द्रव्यना गुण विना । अकल ने अलख एम जीव अति तंतथी, प्रथम अंगे वंदिउं अपदने पद नथी ॥८॥
अर्थ-संपूर्ण द्रव्यना जे अंश कहेवा ते पण युक्त नथी केमके जे वारें अंश कहीयें ते वारें द्रव्य पण शा. " एग निचं निरवयवं, अक्कियं सव्वगं च सामन" इति महाभाष्य वचनात. जे द्रव्य ते सामान्य छे अने जे सामान्य ते निरवयव छे तथा द्रव्य पण केम कहुं द्रव्यना गुण विना के द्रव्य संबंधी जे गुण ते विना द्रव्य पण केम कहेवाय ? कारण के "गुणाणमासओ दवं." इत्युत्तराध्ययने २८ मे अध्ययने द्रव्य लक्षणं. तथा "गुण पर्याय बद्रव्य" इति तत्वार्थवचनात् तथा पर्याय नयवालानी युक्तियें तो द्रव्य छेज नहीं परमार्थ पर्यायज स्वतंत्र छे यथा उत्फण विफणादिक द्रव्य ना कहेवाय ते माटे द्रव्य नथी वो द्रव्यना गुण क्याथी होय जेम गाम न होय तो ते गामनी सीम क्याथी. इत्यादिवत् महा भाष्यमां जोजो एटले ए भाव जे अंश पण न कहुं अने द्रव्य पण न कहेवाय युक्तिये तो एम आव्यु अने आगममा वो अंश सहित पण द्रव्य कहियें एम छे गुण पर्यायवत् दन्यं ए वचन सुचवे छे ते माटे अकल के० कल्यो न जाय अने अलख के लख्यो न जाय ए रीतनो जीव० के० आत्मा ते अति तंतथी के० अत्यंतपणे निश्चयथकी जाणवो एटले काइ कहेवाय नहीं. यतः-"विक्खातरए सव्वे सरा नियति, तका जत्थ विज इ मई तत्थ न गहिया ओए अप्पइछाणस्स खेयने से ण दीहे ण हस्से न बट्टे न तंसे न चउरंसे न परिमंडलेन किन्हे न नीले न लोहिए न हालिद्दे न मुकिल्ले न सुरभिगंधे न दुरभिगंधे न तित्ते न कहुए न कसाए न अविले न महुरे न कक्खडे न मउए न गरुए न लहुए न सीए न उन्हे न निद्धे न लुक्खे न काओ न रूहे न संगे न इत्थी न पुरिसे न अनहा परिने सन्ने उवमा न विजए . अरूवी सचा अपयस्स पयं नत्यि" ॥ इत्यादिक आचारांग पंचमाध्ययने छठे उद्देशे का छे ते मांहेला विषम पदोनो अर्थ करिये छै— विक्खात के० मोक्ष तेने विषे रए के राता सचे सरा के० ते मोक्ष स्वरूप के छे ते कहे छे सर्व स्वर निवृत्या छे एटले कोइ शब्द वाच्य नयी तका के० विचार जे आम हशे के आम हशे ते कडेवाय नहीं मति जे औत्पातकी प्रमुख तेनो ग्रह जेने विषे नथी ते पण ओए के एकलु छे पण कर्म कलंक सहित नथी अप्पइठाणस्स के० उदारिकादिक शरीरचं प्रतिष्ठान नयी तथा खेअन्ने के० लोकालो
कर्नु ज्ञायक छे तथा न काओ के० काय नयी न रूहे के० संसारमा उगवु नथी अनहा - के नपुंसक नयी परिने के समस्त प्रकारे जाण छे सन्ने के० सम्यक् जाणे छे तथा अ
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(११५) पयस्स पयं नत्थि के० अवस्था विशेप जे पद ते नथी जेने ते अपद कहिये एटले अपद ते सिद्धने पद के. जे अभिधान ते नथी एटले सिद्धने कोइ नामे कही बोलावी ते नथी. इति भावः ॥ ८॥
शुद्धता ध्यान एम निश्चयें आपनु, तुझ समापत्ति
औषध सकल पापर्नु । द्रव्य अनुयोग संमति प्रमुखथी लही, भक्ति वैराग्यने ज्ञान धरिये सही ॥९॥
अर्थ-शुद्धता के० शुद्ध स्वरूप जे ध्यान तेहिज पोतानु निश्चयरूपें जाणवू. माटे हे प्रभु सर्व पापर्नु समापत्ति औषध सर्व दोप नाशन रसायन ते एकहिज छे जे शुद्ध उपयोग. लक्षण ते. अने पट द्रव्यनी विचारणा रूप अनुयोग संमतिमहावादि ग्रंथथकी जाणीने साहिवनी विधि सेवा पूर्वक निराशंसतारूप भक्ति वैराग के विषय विमुखता ज्ञान ते शुन्द्र उपयोग निश्चयथकी एहीन चित्तमां धरीय कार्य साधकता एहिज छे एटले भक्ति दशा, बैगग्यदशा, जानदशा ए त्रण कार्य साधकता छे विहां चोथो गुणठाणो भक्ति मुख्ये पांचमी छटो गुणठाणो वैराग्यदशा मुख्ये क्षीणमोहादिक गुणठाणो ज्ञानदशा मुख्ये इत्यादि द्रव्यभावें सर्व जाणवी. मुख्यता गुणतायें एकें त्रणे एक इत्यादि व्यक्तता ग्रंथांतरथी जाणवी ॥ ९ ॥ मा गाथानो अर्थ ज्ञानविमल मरिना टवा उपरथी लख्यो छे, ॥९॥
जेह अहंकार ममकारनुं बंधनं, शुद्ध नय ते दहे दहन जेम इंधनं । शुद्ध नय दीपिका मुक्ति मारग भणी, शुद्ध नय आथि छे साधुने आपणी ॥१०॥ अर्थ-जे अहंकार के० मान ममकार के० ममख तेनुं बंधनं के० कारण एटले अहंकार तथा ममकारनु मूल राग द्वेप छे ते राग द्वेपथी अहंकार तथा ममकार होय ते राग द्वेपने दहन जेम इंधन के० जेम अनि लाकडांने पाली नाखे तेनी पे शुद्ध नय के० आत्मतत चिंतनरूप ध्यान ते दहे के वाले एटले शुद्ध ध्यानयी राग द्वेष वली भस्म थाय. शुद्ध नय के निश्चय नय ते मोक्षमार्गनो दीवो छे केमके मोक्षमार्गे गमन करतां अजवाल करे माटे जे शुद्धनय तेज साधुने आपणी के० पोतानी आथी के० संपत्ति छे. यतः-"दीपिका खलु निर्वाणे, निर्वाणपथदर्शिनी । शुद्धात्मचेतना या च, साधूनामक्षयो निधिः॥१॥" इति योगनिर्णये ॥ १० ॥
सकल गणी पिटकनुं सार जेणे लघु, तेहने पण परम सार एहज कह्यु । ओघनियुक्तिमा एह विण नवि मिटे, दुःख सवि वचन ए प्रथम अंगे घटे ॥११॥
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(. १९६.) अर्थ-गणी के० आचार्य तेना सकल के० समग्र गुणरूप रत्ननी पिटक के० पेटी एट द्वादशांगीरूप जे गणीनी पेटी तेनो सार के० प्राधान्यपणुं ते जेणे ला के० जाण्यु छे एहवा समस्त द्वादशांगीना जाणने पण परम सार के प्रधान रहस्य परम सार ते एज शुद्ध नय परिणमनरूप कयुं छे ए द्वादशांगीना जाणने पण निश्चय नयज सार कल्यं छे तो बीजानी शी वात एम श्री ओघनियुक्तिमध्ये कयु छे. यत:-" परमरहस्समिसीणं, समतगणिपिडगझरियसाराणं । परिणामियं पमाणं निच्छयमवलंवमाणाणं ॥१॥” इति. तो एह विण के० ए निश्चयनय समज्या विना दुःख के० पाप ते नवि मिटे के न टले तथा कोइक प्रतमा एह विण न घटे एम लख्यु छे ते नवि घटे के० दुःख ओछु न थाय माटे बेहुनो भावार्थ एकज छे ए सर्व वचन प्रथम अंगे घटे के श्री आचारांग सूत्रमा घटमान छे युक्त छे 'जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ जे सव्वं जाणइ से एगं जाणड' इत्यादि पाठगत् ॥११॥
शुद्ध नय ध्यान तेहने सदा परिणमे, जेहने शुद्ध व्यवहार हीयडे रमे ॥ मलिन वस्त्रे यथा राग कुंकुमतणो, हीन व्यवहार चित्त एहथी नवि गुणो ॥ १२ ॥
अर्थ-एटलीवार शुद्धनयनी मुख्यतायें बात कही हवे कोइक एम सांभलीने एकांत . निश्चयनयज अंगीकार करे अने व्यवहारनय लेखामां गणेज नहीं तेने शिक्षा करे छे जे पूर्वोक्त प्रकारे शुद्धनयतुं जे ध्यान तेतो ते माणीने सदा निरंतर परिणमे जे माणीने शुद्ध व्यवहार संयमानुष्ठान प्रवृत्तिरूप हीयडे रमे के० हृदयने विषे रमे तेना उपर दृष्टांत कहे छे जेम मेला वस्त्रने विषे कंकुनो अथवा केसरनो रंग न लागे तेमज हीणा व्यवहारवंतनाचितने नवि गुणो के० गुण न होय एटले व्यवहार विना निश्चय परिणमे नहीं ॥ १२ ॥ - जेह व्यवहार सेढी प्रथम छांडता, एक ए आदरे - आप मत मांडतां । तास उतावले नवि टले आपदा, क्षुधित इच्छायें उंबर न पाचे कदा ॥ १३ ॥
अर्थ-जे पाणी व्यवहार श्रेणीरूप जे अनुक्रम ते तो प्रथम छांडे छे तथा एक ए आदरे के एकलो ए निश्चय नयज आदरे छे आप मत मांडता के० पोतानुं मत दृढ करवां एक भवस्थिति उपर दृढ थया छे पण उधम करता नथी तो तेनी उतावळे आपदा टले नहीं एटले एकलो निश्चय पोकारवाथी संसार परिभ्रमणरूप आपदा टले नहीं जेम क्षुषित के. भूख्यानी इच्छायें वरना फल कदापि न पाके एटले उंबरफल ते जलसेवादिक क्रियाये पाके पण इच्छा मात्र न पाके. इतिभावः ॥ १३ ॥
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(१९७) भाव लव जेह व्यवहार गुणथी भले, शुद्ध नय भावना तेहथी नवि चले । शुद्ध व्यवहार गुरुयोग परि
णतपणुं, तेह विण शुद्ध नयमां नहि ते घणुं ॥१४॥ अर्थ-भाव के० रुडा अध्यवसायनो लव के० अंश ते पण व्यवहार परनालिकारूप गुणथी भलतो होय एटले व्यवहारसहित होय तो शुद्ध नयभावना के शुभ अध्यवसायनी जे भावना घोलना ते ते पाणीथी नवि चले के० खसे नहीं एटले शुद्ध नयनी भावना वे तो तेवारे स्थिर थाय के जो व्यवहारयुक्त होय. अन्यथा क्षण तोलो क्षण मासो थाय ते शुद्ध व्यवहार तो गुरुयोग के० गुरुना संयोगे एटले गुरुकुलवासें निर्मल व्यवहार थाय ते शुद्ध व्यवहारथी परिणतपणुं के० परिपकपणुं होय एटले शुद्ध नयमां परिपक्क तो जे शुद्र व्यवहारवंत होय तेहल थाय अन्यथा शुद्र व्यवहारविना शुद्ध नय ठेरी शके नहीं. अने तेह विण के० ते गुरुयोग शुद्ध व्यवहारविना शुद्ध नयमां के० अध्यात्ममां नहीं ते यणं के० ते जे परिणितपणुं ते घणुं न होय एटले गुरुकुलवासे शुद्ध व्यवहार अने शुद्धव्यवहारे परिपकपणुं नियमां निश्चलपणुं होय इति. एटले जो गुरुयोग व्यवहार शुद्ध होय तो शुद्ध नयमां परिपकना होय ।। १४ ।।
केइ नवि भेद जाणे अपरिणतमति, शुद्ध नय अतिहि गंभीर छे ते वती। भेद लव जाणतां केइ मारग तजे, होय अति परिणति परसमय स्थिति भजे ॥ १५ ॥
अर्थ-ए रीते केटलाफ प्राणी अपरिणतमति के० अपरिणामी तेने नवि भेद जाणे के० अनेक प्रकारनी खबर न पढे इहां भेद ते अपवाद उत्सर्ग निश्चय व्यवहार प्रमुख जाणवा ते न जाणे अपरिणतमति गद्धे व्यवहारनयवाला लीजिये ते केम न जाणे जे शुद्धनय अतिहि गंभीर छ के० उपला नय ते अत्यंत गंभीर छे एटले ए भाव जे आगला १ नैगम २ संग्रह ३ व्यवहार ए त्रण नय यद्यपि अपरिणतमति जाणे पण निश्चय नय तो अति गंभीर उपयोगरूप नयमा खवर न पढे. इति भावः । एटले जे व्यवहार नय एकलो माने तेने ठपको दीयो हवे एकलो निश्चयनय माने तेने उपको दे छे. केटलाक प्राणी भेद लव जाणतां के० भेदनो अंशमात्र जाणतां मार्गने वजे के० छांडी दे एटले अंशमात्र काइक शिख्युं सांभल्यु छे ते वचन जाणे तेथी महा अहंकार धरता एम जाणे जे निश्चय खरूपनी वातो आपणे जाणिये छैयें एवी वीजो कोण जाणे छे अने आपणे आत्मस्वरूप जाण्यु एटले क्रिया | काम छे क्रिया तो ज्ञाननी दासी छे इत्यादिक वचन वोली क्रिया न करे अने मार्ग छांडे एवी रीते जे अति परिणामि थाय ते शुं करे तें कहे छे.जे समय जे सिदांत तेनी पर. के० उत्कृष्ट स्थिति ते मर्यादा तेने भजे एटले सिद्धांतमा उत्कृष्टी स्थिति
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(११) ने निश्चयनयनी वाती करवी ते भजे के करे अथवा परसमयस्थिति भजे के अन्यदर्शननी स्थिति भजे एटले एकांत निश्चय नयवादी दिगंवरादिक ते परदर्शनी कहिये ते वारे पण परदर्शनी स्थिचि भजी. इति भावः ॥१५॥
तेह कारण थकी सर्व नय नवि कह्या, कालिकश्रुत मांहें तीन प्रायें लह्या। देखी आवश्यकें शुद्ध नय धुरें भणी, जाणिये उलटी रीतिबोटिकतणी ॥ १६ ॥
अर्थ-ते कारणथकी निश्चय परिणामी ते एकली परिणामनी वातो करीने मार्ग उपाडी नांखशे एवुजाणीने १ नैगम २ संग्रह ३ व्यवहार ४ रूजुसूत्र ५ शब्द ६ समभिरूढ ७ एवंभूत ए सर्व नय नथी कह्या, केम नथी कह्या ते कहे छे कालिकश्रुत माहे के० आचारांगादिक कालिकश्रुतने विषे तीन पायें लह्या के० बहुलतायें १ नैगम २ संग्रह ३ व्यवहार ए त्रण नय लख्या छे. ए वात ग्रंथकार शिष्यने कहे छे जे देखी आवश्यके के आवश्यक नियुक्तिमा देखजो एटले कालिकश्रुतमां माये त्रण नय कया छे एम आवश्यक नियुक्तिमां कडं छे. यता-" एएहि दिहिवाए, परुवणा मुत्तअत्थकहणाए । इह पुण अणभुवगमो, अहिगारो तीहिं ओसन्न ॥१॥पायं संववहारो, ववहारं तेहिं विहिं उजलोए, नेणं परिकम्मणत्थं कालियमुने वदहिगारो ॥२॥" इत्यावश्यके. एरीततो श्वेतांवर पक्षे छे. जे पूर्व व्यवहार समजावीने पछे निश्चयनी वात समजावे इति. तथा हवे दिगंवरनी प्रक्रिया दूखवे छे जे शुद्ध नय धूरें के निश्चय नय धूरे छे ते माटे वोटिक के दिगंवरनी रीति ते उलटी के विपरीत जाणीयें जे माटे पहेलांथी निश्चय नय समजावे एटले व्यवहारमा दृष्टि ठरेज नहीं माटे विपरीत कहि. इति भावः ॥ १६ ॥
शुद्ध व्यवहार छे गच्छ किरिया थिति, दुप्पसह जाव तीरथ कथु छे नीति ॥ तेह संविज्ञ गीतार्थथी संभवे, अवर एरंड सम कोण जग लेखवे ।। १७ ॥
अर्थ-ते माटे व्यवहार ते प्रधान छे ते शुद्ध व्यवहार तो सुविहित गच्छ जे साधुसमुदाय तेनी क्रियानी जे स्थिति तेमा छे एटले शुद्धव्यवहार ते सुविहित गच्छमां होय दुम्मसहनामा आचार्य जे पांचमा झाराने छेडे थशे जाव के तिहां लगें नीति के निरंतर तीर्थ कयुं छे. यतः-" इय सव्वोदययुगपवरसूरिणो चरणसंजुए वंदे । चउरुत्तरदुसहस्स, दुप्पसहते मुहम्माइ ॥१॥” इति दुसम संघ स्तोत्रे तथा "वासाण वीससहसा, नवसय ति मास पंच दिण पहरा ।इका घडिया दो पल, अक्सरइगुआल निणधम्मो॥१॥” इति दीवाली कल्पे ॥ ते तीर्थ तो गीतारथ संविज्ञ होय तेथीज संभवे एटले "नाणकिरियाहि मुक्खो" ॥इति भाज्य वचनात्. एटळे ज्ञानक्रियाथी मोक्ष ते ज्ञानक्रिया तो गुण छे अने जे गुण छे ते गुणीथी
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(११९) अभेदरूप ले माट संविज्ञ शब्द क्रियावंत आन्या अने गीतार्थ शब्दे ज्ञानवंत आव्या ते . संविज्ञ गीतार्थथी जे वीजा ते एरंडा सरिखा जाणवा तेने जगतने विषे कोण लेखामां गणे ॥१७॥
शास्त्र अनुसार जे नवि हठे ताणियें, नीति तपगच्छनी ते भली जाणियें ॥ जीत दाखे जिहां समय सारु बुधा, नामने ठाम कुमते नहीं जस मुधा ॥ १८॥
अर्थ-ते संविज्ञ गीतार्थ परमाय तो तेने कहिये जे शास्त्रने अनुसारे इठे ताणे नहीं भावना अक्षर देख एटले पोतानो कदाग्रह मूकी आपे एवी रीती तो तप गच्छनी भली के० घणी उत्तम छ एटले तप गच्छमां पंचांगी प्रकरणादिक जे मुविहितना करथा ग्रंथ ते सर्व प्रमाण छ एम जाणिय इति भावः । जिहां के० जे तप गच्छने विपे बुधा के० पंडित लोक ते समय सारु के सिद्धांत प्रमाणे जीत दाखे के वर्तमान कालनो जीत देखाडे हे जे तप गच्छनां नाम अने ठाम के स्थानक ते कुमते के० कदाग्रहे सुधा के० फोकट जस के. जेना नहीं क. नथी एटले ए तप गच्छनां जे नाम ठाम ते सर्व गुण निष्पन्न छ ।॥ १८ ॥
नाम निथ छे प्रथम एहनुं कडं, प्रथम अडपाट लगें गुरु गुणे संग्रा | मंत्र कोटी जपी नवम पाटे यदा, तेह कारण थयुं नाम कोटिक तदा ॥ १९ ॥
अर्थ-हवे तप गच्छनां नाम धुरथकी अनुक्रमे निप्पन छे ते कहे छे मथम श्री सुधर्माखामीथी निग्रंथ एहचुं नाम मथम कयं ते प्रथमना आठ पाट लगे गुरु गुणे के० मोहोटे गुणे निस्पृहतारूप गुणे करी संग्रा के ग्रां छे पछे नवमे पाटे सुस्थित मुमतिवद्ध आचार्य कोटीवार मरिमंत्र जपीने रह्या वीजा आचार्य ते चारलाख तथा सवालाख मंत्र जपे एटले मरिमंत्र पुरी थयो अने ए वे आचार्य कोटीवार जप्यो ते कारण के० ते हेतुयें नेवारे कोटीक नाम कहेवाणुं एटले ए नाम पण गुण निष्पन्न छे पण कोइ मत कदाग्रहे नथो ॥१९॥
पंनरमे पाटें श्री चंद्रसूरे कह्यु, चंद्र गच्छ नाम निर्मलपणे विस्तयुं । सोलमे पाट वनवास निर्मम
मति, नाम वनवासी सामंतभद्रो यति ॥ २० ॥
अर्थ-ते कोटिक गच्छ चउद पाट लगें चाल्युं ते चार पछी पन्नरमे पाटें श्री वजसेनाचार्यना शिप्य चार थया ते लक्षमूलनी हांडी न्यवहारीयाने घरे चडी तेवारे वीजे दिने
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(१२०) मुफाल थशे ऍम कही जीवाड्या ते व्यवहारीयें तथा तेना चारपुत्रे उपकार जाणी चारित्र लीधु ते चार शिष्यनां नाम १ नागेंद्र २ चंद्र ३ विद्याधर ४ निवृत्ति ए चार थया ते चारे आचार्य पद पाम्या तेमां चंद्रनामा आचार्य पनरमे पाटे थया तेओथी नोजो चंद्रगच्छ एवं नाम निर्मलपणे विस्तार पाम्यु ते पण गुण निष्पन्न थयु पण मत कदाग्रहे थयु नथी. पछे सोलमे पाटे वनमा वस्या ममखरहित जेनी मति इति एवा आचार्य थया माटे वनवासी नाम चोथु कहेवाणुं ते आचार्यतुं नाम सामंतभद्र यति के जितेंद्रिय हतुं ॥ २० ॥
पाट छत्रीसमें सर्वदेवाभिधा, सूरि वडंग तिहा नाम श्रवणे सुधा । वडतले सूरिपद आपीउं ते वती वलीय तस बहु गुणे जेह वाध्या यति ॥ २१ ॥
अर्थ-तथा छत्रीशमे पाटे सर्वदेवाभिध नामे सूरि थकी वडना झाडतलें सरिपद आप्यु माटे वड गच्छ विरुद थयु ते श्रवणने विषे सुधा के. अमृतसमान जाणवं एटले वडना झाड हे आचार्यपद आप्यु माटे वड गच्छ अने वली ते आचार्यने गुणवन यतिनो समुदीय बहु वृद्धि पाम्यो एटळे साधुनो समुदाय ते वडनी पेठे विस्तार पाम्यो तेथी वंडगच्छं कहेवाणो ए नाम पण गुण निष्पन्न छे ते माटे वड गच्छ नाम थयु ॥ २१ ॥
सूरि जगचंद जग समरंस चंद्रमा, जेह गुरु पाटे चर्ड अधिक चालीसमां ॥ तेहं पाम्यु तपा नाम बहु तप करी, प्रगट आघाट पुरी विजयकमला वरी ॥२२॥
अर्थ-पछे जगवचंद्रसरि जे जगतने विषे उपशम रसे करी चंद्रमा सरिखा थया एटले चंद्रमा अमृतरसे भरथो तेम आचार्य ते समतारसे भरेला मोटा पाटना धणी च अधिक चालीसमां के० चुम्मालीसमे पाटे थया तेणे श्री आंविल वर्द्धमानादिक बहुतप करीने मगटपणे आघाट के उदयपुर (चीचोड)ने विषे राणोजी हस्ती उपर चढी आवता हता तेवारें श्री जगच्चंद्र सूरि वर्द्धमान तप लागट करता दुर्वल शरीरना धणी सन्मुख आवता हता त्यारे राणे प्रधानने पूछयुं जे ए कोण आवे छे प्रधाने कयुं हे महाराज घणा मोहोटा तपना करनार आचार्य आवे छे त्यारे राणोजी हस्ति उपरथी हेठा उतरी नमस्कार करीने महातपा एवं विरुद दीधुं त्यारे मधाने कधु महाराज महापद काडी नाखो नहीतर लोक महा तपाने ठेकाणे महात्मा कहेशे ते मारे महा पद न कहो ते सांभली राणाजीयें तपा नाम दीधु ए पण गुण निप्पन्न छटुं नाम थयु पण तपा एवं नाम कदाग्रहथी थयुं नथी. तथा विजय कमला वरी के० राणाजीनी सभामां चौरयासी वादीयोने जीतीने जय लक्ष्मी वरथा त्यारे राणे हीरला जगच्चंद्र सूरि कही वोलान्या ॥ २२॥
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( १२१ )
एह षट नाम गुण ठाम तप गणतया, शुद्ध सदहण गुण रयण मां घणा ॥ एह अनुगत परंपर भणी सेवता, ज्ञानयोगी विबुध प्रगट जग देवता || २३ ॥
अर्थ - ए घट नाम के० ए पूर्वोक्त छ नाम ते केवां के जे गुणनां स्थानक छे ते तप गण तणा के० तपगच्छना जाणवा शुद्ध सद्दहणा के० शुद्ध श्रद्धावंत गुणरयण के० गुणरूप रत्न ते ए तप गच्छमां घणा के एटले श्रद्धावंत गुणवंत घणा के ए अनुगत परंपर के० स्वतंत्र परंपरा आवी एटले जेनी परंपरामां त्रुट पडी नथी तेनुं नाम अनुगत परंपरा कहियें तेभणी के० ते माटे सेवतां के० सेवा करता एवा कोण छे जे ज्ञानयोगी विबुध के० ज्ञान संयोगवंता पंडित अनुगत परंपरानी सेवा करे छे. इति योगः । प्रगट जग देवता के० ए जगतने विषे प्रगटपणे देवताज छे एटले पंडित लोक शुद्ध परंपरानीज सेवा करे ॥ २३ ॥
कोई कहे मुक्ति छे विणतां चिथरां, कोइ कहे सहज जमतां घर दहिथरां ॥ मूढ ए दोय तस भेद जाणे नही, ज्ञान योगे क्रिया साधतां ते सही ॥ २४ ॥
अर्थ- हवे सर्व अधिकार कहीने छेडे निश्रय तथा व्यवहार नय फलाववा ते फलावे छे. aise व्यवहार नय वादी कहे छे जे विणतां चिथरां के० पडिलेहणा पडिकमणादिक तथा फाटां तुटां वस्त्रादिक परतां इत्यादिक कष्ट करतां मुक्ति के के० मुक्ति पामियें तथा कोइक निश्रयवादी एम कहे छे जे सेहेज रीते घरने विषे दहिथरां जमतां उपलक्षणथी प्रवर मोदक प्रमुख लेवा एटले निश्चय नयवाला कहे छे जे कष्ट करे शुं थाय खुब खानुं पीवुं पण तत्व ज्ञान पयुं एटले सिद्धि जाणवी. एबी जूदी जूदी रीतना बोलनारा ते बेहु मूढ के सूर्ख छे एटले ते मोक्ष साधवानो भेद के० प्रकार जाणता नयी केमके ज्ञानने संयोगे क्रिया सासही के० ते मुक्ति सत्य छे. यतः- “ नाणकिरियाहिं मुक्खो" इति वचनात् तथा"हयं नाणं कियाहिणं, हया अन्नाणओ किया ॥ पासंतो पंगुलो दट्टो, धावमाणो अ अंघओ ॥१॥ एवं सव्वे विनया, मिच्छादिठ्ठी सपक्खपडिवद्धा || अन्नोन्ननिस्सिया उण, हवंति ते चैव सम्मत्तं ॥ २ ॥ इत्यादिक आवश्यक निर्युक्ति वचनात् ॥ २४ ॥
०
सरल भावें प्रभो शुद्ध एम जाणतां हुं हुं सुजश, तुझ वचन मन आणतां ॥ पूर्व सुविहिततथा ग्रंथ जाणी करी, मुझ होजो तुझ कृपा जव पयोनिधि तरी ॥ २५ ॥
- या हे भी एम के० ए रीतें सरल स्वभावें करी बेहु नये सिद्धि के ए रीते
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(१२२) जाणतां पण कपटे नहीं जे कहे एक अने चित्तमां वीजें होय एम कपटसहित नहीं तथा तुझ वचन मन आणतां के पूर्व ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः एम जाणतां तथा मन आणतां के० मवित करता थकां मुजश के० भलो जे जश ते हुं पासु एटले सुनिराज प्रमुख मुविहित लोक भलो जश वोले एवी स्याद्वाददृष्टि केम थयी ते कहे जे जे पूर्व सुविहिततणा के० पूर्वाचार्य श्री हरिभद्रसरि तथा धर्मदासगणी भाष्यकारजी उमाखाति वाचक प्रमुखना जे ग्रंथ ते जाणी करीने सम्यक् ज्ञाने करी स्याद्वाददृष्टि थयी ते एवी दृष्टितो प्रभुकृपाथी थाय ते माटे मन पासे मार्थना करे छे जे भव पयोनिधि के जे संसारसमुद्र तेने विषे तुझ कृपा के तमारी दया तद्रूप तरी के० जहाज ते मुझ होजो के मारे थजो एटले संसारसमुद्रमा तमारी कृपारूप जहाज मारे थजो ॥ २५ ॥
Press॥ ढाल सतरमी॥
ए सोलमी ढालने अंते स्याद्वाददृष्टिनी सिद्धि कही एवी दृष्टि पोतानी थयी तेथी उपनो जे हर्ष ते हर्षे करी सतरमी ढालमा वोले छे.
॥ कहखानी देशी॥ आज जिनराज मुज काज सिद्धां सवे, विनति माहरी चित्त धारी ॥ मार्ग जो में लह्यो तुझ कृपा रसथकी ॥ तो हुइ संपदा प्रगट सारी ॥ आज० ॥१॥
अर्थ-हे जिनराज आज के. जे दिवसे स्याद्वाददृष्टियें भोलखाण थयुं ते दिवसे कविश्वरतुं वर्तमान छे ते मारे आज कहिये ते आजे मारां जे कार्य ते सर्व सिद्ध थयां शा माटे जे मारी विनति चित्तमां परमेश्वरे धारी यद्यपि परमेश्वर तो वीतराग छे कोइनी विनति चिचमां घरता नयी तोपण परमेश्वरनी भक्तिज निज कार्य भक्त लोकने थयु माटे कारणे कार्योपचार करीने कहेछे के जो तुज कृपारूप रसथकी में मार्ग लयो के हुँ मार्ग लह्यो के हुँ मार्ग पाम्यो अने ते मार्ग रूप सारी के० मनोहर संपदा माहरे प्रगट थयी ॥१॥
वेगलो मत हुजे देव मुझ मन थकी, कमलना वन थको जेम परागो । चमकपाषाण जेम लोहने खेंचसे, मुक्तिने सेहेज तुझ नक्तिरागो। आज० ॥२॥
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(१२३) अर्थ-माटे मारा मनथकी वेगला मत थजो एटले घटमां रहेजो जेम कमलना वनथकी परागो के० वासना दूर रहेती नयी एटले जेम कमलनी वासना ते कमलना वनमां रहे तेम तमे मारा चित्तमां रहेजो चमक जातीनो कोइ पत्थर विशेष ते जेम लोहने खेंचसे के. जेम लोढाने खेंचे एटले ए पत्थरनो एवो सेहेज खभावछे जे लोडं वेगलं होय तोपण तिहाथी पोतानी मेले आवीने पत्थरने वलगे ते रीते तमारा उपर माहरो जे भक्तिराग के ते खभावे मुक्तिने खेंचशे ॥ २ ॥ तुं वसे जो प्रभो हर्पनर हीयडले, तो सकल पापना बंध तूटे ॥ उगते गगन सूरयतणे मंडले, दह दिशि जेम तिमिर पडल फूटे॥आ०॥३॥
अर्थ-हे प्रभो हर्प भर्यु जे मारूं हीयुं तेने विषे जो तुं वसे तो समस्त जे भवांतरे पापना बंध करया छे ते तूटी जाय. तिहां दृष्टांत कहे छे जे गगन के० आकाशनेविषे सूर्यना विमानन मंडल ते उगे थके दहदिशि के० दशे दिशाने विषे जेम तिमिर के० अंधकार ने पडल ने समूह ते फूटे के नाग पामे तद्वत् पाप पडल तूटे ।। ३ ।। सींचजे तुं सदा विपुल करुणारसे, मुझ मने शुद्धमति कल्पवेली। नाण दसण कुसुम चरण वरमंजरी, मुक्ति फल आपशे ते एकेलीआमा४॥
अर्थ-विपुल करुणा रसें के विस्तारवान करुणारूप रसें करीने माहारा मनने विषे शुद्ध मतिरूप कल्पवृक्षनी वेली ते हे स्वामी तुं सिंचजे इति भावः । ते सिंच्या थका ज्ञान दर्शनरूपतो फूल आवशे तथा प्रधान चारित्ररूप मंजरी के० मांजर लागशे तेवार पछे मुतिरूप फलने आपशे ते एकली के० ते शुद्ध मतिरूप कल्प वेलडी एकली आपशे ॥४॥ लोक सन्नाथकी लोक बहु वाउलो, राउलो दास ते सवि उवेखे । एक तुझ आणसुंजेहरातारहे, तेहने एह निज मित्र देखे ॥ आज०॥५॥ ___ अर्थ-लोकसंज्ञा जे गाडरियो प्रवाह ते थकी लोक बहु पाउलो के० घणो लोक घेलो थयो छे पण राउलो दास के० राजानो दास एटले तमारो दास एवो जे हुं ते सर्व गाडरिया प्रवाहने उखु छु एटले गणतरीमा आणतो नथी मात्र एक अद्वितिय तुझ आणी जे राता रहे के तमारी आज्ञाथी जे रंगाणा छे तेने ए मारो आत्मा ते पोतानो मित्र करी जाणे छे एटले तमारी आणाथी जे वाह्य छे तेने उवेखु छ पण तमारी आज्ञावंतने साथर्मिक संबंधपणा माटे मित्र करी जाणुं छु. इति भावः ॥५॥ आण जिन नाण तुझ एक हुं शिर धरूं, अवरनी वाणी नविकाने सुणियें। सर्व दर्शन तणुंमूल तुझ शासनं, तेण ते एक सुविवेक थुणियें। आज०॥६॥
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अर्थ-हे जिन के० सामान्य केवलीमां भाण के० सूर्य सरिखा तारी एक अद्वितीय आज्ञा ते हुँ मस्तके धरुं अने अवर के० वीजानी वाणी ते काने सांभलिये नहीं एटले वीतरागनी आज्ञा आदरीये पण अवर जे रानी द्वेषी तेनां वचन कानेन परियें. इति भावः॥ सर्व दर्शन के० सम्यक्त केमके सकल नय श्रद्धायें सम्यक्त. यदुक्तं महाभाष्ये-“यावइया वयणपहा, तावइया वा नया विससदाओ। ते चेव य परसमया, सम्मतं समुदिया सन्वे ॥१॥" इति वचनात्. ते माटे समकित मूल ते तुझ शासन के तमारी आज्ञा छे अथवा पटदर्शननुं मूल ते तुझ शासन एटले सर्व दर्शन ते तमारा दर्शनना अंश छे ते माटे तमारी आज्ञा वेज एक अद्वितीय भला विवेके करी स्ववियें छैयें एटले सर्व दर्शननुं मूल छांडी अवरनी स्तवना कोण करे. इति भावः ॥६॥ तुझ वचन राग सुखसागर हुँ गएं, सकल सुर मनुज सुख एक बिंदु । सार करजो सदा देव सेवकतणी,तुंसुमति कमलिनी वन दिर्णिदु |आ७॥
अर्थ-तमारा वचन उपर में राग एटले जैनागमनो जे राग तद्रूप ने मुख समुद्रना समूह ते आगल समस्त देवता तथा समस्त मनुष्य चक्रवादिकनां सुख ते एक विदु समान हुँ गणुं के हुँ मानु छ ते माटे हे देव सदा सर्वदा तमारो हुँ सेवक छु तेनी सार के० संभाल करजो एटले तमारा सरिखो करजो तमे मुमतिरूप जे कमलिनी तेजु जे वन तेने विपे दिणिंदु के० सूर्य सरिखा छो एटले सूर्य जेम कमलिनीने विकवर करे तेम मुमतिरूप कमलिनीने तमे विकखर करो एटले तमारायी मुमति आवे. इति भावः ।। ज्ञान योगे धरी तृप्ति नवि लाजियें, गाजियें एक तुझ वचन रागें। शक्ति उल्लास अधिको हुसे तुझथकी, तुंसदा सकल सुख हेत जागे|आलावा ___ अर्थ-ज्ञानयोगमां कृप्ति धरीने एटले ज्ञानमां मम रहीने क्रियानुष्ठान करता लाजिये नहीं पण सावधान थयीने एक तमारा वचनने रागें करी गाजियें एटले कोइक ज्ञानवादी क्रियानुष्ठान स्थापतो होय तेने आगम वचने करी गाजीने जवाव आपियें ए रीते प्रव
तां तुझ थकी के० तमारा वचन थकी एटले नमारी आज्ञा थकी शक्तिनो उल्लास पण अधिको थशे पण गलियां थयीने वेशी रहेतां वीर्योल्लास नहि वाघे उलटुं आलस वधसे. इति भावः। एवी रीते प्रर्वतन करतां कारणद्वारे कर्ताने फल देखाडे छे तुं सदा सकल के० तमे सदा निरंतर समस्त मुख जे सिद्धिनां मुख तेनो हेतु के० कारण ते जागे के० जागतोछे एटले 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष' ए प्रभुनु वचन छे ते वचन थकी भव्यप्राणी अजरामर मुख, भाजन थाय ते माटे सिद्धिनो हेतु पण तुंहिज थयो. इति भावः ॥ ८॥ वड तपागच्छ नंदनवने सुरतरु, हीरविजयो जयो सूरिराया । तास पाटें विजयसेन सूरिसरू, नित नमे नरपति जास पाया। आ०||९||
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अर्थ-श्री जगचंद्रसरियें तपा विरुद धरान्यु ए मोहोटो नप गच्छ तद्रूप नंदनवनने विषे मुरतरु के० कल्पक्ष समान श्री हीरविजयसरि जयो के० जयवंतो वः सरिराया के. वीजा आचार्यमां राजा सरिखा थया तेहने पाटें श्री विजयसेनसूरि सर्व आचार्योमा ईश्वर तुल्य थया जेमना चरणकमलने नरपति के० पादशाह ते निरंतर नमस्कार करता हवा. एटले ए भाव जे पादशाह शहांगीरे पटदर्शन परीक्षाने अर्थे सर्व दर्शनीने तेडाव्या तेमां जैन दर्शन मांहेला श्री विजयसेनसूरि गया हता तेमणे सर्व दर्शननो पराजय कर्यो तेवारें पादशाहे कयुं जे श्री हीरविजय ते गुरु अने तमे सवाइ गुरु थया इति भावः ॥९॥
तास पाटे विजयदेव सूरिसरू, पाट तस गुरु विजयसिंह धोरी | जास हित सीखथी मार्ग ए अनुसखो,
जेहथी सवि टली कुमति चोरी ॥ आज० ॥ १० ॥ अर्थ-तेने पाटे श्री विजयदेवसूरि थया तथा तेमना पाटें श्री विजयसिंहसरि ते गछनो भार वेहेवाने तृपभ समान धोरी थया जेमनी हीच सीख के० में ए संवेगमार्ग आदरयो एटले ए भाव जे श्री यशोविजयजी उपाध्यायें पण एनी आज्ञा पामीने क्रियाउद्धार करयो तथा श्री विजयसिंहसरिना शिष्य अनेक हता तेमां सत्तर शिष्य सरखति विरुद धारी हता ते सर्वमां मोहोटा शिष्य पंडित श्री सत्यविजय गणी हता तेमणे श्रीपूज्यनी आज्ञा पामी क्रियाउद्धार कीधो ते माटे कयुं जे मार्ग ए अनुसरयो के० ए संवेग मार्ग आदरयो जे आदरवा थकी तीर्थकर अदत्त गुरु अदच इत्यादिक कुमति कदाग्रहरूप चोरी टली गयी ए श्री तपगच्छना आचार्योनी परंपरा कही ॥ १० ॥
हीर गुरु शीस अवतंस मोटो हुओ, वाचकां राज कल्याण विजयो । हेम गुरु समवडे शब्द अनुशासने, शीस तस विबुध वर लाभ विजयो ॥ आज० ॥ ११ ॥
अर्थ-हवे उपाध्यायजी पोतानी परंपरा कहे छे ते पूर्व कह्या श्री विजयहीरसरि तेना शिष्य समुदायमां अवतंस के० मुकुट समान महोटा थया वाचकां राज के० उपाध्यायोमा राजा सरिखा एवा श्री कल्याणविजय उपाध्याय थया ते शब्द अनुशासने के० व्याकरण शास्त्रमा तो हेम गुरु समवडे के० श्री हेमाचार्य सरिखा थया वली तेमना शिष्य विवधवर के० सर्व पंडितमां शिरोमणि एवा श्री लामविजय गणी थया ॥ ११ ॥
शिस तस जितविजयो जयो विबुध वर, नयविजय विबु ध तस गुरु भाया ।। रहिअ काशी मनें जेहथी में भलें, न्याय दर्शन विपुल भाव पाया || आज० ॥ १२ ॥
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अर्थ-वली तेमना शिष्य एक श्री जितविजयजी जयवंता पंडितोमा प्रधान सरिखा तथा बीजा श्री नयविजयजी पंडित प्रधान थया ते श्री जितविजयजीना रुडा गुरुमाइज थया जेहथी के बेहु गुरुना पसायथी हुँ रहिअ काशी मनें के० काशीना मठने विषे रहीने भली रीते न्याय दर्शन के० न्याय शास्त्रना भाव ते विपुल के० विस्तार पणे पाम्यो ।॥ १२॥
जेहथी शुद्ध लहियें सकल नय निपुण, सिद्धसनादि कृत शास्त्र भावा ॥ तेह ए सुगुरु करुणाप्रभो तुझ सु गुण, वयण रयणायरी मुझ नावा || आज० ॥ १३ ॥ अर्थ-जे गुरुना प्रसाद थकी श्री सिद्धसेन दिवाकर तथा आदि शब्दयी हरिभद्रसरि उमाखाति वाचक प्रमुख पंडितोनां करेला जे शास्त्र तेमां कहा जे भाव तेना शुद्ध लहियें के० शुद्ध रहस्य पामिये ते भाव केवा छे जे सयल नय निपुण के समस्त जे न्याय तेमा निपुण अथवा समस्त जैनागमादिक नय तेमां निपुण एवा जे संमति तत्वार्थ, षड्दर्शनसमुचय, नयचक्रसार, धर्मसंग्रहणी, अनेकांतजयपताका प्रमुख ग्रंथोना भाव तेना शुद्ध रहस्यने हुँ पाम्यो माटे ए गुर्वादिकनी जे करुणा के० कृपा ते केवी छे जे हे प्रभो तुझ के तमारु मुगुण वयण के० गुणवंत जे वचन तद्रूप रयणा यरी के० समुद्रने विषे नावा के० जहाज सरिखी छे एटले ए भाव जे जो गुर्वादिफनी करुणारूप नावा होय तो तमारा वचनरूप समुद्रनो पार ते पामिये, ते मारा गुरुनी कृपारूप नावा मारे थई ॥१३॥
॥ कलस ।। इम सकल सुखकर दुरित भयहर खामी सीमंधर तणी। ए विनती जे सुणे भावें ते लहे लीला घणी॥ श्री नयविजय बुध चरण सेवक जसविजय बुध आपणी । रुचि शक्ति सारु प्रगट कीधी शास्त्र मर्यादा भणी ॥१॥
॥ इति श्री सोमंधर जिन विज्ञप्तिः संपूर्णा ॥, अर्थ-हवे जेम नवो मासाद करावे तेने माथे कलश चढावे ते वारे संपूर्ण थाय तेम आ स्तवनरूप प्रासादनीपर्नु ते संपूर्ण करवा माटे कलश कहे छे ए रीते सकल मुखना करनारा तथा दुरित के० पापचं जे भय तेना हरवावाला एवा खामी के० नायक श्री सीमंधर प्रभुनी अमे विनति कही ते जे प्राणी भक्तिभावें करी सांभले ते पाणी घणी मुख लीला पामे. ए रीते श्री नयविजयजी पंडितना चरणकमळनी सेवना करनार श्री यशो
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(१२७ )
विजयजी पंडित तेमणे पोतानी शक्ति प्रमाणे श्रद्धाभावनी जे रुचि हती एटले स्याद्वाद मार्गनी रुचि जे पोताना चित्तमां हती ते शाखनी मर्यादाए प्रगट करी कही देखाडी इति ॥ १ ॥
॥ इति श्री सीमंधरजिनस्तवन टवार्यः समाप्तः ॥
क्केदं कर्तुर्वचः शस्तं, नानाशास्त्रार्थगर्भितं । व मेऽल्पविषया प्रज्ञा, घुसला गोपमा खलु ॥१॥ यदत्र चितथं प्रोक्तं, मंदबुद्धयादिहेतुना । तद्धीधनैः कृपां कृत्वा, मयि शोध्यममत्सरैः ॥२॥ श्रीमद्विजयसिंहाव्हः, मूरिराइविजितेंद्रियः । तस्यांतेवासी सत्यादिविजयः सान्वयः सुधीः ॥ ३ ॥ कर्पूरविजयस्तस्य, शिष्यो गुणगणैर्युतः । तस्यापि क्षमया युक्तः, क्षमाविजय इत्यभूत् ||४|| जिनादिविजयस्तस्य, शिष्योभूद् भूरिशिष्यकः । शास्त्रज्ञः सज्जनो धीमान्, कर्मठो धर्मकर्मणि ॥|५|| उत्तमादिजयस्तस्य, शिष्यः शिष्यैौघसत्तमः । सर्वोत्तमगुणैर्व्याप्तः, कर्मशास्त्रकुशाग्रधीः ||६|| तस्यांहिपंकजे पद्मविजयो भ्रमरोपमः । नमानिवचंद्रेन्दे १८३०, तेनेदं वार्तिकं कृतं ॥ ७ ॥
इति श्रीसीमंधर जिन स्तवन कवि महोपाध्याय श्रीयशोविजयजी कृत शार्द्धत्रिशत गाथा प्रबंधे तस्य कवि श्रीपद्मविजय गणी कृत बालाववोधः समाप्तः ॥
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