SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३०) महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. याम देवताने सार एटले प्रधान भक्ति छे. तथा च तत् मूत्रं-"अहण्णं भंते देवाणुप्पियाणं भत्तिपुव्वयं गोयमाईणं समणाणं निग्गंथाणं वत्तीसइ वद्धं नट्टविहि उवदंसेमि ॥" अर्थअहण्यं भंते देवाणुप्पियाणं भत्तिपुच्वयं के० सूर्याभ प्रभुजीने कहे छे. हु देवाणुप्रियनी भक्तिपूर्वक, गोयमाईणं समणाणं निग्गंयाणं के० गौतमादिक श्रमण निग्रंथने, बत्तीसइ बद्ध नविहि उवदंसेमि के० वत्रीश विधि नाटक देखाडु ? इति राय सेणी मध्ये, ए सूत्रमा भक्तिपूर्वक एवो पाठ छे. माटे जाणीए छैए जे सरियाभने भक्ति, प्रधान छे अने भक्तिना फल तो शुभ के० उत्तम कयां छे श्रीउत्तराध्ययन मोझार के० श्रीउत्तराध्ययन मध्ये अध्ययन ओगणत्रीशमे छे. तया च तत्साठः-" गुरुसाहम्मियसुस् इसणयाएणं मंते ! जीवे किं जणइ ? गुरुसाहम्मियमुस्मुसणयाए विणयपडिवत्ति जणइ । विणयपडिवनेणं जीवे अण्णचासायणसीले नेरइयतिरिक्खनोणियमणुस्सदेवदुग्गईओ निरंभइ. वण्ण जलणभत्तिवहुपाणयाए माणुस्सदेवमुगइओ निबंधइ । सिद्धिमुगइं च विसोहेइ । पसत्थाई च णं विणयमूलाई सम्बकजाइ साहेइ । अने य वहवे जीवे विणइमत्ता भवइ । " अस्यार्थ-गुरुसाहम्मियके साधर्मिकनी गुरुनी, मुस्मसणयारण के० सेवा करतो, मते के० हे भगवन् , कि जणइ के० शुं उपार्ने ? गुरु उत्तर कहे छे. गुरुसाहम्मियमुस्वसणयाए के गुरु अने साधर्मिकनी सेवा करतो, विणयपडिवत्ति के उचित कार्य अंगीकार करे, विणयपडिवनेगं जीवे के. विनयप्रतिपन्न जीव, अण्णचासायणसोले के० गुळदिकना अवर्गवाद न बोले, ते वारे नारकी विर्यचनी योनि तथा मनुष्य देवतानी दुर्गतिने रुधे, वण्ण के प्रशंसा, संजलणं के. गुणतुं प्रगट करवू, भत्ति के० अजलो प्रमुख करवी, बहु मान ते अंतर पीनि-एटलां वानां करतो मनुष्यनी अने देवतानो. सुगइयो निर्वधइ के सदगतिओ बांधे, सिद्धि सुगई चविसोहेइ के० सिद्धिरूप सदगति ते रनत्रय वेहने विशुद्ध करे, परभवे मुक्ति साधे. वली, अन्ने वहवे जीवे के वीजा घणा माणोओने, विणमइत्ता भवइ के० विनयवंत करे उक्तंच. "ठिो ठावए पर" इति. गाथार्थ ।। १५ ॥ ए सरियाभनो अधिकार एकज ए स्तवनमा देखाइयो. एम केटला कहीए ? सूत्रमांतो ठगम ठाम कह्यां छे, माटे अति देश करे छे. अंग उपांगे घणे कही, एम देव देवीनी भक्ति लालरे। आराधकता तेणे थई, इंहां तामली इंद्रनी युक्ति; लालरे ॥तु०॥१६॥ अर्थ-अंग के ज्ञातासूत्र प्रमुखने विषे देवीओ अनेक भवनपतिमा उपनीओछे. त्यां पण मूर्याभनीन रीति कही छे. तथा भगवतीमां इंद्रादिकनां नाटकघणां वखाण्यां छे. तया, उपांग के. जीवाभिगमादिकमां विजयप्रमुख देवतानो तथा तेवी रीते बीजा पण प्रण दरपाजाना घणी एमज कद्या छे. घणे कही के० एरोते घणे अंग उपांगे कहीछे. कहींक तो करी एवो पाउ छे. त्यां भक्ति करी, एवो अर्थ करीए. एम देव देवीनी भक्ति ए स्पष्ट छे.
SR No.010663
Book Title125 150 350 Gathaona Stavano
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDanvijay
PublisherKhambat Amarchand Premchand Jainshala
Publication Year
Total Pages295
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy