________________
( ४ )
प्रस्तावना.
साथै विचरतुं ए अति उत्तम के एवी सूचना, मात्र अहिंसामाज धर्म मानी पूजा प्रभावना आदिनो त्याग करनाराओने हेतु अहिंसा, स्वरूपअहिंसा अने अनुबंध अहिंसानुं स्वरूप दर्शा स्पाद्वाद शैलीथी सुबोध, पंचांगीनो त्याग करी मात्र सूत्रनेज प्रमाणभूत मानी प्रतिमा उपधान आदि क्रियाओने नहि माननाराओने हितोपदेश, द्रव्य श्रावकोना एकवीसगुणोतुं वर्णन, भावभावकोनां छ लक्षण अने सत्तरगुणोतुं वर्णन, भावसाधुपणं पामेला भावभावनां सात लक्षणोतुं वर्णन, पंचमकाळमां गीतार्थोए भूतव्यवहारमां करेल फेरफारनी प्रमाणता, सद्गुणी साधुओनी स्तुति, जीवनी निद्रादि चार दशा, जीव अने पुद्गaft भिन्नता, शुद्ध व्यवहारनी मुख्यता, तपगच्छनी स्तुति ज्ञाननी साथे क्रियानो आदर करवायी मोक्षनी संप्राप्ति आदि विषयोनो चितार स्पष्ट रीते आपेलो छे
था मूळ ग्रन्थो अति गहन होवाथी प्राकृत जनो उपर पण उपकारक नीवडे एवा शुभ आशयथी पंन्यासजी महाराज श्रीमत् पद्मविजयजी गणीए भात्रणे स्तवनोनो सविस्तर सरळ अने सरस अर्थ करेल छे ते महात्मा कथा गच्छना कया महात्माना शिष्य रत्न छे. इत्यादि आ स्तवनोने अंते आपेली प्रशस्तिनुं अवलोकन करवाथी मुज्ञात थड़ शके म होवाथी ते संबंधी अत्र कंपण उल्लेख करता नही. आ महात्माए साडामणसो गाथाना स्तवनना अर्थ करवामां ते स्तवन उपर ज्ञानविमळमूरिश्वरजी महाराजा ए करेल carनी पण सहाय लोधी छे ए बात " ए गाथानो अर्थ ज्ञानविमलसूरिना करेला टवा उपरथी लख्यो छे " आ ते महात्मानाम अक्षरोथी स्पष्ट रीते सुज्ञात थइ शके छे.
यद्यपि नीचे लखेली हकीकत अत्रे लखवानी आवश्यकता न हती. परतु भाषाज्ञानथी पण अनभिज्ञ छतां सर्वज्ञाभिमानी - कपोलकल्पीत कल्पनाओ करवामांज पोताना जीवननी सार्थकता माननार - सौराष्ट्र देशोत्पन्न- दंभमूर्ति रायचंद्र नामनी व्यक्तिनी निर्विचार शिरोमणिता, अधमता आदिनो किंचित् चितार आपना माटेज लखवानी जरुर पडी छे.
sahan निराकरणरूप भगवान महावीरस्वामीनो विनतिरुप दोढसो गाथाना स्तव - ननी बीजी ढाळनी अढारमी गाथा -
G
शतक दशमे अंग पश्चिमे, उद्देशे छठे इंद; लाल रे ।
दाढातणी आशातना, टाळे ते विनय मंदः लाल रे ॥ तु० १८ ॥ er गायानो सामान्य अर्थ करी विवेचन करतां नीचे सुजय लखे छे.
"इहां ए स्तवनने विषे तो दशमा शतकना छठा उद्देशानी शाख लखी, अने श्रीभगवती सूत्रमां जोवां तो दशमा शतरुना पांचमा उद्देश। मां ए पाठ छे. ते माटे जाणीए छीए जे कोइ धुरथीन लखनारनो दोप छे. अन्यथा उपाध्यायनी एम आगे नहीं एहवी प्रतीति छे. अथवा रामसवृत्तिए - अनाभोगे उपाध्यायजोए एम आण्णुं छे. यतः - " नहि, नामानाभोगः छचमस्थस्येह कस्पचिन्नास्ति । ज्ञानावरणीयं हि ज्ञानावरण कृति कर्म्म ||१||" इत्यादि. आ विषयमा उपरोक्त निर्विचारक शिरोमणी व्यक्तिए श्रीमद् राजचंद्रनामना पुस्तकना पृष्ठ ५२० ना वीजा फकरामां नीचे मुजव लखेल छे.