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महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत. ___ व्याख्या-अहीयां शुद्ध द्रव्य नय ते शुद्धाशुद्ध प्रकृतिव्यवहाररूप लेवी. अथवा नैगम अति शुद्ध द्रव्यार्थिक प्रकृति संग्रह नय छे ते तो सर्व आत्माने धर्मस्वरूप माने छे. पूजा दयाजनित धर्म कहेतो नयी, एनयांतर वादीए विचारवं. ऋजुसूत्र नयने मते यावत् काल शुद्ध उपयोग स्वभाव, तावत् काल धर्म. यावत् काल शुभाशुभ विभाव परिणाम, तावत् काल पुन्य पाप. ते नय अनुसरी जिनपूजादिक धर्म हेतु जाणी व्यवहारे धर्म कहीए. जेह माहे योग्यतापादक निजखभाव परिणाम आवे छे. ते माटे कारण कार्योपचारे करीए. ॥१०९॥
शुभयोगे द्रव्याश्रव थाय, निज परिणामेन धर्म हणाय । यावत् योग क्रिया नहीं थली, तावत् जीवछे योगारंभी ॥ ११० ॥
व्याख्या-श्री जिनदेवनी पूजादिक मांहे यद्यपि शुभयोगे द्रव्याश्रव थाय छे, तोपण निज के० पोताना परिणामे धर्म हणाय नहीं. यावत् के. ज्यहां लगे योगक्रिया थंभी नयी, तावत् के त्यां लगे जीव योगारंभी कह्यो छे. ज्यां लगी ए जयी विजयी त्यां लगे ते भणी अंतक्रिया निषेधी छे. ॥ ११ ॥
मलिनारंन करेजे किरिया, असदारंन तजीने तरिया। विषय कपायादिकने त्यागे, धर्म मति रहिए शुभ मागे ॥ १११ ।।
व्याख्या-श्रावकतो मलिनारंभी छे. जे जे दान देवपूजादिक धर्मक्रिया करे छे ते असदारंभ छांडीने संसार समुद्रने तरे छे. ते भाव तो पूजामांहे अविहड छे. विषय कषायादिक प्रमुखनो साग थाय ते रीते धर्मबुद्धिए शुभ मार्गमांहे रहिए. ए उपदेश छे ते जाणवो. ॥ १११ ॥ स्वर्ग हेतु जो पुण्य कहीजे, तो सराग संयम पण लहीजे । बहुरागे जे जिनवर पूजे, तस मुनिनी परे पातक धूजे ॥ ११२ ॥ ___ व्याख्या-वर्ग, कारण ते माटे जो द्रव्यस्तव पुण्य कहीए वो सराग संयम पण केम लेइए ? ते पण स्वर्गर्नु कारण छे. बहुरागे के० घणीए भक्तिए करीने श्री जिनवरने जे पूजे वेहनां पातक मुनि के० सराग संयम तेहनी पेरे धूजे के० कंपे. ॥ ११२ ।।
नावस्तव एहथी पामीजे, द्रव्यस्तव ए तेणे कहीजे॥ द्रव्य शब्द छे कारण वाची, भमे म भुलो कर्म निकाची ॥ ११३ ।।
व्याख्या-कोइ कहेशे के, द्रव्यस्तव कहेता अप्रधानस्तव थाय. ते शंका टाळे छे. एर पूजादिकथी भाषस्तव के० चारित्र पामे. ते कारणे द्रव्यस्तव के द्रव्य शब्द अहीयां , कारण घाची छे, अमधान वाची नयी. माटे कर्म निकाचीतें भूलो ममीश मां.