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श्री यश महामहोपाध्याय विजयजी कृत.
अर्थे, उवदिसह के० देखाडे छे. इति. अहीयां कोइ पूछे जे “ए कलाप्रमुख, प्रभुजी केम देखा ?" तेनो उत्तर कहीए छैए. ए कलाममुख उपाये करी सुखे आजीविका निर्वाह थाय. तेवारे चोरीप्रमुख व्यसन पण न सेवे. ते सांभली शिष्य बोल्यो के " वहु सारं. ए हेतु वलादिक देखाबुं थाओ; पण राज्य मवर्त्ता केम घटे ? " गुरु कहेछे. उत्तमना उपकारने अथे, दुष्टना निग्रहने अर्थे तथा धर्मस्थिति ग्रहेवाने अर्थे ते राज्यस्थितिए रुडी री प्रवर्त्ततां अनुक्रमे महापुरुषने उपदेशे चोरी प्रमुख व्यसन निवर्ते, तेथी नारकी प्रमुखनी गति निवर्ते, आ भव परभवनां सुख साधवा समर्थ माटे राज्यस्थिति प्रशस्त तथा महापुरुषनी प्रवृत्ति ते सघले परउपकारी होय. वहु गुण अल्प दोष कार्य कारण विचारणा पूर्वकज होय. वली ठाणांगना पंचमाध्ययने पण कं छे- “ धम्मेणं चरमाणस्स पंचनिस्साठाणा पत्ता तंजहा छक्काया १, गणो २, राया ३, गाहावई ४, सरीरं ५, इत्यादि." एमां एम कहुँ जे धर्म आचरतां पंच निश्रा स्थानक छे. तेहमां : राजानी निश्राए धर्म पाली शके. टीकामां कह्युं छे के, राजा छे ते धर्मने सहायकारी छे.. दुष्ट थकी साधुनी रक्षा करे, एम कहुं छे. बली परम करुणावंत, परमधर्मना प्रवर्त्तावनारा अने त्रण ज्ञानना धणी - तेणे राज्यधर्म प्रवर्त्तान्यो तेमां कांइ अनुचित नथी. युक्ति ए घटती बात छे. तेहनो विस्तार जिनभवन पंचाशकनी सूत्रवृत्तिमां यतना द्वारे व्यक्तपणे देखाड्यो छे. त्यांथी जाणवो. अहींयां ग्रंथ गौरवना भय थकी लखता नथी. एणे करीने ॥ ' राज्यं हि नरकांत स्यादिराजा न धार्मिकः ॥' एह उक्ति पण दृढ थइ तथा वली त्रीजा आराने छेडे राज्यस्थिति उपन्ये थके धर्मस्थितिनो उत्पाद थयो. अने पांचमा आराने छेडे श्रुत, आचार्य, संघने धर्म - पूर्वान् विच्छेद जाशे. तथा विमलवाहनराजा, मंत्री, न्यायमार्ग मध्यान्हे विच्छेद जाशे, अनि संध्याये विच्छेद जाशे. यतः - " सुअसूरि संघधम्मो पुव्वण्हे छिज्जही अगणि सायं । निवविमलवाहणा सहुममंती तद्धम्म मज्झहे ॥ १ ॥ " ए लेखे धर्मस्थिति विच्छेद भयो पछी राज्यस्थिति विच्छेद थयो. तेचारे राज्यस्थिति ते धर्म स्थितिनो हेतु छे; एम उर्युज. ते माटे प्रभुजीने राज्यस्थिति स्थापना कांइ अनुचित नथी. ॥ १६ ॥
हवे अहीयां वली कोइ पर बोल्यो के “मुनि होय. ते पूजा प्रमुख हिंसानो उपदेश केम करे ?" ते उपर ॥ सुनि उपदेश दिए । एम सूत्र साखे देखाडे छे.
यतनाए सूत्रे कां मुनिने ॥ आर्य करम उपदेश |
परिणामिक बुद्धि विस्तारे | समजे श्राद्ध अशेष ॥ सु० ॥ १७ ॥
अर्थ - यतनाए के० सुनिने सूत्रने विषे अर्थात् उत्तराध्ययन सूत्रने विषे कहाँ छे, एटले मुनि आर्यकर्मनो उपदेश दीए. इति भाव. पछी श्राद्ध परिणामिक बुद्धिए करी विस्तारे अशेष समजे. इत्यन्वय श्राद्ध के० श्रावक, परिणामिक बुद्धि के० बुद्धि परिणमी जाए एवी बुद्धिए करीने विस्तारे. अशेष समजे के० सर्व समजी जाय ते
सूत्र पाठे
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